कविता संग्रह >> नीरजा नीरजामहादेवी वर्मा
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महादेवी वर्मा जी का खण्ड काव्य...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
महादेवी वर्मा की हिन्दी काव्य-यात्रा में परिपक्वता की दृष्टि से ‘नीरजा’ का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
‘नीरजा’ में बिलकुल परिपक्व भाषा में एक समर्थ कवि बड़े अधिकार के साथ और बड़े सहज भाव से अपनी बात कहता है।
महादेवी जी के अनुसार ‘नीरजा’ में जाकर गीति का तत्त्व आ गया मुझमें और मैंने मानों दिशा भी पा ली है।’’
जिनके
मधुर कंठ से निकलते हुए मीरा के पद
प्रभाती और लोरी के समान
बचपन में
मुझे जगाते-सुलाते रहें हैं
उन्हीं जननी को
गीतों की अकिंचन
भेंट
‘नीरजा’ में बिलकुल परिपक्व भाषा में एक समर्थ कवि बड़े अधिकार के साथ और बड़े सहज भाव से अपनी बात कहता है।
महादेवी जी के अनुसार ‘नीरजा’ में जाकर गीति का तत्त्व आ गया मुझमें और मैंने मानों दिशा भी पा ली है।’’
जिनके
मधुर कंठ से निकलते हुए मीरा के पद
प्रभाती और लोरी के समान
बचपन में
मुझे जगाते-सुलाते रहें हैं
उन्हीं जननी को
गीतों की अकिंचन
भेंट
वक्तव्य
खड़ी बोली का प्रचार हुए अभी बहुत दिन नहीं हुए; मुश्किल से 20-25 वर्ष बीते होंगे। इस अल्प अवधि में ही हिन्दी-कविता ने जो उन्नति की है, हमारे साहित्य के लिए परम हर्ष का विषय है। बीसवीं शताबदी के अर्द्धांश के पूर्व वर्तमान हिन्दी-कविता ने प्रगति के पथ पर अपना जो नूतन प्रथम चरण बढ़ाया है उसकी सफलता को देखते हुए हमें पूर्ण आशा होती है कि यह काल हमारे साहित्य के भावी इतिहास में बड़े गौरव की दृष्टि से देखा जाएगा।
श्रीमती महादेवी वर्मा का स्थान हिन्दी की आधुनिक कवयित्रियों में बहुत ऊँचा है; इतना ही नहीं, वे हिन्दी के उन प्रमुख कवियों में से हैं, जिनकी प्रतिभा से हमारे साहित्य के एक ऐसे युग का निमार्ण हो रहा है, जो आज के ही नहीं, भविष्य के सहृदयों को भी आप्यायित करता रहेगा। उन कवियों की पक्ति में श्रीमती महादेवी का एक निश्चित स्थान है।
श्रीमती वर्मा हिन्दी-कविता के इस वर्तमान युग की वेदना-प्रधान कवयित्री है। उनकी काव्य-वेदना आध्यात्मिक है। उसमें आत्मा का परमात्मा के प्रति आकुल प्रणय-निवेदन है। कवि की आत्मा, मानो विश्व में बिछुड़ी हुई प्रेयसी की भाँति अपने प्रियतम का स्मरण करती है। उसकी दृष्टि से विश्व की सम्पूर्ण प्राकृतिक शोभा-सुषमा एक अनन्त अलौकिक चिरसुन्दर की छायामात्र है। इस प्रतिबिम्ब जगत् को देखकर कवि का हृदय उसके सलोने बिम्ब के लिए ललक उठा है। मीरा ने जिस प्रकार उस परमपुरुष की उपासना सगुण रूप में की थी, उसी प्रकार महादेवीजी ने अपनी भावनाओं में उसकी आराधना निर्गुण रूप में की है। उसी एक का स्मरण, चिन्तन एवं उसके तादात्म्य होने की उत्कंठा महादेवीजी की कविताओं में उपादान है। उनकी ‘नीहार’ में हम उपासना-भाव का परिचय विशेष रूप से पाते है। ‘रश्मि’ में इस भाव के साथ ही हमें उनके उपास्य का दार्शनिक ‘दर्शन’ भी मिलता है।
