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गीता प्रेस, गोरखपुर >> प्रश्नोत्तरमणिमाला

प्रश्नोत्तरमणिमाला

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 946
आईएसबीएन :81-293-0180-6

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प्रश्नोत्तरमणिमाला... स्वामी रामसुखदासजी ने प्रश्न और उत्तर की श्रृंखला के द्वारा आध्यात्मिक ज्ञान को हम तक पहुँचाया है।

Prashnottarmanimala a hindi book by Swami Ramsukhadas - प्रश्नोत्तरमणिमाला - स्वामी रामसुखदास

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रश्न – जब धन प्रारब्ध के अनुसार ही मिलेगा तो फिर उद्योग क्यों करें ?
उत्तर – उद्योग करना हमारा कर्तव्य है- ऐसा मानकर करना चाहिये। मनुष्य को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। भगवान् की आज्ञा भी है- ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (गीता  2 । 47) कर्तव्य-कर्म करने में ही तेरा अधिकार है, फलों में कभी नहीं।’ अगर मनुष्य कर्तव्य-कर्म नहीं करेगा तो उसको दण्ड होगा। कर्तव्य-कर्म करने से तत्काल शान्ति मिलती है और न करने से तत्काल अशान्ति ।। 151।।

प्राक्कथन


कृष्णो रक्षतु नो जगत्त्रयगुरुः कृष्णं नमस्याम्यहं
कृष्णेनामरशत्रवो विनिहताः  कृष्णाय तस्मै नमः।  
कृष्णादेव समुत्थितं जगदिदं कृष्णस्य दासोस्म्यहं
कृष्णे तिष्ठति सर्वमेतदखिलं हे कृष्ण संरक्ष माम्।।

(मुकुन्दमालास्तोत्र)

प्रश्नोत्तरकी परम्परा सृष्टि के आरम्भसे ही चली आ रही हैं। सृष्टि के आदिकालमें जब ब्रह्माजी उत्पन्न हुए तो उनके भीतर भी सर्वप्रथम यह प्रश्न प्रस्फुटित हुआ-‘ एष योडसावहमब्जपृष्ठ एतत्कुतो वाब्जमनन्यदप्सु’ (श्रीमद्भा. 3 । 8 । 18) ‘इस कमलकी कर्णिकापर बैठा हुआ कौन हूँ ? यह कमल भी बिना किसी अन्य आधार के जल में कहाँ से उत्पन्न हो गया ?’ (‘मैं’ कौन हूँ और यह क्या है। इस सृष्टि का आदिप्रष्न कहें तो अत्युक्ति न होगी ! प्रबुद्ध जिज्ञासुओंके प्रश्नों के उत्तर में अबतक न जाने कितने ग्रन्थों की रचना हो चुकी है ! जगन्माता पार्वती के प्रश्न और आशुतोष भगवान् शंकर के उत्तर के फलरूप जगत्  में विविध लौकिक एवं  अलौकिक विधाओं का प्राकट्य हुआ है, विविध शास्त्रों की रचना हुईं है। शौनकादि ऋषियों के प्रश्न और सूतजी के उत्तर से अठारह पुराण बन गये ! केनोपनिषद् और प्रश्नोंपनिषद् इन दो उपनिषदों की रचना प्रश्नों को लेकर ही हुई है। श्रीमदाद्यशंकराचार्य जी के द्वारा रचित ‘प्रश्नोत्तरी’ प्रसिद्ध ही है। सामान्यतः बाल्यावस्था से ही बालक के जिज्ञासु हृदय में प्रश्न प्रस्फुटित होने लगते हैं। परन्तु जब मनुष्य पारमार्थिक पथपर अपने पग रखता है, तब उसके भीतर प्रश्नों का एक विशेष सिलसिला शुरू हो जाता है और वह ढूँढ़ने लगता है ऐसे सन्त या गुरूको, जो उसके प्रश्नों का समुचित उत्तर देकर उसका सही मार्गदर्शन कर सके। भगवान् ने गीता में कहा भी है-

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्रेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ।।

 (गीता 4। 34)

‘उस तत्त्वज्ञानको तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषों के पास जाकर समझ। उनको साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और सरलता पूर्वक प्रश्न करने से वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे।’

