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नाइट ट्रेन ऐट देओली (अजिल्द)

रस्किन बॉन्ड

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9026
आईएसबीएन :9789350642603

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नाइट ट्रेन ऐट देओली...

Night Train At Deoli - A Hindi Book by Ruskin Bond

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नाइट ट्रेन ऐट देओली की अधिकतर कहानियों की पृष्ठभूमि उत्तराखंड की घाटियाँ हैं, जहाँ खुद रस्किन बॉन्ड का घर है। पहाड़ों पर रहनेवाले सीधे-सादे, सरल लोगों की ये कहानियाँ कहीं तो पाठक के दिल को छू लेती हैं और कहीं उनके चेहरे पर मुस्कान लाती हैं। पहाड़ों पर विकास की गति बढ़ने से कैसे वृक्षों की जगह ऊँची इमारतें खड़ी हो रही हैं और स्टील, सीमेंट, प्रदूषण व आधुनिक रहन-सहन के तनाव और चिन्ताएँ इन लोगों की ज़िन्दगी पर भारी पड़ रही हैं-इन सबकी पीड़ा की भी झलक इन कहानियों में मिलती है।

‘साहित्य अकादमी पुरस्कार, ‘पद्मश्री’ और ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित रस्किन बॉन्ड की रूम ऑन द रूफ, वे आवारा दिन, उड़ान, दिल्ली अब दूर नहीं और एडवेंचर्स ऑफ़ रस्टी अन्य लोकप्रिय पुस्तकें हैं।

‘‘रस्किन बॉन्ड की कहानियों में एक ताज़गी है। भारत के नज़ारों और जीवन के बारे में शायद ही किसी और लेखक ने इतने सहज और प्रामाणिक रूप से लिखा होगा... हरेक कहानी ज़िन्दगी के एक धड़कते दिल का आईना है।’’

- नेशनल हैरल्ड

नाइट ट्रेन ऐट देओली

जब मैं कॉलेज में था, तब गर्मी की छुट्टियां बिताने के लिए अपनी दादी के पास देहरा (देहरादून) चला जाता था। मैं मई में ही पहाड़ों के करीब चला जाता था और जुलाई के आख़िर तक वहीं रहता था। देहरा से करीब तीस मील दूर एक छोटा सा स्टेशन पड़ता था देओली। उस स्टेशन से भारत के तराई वाले घने जंगल शुरू होते थे। गाड़ी सुबह के करीब पांच बजे देओली के स्टेशन पर पहुंचती थी, जब स्टेशन पर बिजली के बल्ब और तेल के लैम्प की मंदी रोशनी रहती थी। सुबह के झुटपुटे की हल्की रोशनी में स्टेशन के पार का जंगल कुछ-कुछ नज़र आता था। देओली के स्टेशन का एक ही प्लेटफ़ॉर्म था और उसी पर स्टेशन मास्टर का दफ़्तर और वेटिंग रूम भी था। प्लेटफ़ॉर्म पर एक चाय की दुकान के अलावा, एक फल वाला और कुछ आवारा कुत्तों के अलावा ज़्यादा कुछ नहीं था, क्योंकि जंगल की तरफ़ अपना सफ़र जारी रखने से पहले गाड़ी वहाँ दस मिनट रुकती थी।

लेकिन वहाँ गाड़ी रुकती क्यों थी, यह मुझे नहीं समझ में आता था। वहाँ कुछ भी नहीं होता था-न तो वहाँ से कोई गाड़ी में चढ़ता था और न ही वहाँ कोई उतरता था। प्लेटफ़ॉर्म पर न कुली होते थे। लेकिन गाड़ी वहाँ पूरे दस मिनट रुकती थी। फिर घंटा बजता था, गार्ड सीटी देता था और फिर देओली पीछे छूट जाता था-बिसर जाता था।

मैं सोचा करता था कि स्टेशन की दीवारों के पार देओली में क्या-क्या होता होगा। मुझे उस इकलौते प्लेटफ़ॉर्म पर तरस आता था, उस जगह जहाँ कोई आना नहीं चाहता था। तब एक दिन मैंने तय किया कि मैं इस स्टेशन पर उतरूंगा और यहाँ पूरा दिन बिताऊंगा, सिर्फ़ इस शहर की ख़ातिर।

