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रामकुमार भ्रमर रचनावली - खण्ड ३

रामकुमार भ्रमर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :363
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 96
आईएसबीएन :81-7016-132-0

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रामकुमार भ्रमर रचनावली एक बहुखण्डीय आयोजन है, जिसमें भ्रमरजी के बहुविध विधा-लेखन की उपलब्ध सभी रचनाओं के एकीकरण का प्रयास किया जा रहा है।

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Rachanavali - Part 3 - A hindi book by Ramkumar Bhramar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्रीकृष्ण और अर्जुन की एक साथ स्तुति करते हुए उन्हें ‘नरनारायण’ कहा गया है। सम्भवतः मनुष्य और ईश्वरत्व के परस्पर सम्बन्ध और पूर्णता के लिए इससे बढ़िया अभिव्यक्ति किसी शब्द में कभी नहीं हुई हैं। ‘महाभारत’ के सामान्य पठन-पाठन में वे परस्पर मित्र, सबंधी, हमउम्र हैं और एक जोड़े की तरह लगते हैं, किन्तु वस्तुसत्य में वे एक ऐसे सनातन संबंध से भी जुड़े हैं, जिनकी ओर सहसा ध्यान नहीं जाता। यह संबंध हैं- मनुष्य की जिज्ञासा और समाधान का। प्रश्न और उत्तर का। प्यास और जल का। जीवन, जगत, समाज, संस्कृति, धर्म, व्यवस्था, राजनीति, मूल्य, आत्मा और निधित्व करते हैं, जिसके कारण वह उत्तरोत्तर विकास करता रहा है तथा श्रीकृष्ण उनके हर प्रश्न का तार्किक समाधान करते हुए उस अनन्त ज्ञान भंडार की तरह है जो निस्सन्देह लौकिक नहीं हैं। वह कभी समाप्त नहीं होता, उसके दाता हाथों में किसी पल कमजोरी नहीं दीख पड़ती और उसकी बहुविध पूर्णता यह विश्वास दिला देती है कि मनुष्य से इतर और पास निस्सन्देह कोई ऐसी शक्ति है, जो जड़-चेतन को संचालित करती है। वह विज्ञान की परिधि से बाहर ज्ञान के असीम आकाश में अपना उपस्थिति बोध कराती है। जो उसे पाना चाहता है या समझने की तनिक-सी इच्छा रखता है, वह श्रद्धा के सहारे सिद्धिमार्ग पर उसे प्राप्त कर सकता है। अर्जुन उसके प्रतीक हैं।

अर्जुन पौरूष–पूर्ण हैं, पराकमी, तेजस्वी भी हैं, किन्तु उनकी विचार–शीलता से भरे व्यक्तित्व को श्रीकृष्ण के बिना पूर्णता नहीं मिल पाती। वह प्रतिपल श्रीकृष्ण के केवल अनुयायी नहीं, अनुगत हैं। इस श्रद्धा ने ही उन्हें सिद्धि दी है। यह समर्पण ही उनकी महाशक्ति है। यह निष्ठा ही उनका ईश्वर–बोध है। इस उपन्यास में मैंने प्रयत्न किया है कि अर्जुन का श्रीकृष्ण युक्त यह भाव व्यक्त हो सके। अर्जुन–के-जीवन में सांसारिक सुख-दुःख और पीड़ा के अनेक अवसर आए हैं, किन्तु ऐसे प्रत्येक अवसर पर उन्होंने अपने बिखराव को किस तरह समेटा है और समेटकर कैसे उसे चिन्तन की दिशा दी है- यह भी अनुगत में उभर सके- मेरा प्रयत्न रहा है।

रामुमार भ्रमर

अनुगत


शिविर के पिछले द्वार से बाहर निकले। सन्तुष्ट हुए। जहाँ तक दृष्टि गई, वहाँ तक सेना जन–समुद्र की तरह बिखरी हुई थी। आश्वस्त हुए। एक गहरा साँस लेकर धन-धान्य से सम्पन्न धरा के उस क्षेत्र को देखा।

सिन्धु क्षेत्र समृद्ध था। कृषि उन्नत और ज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियाँ भी बहुत सी। पवित्र सिन्धु नदी ने जहाँ धरती को सदा–सर्वदा के लिए यौवनमयी और स्फूर्ति-वान बना रखा था, वहीं क्षेत्र के राजाओं ने उसे समाज–व्यवस्था और अनुकूल राज-नियमों में सजाया–सँवारा था।

