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उड्डीश तंत्र साधना एवं प्रयोग

सी. एम. श्रीवास्तव

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :170
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8935
आईएसबीएन :9788131004692

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समुद्र के समान विशाल है भारतीय तंत्र ! इसमें लौकिक और पारलौकिक समुन्नति के वे सभी साधन उपलब्ध हैं...

Ek Break Ke Baad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दशानन रावण को भगवान शिव द्वारा दिया गया विशिष्ट तंत्र ज्ञान

तंत्र शास्त्र भी अन्य विज्ञान-विधाओं की तरह सिद्धांत और प्रयोग इन दोनों ही पक्षों की व्याख्या करता है। तंत्र क्योंकि प्रक्रिया प्रधान शास्त्र है, इसलिए इसकी साधना में गुरु-शिष्य परंपरा की अपेक्षा होती है। परंपरा भेद से एक ही साधना प्रक्रिया प्रयोगों के संदर्भ में दूसरे से बिल्कुल भिन्न हो जाती है। लेकिन प्रत्येक संप्रदाय शिव को अपना आचार्य मानने में एकमत है। इतना ही नहीं सुर हों या असुर सभी पर शिव की कृपा एक समान बरसती है। आचार्य और गुरु में ऐसा निष्पक्ष भाव होना ही चाहिए।

भगवान शिव ने लंकापति रावण को जो तंत्र ज्ञान दिया, उसमें सात्विक साधनाओं के साथ ही तामसी साधनाओं का भी समावेश है। परोक्ष रूप से इनका उद्देश्य तमोगुण की उपेक्षा करते हुए उसका परिष्कार करना है।

ये साधनाएं जहां शीघ्र सिद्धि प्रदान करने वाली हैं, वहीं इनकी प्रक्रिया भी सरल-सुगम है। जटिलता न होने के कारण इनकी साधना सामान्य साधक भी कर सकता है। तंत्र शास्त्र की इस विधा में बिना किसी परिश्रम के प्राप्त होने वाली जड़ी-बूटियों एवं सामग्री के प्रयोग का भी विधान है, जिससे सुनिश्चित रूप से इष्ट की सिद्धि होती है।

यह ज्ञान आप सब पाठकों की कामनापूर्ति में भी सहायक हो, इसी उद्देश्य से इस ग्रंथ को मूल संस्कृत सहित सरल हिंदी भाषा में प्रस्तुत किया जा रहा है। इसका प्रयोग जनहित के लिए ही करना श्रेयस्कर है, इस बात का विशेष ध्यान रखें।

- प्रकाशक

वैसे तो ज्ञान का मार्ग प्रत्येक जिज्ञासु के लिए खुला है और आचार्य अपने प्रत्येक शिष्य को बिना किसी पक्षपात के ज्ञान देता है। लेकिन गुह्य विधाओं का ज्ञान देते समय आचार्य को शिष्य की परख करनी होती है, यह निश्चित हो जाने के बाद कि जिसे शक्ति दी जा रही है, वह उसका प्रयोग जनहित में ही करेगा, आचार्य उस विद्या के गुप्त रहस्यों को खोलता है। भगवान शिव ने तंत्रशास्त्र के गुप्त रहस्यों का लंकाधिपति रावण को ज्ञान क्यों दिया, इस बारे में साधारण मन में प्रश्न उठना स्वाभाविक है। लेकिन फिर यह विचार कर मौन रहना पड़ता है कि शिष्य की अंतरात्मा को गुरु के सिवाय और कौन जान सकता है। जिसे हम राक्षसराज रावण कहते हैं, उसके भीतरी व्यक्तित्व-श्रीविष्णु के पार्षद रूप को देखकर भगवान सदाशिव ने ही संभवतया यह ज्ञान दिया होगा।

भूमिका

समुद्र के समान विशाल है भारतीय तंत्र ! इसमें लौकिक और पारलौकिक समुन्नति के वे सभी साधन उपलब्ध हैं, जिनसे सामान्य बुद्धि वाले तथा गहन शास्त्रों के ज्ञाता दोनों ही अपनी-अपनी रुचि के अनुसार इच्छित वस्तुओं अथवा फल की प्राप्ति के मार्ग-निर्देशन प्राप्त कर सकते हैं। आस्तिक जगत् में व्याप्त आस्था की मूल धरोहर तंत्रशास्त्र ही है। यों तंत्रशास्त्र के अनेक विभाग हैं, उन विभागों में से एक हमारी इस पुस्तक का विषय है। वस्तुत: प्रत्येक तंत्र में साधना के शिखर पर पहुंचना अत्यंत आवश्यक है। केवल मानसिक उल्लास और विशेष उत्साह मात्र से काम नहीं चलता है। अत: तंत्र की साधना में आगे बढ़कर अपनी मनवांछित सफलता प्राप्त करने के लिए पूरी जानकारी प्राप्त कर लेना बहुत आवश्यक है।