प्रस्तुत गीत-काव्य ‘नीरजा’ में ‘निहार’ का उपासना-भाव और भी सुस्पष्टता और तन्मयता से जाग्रत हो उठा है। इसमें अपने उपास्य के लिए केवल आत्मा की करुण अधीरता ही नहीं, अपितु हृदय की विह्लल प्रसन्नता भी मिश्रित है। ‘नीरजा’ यदि अश्रुमुख वेदना के कणों से भीगी हुई है, तो साथ ही आत्मानन्द के मधु से मधुर भी है। मानो, कवि की वेदना, कवि की करुणा, अपने उपास्य के चरण–स्पर्श से पूत होकर आकाश-गंगा की भाँति इस छायामय जग को सींचने में ही अपनी सार्थकता समझ रही है।
‘नीरजा’ के गीतों में संगीत का बहुत सुन्दर प्रवाह है। हृदय के अमूर्त भावों को भी, नव–नव उपमाओं एवं रूपकों द्वारा कवि ने बड़ी मधुरता से एक-एक सजीव स्वरूप प्रदान कर दिया है। भाषा सुन्दर, कोमल, मधुर और सुस्निग्ध है। इसके अनेक गीत अपनी मार्मिकता के कारण सहज ही हृदयंगम हो जाते हैं।
श्रीमती वर्मा की काव्यशैली में अब तक अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। और यह परिवर्तन ही उनके विकास का सूचक है। अपने प्रारम्भिक कवि-जीवन में महादेवी जी ने सामाजिक और राष्ट्रीय कविताएँ भी लिखी थी; परन्तु उनकी प्रतिभा वहीं तक सीमित नहीं रही। फलतः ‘नीरजा’ और ‘रश्मि’ द्वारा ही वे अपने व्यापक कवि-रूप में हिन्दी–संसार में प्रतिष्ठित हुईं। अब इस ‘नीरजा’ में उनकी प्रतिभा और भी भव्यरूप में प्रफुल्ल हुई है। इसमें भाषा, भाव और शैली सभी दृष्टियों से उनकी प्रतिभा का उत्कृष्ट विकास हुआ है। हमें पूर्ण आशा है कि उनकी यह नूतन कलाकृति उनके पथ को हमारे साहित्य में और भी समुज्ज्वल कर देगी और साहित्य-रसिकों के अपार प्रेम की वस्तु बनेगी।
श्रीमती महादेवी वर्मा का स्थान हिन्दी की आधुनिक कवयित्रियों में बहुत ऊँचा है; इतना ही नहीं, वे हिन्दी के उन प्रमुख कवियों में से हैं, जिनकी प्रतिभा से हमारे साहित्य के एक ऐसे युग का निमार्ण हो रहा है, जो आज के ही नहीं, भविष्य के सहृदयों को भी आप्यायित करता रहेगा। उन कवियों की पक्ति में श्रीमती महादेवी का एक निश्चित स्थान है।
श्रीमती वर्मा हिन्दी-कविता के इस वर्तमान युग की वेदना-प्रधान कवयित्री है। उनकी काव्य-वेदना आध्यात्मिक है। उसमें आत्मा का परमात्मा के प्रति आकुल प्रणय-निवेदन है। कवि की आत्मा, मानो विश्व में बिछुड़ी हुई प्रेयसी की भाँति अपने प्रियतम का स्मरण करती है। उसकी दृष्टि से विश्व की सम्पूर्ण प्राकृतिक शोभा-सुषमा एक अनन्त अलौकिक चिरसुन्दर की छायामात्र है। इस प्रतिबिम्ब जगत् को देखकर कवि का हृदय उसके सलोने बिम्ब के लिए ललक उठा है। मीरा ने जिस प्रकार उस परमपुरुष की उपासना सगुण रूप में की थी, उसी प्रकार महादेवीजी ने अपनी भावनाओं में उसकी आराधना निर्गुण रूप में की है। उसी एक का स्मरण, चिन्तन एवं उसके तादात्म्य होने की उत्कंठा महादेवीजी की कविताओं में उपादान है। उनकी ‘नीहार’ में हम उपासना-भाव का परिचय विशेष रूप से पाते है। ‘रश्मि’ में इस भाव के साथ ही हमें उनके उपास्य का दार्शनिक ‘दर्शन’ भी मिलता है।
प्रस्तुत गीत-काव्य ‘नीरजा’ में ‘निहार’ का उपासना-भाव और भी सुस्पष्टता और तन्मयता से जाग्रत हो उठा है। इसमें अपने उपास्य के लिए केवल आत्मा की करुण अधीरता ही नहीं, अपितु हृदय की विह्लल प्रसन्नता भी मिश्रित है। ‘नीरजा’ यदि अश्रुमुख वेदना के कणों से भीगी हुई है, तो साथ ही आत्मानन्द के मधु से मधुर भी है। मानो, कवि की वेदना, कवि की करुणा, अपने उपास्य के चरण–स्पर्श से पूत होकर आकाश-गंगा की भाँति इस छायामय जग को सींचने में ही अपनी सार्थकता समझ रही है।
