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मनोविश्लेषण

सिगमंड फ्रायड

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :392
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 8838
आईएसबीएन :9788170289968

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‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ का पूर्ण और प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद

मनोविज्ञान के क्षेत्र में मनोविश्लेषण जैसी सूक्ष्म युक्ति की खोज तथा स्थापना का श्रेय सिगमंड फ्रायड को जाता है। उनकी इस खोज ने मानव मन की बहुत सी गुत्थियों को सुलझाया है और मनोविश्लेषण, मनोविज्ञान की एक स्वतंत्र शाखा के रूप में विकसित हुई है।

सिंगमंड फ्रायड का जन्म 6 मई 1856 को आस्ट्रिया में हुआ था। ‘ए जनरल इन्ट्रोडक्शन टु साइको-अनालिसिस’ उनका एक क्लासिक ग्रन्थ माना जाता है, जिसका प्रामाणिक अनुवाद यह पुस्तक है। इसके अतिरिक्त सिगमंड फ्रायड ने ‘एन इंटरप्रिटेशन ऑफ दि ड्रीम्स’ तथा ‘सिविलाइज़ेशन एण्ड इट्स कंटेंट’ जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें भी दी हैं जिनसे मनुष्य के यौन व्यवहार तथा उसके सपनों की व्याख्या की जा सकी है।

नई सदी के मनोवैज्ञानिक अब आगे सिगमंड फ्रायड के सिद्धांतों पर काम कर रहे हैं।



व्याख्यान

1

विषय-प्रवेश

मैं नहीं जानता कि मनोविश्लेषण के विषय में आपने पहले कितना पढ़ या सुन रखा है, और आपको इस विषय की कितनी जानकारी है। पर मेरे व्याख्यानों का शीर्षक ही 'मनोविश्लेषण पर परिचयात्मक व्याख्यान' होने के कारण मैं स्वभावतः यह मानकर चलूंगा कि आप इस विषय में कुछ नहीं जानते और आपको इसकी आरम्भिक बातों का परिचय कराने की आवश्यकता है।

परन्तु मैं समझता हूं, इतना तो आप अवश्य जानते हैं कि मनोविश्लेषण स्नायुरोगियों की चिकित्सा करने की एक विधि है। अब मैं आपको इस बात का एक दृष्टांत दे सकता हूं कि मनोविश्लेषण की प्रक्रिया अन्य चिकित्सा-पद्धतियों में प्रचलित प्रक्रिया से भिन्न होती है, और बहुत बार तो उससे उल्टी होती है। जब हम किसी रोगी को किसी नई चिकित्सा पद्धति से इलाज कराने के लिए कहते हैं, तब प्रायः उसकी कठिनाइयां कम करके बताते हैं, और बड़े विश्वास के साथ उसे इसके सफल होने का यकीन दिलाते हैं। मेरी राय में यह सर्वथा उचित है, क्योंकि इस तरह सफलता की सम्भावना बढ़ जाती है। पर किसी स्नायुरोगी का मनोविश्लेषण द्वारा इलाज करते हुए हमारा तरीका दूसरा होता है। हम उसे समझाते हैं कि इस विधि में कठिनाइयां हैं, बहत देर लगती है, और तम्हें ये-ये परेशानियां उठानी पड़ेंगी और ये-ये त्याग करने होंगे। परिणाम के बारे में हम उससे कह देते हैं कि हम कोई निश्चित वायदा नहीं कर सकते; हम कहते हैं कि सफलता इस बात पर निर्भर है कि तुम स्वयं कितनी कोशिश करते हो, कितनी समझदारी और धीरज से काम लेते हो और अपने-आपको कहां तक परिस्थितियों के अनुकूल बनाते हो। यह उल्टा दिखाई देने वाला तरीका हम कुछ महत्त्वपूर्ण कारणों से अपनाते हैं, जिनका थोड़ा परिचय शायद आपको आगे चलकर मिले।