तंत्र की जिस साधना को करना है, उस पर पूरी श्रद्धा होना बहुत आवश्यक है। इससे किसी भी प्रकार की विघ्न-बाधा का सामना नहीं करना पड़ता, क्योंकि श्रद्धा और विश्वास यही फल देने वाले हैं। पूर्व महर्षियों ने बिना किसी छल अथवा स्वार्थ के इस विद्या का मार्ग प्रकाशित किया है। यह विद्या श्रीशिव की आराधना से परिपूर्ण है तथा कल्याण का मार्ग है। इस प्रकार विचारों की दृढ़ता से कर्म करने में शिथिलता नहीं आती, बल्कि निर्भीकता आती है। इसलिए जिस कर्म या कृत्य को करना चाहते हैं, उसकी जानकारी पहले से प्राप्त करना बहुत ही आवश्यक है।

तंत्रशास्त्र एक महान वैज्ञानिक देन है, जिसके द्वारा बताए गए मार्ग का आलंबन लेकर साधक बड़ी से बड़ी कामनाओं को सहज रूप में साध सकता है। इस विद्या को प्रारंभ में गुप्त रखने का निर्देश था। गुरुजन शिष्य की अनेक प्रकार से परीक्षाएं लेकर तथा क्रमश: उसे अपने पास रखकर ही इस विद्या का ज्ञान देते थे, शिष्य में धैर्य, साहस, शक्ति, परंपरा का ज्ञान आदि को परख कर आत्मकल्याण और लोककल्याण के निमित्त तंत्र-साधना के रहस्य बतलाए जाते थे। परिस्थिति और उसकी आवश्यकता का पूरा बलाबल देखकर, बहुत आवश्यक होने पर शिष्य गुरु की आज्ञानुसार ही प्रयोग करते थे। असमय में छोटी-सी बात पर उग्र हो जाने अथवा प्रतिपक्षी के सामर्थ्य का ज्ञान किए बिना उतावले होकर प्रयोग करना शास्त्रों में पूर्णत: निषिद्ध है।

तंत्रशास्त्रों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि नित्य नैमित्तिकयोः पूर्तो काम्य कर्म विधीयते। अर्थात् नित्य कर्म और नैमित्तिक कर्मों की पूर्णता होने पर ही काम्य कर्म करना चाहिए। कहने का अर्थ यह है कि जो नित्य कर्म करता है, उसे नैमित्तिक कर्म करने का अधिकार होता है तथा जो नित्य एवं नैमित्तिक कर्म नियमित करता है, उसे काम्य कर्म संपादन का अधिकार होता है। यह अधिकार प्रायः हर किसी को आसानी से नहीं मिल पाता।

तंत्र-साधना करने वाले साधक को नित्य कर्म की दृष्टि से आचार और विचारों से पवित्र रहते हुए अपनी परंपरा के अनुसार पवित्रता से स्नान, संध्या, देवपूजन, स्तुति पाठादि करते रहना आवश्यक है। अपनी मर्यादा में रहते हुए शास्त्रों की आज्ञा का पालन करना धर्ममार्ग का प्रथम सोपान है। प्रात: बिस्तर से उठते ही गुरु-स्मरण, इष्टदेव-स्मरण, भूमिवंदन, करतलदर्शन करके सर्वप्रथम अपना दाहिना पांव भूमि पर रखकर दैनिक क्रिया करें। शौच-स्नान से निवृत्त होकर स्वच्छ धुले हुए रेशमी वस्त्र धारण कर पूजा-स्थल पर जाएं। आसन की भूमि को पवित्र करके वहां जल से त्रिकोण बनाकर प्रणाम करें और आसन बिछाकर बैठें।

