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गीता प्रेस, गोरखपुर >> विवेक चूड़ामणि

विवेक चूड़ामणि

मुनिलाल

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 880
आईएसबीएन :81-293-0324-8

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प्रस्तुत है शंकराचार्य के द्वारा रचित ग्रन्थ....

Vivek Churamani a hindi book by Munilal - विवेक चूड़ामणि - मुनिलाल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

भगवान् श्रीशंकराचार्य के ग्रन्थों में ‘विवेक-चूड़ामणि’ एक प्रधान ग्रन्थ हैं। यह मुमुक्षु पुरुषों के लिये बड़ा ही उपयोगी है। हिन्दी में इसके कई अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तु उनके दाम अधिक हैं। सस्ते मूल्य में प्रेमी पाठकों को यह ग्रन्थ मिल जाय, प्रधानतः इसी उदेश्य से गीताप्रेस से यह प्रकाशित किया गया है। श्रीशंकराचार्य के भगवद्गीता- भाष्य श्रीविष्णुसहस्त्रनामके भाष्य का अनुवाद एवं कुछ उपनिषदों के भाष्य तथा उनके कुछ प्रकरण ग्रन्थों के भी अनुवाद यहाँ से छपे हैं।
आशा हैं प्रेमी पाठक इससे अधिकाधिक लाभ उठावेंगे।

विनीत
प्रकाशक

विवेक-चूडामणि


नन्दितानि दिगन्तानि यस्यानन्दाम्बुविन्दुना।
पूर्णानन्दं प्रभुं वन्दे स्वानन्दैकस्वरूपिणम्।।

मंगलाचरण


सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं      तमगोचरम्।
गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम्।। 1 ।।

जो अज्ञेय होकर भी सम्पूर्ण वेदान्तके के सिद्धान्त-वाक्यों से जाने जाते है। उन पर परमानन्दस्वरूप सद्गुरुदेव श्रीगोविन्दको मैं प्रणाम करता हूँ।


ब्रह्मनिष्ठाका महत्त्व



जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता  विद्वत्त्वमस्मात्परम्।
आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति- र्मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैर्विना लभ्यते।। 2 ।।

जीवों को प्रथम तो नरजन्म ही दुर्लभ है, उससे भी पुरुषत्व और उससे भी ब्राह्मणत्वका मिलना कठिन है; ब्राह्मण होने से भी वैदिक धर्मका अनुगामी होना और उससे भी विद्वत्ताका होना कठिन है। (यह सब कुछ होने पर भी) आत्मा और अनात्माका विवेक सम्यक् अनुभव –ब्रह्मात्मभाव से स्थिति और मुक्ति-ये तो करोड़ों जन्मों में किये हुए शुभ कर्मों के परिपाकके बिना प्राप्त हो ही नहीं सकते।


दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः।।  3 ।।


भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्तिका कारण है वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त) होनेकी इच्छा) और महान् पुरुषों का संग- ये तीनों ही दुर्लभ हैं।

लब्ध्वा कथश्चिन्नरजन्म दुर्लभं
तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारदर्शनम्।
यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढ़धीः
स ह्यात्महा स्वं विनिहन्त्यसद्ग्रहात्।। 4 ।।


किसी प्रकार इस दुर्लभ मनुष्यजन्म को पाकर और उसमें भी, जिसमें श्रुतिके सिद्धान्त का ज्ञान होता है ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़बुद्धि अपने आत्माकी मुक्ति के लिये प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चय ही आत्मघाती है; वह असत् में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है।


इतः को न्वस्ति मूढ़ात्मा यस्तु स्वार्थे प्रमाद्यति।
दुर्लभं मानुषं देहं प्राप्य तत्रापि पौरुषम् ।। 5।।


दुर्लभ मनुष्य-देह और उसमें भी पुरुषत्व को पाकर जो स्वार्थ-साधन में प्रमाद करता है, उससे अधिक मूढ और कौन होगा ?


वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान्
कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः
आत्मैक्यबोधेन विना विमुक्ति-
र्न सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेऽपि।। 6 ।।


भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करें, देवताओं का यजन करें, नाना शुभ कर्म करें अथवा देवताओं को भजें, तथापि जबतक ब्रह्म और आत्मा की एकता का बोध नहीं होता तबतक सौ ब्रह्माओं के बीत जानेपर भी (अर्थात् सौ कल्पमें भी) मुक्त नहीं हो सकती।

अमृतत्वस्य नाशास्ति वित्तेनेत्येव हि श्रुतिः।
ब्रवीति कर्मणो मुक्तेरहेतुत्वं स्फुटं यतः।। 7 ।।

 
क्योंकि ‘धनसे अमृतत्वकी आशा नहीं है’ यह श्रुति ‘मुक्ति का हेतु कर्म नहीं है’ यह बात स्पष्ट बतलाती है।

ज्ञानोपलब्धिका उपाय



अतो विमुक्तयै प्रयतेत विद्वान्
संन्यस्तबाह्यार्थसुखस्पृहः सन् ।
सन्तं महान्तं समुपेत्य देशिकं
तेनोपदिष्टार्थसमाहितात्मा ।। 8।।


इसलिये विद्वान सम्पूर्ण बाह्य भोगों की इच्छा त्यागकर सन्तशिरोमणि गुरुदेवकी शरण जाकर उनके उपदेश किये हुए विषय में समाहित होकर मुक्ति के लिये प्रयत्न करे।

उद्धरेदात्मनात्मानं मग्रं संसारवारिधौ।
योगारूढत्वमासाद्य सम्यग्दर्शननिष्ठया।। 9।।

और निरन्तर सत्य वस्तु आत्मा के दर्शन में स्थिति रहता हुआ योगारूढ होकर संसार-समुद्र में डूबे हुए अपने आत्माका आप ही उद्धार करे।


संन्यस्य सर्वकर्माणि भवबन्धविमुक्तये।
यत्यतां पण्डितैधीरैरात्माभ्यास उपस्थितैः ।।  10 ।।


आत्माभ्यासमें तत्पर हुए धीर विद्वानों को सम्पूर्ण कर्मों को त्यागकर भव-बन्धन की निवृत्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये।


चित्तस्य शुद्धये कर्म न तु वस्तूपलब्धये ।
वस्तुसिद्धिर्विचारेण न किश्चित् कर्मकोटिभिः।।  11  ।।


कर्म चित्त की शुद्धि के लिये ही है, वस्तूपलब्धि (तत्त्वदृष्टि) के लिये नहीं। वस्तु-सिद्ध तो विचारसे ही होती है, करोड़ों कर्मों से कुछ भी नहीं हो सकता।

सम्यग्विचारतः सिद्धा रज्जुतत्वावधारणा।
भ्रान्त्योदितमहासर्पभयदुःखविनाशिनी ।। 12 ।।

भलीभाँति विचार से सिद्ध हुआ रज्जुतत्त्वका निश्चय भ्रम से उत्पन्न हुए महान् सर्पभयरूपी दुःखको नष्ट करनेवाला होता है।


अर्थस्य निश्चयो दृष्टों विचारेण हितोक्तितः।
न स्नानेन न दानेन प्राणायामशतेन वा ।। 13 ।।


कल्याणप्रद उक्तियों द्वारा विचार करने से ही वस्तु का निश्चय होता देखा जाता है; स्नान, दान अथवा सैकड़ों प्राणायामों से नहीं।

अधिकारिनिरूपण


अधिकारिणमाशास्ते  फलसिद्धिर्विशेषतः।
उपाया देशकालाद्याः सन्त्यस्मिन्सहकारिणः ।। 14 ।।

विशेषतः अधिकारी को ही फल-सिद्धि होती है; देश, काल आदि उपाय भी उसमें सहायक अवश्य होते हैं।  


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