जिस तरह की बात मैं अपने स्नायुरोगियों से कहा करता हूं, उसी तरह की आपसे भी कहने के लिए माफी चाहता हूं। मैं आपको निश्चित रूप से यह सलाह देता हूं कि आप दूसरी बार मेरे व्याख्यान सुनने न आएं। और इसी इरादे से मैं आपके सामने यह कहता हूं कि मनोविश्लेषण के बारे में मुझसे आपको अधूरी ही जानकारी मिल सकती है, और उन कठिनाइयों की चर्चा करता हूं जो आपके स्वतन्त्र निर्णय करने के मार्ग में बाधक होंगी। मैं आपको यह बताऊंगा कि आपकी शिक्षा-दीक्षा का जो सारा ढंग रहा है, और आपको जिन रीतियों से विचार करने का अभ्यास पड़ गया है, उन सबने आपको अनिवार्यतः मनोविश्लेषण का विरोधी वना दिया है। मैं यह भी बताऊंगा कि अपने मन के इस सहज विरोध को काबू में रखने के लिए आपको अपने मन पर कितना नियन्त्रण रखना होगा। स्वभावतः मैं अभी यह नहीं बता सकता कि मेरे व्याख्यानों से आप मनोविश्लेषण को कितना समझ पाएंगे, पर मैं इतना निश्चित रूप से कह सकता हूं कि ये व्याख्यान सुनकर आप न तो मनोविश्लेषण-सम्बन्धी जांच-पड़ताल करना सीख पाएंगे और न मनोविश्लेषण-चिकित्सा करने के योग्य हो जाएंगे। और फिर, यदि आपमें से कोई सज्जन मनोविश्लेषण के ऊपरी परिचय से सन्तुष्ट न रहकर इससे स्थायी नाता जोड़ना चाहेगा तो उसे मैं निरुत्साहित ही नहीं करूंगा, ऐसा करने के विरुद्ध चेतावनी भी दूंगा। कारण यह है कि आज की परिस्थितियों में इसे जीवनकार्य के रूप में अपनाने वाला व्यक्ति विद्या के क्षेत्र में सफलता पाने के मौकों से तो वंचित हो ही जाएगा, और बाद में व्यवसाय के रूप में यह कार्य आरम्भ करने पर उसे पता चलेगा कि वह एक ऐसे समाज के बीच रह रहा है जो उसके लक्ष्यों और आशयों को गलत रूप में समझता है, उसे संशय और शत्रुता की दृष्टि से देखता है, और उसे अपनी तमाम छिपी हुई दुष्टताओं से तंग करता है। इस समय यूरोप में हो रहे युद्ध के दुष्कार्यों से शायद आप यह अनुमान कर सकते हैं कि उसे कैसे असंख्य विरोधों का सामना करना पड़ता है।

परन्तु सदा कुछ ऐसे लोग हुआ करते हैं जिन्हें ज्ञानवृद्धि का इतना प्रबल आकर्षण होता है कि वे ऐसी सब असुविधाएं झेल जाते हैं। यदि आपमें कुछ ऐसे लोग हैं जो मेरी चेतावनी के बाद भी मेरा दूसरा व्याख्यान सुनने आएंगे तो उनका मैं स्वागत करूंगा। पर मनोविश्लेषण की जिन सहज कठिनाइयों की मैंने चर्चा की है, उनका तो आप सबको ही पता होना चाहिए।

