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गीता प्रेस, गोरखपुर >> प्रार्थना

प्रार्थना

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :79
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 930
आईएसबीएन :81-293-0546-1

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प्रस्तुत है प्रार्थना...

Prathana a hindi book by Hanuman Prasad Poddar - प्रार्थना - हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय निवेदन

प्रार्थना का अर्थ है—जीवात्मा के साथ सक्रिय, अनन्य भक्ति, प्रेममय सम्बन्ध। आदर्श प्रार्थना साधक की ईश्वर-प्राप्ति के लिये आर्त्तता या आकुलता की भावना की अभिव्यक्ति है। सच्ची हृदय से निकली हुई प्रार्थना तुरन्त फलदायिनी होती है।
आदर्श प्रार्थना में शरीर, मन, वाणी—तीनों का सहयोगी होता है। तीनों अपने आराध्यदेव की सेवा में एकरूप होते हैं। प्रार्थना काल में शरीर का रोम-रोम पुलकित होता है। मन में उठने वाली प्रत्येक वृत्ति भगवत्प्रेम से सराबोर होती है। मुँह से निकलने वाला प्रत्येक शब्द भगवत्प्रेम से परिलुप्त होता है। प्रार्थना की महिमा का जितना भी वर्णन किया जाय, उतना ही थोड़ा है। हृदय से निकली हुई सच्ची प्रार्थना में अगाध शक्ति होती है।

क्योंकि हृदय की प्रबल भावभक्ति में पत्थर को भी पिघलाने की ताकत होती है। फिर भगवान् जिनके प्रति प्रार्थना की जाती है, वे जीव के जन्म-जन्मान्तर के परम हितैषी, दयानिधान और करुणा के असीम सागर हैं। यही कारण है कि सच्ची प्रार्थना-भाव के उदित होते ही मूक भी वाचाल हो जाता है, पंग्ङु गिरिवर लाँघ जाता है और असम्भव कार्यों का भी क्षणमात्र में सम्पादन हो जाता है।

प्रस्तुत पुस्तक नित्यलीलालीन भाईजी श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार के द्वारा प्रणीत प्रार्थना एवं प्रार्थना-पीयूष के नाम से दो अलग-अलग पुस्तकों में प्रकाशित थी। पाठकों की सुविधा की दृष्टि से अब इन दोनों पुस्तकों को एक साथ समायोजित करके प्रकाशित किया गया है। इस पुस्तक के तीन प्रकरण हैं। इसके ‘प्रथम भाग में प्रार्थना क्यों और कैसी ?’, ‘दूसरे भाग में भावमयी गद्यात्मक प्रार्थनाएँ’ तथा ‘तीसरे भाग में सोलह पद्यात्मक प्रार्थनाएँ’ एवं उनके भावार्थ दिये गये हैं। आशा है, पाठकगण इन भावनात्मक प्रार्थनाओं के माध्यम से अपने वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त करेंगे।

प्रकाशक

परमकारुणिको न भवत्परः
परमशोच्यतमो न च मत्परः।
इति विचिन्त्य हरे मयि पामरे
यदुचितं यदुनाथ तदाचर।।

‘हरे ! तुम से बढ़कर परम कारुणिक और कोई नहीं एवं मुझसे बढ़कर परम शोचनीय और कोई नहीं। यदुनाथ ! यों समझकर मुख पामर के लिये जो उचित हो वही करो !’