तब मैं अट्ठारह साल का था, जब अपनी दादी के पास जा रहा था और गाड़ी अंधेरे में देओली पर रुकी। एक लड़की प्लेटफ़ॉर्म पर टोकरियां बेचती हुई आयी। तब तक उजाला नहीं हुआ था और खूब सर्दी थी। लड़की ने कंधों पर एक शॉल डाल रखा था। वह नंगे पैर थी और उसके कपड़े भी पुराने थे, लेकिन वह छोटी सी उम्र की लड़की बड़ों जैसी सधी चाल से चल रही थी। मेरी खिड़की पर आकर वह ठहर गयी। उसने देखा कि मैं उसी को ध्यान से देख रहा हूँ, लेकिन पहले उसने अनजान बनने की कोशिश की। उसके काले बालों और काली उलझन भरी आँखों के साथ उसकी रंगत और भी गोरी लग रही थी। और फिर उसकी आँखें, खोई-खोई और बोलती सी आँखें, मेरी आँखों से टकराई।

वह मेरी खिड़की पर कुछ देर यूं ही खड़ी रही, लेकिन हम दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। जब वह वहाँ से आगे बढ़ गयी, तब मैं अपनी सीट पर बैठा नहीं रहा सका और उठकर डिब्बे के दरवाज़े की तरफ़ चल पड़ा और स्टेशन पर उतरकर दूसरी ओर देखने लगा। मैं चाय की दुकान तक गया। एक छोटी सी भट्टी पर केतली में उबाल आ रहे थे, लेकिन दुकानवाला गाड़ी में किसी सवारी को चाय पहुंचाने गया था। लड़की दुकान तक मेरे पीछे-पीछे आ गयी थी।

‘टोकरी लोगे ?’ वह बोली, ‘बड़ी मजबूत हैं ये, बढ़िया बेंत की बनी हैं ?’
‘नहीं, मुझे टोकरी नहीं चाहिए।’
हम एक-दूसरे को ताकते रहे, जैसे युगों से ऐसे ही देख रहे हों।
वह फिर बोली-‘क्या तुम्हें वाकई टोकरी नहीं चाहिए ?’

‘चलो, एक दे दो।’ मैंने कहा और ऊपर से ही एक टोकरी लेकर एक रुपया उसके हाथ में थमा दिया, लेकिन बचते-बचते भी उसकी उंगलियां मेरे हाथ से छू गयीं।

वह कुछ बोलने ही वाली थी, कि गार्ड ने सीटी बजा दी। उसने कुछ कहा भी, लेकिन उसकी बात घंटे और इंजन की सीटी के आगे दब गयी। मुझे भी अपने वाले डिब्बे की ओर दौड़ना पड़ा। डिब्बे घड़घड़ाये और आगे को चल पड़े।

प्लेटफ़ॉर्म पीछे छूट रहा था और मैं लगातार उसे देखे जा रहा था। प्लेटफ़ॉर्म पर वह अकेली खड़ी, अपनी जगह पर खड़े-खड़े मुझे देखकर मुस्करा रही थी।
मैं उसे सिग्नल बॉक्स की आड़ में आने तक देखता रहा और फिर गाड़ी जंगल में जा पहुंची।

आगे के बाकी सफ़र में जागता रहा, बैठा रहा। उस लड़की का चेहरा और उसकी चमकीली काली आँखें मेरे ज़ेहन से नहीं हट रही थीं। लेकिन जब मैं देहरा पहुंच गया, तब कहीं उस मुलाक़ात की बात धुंधली पड़ी, क्योंकि अब दूसरी तमाम बातें दिमाग़ पर हावी हो गयीं।

दो महीने बाद जब मैं वापस लौट रहा था, तब उस लड़की का फिर ख़याल आया। जब गाड़ी स्टेशन पर पहुंची तो रुकने के पहले से ही मेरी नज़रें उसे तलाश रही थीं और जब मैंने उसे प्लेटफ़ॉर्म पर चलते देखा तो मेरे मन में एक ऐसी तरंग दौड़ गयी, जिसके बारे में मैंने पहले सोचा भी नहीं था। मैं पायदान से प्लेटफ़ॉर्म पर कूद गया और उसे देखकर हाथ हिलाया।

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