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रहस्य-रोमांच >> पहली क्रान्ति

पहली क्रान्ति

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9376
आईएसबीएन :9788184910605

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रैना ने बड़ी तेजी के साथ चमड़े की बेल्ट कस ली। उसके जिस्म पर इस समय किसी खतरनाक लड़ाके जैसा लिबास था - टांगों से चिपकी हुई काले चमड़े की चुस्त पैंट, एक काली कमीज और स्याह चमड़े की एक जैकेट। उसकी बेल्ट गोलियों से भारी हुई थी। दाएं-दाएं दो होलेस्टर झूल रहे थे। होलेस्टरों में दो लोडेड रिवॉल्वर थे। लम्बे, घने और काले बालों को उसने बड़ी तरतीब से समेटकर बांध लिया था। सिर पर एक गोल कैप थी - बिल्कुल काली - गोरे-गोरे ललाट को स्पर्श करने का प्रयास करती हुई।

मानो रैना अपने व्यक्तित्व को छुपाना चाहती हो।

उसके प्यारे-प्यारे, दूध-से गोरे चांद-से सुन्दर मुखड़े पर कठोरता थी, मानो समूचे संसार की भयानकता आज उसी के मुखड़े पर सिमट आई थी। रैना की आंखें - वे आंखें जिनमें हमेशा रघुनाथ के लिए प्यार, विजय के प्रति स्नेह और विकास के लिए ममता रहती थी। आज रैना की उन्हें आंखों में आग थी। शोले धधक रहे थे - मानो समूचे संसार का ज्वालामुखी आज सिमटकर उसकी आंखों में उतर आया था।

पुष्प-सा कोमल मुखड़ा पत्थर की-सी कठोरता में बदला हुआ था।

रैना की आंखों में दरिन्दगी थी। चेहरे पर पशुता। होंठों पर जहरीली मुस्कान। सख्ती के साथ एक-दूसरे पर जमे हुए जबड़े मानो यह अबला सारे संसार को जलाकर खाक कर देगी।

चारों ओर सन्नाटा था - मौत जैसा सन्नाटा !

भयंकर कोहराम जैसे समाप्त हो गया।

रैना ने एक बार अपने चारों ओर के अंधकार को इस तरह घूरा जैसे इस अंधकार को ही जलाकर खाक कर देगी। पूर्णतया तैयार होकर वह बाहर की ओर लपकी। उसके पैरों में पड़े भारी जूतों की ठक-ठक ने रात की निस्तब्धता के चेहरे पर तमाचे मारे। रैना की चाल में चीते जैसी फुर्ती थी।

कोई विश्वास नहीं कर सकता था कि वह रैना जो कल तक एक घरेलू अबला नारी थी। अपने पति रघुनाथ और पुत्र विकास तक ही सीमित थी, लेकिन आज...आज वह किसी रणचण्डी से कम नहीं थी !

बाहर जाकर रैना ने चारों तरफ देखा - चारों ओर गहरी निस्तब्धता थी और गहन अंधकार के बीच कहीं-कहीं से आग की भयंकर लपटें भी लपलपा रहीं थी, जैसे प्रलय के बाद भी बस्ती में भयंकर विनाश-लीला के लक्षण अभी तक मौजूद थे।

विनाश... प्रलय... मार-काट... चीखो-पुकार आदि के पश्चात अब जैसे सब कुछ शान्त हो गया था।

समीप ही एक घोड़ा खड़ा था - काला, मजबूत, ऊंचा और लम्बा-तगड़ा घोड़ा। आश्चर्यचकित कर देने वाले ढंग से रैना ने एक ऊंची जम्प ली और फटाक से घोड़े की पीठ पर आ जमी। घोड़ा अपनी दोनों अगली टांगें हवा में उठाकर जोर से हिनहिनाया। पलकें झपकते ही रैना ने उस पर काबू पा लिया।

और... और घोड़ा रैना को ले उड़ा, जैसे हवा से बातें कर रहा हो।

लाशों से पटी धरती को रौंदता हुआ घोड़ा भागता ही चला गया।

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