‘नीरजा’ के गीतों में संगीत का बहुत सुन्दर प्रवाह है। हृदय के अमूर्त भावों को भी, नव–नव उपमाओं एवं रूपकों द्वारा कवि ने बड़ी मधुरता से एक-एक सजीव स्वरूप प्रदान कर दिया है। भाषा सुन्दर, कोमल, मधुर और सुस्निग्ध है। इसके अनेक गीत अपनी मार्मिकता के कारण सहज ही हृदयंगम हो जाते हैं।
श्रीमती वर्मा की काव्यशैली में अब तक अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। और यह परिवर्तन ही उनके विकास का सूचक है। अपने प्रारम्भिक कवि-जीवन में महादेवी जी ने सामाजिक और राष्ट्रीय कविताएँ भी लिखी थी; परन्तु उनकी प्रतिभा वहीं तक सीमित नहीं रही। फलतः ‘नीरजा’ और ‘रश्मि’ द्वारा ही वे अपने व्यापक कवि-रूप में हिन्दी–संसार में प्रतिष्ठित हुईं। अब इस ‘नीरजा’ में उनकी प्रतिभा और भी भव्यरूप में प्रफुल्ल हुई है। इसमें भाषा, भाव और शैली सभी दृष्टियों से उनकी प्रतिभा का उत्कृष्ट विकास हुआ है। हमें पूर्ण आशा है कि उनकी यह नूतन कलाकृति उनके पथ को हमारे साहित्य में और भी समुज्ज्वल कर देगी और साहित्य-रसिकों के अपार प्रेम की वस्तु बनेगी।
प्रिय इन नयनों का अश्रु-नीर !
दुख से आविल सुख से पंकिल,
बुदबुद् से स्वप्नों से फेनिल,
बहता है युग-युग अधीर !
जीवन-पथ का दुर्गमतम तल
अपनी गति से कर सजग सरल,
शीतल करता युग तृषित तीर !
इसमें उपजा यह नीरज सित,
कोमल कोमल लज्जित मीलित;
सौरभ सी लेकर मधुर पीर !
इसमें न पंक का चिह्न शेष,
इसमें न ठहरता सलिल-लेश,
इसको न जगाती मधुप-भोर !
तेरे करुणा-कण से विलसित,
हो तेरी चितवन में विकसित,
छू तेरी श्वासों का समीर !
: : : : : : : : : :
धीरे-धीरे उतर क्षितिज से
आ वसन्ती-रजनी।
तारकमय नव वेणीबन्धन
शीश-फूल कर शशि का नूतन,
रश्मि-वलय सित घन-अवगुण्ठन,
मुक्ताहल अभिराम बिछा दे
चितवन से अपनी।
पुलकती आ वसन्त-रजनी।
मर्मर की सुमधुर नूपुर-ध्वनि,
अलि-गुंजित पद्मों की किंकिणि,
भर पद-गति में अलस तरंगिणि,
तरल रजत की धार बहा दे
मृदु स्मित से सजनी।
विहँसती आ वसन्त-रजनी।
पुलकित स्वप्नों की रोमावलि,
कर में हो स्मृतियों की अंजलि,
मलयानिल का चल दुकूल अलि।
घिर छाया-सी श्याम, विश्व को
आ अभिसार बनी।
सकुचती आ वसन्त-रजनी।
सिरह सिरह उठता सरिता-उर,
खुल खुल पड़ते सुमन सुधा-भर,
मचल आते पल फिर फिर,
सुन प्रिय की पद-चाप हो गयी
पुलकित यह अवनी।
सिरहती आ वसन्त-रजनी।
: : : : : : : : : :
पुलक पुलक उर, सिहर सिहर तन,
आज नयन आते क्यों भर-भर।
सकुच सलज खिलती शेफाली;
अलस मौलश्री डाली डाली;
बुनते नव प्रवाल कुजों में,
रजत श्याम तारों से जाली;
शिथिल मधु-पवन गिन-गिन मधु-कण,
हरसिंगार झरते हैं झर झर।
आज नयन आते क्यों भर भर ?
पिक की मधुमय वंशी बोली,
नाच उठी सुन अलिनी भोली;
अरुण सजग पाटल बरसाता,
तम पर मृदु पराग की रोली;
मृदुल अंक धर, दर्पण सा सर,
आज रही निशि दृग-इन्दीवर !
आज नयन आते क्यों भर भर ?
आँसू बन बन तारक आते,
सुमन हृदय में सेज बिछाते;
कम्पित वानीरों के बन भी,
रह रह करुण विहाग सुनाते,
निद्रा उन्मन, कर कर विचरण,
लौट रही सपने संचित कर !
