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रात का रिपोर्टर

निर्मल वर्मा

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :182
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8934
आईएसबीएन :9788126340934

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वे दिन, लाल टीन की छत और एक चिथड़ा सुख जैसी कालजयी कृतियों के बाद उनका उपन्यास रात का रिपोर्टर सम्भवतः आपातकाल के दिनों को लेकर लिखा गया हिन्दी में पहला उपन्यास है...

Raat Ka Reporter - A Hindi Book by Nirmal Verma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निर्मल वर्मा हिन्दी के उन गिने-चुने साहित्यकारों में से हैं, जिन्हें अपने जीवन-काल में ही अपनी कृतियों को ‘क्लासिक’ बनते देखने का दुर्लभ सौभाग्य प्राप्त हुआ है। प्रायः सभी आलोचक इस बात पर सहमत हैं कि हिन्दी की वर्तमान कहानी-दिशा को एक निर्णायक मोड़ देने का श्रेय उन्हें है।

वे दिन, लाल टीन की छत और एक चिथड़ा सुख जैसी कालजयी कृतियों के बाद उनका उपन्यास रात का रिपोर्टर सम्भवतः आपातकाल के दिनों को लेकर लिखा गया हिन्दी में पहला उपन्यास है। और, उनके कथा-लेखन में नये मोड़ का सूचक भी।

उपन्यास का कथा-नायक रिशी यहाँ एक ऐसे पत्रकार के रूप में सामने है, जिसका आन्तरिक संकट उसके बाह्य सामाजिक यथार्थ से उपजा है...हालात ने उसे जैसे अस्वस्थ और शंकालु बना दिया है। बाहर का डर अन्दर के डर से घुलमिल कर रिशी के जीवन में तूफान खड़ा कर देता है, जिससे न भागा जा सकता है और न ही जिसे भोगा जा सकता है।

वस्तुतः यह एक ऐसी कथाकृति है, जो बुद्धिजीवी की चेतना पर पड़ने वाले युगीन दबावों को रेखांकित करती है और उन्हें उसके व्यवहार में घटित होते हुए दिखाती है। इससे होते हुए हम जिस माहौल से गुजरते हैं, वह चाहे हमारे अनुभव से बाहर रहा हो या हम उससे बाहर रहे हों, लेकिन वह हमारी दुनिया की आज़ादी के बुनियादी सवालों से परे नहीं है।

रात का रिपोर्टर

1

टेलीफोन-बूथ के शीशे से बाहर वह दिखाई दी- एक छोटी-सी लड़की साइकिल के पिचके टायर को पेड़ की एक सूखी शाख से हाँकते हुए ले जा रही थी। टायर कभी आगे निकल जाता तो वह भागते हुए उसे पकड़ लेती, कभी वह आगे निकल जाती और टायर का रबड़ कोलतार की चिपचिपाती सड़क पर अटक जाता, लड़खड़ाकर गिर जाता; वह पीछे मुड़कर उसे दुबारा उठाती, सीधा करती, अपनी शाख हवा में घुमाती और वह मरियल मेमने-सा फिर आगे-आगे लुढ़कता जाता।