प्राय: सभी प्रकार की तंत्र-साधनाओं के मूल में गुरु के प्रति पूर्ण निष्ठा, भक्ति और कृतज्ञता भाव के बिना कितना ही प्रयास करें, सफलता दूर ही रहती है। गुरु का महत्त्व सर्वोपरि है। जब भी साधना, पूजा, जप, प्रयोग आदि आरंभ करें, तब पहले निम्न मंत्र से गुरुवंदन अवश्य करें।

ॐ गुं गुरुभ्यो नमः इस मंत्र का जप करने से गुरु, परमगुरु और परमेष्ठी गरु अत्यंत प्रसन्न होते हैं और आशीर्वाद देते हैं, जिससे साधना अथवा प्रयोग का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। साधना में विघ्न भी बहुत आते हैं, अत: ॐ गं गणपतये नमः मंत्र का एक माला जप करना भी आवश्यक होता है।

जिस साधक को गुरु द्वारा मंत्र की दीक्षा न मिली हो, उसके लिए यह सरलतम उपाय है। गुरु और गणपति के मंत्र जप से साधना अथवा प्रयोग में कोई त्रुटि नहीं रह जाती। तंत्रों में विधि की प्रधानता पर बहुत बल दिया गया है। विधि की अपूर्णता, सम-विषमता, न्यूनाधिक अथवा कर्म-विपर्ययता आदि से दोष हो जाता है। कार्य सफल नहीं होते तथा शरीर और मन में विकार आने लगते हैं। इसलिए पूरी विधि समझ लेने के बाद ही कर्म करना चाहिए। जिन कर्मों का निषेध किया गया है, उस निषेध का भी पूर्णतया पालन करना चाहिए।

तंत्र-साधक को चाहिए कि वह साधना में प्रथम सोपान के रूप में गायत्री मंत्र का जप करे और प्रयोग के अंत में महामृत्युंजय मंत्र का जप अवश्य करे। इससे दोष शमन तथा प्रायश्चित शमन होता है और सफलता मिलती है। महामृत्युंजय मंत्र श्रीशिव का है। सृष्टि के समापन की व्यवस्था करने वाली तीसरी ईश्वरी शक्ति का नाम शिव है। ब्रह्मा (उत्पत्ति) और विष्णु (पालन) की भांति इस तीसरी शक्ति को "शिव" की संज्ञा से अभिहित किया गया है। शिव के अन्य नाम भी हैं-शंकर, शंभु, महादेव, कपर्दी, महेश्वर, महेश, त्रिलोचन, कापालिक और भूतेश आदि। सृष्टि का अंतिम आयाम (समाप्ति) शिव के द्वारा नियंत्रित होता है। तंत्रशास्त्र के मुख्य आचार्य श्रीशिव ही हैं। शिव ने ही प्राणियों का अल्प सामर्थ्य देखकर थोड़े परिश्रम से ही भक्तों की कार्यसिद्धि के निमित्त तंत्रशास्त्र का उपदेश दिया है। उड्डीश तंत्र का उपदेश भगवान शिव ने लंकाधिपति रावण को दिया था, इसी से इस तंत्र की महत्ता बहुत अधिक मानी गई है। इसमें मंत्र और औषधि (वनस्पति) का प्रयोग मुख्य रूप से होता है। यह तंत्र-साधना अपने मूल रहस्यों से सराबोर है और अपने आप में अत्यंत दुर्लभ और गोपनीय है।

इस पुस्तक में तंत्र की गोपनीय साधनाओं और प्रयोगों के रहस्यों को पूर्णता के साथ स्पष्ट किया गया है, साथ ही साधकों को उनसे संबंधित पूरी-पूरी जानकारी देने का प्रयास भी किया गया है। इस पुस्तक में वनस्पतियों के उन प्रयोगों का पूर्ण समावेश है, जो अपने आप में दुर्लभ, कठिन और अप्राप्य हैं। यह पुस्तक साधकों के लिए दीप-स्तंभ के समान है, जिसके प्रकाश में वे शिव के कथन को हृदयंगम करने में सफल होंगे। सत्य, इंद्रियदमन, दया, नम्रता, अहिंसा, पवित्रता, भक्ति, सदाचार, अक्रोध, क्षमा एवं उदारता आदि गुणों को अपने में विकसित करते हुए तंत्र-साधना करने से ही देवकृपा प्राप्त होती है।

- सी. एम. श्रीवास्तव शास्त्री

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