आज नयन आते क्यों भर भर ?
जीवन-जल-कण से निर्मित सा,
चाह-इन्द्रधनु से चित्रित सा,
सजल मेघ सा धूमिल है जग,
चिर नूतन सकरुण पुलकित सा;
तुम विद्युत् बन, आओ पाहुन !
मेरी पलकों में पग धर धर !
आज नयन आते क्यों भर भर ?
: : : : : : : : : : :
तुम्हें बाँध पाती सपने में !
तो चिरजीवन-प्यास बुझा
लेती उस छोटे क्षण अपने में !
पावस-घन सी उमड़ बिखरती,
शरद-दिशा सी नीरव घिरती,
धो लेती जग का विषाद
ढुलते लघु आँसू-कण अपने में !
मधुर राग बन विश्व सुलाती
सौरभ बन कण कण बस जाती,
भरती मैं संसृति का क्रन्दन
हँस जर्जर जीवन अपने में !
सब की सीमा बन सागर सी,
हो असीम आलोक-लहर सी,
तारोंमय आकाश छिपा
रखती चंचल तारक अपने में !
शाप मुझे बन जाता वर सा,
पतझर मधु का मास अजर सा,
रचती कितने स्वर्ग एक
लघु प्राणों के स्पन्दन अपने में !
साँसे कहतीं अमर कहानी,
पल-पल बनता अमिट निशानी,
प्रिय ! मैं लेती बाँध मुक्ति
सौ सौ, लघुपत बन्धन अपने में।
तुम्हें बाँध पाती सपने में !
आज क्यों तेरी वीणा मौन ?
शिथिल शिथिल तन थकित हुए कर,
स्पन्दन भी भूला जाता उर,
मधुर कसक सा आज हृदय में
आन समाया कौन ?
आज क्यों तेरी वीणा मौन ?
झुकती आती पलकें निश्चल,
चित्रित निद्रित से तारक चल;
सोता पारावार दृगों में
भर भर लाया कौन ?
आज क्यों तेरी वीणा मौन ?
बाहर घन-तम; भीतर दुख-तम,
नभ में विद्युत तुझ में प्रियतम,
जीवन पावस-रात बनाने
सुधि बन छाया कौन ?
आज क्यों तेरी वीणा मौन ?
: : : : : : : : : :
श्रृंगार कर ले री सजनि !
नव क्षीरनिधि की उर्म्मियों से
रजत झीने मेघ सित,
मृदु फेनमय मुक्तावली से
तैरते तारक अमित;
सखि ! सिहर उठती रश्मियों का
पहिन अवगुण्ठन अवनि !
हिम-स्नात कलियों पर जलाये
जुगनुओं ने दीप से;
ले मधु-पराग समीर ने
वनपथ दिये हैं लीप से;
गाती कमल के कक्ष में
मधु-गीत मतवाली अलिनी !
तू स्वप्न-सुमनों से सजा तन
विरह का उपहास ले;
अगणित युगों की प्यास का
अब नयन अंजन सार ले ?
अलि ! मिलन-गीत बने मनोरम
नूपुरों की मदिर ध्वनि !
दुख से आविल सुख से पंकिल,
बुदबुद् से स्वप्नों से फेनिल,
बहता है युग-युग अधीर !
जीवन-पथ का दुर्गमतम तल
अपनी गति से कर सजग सरल,
शीतल करता युग तृषित तीर !
इसमें उपजा यह नीरज सित,
कोमल कोमल लज्जित मीलित;
सौरभ सी लेकर मधुर पीर !
इसमें न पंक का चिह्न शेष,
इसमें न ठहरता सलिल-लेश,
इसको न जगाती मधुप-भोर !
तेरे करुणा-कण से विलसित,
हो तेरी चितवन में विकसित,
छू तेरी श्वासों का समीर !