‘ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः’ कहनेका तात्पर्य है कि साधक के प्रश्नों का समुचित उत्तर वही महापुरुष दे सकता है, जिसे शास्त्रों का ज्ञान भी हो और तत्त्वका अनुभव भी हो। कारण कि केवल शास्त्रज्ञान हो, तत्त्वका अनुभव न हो तो उसकी बातें वैसी ठोस नहीं होगी, जिससे साधक को बोध हो जाय। अगर तत्वका अनुभव हो पर शास्त्रज्ञान न हो वह साधककी विविध शंकाओंका सप्रमाण समाधान नहीं कर पायेगा। परन्तु ऐसा महापुरुष बहुत दुर्लभ होता है। इसीलिये अखिल  सौन्दर्यमाधुर्यरसामृतसिन्धु भगवान् श्री कृष्ण युधिष्ठिर को यह कहकर भीष्मपितामह के पास ले गये ज्ञानका सूर्य अस्ताचलको जा रहा है। अर्थात् पितामह अपना शरीर छोड़कर जानेकी तैयारी में हैं, इसलिये तुम्हें कोई बात पूछनी हो तो शीघ्र पूछ लो-

तस्मिन्नस्तमिते भीष्मे कौरवाणां धुरन्धरे।
ज्ञानान्यस्तं गमिष्यन्ति तस्मात् त्वां चोदयाम्यहम्।।

(महा० शान्ति० 46 । 23)


साधनमार्ग में प्रश्नों का बहुत महत्त्व है। बिना  प्रश्न किये कोई बात साधकको मिलती है तो उसपर उसका विशेष ध्यान नहीं जाता। पर जब साधक स्वयं प्रश्न करता है, तब उसके उत्तररूप में जो बात मिलती है, वह साधक के हृदय में बैठ जाती है। कठिन-से-कठिन आध्यात्मिक विषय भी प्रश्नोत्तर के द्वारा सरल हो जाता है। कोई सच्चा जिज्ञासु हो तो उसके द्वारा प्रश्न करनेपर सन्तों के हृदय में नये- नये विलक्षण भाव प्रकट होने लगते हैं। वे भाव केवल प्रश्वकर्ता के लिये ही नहीं, प्रत्युत संसार मात्र के लिये हितकारी होते हैं।

जबतक साधककी दृष्टि में अन्य (जागत्की) सत्ता रहती है, तबतक उसके भीतर प्रश्नों की श्रृंखला चलती रहती है। कारण कि अन्य सत्ता मानकर ही प्रश्नोंत्तर अथवा शंका-समाधान होता है- ‘चोद्यं वा परिहारों वा क्रियतां द्वैतभाषया। जब उसकी दृष्टि में एक चिन्मय सत्ता के सिवाय कुछ नहीं रहता तब उसके सम्पूर्ण प्रश्न शान्त हो जाते हैं-

 
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।।

(मुण्डक ० 2। 2 । 8)

‘उस परमात्मतत्त्वकी ओर दृष्टि जाते ही हृदय की ग्रन्थियाँ टूट जाती हैं, सब संशय मिट जाते हैं और सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।’
वास्तविक तत्त्व वर्णनातीत है। वहाँ मन-बुद्धि-वाणी की पहुँच नहीं है- ‘यतों वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ (तैत्तिरीय० 2 । 9 ), ‘मन समेत जेहि जान न बानी’ (मानस, बाल ० 341 । 4)। इसलिये सब-का-सब वर्णन (प्रश्नोत्तर आदि) प्रकृति में ही होता है और शाखाचन्द्रन्यायसे परमात्मतत्त्वका संकेतमात्र होता है। वर्णन से बोध नहीं होता, प्रयुक्त पढ़ाई होती है। जहाँ वर्णन है, वहाँ तत्त्व नहीं है और जहाँ तत्त्व है, वहाँ वर्णन नहीं है। जो वर्णन में ही उलझ जाते हैं, उन मनुष्यों को तत्त्व नहीं मिलता। ऐसे मनुष्य वाचक ज्ञानी होते हैं। परन्तु जो सच्चे जिज्ञासु वर्णन में उलझकर उसके लक्ष्य (तत्त्व) की ओर दृष्टि रखते हैं, उन्हें वर्णनातीत तत्त्व मिल जाता है।

प्रत्येक साधक में अपने प्रश्नों का उत्तर पानेकी विशेष भूख रहती है। साधना करे, पर कोई प्रश्न उत्पन्न न हो-यह असम्भव है। इसलिये जब साधकको कोई  अच्छा, सन्तोष जनक उत्तर देनेवाला मिल जाता है, तब वह बहुत उत्साहित हो जाता है। श्रीमद्धभागवत आया है, जब उद्धवजीने देखा कि क्षराक्षरातीत भगवान् श्रीकृष्ण मेरे प्रश्नों का उत्तर बड़े विलक्षण ढंग से देते हैं, तब उन्होंने प्रश्नों की झड़ी लगा दी और एक साथ ही पैंतीस प्रश्न कर डाले (श्रीमद्धा० 11 । 19 । 28-32) ! इसी तरह की बात हमारे परमश्रद्धास्पद श्रीस्वामीजी महाराज के विषय में देखने में आती है।