फोन कान से चिपका था, आँखें लड़की पर; धूप के सुनहरी धब्बे बूथ के शीशे पर चमचमा रहे थे। ‘हलो...हलो...’ वह कुछ बेताब होकर चिल्लाया। फोन के भीतर की घुर्र-घुर्र में दूसरी तरफ की आवाज़ कुछ इसी तरह अटक जाती थी, जैसे बच्ची का टायर। उसके हाथ के पसीने में फोन चिपचिपा रहा था-‘हलो, राय साहब, सुनिए, यह मैं हूँ।’ उसने जल्दी से फोन दूसरे कान में लगाया और धीरज की साँस ली, ‘जी हाँ, मैंने इसलिए फोन किया था कि आज मैं देर से आऊँगा...जी हाँ, पहली किस्त अपने साथ ले आऊँगा...जी नहीं, घर में सब ठीक हैं; माँ, उनके बारे में क्या ?’ वह हँसने लगा, ‘नहीं जी, उन्हें कुछ नहीं हुआ।’ राय साहब की ह्यूमर माँ के आस-पास घूमती थी। वे सोचते थे, माँ एक बहाना है, एक फैंटेसी, जिसकी आड़ में वह उनसे मिलना टालता रहता था। उन्हें कभी विश्वास नहीं होता था कि अधेड़ उम्र के रिपोर्टरों की बूढ़ी माएँ हो सकती हैं। ठीक है, दफ्तर आऊँगा, तो बात होगी। नहीं, अभी नहीं, मैं टेलीफोन-बूथ से बोल रहा हूँ, दूसरे लोग इंतज़ार में खड़े हैं।...उसने फोन को जल्दी से रख दिया; राय साहब की आवाज़ बीच में ही कट गई, आधी इधर, आधी उधर, वे शायद अब भी कुछ कह रहे थे, लेकिन वह बूथ के दरवाजे को धकेलकर बाहर निकल आया था।

लड़की पहिए का टायर घुमाते हुए बहुत दूर निकल गई थी। हवा में उसकी फ्रॉक गुब्बारे की तरह फूल गई थी, जिसके नीचे दो नंगी टाँगे सितंबर की रोशनी में चमक रही थीं। फिर वह एक सँकरी लेन की तरफ मुड़ी, एक पल पीछे मुड़कर उसकी ओर देखा, टहनी को हवा में घुमाया और पलक झिपाते ही छिप गई।

वह ठीक उस ठिकाने को देखता रहा, जहाँ बच्ची लोप हुई थी। नई दिल्ली के इस हिस्से में अक्सर ऐसा होता था; कोई एक क्षण के लिए दिखाई देता था-साइकिल चलाता हुआ कोई क्लर्क, रेंगता हुआ ठेला, रिरियाता हुआ कोई भिखारी ! इससे पहले कि आँख उन तक पहुँचे, वे अंतर्धान हो जाते थे, कोई गली उन्हें निगल लेती...और सड़क पहले-सी सुनसान और निस्पंद पड़ी रहती, जैसे वहाँ किसी तरह की घटना या दुर्घटना होना असंभव हो...

शायद इसलिए उन्होंने यह जगह चुनी थी; खाली और खुली सड़क, जहाँ कोई उन पर संदेह नहीं कर सकता था। हम यहाँ मिलेंगे-टेलीफोन-बूथ के आगे। ठीक इसी वक्त..." उन्होंने घड़ी देखी, फिर उससे कहा, "आप भी अपनी घड़ी देखिए।" ग्यारह बजने में पाँच मिनिट बाकी थे, "बस ठीक ग्यारह बजे...मैं कार में बैठा रहूँगा, आप चुपचाप दरवाज़ा खोलकर भीतर आ जाइएगा..."

वह चले गए; उसी तरह लोप हो गए, जैसे अभी कुछ देर पहले वह बच्ची आँखों से ओझल हो गई थी।

यह कल हुआ था। तब से पूरे चौबीस घंटे का राउंड लगाकर धरती इसी जगह आ पहुँची थी, जहाँ वह अब खड़ा था। वह बैठा क्यों नहीं रहा ? क्यों वह एक इशारे से डरे हुए कुत्ते की तरह उनके पीछे-पीछे चला आया ? अपनी हड़बड़ाहट में वह ठीक से उस आदमी को पहचान भी नहीं पाया, जो चुपचाप लायब्रेरी के भीतर उसकी कुर्सी के पीछे आकर खड़ा हो गया था। उसकी लम्बी आदमकद छाया तिरछी होकर उसकी नोटबुक के सफेद कागज पर गिर रही थी। उसने डेस्क से सिर उठाया, तो उनका मृदु स्वर सुनाई दिया, "माफ कीजिए, मैं आपको डिस्टर्ब कर रहा हूँ। क्या आप दो मिनिट के लिए बाहर आ सकते हैं ?"