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धीरे-धीरे उतर क्षितिज से
आ वसन्ती-रजनी।
तारकमय नव वेणीबन्धन
शीश-फूल कर शशि का नूतन,
रश्मि-वलय सित घन-अवगुण्ठन,
मुक्ताहल अभिराम बिछा दे
चितवन से अपनी।
पुलकती आ वसन्त-रजनी।
मर्मर की सुमधुर नूपुर-ध्वनि,
अलि-गुंजित पद्मों की किंकिणि,
भर पद-गति में अलस तरंगिणि,
तरल रजत की धार बहा दे
मृदु स्मित से सजनी।
विहँसती आ वसन्त-रजनी।
पुलकित स्वप्नों की रोमावलि,
कर में हो स्मृतियों की अंजलि,
मलयानिल का चल दुकूल अलि।
घिर छाया-सी श्याम, विश्व को
आ अभिसार बनी।
सकुचती आ वसन्त-रजनी।
सिरह सिरह उठता सरिता-उर,
खुल खुल पड़ते सुमन सुधा-भर,
मचल आते पल फिर फिर,
सुन प्रिय की पद-चाप हो गयी
पुलकित यह अवनी।
सिरहती आ वसन्त-रजनी।
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पुलक पुलक उर, सिहर सिहर तन,
आज नयन आते क्यों भर-भर।
सकुच सलज खिलती शेफाली;
अलस मौलश्री डाली डाली;
बुनते नव प्रवाल कुजों में,
रजत श्याम तारों से जाली;
शिथिल मधु-पवन गिन-गिन मधु-कण,
हरसिंगार झरते हैं झर झर।
आज नयन आते क्यों भर भर ?
पिक की मधुमय वंशी बोली,
नाच उठी सुन अलिनी भोली;
अरुण सजग पाटल बरसाता,
तम पर मृदु पराग की रोली;
मृदुल अंक धर, दर्पण सा सर,
आज रही निशि दृग-इन्दीवर !
आज नयन आते क्यों भर भर ?
आँसू बन बन तारक आते,
सुमन हृदय में सेज बिछाते;
कम्पित वानीरों के बन भी,
रह रह करुण विहाग सुनाते,
निद्रा उन्मन, कर कर विचरण,
लौट रही सपने संचित कर !
आज नयन आते क्यों भर भर ?
जीवन-जल-कण से निर्मित सा,
चाह-इन्द्रधनु से चित्रित सा,
सजल मेघ सा धूमिल है जग,
चिर नूतन सकरुण पुलकित सा;
तुम विद्युत् बन, आओ पाहुन !
मेरी पलकों में पग धर धर !
आज नयन आते क्यों भर भर ?
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तुम्हें बाँध पाती सपने में !
तो चिरजीवन-प्यास बुझा
लेती उस छोटे क्षण अपने में !
पावस-घन सी उमड़ बिखरती,
शरद-दिशा सी नीरव घिरती,
धो लेती जग का विषाद
ढुलते लघु आँसू-कण अपने में !
मधुर राग बन विश्व सुलाती
सौरभ बन कण कण बस जाती,
भरती मैं संसृति का क्रन्दन
हँस जर्जर जीवन अपने में !
सब की सीमा बन सागर सी,
हो असीम आलोक-लहर सी,
तारोंमय आकाश छिपा
रखती चंचल तारक अपने में !
शाप मुझे बन जाता वर सा,
पतझर मधु का मास अजर सा,
रचती कितने स्वर्ग एक
लघु प्राणों के स्पन्दन अपने में !
साँसे कहतीं अमर कहानी,
पल-पल बनता अमिट निशानी,
प्रिय ! मैं लेती बाँध मुक्ति
सौ सौ, लघुपत बन्धन अपने में।
तुम्हें बाँध पाती सपने में !
आज क्यों तेरी वीणा मौन ?
शिथिल शिथिल तन थकित हुए कर,
स्पन्दन भी भूला जाता उर,
मधुर कसक सा आज हृदय में
आन समाया कौन ?
आज क्यों तेरी वीणा मौन ?
झुकती आती पलकें निश्चल,
चित्रित निद्रित से तारक चल;
सोता पारावार दृगों में
भर भर लाया कौन ?
आज क्यों तेरी वीणा मौन ?
बाहर घन-तम; भीतर दुख-तम,
नभ में विद्युत तुझ में प्रियतम,
जीवन पावस-रात बनाने
सुधि बन छाया कौन ?
आज क्यों तेरी वीणा मौन ?
: : : : : : : : : :
श्रृंगार कर ले री सजनि !
नव क्षीरनिधि की उर्म्मियों से
रजत झीने मेघ सित,
मृदु फेनमय मुक्तावली से
तैरते तारक अमित;
सखि ! सिहर उठती रश्मियों का
पहिन अवगुण्ठन अवनि !
हिम-स्नात कलियों पर जलाये
जुगनुओं ने दीप से;
ले मधु-पराग समीर ने
वनपथ दिये हैं लीप से;
गाती कमल के कक्ष में
मधु-गीत मतवाली अलिनी !
तू स्वप्न-सुमनों से सजा तन
विरह का उपहास ले;
अगणित युगों की प्यास का
अब नयन अंजन सार ले ?
अलि ! मिलन-गीत बने मनोरम
नूपुरों की मदिर ध्वनि !
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