सबसे पहले, यह विषय पढ़ाने और प्रस्तुत करने की समस्या है। डाक्टरी पढ़ते हुए आपको अपनी आंखों का प्रयोग करने की आदत पड़ गई है। शरीर के अवयवों के नमूने, रासायनिक क्रियाओं के अवक्षेप और मांसपेशी के स्नायुओं के उद्दीपन से पेशी का सिकुड़ना आप आंखों से देख सकते हैं। बाद में आप रोगियों को देखते हैं; अपनी ज्ञानेन्द्रियों से आपको रोग के लक्षणों का ज्ञान होता है; रोगावस्था-सम्बन्धी प्रक्रम आपके सामने प्रदर्शित किए जा सकते हैं, और बहुत बार तो उनके उत्तेजक कारण भी, अलग करके, आपके सामने प्रस्तुत किए जा सकते हैं। सर्जरी या शल्यचिकित्सा में आप रोगियों पर किए जाने वाले कार्य देखते हैं और आपको भी वे कार्य अपने हाथ से करने का मौका दिया जाता है। मनश्चिकित्सा (Psychiatry) में भी रोगियों का, तथा उनके भाव, वचन और व्यवहार में हुए परिवर्तनों का आंखों के सामने प्रदर्शन किया जाता है जिससे बहुत-से तथ्य आपके मन पर गहरी छाप छोड़ जाते हैं। इस प्रकार चिकित्सा-शास्त्र के अध्यापक का अधिकतर कार्य किसी विवरण बताने वाले पथप्रदर्शक का सा होता है, जो मानो आपको एक संग्रहालय में घुमा रहा है। इस तरह, वहां प्रदर्शित वस्तुओं से आपका सीधा या प्रत्यक्ष सम्बन्ध कायम हो जाता है और आप यह मानने लगते हैं कि यह नये तथ्यों के अस्तित्व को आपने स्वयं अनुभव किया है। पर, बदकिस्मती से, मनोविश्लेषण में यह सब नहीं होता। मनोविश्लेषण द्वारा इलाज में रोगी और चिकित्सक के बीच सिर्फ कुछ शब्दों का आदान-प्रदान होता है। रोगी बात करता है, अपने पिछले अनुभव और इस समय की अनुभूतियां बताता है, शिकायतें करता है, और अपनी इच्छाएं तथा भाव का मनोविकार प्रकट करता है। चिकित्सक ध्यान से उसकी बात सुनता है, उसके विचार-मार्ग को किसी दिशा में ले जाने की कोशिश करता है, उसे याद दिलाता है, कुछ विशेष दिशाओं में ध्यान ले जाने के लिए उसे मजबूर करता है, उसके सामने कुछ स्पष्टीकरण पेश करता है, और इस तरह उसमें इसे समझने या इसका खण्डन करने की जो प्रतिक्रियाएं पैदा होती हैं, उन्हें ध्यान से देखता है। यह हालत देखकर रोगी के नासमझ रिश्तेदार अपना अविश्वास प्रकट किए बिना नहीं रह सकते, 'सिर्फ बातचीत से भी कहीं बीमारी का इलाज हो सकता है?' ये लोग कोई वैसी 'हरकत' देखकर ही प्रभावित होते हैं जैसी सिनेमा में दिखाई जाती है। इनका सोचने का तरीका निस्सन्देह तर्कहीन और असंगत होता है, क्योंकि ये वही लोग हैं जो सदा यह विश्वास रखते है कि स्नायुरोगियों की तकलीफें 'उनकी अपनी कल्पना में होती हैं।' शुरू में शब्द और जादू एक ही चीज थे, और आज भी शब्दों में कछ जादुई शक्ति कायम है। शब्दों द्वारा एक आदमी दूसरे को अधिक से अधिक सुख भी पहुंचा सकता है और उसे घनी निराशा में भी डाल सकता है: शब्दों द्वारा ही अध्यापक अपना ज्ञान छात्रों को देता है; शब्दों द्वारा ही कुशल वक्ता अपने श्रोताओं को हंसाता और रुलाता है और उनसे अपना मनचाहा फैसला करा लेता है। शब्द भावों को जगाते हैं और इनके द्वारा मनुष्य सब देशों और कालों में, दूसरे मनुष्यों पर अपना प्रभाव डालता है। इसलिए यदि मानसिक चिकित्सा में सिर्फ शब्दों का प्रयोग होता है तो हमें इसी कारण इसे हल्की नज़र से नहीं देखना चाहिए, और चिकित्सक तथा रोगी के बीच होने वाली बातचीत को पर्दे की ओट से सुनकर ही सन्तोष करना चाहिए।

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