पहले क्षण खयाल आया-वह आदमी उन लोगों में होगा, जो अखबार में उसके रिपोर्ताज या रिपोर्टें पढ़कर कभी-कभी उससे मिलने आ जाते थे, लेकिन वे अधिकतर बाहर, छोटे कस्बों से आए लुटे-पिटे पत्रकार होते थे, बेरोजगार किस्म के फ्रीलांसर, जो दिन-भर अखबार के दफ्तरों के चक्कर लगाते थे और शाम को प्रेस क्लब में मुफ्त की बियर के लालच में अपने किसी मित्र की राह टोहते थे...किंतु जो सज्जन उसके सामने खड़े थे, उन्होंने टाई और सूट पहन रखा था, लम्बा और भारी जिस्म, संपन्न, भरा-पूरा चेहरा और एक शालीन, हल्के-से संकोच में खुली मुस्कराहट, जिसमें एक अजीब-सी औपचारिक दूरी थी; क्या उनकी यह मुस्कराहट थी, जिसने उसे संशय में डाल दिया था ? किन्तु लायब्रेरी में कोई प्रश्न पूछना असंभव था। वह जल्दी-जल्दी अपने डेस्क पर बिखरे कागज-पत्तर समेटने लगा कि अचानक उसे अपने कन्धे पर उनका स्पर्श महसूस हुआ-"यह सब यहीं रहने दीजिए, मुझे आपसे सिर्फ एक मिनिट के लिए मिलना है, मैं बाहर खड़ा हूँ।"

वे बाहर चले गए, लायब्रेरी के लॉन पर एक पेड़ की छाया-तले खड़े हो गए, पेड़ की ही तरह तटस्थ और उदासीन-अब उनके चेहरे पर कोई मुस्कराहट नहीं थी।

"आपने शायद मुझे नहीं पहचाना ?"

लायब्रेरी के बाहर खुली रोशनी में पहली बार उनका चेहरा ध्यान से देखा। कहीं देखा ज़रूर है, किसी सुदूर स्मृति का दरवाज़ा थोड़ा-सा खुला, जिसके बाहर एक शाम निकल आई, एक घर, एक मन्द, बुझी हुई घड़ी...

"अनूप भाई के साथ तो नहीं ?"

"ज़रा धीरे बोलिए", उन्होंने चारों तरफ देखा। फिर बहुत ही धीमी आवाज़ में बोले, "हाँ, वहीं...उन्हीं के घर।"

यह शुरुआत थी; सरसराते पेड़ के नीचे आतंक का एक चमचमाता चकत्ता उनके बीच चला आया। डर के आने के कितने गोपनीय रास्ते हैं, लेकिन जब वह सचमुच आता है, तो सब रास्ते अपने-आप बंद हो जाते हैं, सिर्फ वह रह जाता है-कैंसर के कीटाणु की तरह-जिसके आगे मरीज की सब छोटी बीमारियाँ अचानक खत्म हो जाती हैं। अस्पताल में उसकी पत्नी की दहशत-जैसे दीवार लाँघकर-यहाँ चली आई थी, पेड़ के नीचे, सितम्बर की छाया में, जहाँ वह उसके सामने खड़े थे...वे कुछ आगे झुक आए, बिलकुल उसके मुँह के पास, जहाँ उनकी साँस उसके चेहरे को छू रही थी।

"मुझे आपसे कुछ कहना था..." उनका स्वर बिलकुल शान्त और ठंडा था, "मैं कल यहाँ इसी वक्त आऊँगा, यहाँ लायब्रेरी में नहीं...वहाँ सड़क पर, टेलीफोन-बूथ के आगे।" उन्होंने चलते-चलते कहा, "आप किसी से कहिएगा नहीं कि मैं आपसे मिला हूँ।"

उसने सिर उठाया तो देखा, वहाँ कोई नहीं था, जैसे उसके कानों में फँसे, फुसफुसाते शब्द कहीं और से आए थे...उन्होंने कब लॉन पार किया, कब बजरी की सड़क पर आए, कब गेट के बाहर चले गए, उसे कुछ भी पता नहीं चला।

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