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हास्य-व्यंग्य >> कहत कबीर

कहत कबीर

हरिशंकर परसाई

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9330
आईएसबीएन :9788126728527

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हरिशंकर परसाई के व्यंग्य को श्रेष्ठतम इसलिए कहा जाता है कि उनका उददेश्य कभी पाठक को हँसाना भी नहीं रहा ! न उन्होंने हवाई कहानियां बनीं, न ही तथ्यहीन विद्रूप का सहारा लिया ! अपने दौर की राजनितिक उठापठक को भी वे उतनी ही जिम्मेदारी और नजदीकी से देखते थे जैसे साहित्यकार होने के नाते आदमी के चरित्र को ! यही वजह है कि समाचार-पत्रों में उनके स्तंभों को भी उतने ही भरोसे के साथ, बहैसियत एक राजनितिक टिप्पणी पढ़ा जाता था जितने उम्मीद के साथ उनके अन्य व्यग्य-निबंधो को !

इस पुस्तक में उनके चर्चित स्तम्भ ‘सुनो भई साधो’ में प्रकाशित 1983-84 के दौर की टिप्पणियां शामिल हैं ! यह वह दौर था जब देश खालिस्तानी आतंकवाद से जूझ रहा था ! ये टिप्पणियां उस पूरे दौर पर एक अलग कोण से प्रकाश डालती हैं, साथ ही अन्य कई राजनितिक और सामाजिक घटनाओं का उल्लेख भी इनमें होता है ! जाहीर है खास परसाई-अंदाज में ! मसलन, 21 नवम्बर, 83 को प्रकाशित ‘चर्बी, गंगाजल और एकात्मता यज्ञ’ शीर्षक लेख की ये पंक्तियाँ ! ‘‘काइयां सांप्रदायिक राजनेता जानते हैं कि इस देश का मूढ़ आदमी न अर्थनीति समझता, न योजना, न विज्ञान, न तकनीक, न विदेश नीति !

वह समझता है गौमाता, गौहत्या, चर्बी, गंगाजल, यज्ञ ! वह मध्ययुग में जीता है और आधुनिक लोकतंत्र में आधुनिक कार्यकर्म पर वोट देता है ! इस असंख्य मूढ़ मध्ययुगीन जान पर राज करना है तो इसे आधुनिक मत होने दो !’’

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