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रहस्य-रोमांच >> दौलत है ईमान मेरा

दौलत है ईमान मेरा

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9368
आईएसबीएन :9789380871479

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कहते हैं - जिस दिन मेरा जन्म हुआ, उस दिन से पूर्व मेरे पिता बैंक ऑफ बड़ौदा में एकाउंटेंट थे। इधर मैं मां के गर्भ से बाहर जाकर प्रथम किलकारी मार रही थी - उधर मेरे पिता को नौकरी से निकाला जा रहा था। अपना अन्तिम वेतन लिए मेरे पिता श्री कामताप्रसाद घर लौट रहे थे कि घर पहुंचते ही जेब से वह वेतन न जाने कहां गायब हो गया !

अगर कोई मुझसे पूछे कि मेरा जीवन कहां से शुरू होता है तो...तो मस्तिष्क पटल पर गेरुवे वस्त्र धारण किए-सन जैसी सफेद लम्बी मूंछ-दाढ़ी वाला एक भिक्षुक उभर आता है।

मेरे नेत्रों के समक्ष दृश्य उभरता है - एक छोटे-से मकान के द्वार पर एक भिक्षुक खड़ा है। वह भिक्षा का अभिलाषी है।

चूल्हा फूंकने में व्यस्त एक बुढ़िया अपनी तीन वर्षीया पुत्री से कहती है - ‘‘सुनीता, आटा दे आ।’’

आटे से एक-चौथाई भरे कनस्तर में बालिका अपना नन्हा हाथ डालती है। एक चुटकी आटा लिए वह द्धार पर पहुंचती है। द्वार खोलते ही वह चीख पड़ती है-आटा बिखर जाता है।

वह बालिका भय से कांपने लगती है।
भिक्षुक को देखकर भयभीत हो गई थी वह।

भयभीत होती भी क्यों नहीं ? भिक्षुक की चमड़ी का रंग स्याह काला था। किसी अखाड़े के पहलवान जैसा बलिष्ठ शरीर। लम्बी-लम्बी मूंछ-दाढ़ी-लाल आंखें, चौड़ा ललाट। ललाट पर दाएं से बाएं तक खिंची चन्दन की तीन रेखाएं !
नन्हीं बालिका को देखकर वह भी चीखकर पीछे हट गया।

मां रसोई से भागी आई ! पिता अखबार एक तरफ उछालकर लपके। एक पांच वर्ष का लड़का भी दौड़ा चला आया। बालिका भिक्षुक के सामने से हटाकर कामताप्रसाद स्वयं हाथ जोड़े नतमस्तक हुए, बोले - ‘‘बच्ची से कोई भूल हो गई महाराज ?’’

‘‘भूल ?’’ यूं भृकुटि तान ली भिक्षुक ने मानो साक्षात विश्वामित्र का अवतार हो - ‘‘किसे भिक्षा देने मेरे पास भेजा है तूने ?’’
‘‘मेरी पुत्री है महाराज !’’ कामताप्रसाद गिड़गिड़ा उठे।
‘‘हमें विदित है।’’ विश्वामित्र के नेत्र अंगार-वर्षा करने लगे - ‘‘यह दुष्टा ही तेरे अभाग्य का कारण है।’’
‘‘क्या कह रहे हैं आप ?’’
‘‘जिस दिन ये पैदा हुई - क्या तेरी नौकरी नहीं छूटी ?’’
अवाक-से कामताप्रसाद ने कहा - ‘‘यह सत्य है महाराज !’’
‘‘क्या उस दिन बैंक से मिला तेरा अन्तिम वेतन भी नहीं खो गया ?’’

सहमी-सी एक तरफ खड़ी कांपती बालिका ने पिता के शब्द सुने - ‘‘यह भी सत्य है महाराज ! किन्तु...।’’

‘‘किन्तु क्या होता है ?’’ वह दुर्वासा मुनि तो अवश्य ही था - इसके पहले जन्मदिन पर क्या चोर सारे घर के बर्तन नहीं चुरा ले गए ?’’

‘‘आप तो सब कुछ जानते हैं ! परन्तु...।’’

‘‘हमसे कुछ नहीं छुपा है।’’ दुर्वासा ने कहा - ‘‘इस दुष्टा के मस्तक पर हम सब कुछ देख रहे हैं। इसके पैदा होने से पूर्व तू कुछ और था, पैदा होने के बाद कुछ और हो क्या। धन का मानो तुमसे नाता टूट गया। तुमसे धन की शत्रुता उसी दिन से प्रारम्भ हुई, जिस दिन यह पैदा हुई थी। आज तीन वर्ष की है ये और तेरी स्थिति यह है कि तेरा ये पुश्तैनी मकान भी गिरवी... ।’’

‘‘महाराज !’’ कामताप्रसाद चरणों में गिर गए उसके - ‘‘किसी प्रकार सम्मान की पगड़ी सिर पर रखे हूं - उसे न उछालिए। आपकी वाणी सत्य है। अन्दर आइए और मुझे मेरा भविष्य बताइए। मैं बहुत चिन्तित हूं।’’

दुर्वासा मुनि हमारे घर में आ गए। ससम्मान उन्हें एक चारपाई पर बिठाया गया। कामताप्रसाद उसके चरणों में बैठे। घूंघट ताने मां समीप ही खड़ी थी। मुझसे दो वर्ष बड़ा वैभव पिता के कंधे से लगा खड़ा था। और मैं…मै सहमी-सी मां के पीछे खड़ी थी।

उस डरावने भिक्षुक से मैं बुरी तरह डर गई थी।

‘‘महाराज, इस घर के भविष्य के बारे में कुछ बताइए !’’ पिता गिड़गिड़ाए।

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