अर्जुन कुछ पल उसी तरह मुग्ध–भाव से चारों ओर देखते रहे। कुरूराज युधिष्ठिर का सन्देशा लेकर दूत सभी ओर जा चुके थे। यह सन्देशा था- अश्वमेध यज्ञ में आमन्त्रण। यज्ञ–अश्व एक तरह से भरत–खंड की सर्वाधिक शक्ति-सम्पन्न सत्ता की ओर से एक राजनायिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सम्बन्धों का सन्देश–प्रतीक था। इस संदेश के स्वीकार-अस्वीकार की अपनी राजनैतिक महत्ता थी।

अनुमान था कि सिन्धु क्षेत्र के अधिकतर राजा सहजता के साथ महाराज युधिष्ठिर का आमन्त्रण स्वीकार करेगें ! भोर के साथ ही क्रमशः दूत वापसी लेने वाले थे... सैनिक–पड़ाव के पास वाले राजाओं की ओर से रात ढहते-ढहते उत्तर मिल जाने थे।

अर्जुन मुड़े और अपने शिविर में लौट आए। सेवक ने पादुकाएँ उठाई। धनंजय ने स्वयं अस्त्र-शस्त्र यथास्थान रखे। एक अन्य सेवक आकर कवच खोलने लगा। तभी द्वारपाल उपस्थित हुआ,’’ प्रणाम कुन्ती नन्दन ! कुछ दूत उपस्थिति की आज्ञा चाहते हैं ?’’
‘‘भेजो, उन्हें।’’ धनंजय बोले, फिर आसन पर बैठ रहे। निश्चिन्त थे कि अधिकतर की ओर से शुभ–सन्देश ही मिलेगा। भला गांडीवधारी को इस भू-तल पर चुनौती कौन देगा ?

अनुमान गलत भी नहीं था अर्जुन का। युद्ध की वीभत्सतम संहार–लीला कुछ गिने–चुने योद्धाओं का इतिहास बन गई है- अर्जुन उनमें से एक। सहज था कि उन्हें चुनौती देना, अपरोक्ष रूप से मृत्यु को आमंन्त्रित करना होगा !

दूत सिर झुकाकर सामने आ खड़े हुए। क्रमशः सभी ने अभिवादन किया, फिर एक बोला, ‘‘शुभ समाचार नहीं है, महाराज!’’ अभी अगले शब्द पूरे कर सके, इसके पूर्व ही अविश्वसनीय आश्चर्य, किन्तु झुँझलाहट के साथ अर्जुन ने उन्हें देखा, यह क्या कहते हो दूत ?’’
दूत ने तेजस्वी पांडुपुत्र से दृष्टि नहीं मिलाई। सिर झुकाए हुए ही थरथराते शब्दों में निवेदन किया, ‘‘हाँ, देव ! अधिकतर क्षेत्रीय राजा यज्ञ में सम्मिलित होने को तैयार नहीं हैं।’’

अर्जुन के जबड़े कस गए। कवच आधा खुल चुका था। उत्तेजनावश उसी स्थिति में खड़े हो गए। कुछ तीखे, जलते स्वर में प्रश्न किया, ‘‘और तुम क्या कहते हो दूत !’’
वह अन्य की ओर देख रहे थे। उन्होंने चेहरे उठाए तो लगा था कि पहले दूत का कवच ही उन सबके माथे पर अंकित है। उनमें से एक बोल पड़ा था, ‘‘हम सभी को लगभग एक ही उत्तर मिला है, गांडीवधारी ! सिन्धु प्रदेश के सभी राजा इस तरह बोले हैं, जैसे एकमत उत्तर दे रहे हों।
जितने कोधित हुए थे अर्जुन, उससे कहीं अधिक चकित हुए। लगा था कि उन राजाओं ने अपरोक्ष रूप से महाराज युधिष्ठिर के आमन्त्रण को नहीं, अर्जुन को चुनौती दे डाली है। उन अर्जुन को, जिनके गांडीव की टंकार ने कुरूक्षेत्र के युद्ध में अनेक जन-क्षेत्र जन-शून्य ही नहीं कर डाले थे, बल्कि उस पृथ्वी की जीवन–शक्ति को ही सोख लिया था।