आप अपने प्रवचनों में विविध प्रश्नों के उत्तर इतनी विलक्षण रीतिसे देते हैं कि श्रोतागण उत्साहित होकर प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं। प्रवचनका समय समाप्त हो  जाता, पर श्रोताओं की ओर से प्रश्नों का आना समाप्त नहीं होता। इसमें कारण यह होता है कि आप प्रश्नों का उत्तर सिद्धान्तकी दृष्टि से न देकर प्रश्नकर्ता को सहज ही हृदयंमगम हो जाती है। आप प्रत्येक प्रश्नकर्ताको, चाहे वह किसी भी विषय में कैसा ही प्रश्न क्यों न करे, अपने उत्तर से सन्तुष्ट कर देते हैं। आपने लगभग उन्नीस वर्ष की अवस्था से ही भगवद्भावों का प्रचार करना तथा साधनों की शंकाओं का समाधान करना आरम्भ कर दिया था और अब छियानबे वर्ष की अवस्था पार करने पर भी उसी उत्साह से जगह-जगह जाकर अपने प्रवचनों में साधको के विविध प्रश्नों का उत्तर देकर उनका पथ-प्रदर्शन कर रहे हैं !

परमश्रद्धेय श्रीस्वामी जी महराज से मैं अनेक वर्षों से समय-समय पर विविध प्रश्न करता आया हूँ। लगभग बीस वर्षों से डायरी में लिपिबद्ध किये हुए उन प्रश्नोत्तरों में से सर्वोपयोगी पाँच सौ प्रश्न चुनकर यह ‘प्रश्नोत्तरमणिमाला’ पुस्तक तैयार की गयी है। इनमें कुछ प्रश्न ऐसे भी हैं, जो अन्य व्यक्तियों के है और उपयोगी समझकर इसमें दिये गये है हैं। पाठकों की सुविधाके लिये प्रश्नोत्तरों को विषयानुसार वर्णानुक्रमसे विभाजित किया गया है।

परमश्रद्धेय श्रीस्वामी जी महाराज की अन्य ऐसी कई पुस्तकें गीताप्रेस से प्रकाशित हुई हैं, जो प्रश्नोत्तर-रूप से लिखी गयी हैं; जैसे- गृहस्थ में कैसे रहें ? हम ईश्वर को क्यों माने ?’, सच्चा गुरू कौन ?’ नामजपकी महिमा, मूर्तिपूजा, दुर्गाति से बचो, सन्तान का कर्तव्य, आहार-शुद्धि आदि। पाठकों को इन पुस्तकों का भी अवश्यमेव अध्ययन करना चाहिये।
पाठकों से विनम्र निवेदन है कि वे इस पुस्तक में आयी श्रेष्ठ बातों को परमद्धेय श्रीस्वामीजी महाराज कृपाप्रसाद मानकर अपने जीवन में धारण करें और त्रुटियों को मेरी व्यक्तिगत भूल समझकर कृपापूर्वक क्षमा करें।

संतो की उच्छिष्ट उक्ति है मेरी बानी।
जानूँ उसका भेद भला क्या, मैं अज्ञानी।

श्रीरामनवमी,

निवेदक
राजेन्द्रकुमार धवन   

अर्पण


प्रश्न- अर्पण करने का क्या तात्पर्य हैं ?
उत्तर- अपनापन छोड़ देना ।।9।।
प्रश्न – भगवान को सर्वस्व अर्पण करने के बाद क्या पूर्व संस्कारवश निषिद्ध कर्म हो सकता है ?
उत्तर- नहीं हो सकता ।।2।।
प्रश्न- क्या भूलवश ऐसा अहंकार हो सकता है कि हमने प्रभुको सर्वस्व अर्पण कर दिया ?
उत्तर- नहीं हो सकता। यदि अभिमान होता है तो वास्तव में पूर्ण समर्पण हुआ ही नहीं। पदार्थों को भूल से अपना माना था, वह भूल मिट गयी तो अभिमान कैसा ?।।3।।
सर्वस्व अर्पण करने के गुणों के साथ-साथ दोष भी समर्पित हो जायँगे, जैसे मकान बेचने पर उसमें रहने वाले सांप-बिच्छू भी उसके साथ चले जातें है ?
उत्तर – अग्रिमें जो भी डाला जाय, वह जलकर अग्रिरूप ही हो जाता है। इसलिये गीता में आया है- ‘शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबन्धनैः (9 । 28) ‘इस प्रकार मेरे अर्पण करने से तू कर्मबन्धन से, और शुभ  (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मों के फलोंसे तू मुक्त हो जायगा।’ ‘अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि’ (18 । 66) ‘मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा’ ।।4।।


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