प्रार्थना क्यों और कैसी


भगवान् के सर्वलोकमहेश्वर, सर्वशक्तिमान, सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ, सर्वभवनसमर्थ, भक्त-भक्तिमान्, स्वभाव-सुहृद, अहैतुक कृपालु, करुणावरुणालय, सहज दयामय, कल्याणमय, मंगलमय, स्नेह-सुधा-समुद्र, दीनवत्सल, पतितपावन, क्षमापूर्ति और उदारचूडामणि-स्वरूप पर दृढ़ विश्वास करके प्रार्थना करनी चाहिये। ‘भगवान् मेरी प्रत्येक प्रार्थना को सुन ही नहीं रहे हैं, जितना मैं नहीं समझता, उतना उसके मर्म को भी समझ रहे हैं। मेरी वास्तविक आवश्यकता और अभाव को भली भाँति समझते-जानते हैं और अपनी सहज सर्वज्ञता एवं सुहृदता के द्वारा, जिसमें मेरा परिणाम में परम हित होता है, वही करते हैं।’—इस प्रकार का दृढ़ विश्वास रखकर अपनी सहज भाषा में—या मन-ही-मन भगवान् को अपने अत्यन्त समीप समझकर मूकभाषा में प्रार्थना करनी चाहिये। भगवान् सब भाषाएँ समझते हैं, सहज प्रार्थना के लिये किसी अमुक प्रकार के शब्दों की आवश्यकता नहीं है और यह दृढ़ विश्वास रखना चाहिये कि भगवान् मेरी निर्दोष प्रार्थना को अवश्य–अवश्य पूर्ण करेंगे।

सांसारिक अभाव की पूर्ति, निर्दोष धन-मान आदि की प्राप्ति, रोग-नाश, स्वास्थ्यलाभ, विपत्तिनिवारण आदि के लिये भी विश्वासपूर्वक प्रार्थना करने पर निस्संदेह आश्चर्यजनक फल प्राप्त होता है। पर ये सब प्रार्थनाएँ ऐसी ही हैं, जैसे प्रकाशपुञ्ज सूर्य से जुगनू का प्रकाश चाहना, अन्त वैभवशाली उदार सम्राट से कौड़ी माँगना। अनित्य और अपूर्ण वस्तु या स्थिति विशेष की प्राप्ति के लिये भगवान् से प्रार्थना करना कदापि बुद्धिमानी नहीं है। यह एक प्रकार का लड़कपन है और लड़कपन समझकर भगवान् अप्रसन्न नहीं होते और यों सकाम भावना से आर्तिनाश, अर्थप्राप्ति आदि के लिये भी अनन्यभाव से केवल भगवान् से ही प्रार्थना करते रहने परभगवान् अपने सहज दयालु शील-स्वभाववश उसकी सकामता का हरण करके अन्त में उसे अपनी निष्काम भक्ति देकर अपनी प्राप्ति करा देते हैं—कैसे भी भजे, भगवान् को भजने वाला अन्त में भगवान् को पा जाता है—‘मद्भक्ता यान्ति मामपि।’

ऐसी कोई प्रार्थना कभी नहीं करनी चाहिये, जिससे किसी भी रूप में दूसरे प्राणी का किसी प्रकार का भी तनिक भी अहित होता हो। हमारी दृष्टि में अविद्याजनित अहंता-ममतावश अपना-पराया है। भगवान् की दृष्टि में सभी उनके स्वरूप हैं या उन्हीं के अंग हैं। हम किसी के स्वरूप या अंग का अहित उसी से चाहेंगे तो वह कैसे प्रसन्न होगा। भगवान् के शरीर के एक अंग हम यदि कहें—‘हे भगवन् ! तुम्हारा अमुक अंग मुझे नहीं सुहाता, उसे दण्ड दीजिये, काट डालिये।’ तो क्या वे हम पर प्रसन्न होंगे ? किसी स्नेहमयी माँ से उसका एक कोई पुत्र कहे कि ‘माँ ! मेरे अमुक भाई या बहन अच्छे नहीं हैं, तुम उन्हें मारो’—तो क्या माँ प्रसन्न होंगी ? अपने ही अंग या अपनी सन्तान को कौन दण्ड देना चाहेगा ?

 हाँ, माँ से यह प्रार्थना करना अवश्य ही श्रेष्ठ है कि ‘माँ ! मेरे अमुक भाई-बहन ठीक बर्ताव नहीं करते, अतएव तुम उनकी बुद्धि शुद्ध कर दो, उनमें सुधार कर दो, जिससे उनके द्वारा बुरा बर्ताव न हो, वे सब साथ प्रेम का बर्ताव करें अथवा, यदि उनका बर्ताव ठीक ही हो और मुझे ही अपनी दूषित वृत्ति या दृष्टि से उनमें दोष दीखता हो तो स्नेहमयी माँ ! तुम मेरी दूषित वृत्ति या विपरीत दृष्टि का नाश कर दो, जिससे मैं उनके दोष देखना छोड़ दूँ।’