ऐसे अर्जुन के लिए अब भी चुनौतियाँ शेष हैं ? आश्चर्य !
विश्वास करने का मन नहीं होता- पर सत्य ?
सत्य सामने था- प्रकट सत्य ! तेज तिलमिला देने वाले थप्पड़ जैसे सत्य। सिन्धु प्रदेश के राजाओं का उत्तर ! पूछा था, ‘‘दूत, तुमने राजाओं को परिणाम की कल्पना दी है ना ?’’
‘‘हाँ, राजन् ! हमने बतला दिया था कि इस उत्तर को महाप्रतापी कुन्ती सुत कभी नहीं सह सकेगें !’’ दूत ने बतलाया, ‘‘यह भी कह दिया था कि सिन्धु-क्षेत्र जन-शून्य हो जाएगा। कुरूराज युधिष्ठिर भरत खण्ड के सर्वाधिक शक्ति–सम्पन्न और श्रेष्ठ राजा हैं, किन्तु.....।’’
‘‘बोलो, दूत ! किन्तु क्या ?’’ अर्जुन ने स्वर को संयत रखा। अब तक उत्तेजना पर काफी कुछ वश कर लिया था उन्होंने।
‘‘किन्तु वे एकमत ही नहीं, सम्भवतः संगठित भी हैं देव!’’ दूत ने विनम्रता से कहा, शीश पुनः झुका दिया।
‘‘हूँ ऽऽऽ।’’ अर्जुन गुर्राए, फिर उन्हें बाहर जाने की स्वीकृति दी। दूत ने जाते-जाते उत्तर दिया था, ‘‘एक राजा ने स्वयं आपसे भेंट का निर्णय लिया है, महाराज ! सम्भवतः वह प्रातः उपस्थित होगा।’’
अर्जुन ने कुछ नहीं कहा। स्पष्ट था कि अधिक बात नहीं करना चाहते। दूत प्रणाम करके बाहर निकल गए।
सेवक पुनः अधखुले कवच खोलने लगा था ! अर्जुन शिलावत् बैठे रहे।
रहा था। क्या सच ही भू-खंड पर अभी इतना साहस शेष है जो गांडीवधारी को चुनौती दे सके ?
लगा था कि साहस नहीं होगा वह, दुस्साहस होगा। सिन्धु–प्रदेश के राजाओं से जो उत्तर मिला था, उसके कारण कुछ पल पूर्व वह उत्तेजित भी हुए थे, क्रोधित भी, किन्तु अब लग रहा था, उत्तेजना और क्रोध व्यर्थ हैं ! अर्थपूर्ण है केवल विचार ! अपने आप से ही पूछने लगे थे, ‘‘वह कौन सी शक्ति है, जो अर्जुन की अद्भुत रण-कुशलता, पराक्रम, सामर्थ्य और शक्ति के होते हुए भी उन्हें उन छोटे-छोटे राजाओं से चुनौती दिलवा रही है?’’
समझ में नहीं आ रहा था।
बहुत तरह सोचा। बहुत तरह अपने मन से प्रश्न किए। बहुत-से प्रश्न।
‘‘क्या वे अर्जुन से श्रेष्ठ योद्धा हैं?’’
लगा था कि नहीं।
‘‘क्या उनका संगठन अर्जुन की पराजय बन सकता है?’’
यह भी असम्भव !
और क्या वे सब दुर्बुद्धि हो सकते हैं ? परिणाम जानते हुए भी उद्दंड़ता बरत सकते हैं ?
निश्चय ही नहीं। कोई एक होता, तब यह सम्भव था, किन्तु वे अनेक थे और सब एकमत थे !
तब ? तब कौन सी चीज है जो अर्जुन को यह उत्तर भिजवा रही है ?
नहीं मिला था उत्तर ?
किन्तु उत्तर माँगेंगे अवश्य। जानना होगा अर्जुन को। जन-विनाशक महायुद्ध में अर्जुन की असामान्य शक्ति, सामर्थ्य और क्षमताओं से दूर-दूरन्त दिशाओं के धरती-आकाश परिचित हो चुके हैं, तब वह क्या है, जो वैसी चुनौती दिलवा रहा है ?

उत्तर निस्सन्देह उस, राजा से मिलना था, जो प्रातः उनसे भेंट करने वाला था।
कौन है वह ? क्या नाम है उनका ?
दूत ने नाम नहीं बतलाया था। सिन्धु क्षेत्र में अनेक छुटपुट राजा थे। महाराजा जयद्रथ ने सभी को अधीन कर रखा था या यह कि जयद्रथ की शक्ति ने सभी को विपत्तिहीनता का राज्याश्रय दे दिया था। वह सभी से श्रेष्ठ, सिन्धुराज कहलाते थे।
जयद्रथ का स्मरण करते ही हलका–सा झटका फिर से लगा था अर्जुन को। मन मे नया प्रश्न कर दिया। प्रश्न नहीं, निश्चित आशंका जनमी। एक आवाज उन्होंने अपने ही भीतर अनुभव की थी, ‘‘निस्सन्देह जयद्रथ–सुत सुरथ के अधीन वे राजा एक स्वर, एकमत होकर अर्जुन को चुनौती दे रहे होंगे ?’’