प्रार्थना के कुछ अच्छे रूप या भाव ये हैं—


1. भगवन् ! तुम्हारा मंगलमय संकल्प पूर्ण हो।

2-भगवन् ! तुम्हारी मंगलमयी चाह पूर्ण हो। मेरे मन में कोई चाह उत्पन्न ही न हो, हो तो तुम्हारी चाह के अनुकूल हो। तुम्हारी चाह के अतिरिक्त और कोई चाह  कभी उत्पन्न ही न हो। कदाचित् तुम्हारी चाह के प्रतिकूल कोई चाह उत्पन्न हो तो उसे कभी पूरा न करना।

3—भगवन् ! समस्त चर-अचर प्राणियों में मैं सदा-सर्वदा तुम्हारा दर्शन कर सकूँ और तुम्हारी दी हुई प्रत्येक सामग्री से और शक्ति से यथासाध्य सबकी सेवा कर सकूँ।

4-भगवान् ! अखिल विश्व-ब्रह्माण्ड के मंगल में ही मुझे अपना मंगल दिखायी दे। मेरे मन में कोई भी ऐसी अपनी मंगल-कामना न हो, जो किसी भी प्राणी के मंगल से विरुद्ध हो। मेरे प्रत्येक मंगल में सबका मंगल समाया हो अथवा सबके मंगल में मेरा मंगल भरा हो।

5—भगवान् ! मेरी ‘स्व’ असीमरूप से अखिल विश्व में विस्तृत हो जाय। अखिल विश्व ‘स्वार्थ’ ही मेरा ‘स्वार्थ’ हो। मेरा कोई भी स्वार्थ ऐसा न हो, जो अखिल विश्व के किसी भी प्राणी के स्वार्थ का बाधक हो और साधक न हो।

6-भगवन् ! मेरे जीवन का प्रत्येक श्वास तुम्हारी मंगलमयी स्मृति में सना रहे और मेरी प्रत्येक चेष्टा केवल तुम्हारी सेवा के लिये हो।

7-भगवन् ! मेरे संकट–दुःख से किसी भी दुःखी संकटग्रस्त प्राणी का दुःख-संकट दूर होता हो तो मुझे बार-बार दुख-संकट दिया जायँ और उन्हें प्रसन्नतापूर्वक वरण करने की शक्ति दी जाय। किसी भी प्राणी की किसी भी प्रकार की भी सेवा करने का मुझे सौभाग्य और सुअवसर मिल जाय तो मैं अपने को धन्य समझूँ और तुम्हारे दिये हुए प्रत्येक साधन से तुम्हारी ही सेवा की भावना से उसकी सेवा करूँ। पर मन में तनिक भी अभिमान न उत्पन्न हो, वरं यह अनुभूति हो कि तुमने अपनी ही वस्तु स्वीकार करके मुझ पर बड़ा अनुग्रह किया।

8-भगवन् ! तुम्हारे विशुद्ध प्रेम के अतिरिक्त मेरे मन में अन्य किसी वस्तु अथवा स्थिति को प्राप्त करने की कभी कामना ही न उत्पन्न हो और मैं तुम्हारे अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु अथवा प्राणी में कभी आसक्त न होऊँ।

9- भगवन् ! मेरे जीवन में केवल तुमको प्रसन्न करने वाले भाव, विचार और कार्यों का ही समावेश हो। क्षणभर के लिये भी बुद्धि, चित्त, मन और इन्द्रियों के द्वारा अन्य किसी भाव, विचार और क्रियाकी सम्भावना ही न रहे।

10-भगवन् ! मेरा मन नित्य–निरन्तर तुम्हारे मनोहर स्वरूप, लीला, गुण और नाम के ध्यान-चिन्तन में ही लगा रहे।
वाणी निरन्तर तु्हारे नाम-गुणों का गान करती रहे और शरीर से होनेवाली प्रत्येक क्रिया के द्वारा केवल तुम्हारी ही सेवा हो।


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