‘‘आश्चर्य !’’ बुदबुदाए कुन्तीपुत्र, ‘‘निस्सन्देह आश्चर्य ! क्या बालक सुरथ और उसके अधीनस्थ छुटपुट राजा जानते नहीं कि महावीर अर्जुन के बाण ने उद्ददण्ड जयद्रथ का शीश थुद्धस्थल से बहुत दूर उछाल दिया था। तब यह मूर्खतापूर्ण दुस्साहस क्यों ?’’
एक बार पुनः उत्तरहीन हो उठे थे कुन्तीपुत्र ! मन ने फिर से संकेत कर दिया था-‘‘उत्तर अभी नहीं मिल सकेगा, पांडुपुत्र ! भोर की प्रतीक्षा करनी होगी ऐसे हर अँधेरे प्रश्न का उत्तर केवल भोर ही हो सकता है !’’
अर्जुन ने पलकें मूँद ली थीं। आसन पर लेट रहे। सेवक कक्ष से बाहर चले गए।
पलकें मूँद लेने के बावजूद अर्जुन शांत नहीं हो सके। रह-रहकर सिन्धु देश के राजाओं का उत्तर उनके पौरूष, पराक्रम और शक्ति को कुरेद रहा था। लगता था कि हर कुरेदन पर एक हलकी–सी टीस उठती है अर्जुन के मन में। इस टीस मे एक आहत भाव ! सब जान-मान चुके हैं कि महावीर अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर और योद्धा इस पृथ्वी पर नहीं हैं, फिर भी चुनौती ?
रात बहुत देर में नींद लगी थी-सुबह के साथ ही पुनः अशान्त हो उठे। मन व्यग्र और व्यग्र होता जा रहा था। क्या कारण है ? एक छटपटाहट प्रश्न बनकर मन में बिखरी हुई।
सूर्योदय के तुरन्त बाद ही समाचार आ गया था- सिन्धु क्षेत्र के एक राजा पांडव–श्रेष्ठ से भेंट करना चाहते हैं !
आज्ञा दी, ‘‘उपस्थित हों !’’
बहुत छोटे-से जन-क्षेत्र का राजा था वह। अर्जुन की विशाल सेना की किसी छोटी टुकड़ी जैसी शक्ति का स्वामी, किन्तु अर्जुन ने यथोचित राज्य–सम्मान दिया महाराज युधिष्ठिर की ओर से कुरूराज शिष्टाचार निभाया। जब राजा ने आसन ग्रहण कर लिया तो मधुर शब्दों में अर्जुन ने प्रश्न किया, ‘‘हम आपका क्या शुभ कर सकते हैं राजन् !’’
राजा ने भी उत्तर में मीठी-मीठी बातें की। कहा, ‘‘सिन्धुराज सुरथ और उनके सभी अधीनस्थ क्षेत्रीय राजा आपकी श्रेष्ठता और गुणों का सम्मान करते हैं कुन्तीनंदन और निवेदन करते हैं कि महाराज युधिष्ठिर का यज्ञ सफल हो।’’
‘‘पर... पर राजन, आप सबके सम्मिलित हुए बिना वह यज्ञ कैसे सफल होगा ?’’ अर्जुन से चतुरता से नीति–वार्ता प्रारम्भ कर दी थी, ‘‘आपकी उपस्थिति से उस समारोह की महता भी बढ़ेगी, शोभा भी। मैं इसी दृष्टि से अश्वमेध यज्ञ का अश्व लेकर उपस्थित हुआ हूं। आप इस आमन्त्रण को स्वीकारें !’’
‘‘यह आमन्त्रण होता गांडीवधारी ! तब निश्चित ही सिन्धुराज सुरथ और हम सब उसे स्वीकार करते, किन्तु यह स्पष्टतः कुरू –राज्य की सत्ता के समक्ष हमारी सार्वभौमिकता की बलि है। खेद है हम इसी कारण चाहकर भी आपका यह आदेश स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।’’ राजा ने उत्तर दिया।
किरीटी मुसकराए। न चाहते हुए भी होंठों पर कटुता तिर आई। क्रोध की ललामी भी पुतलियों ने अनुभव की, किन्तु स्वर संयत रखा। पूछा, ‘‘परिणाम आप जानते हैं राजन् !’’

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