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पौराणिक कथाएँ >> नवग्रह

नवग्रह

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :19
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 867
आईएसबीएन :81-293-0470-8

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प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय ज्योतिष के नौ ग्रहों का वर्णन...

Navgrah a hindi book by Gitapress - नवग्रह - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सूर्य

सूर्यदेव की दो भुजाएँ हैं, वे कमल के आसनपर विराजमान रहते हैं; उनके दोनों हाथों में कमल सुशोभित हैं। उनके सिरपर सुन्दर स्वर्णमुकुट तथा गले में रत्नों की माला है। उनकी कान्ति कमल के भीतरी भाग-सी है और वे सात घोड़ो के रथ पर आरूढ़ रहते हैं।

सूर्य देवता का एक नाम सविता भी है, जिसका अर्थ है —सृष्टि करनेवाला ‘सविता सर्वस्य प्रसविता’ (निरुक्त 10/31)। ऋगिवेद के अनुसार आदित्य-मण्डल के अन्तः स्थित सूर्य देवता सबके प्रेरक, अन्तर्यामी तथा परमात्मस्वरूप हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार सूर्य ब्रह्मस्वरूप हैं, सूर्य से जगत् उत्पन्न होता है और उन्हीं में स्थित है। सूर्य सर्वभूतस्वरूप सनातन परमात्मा हैं। यही भगवान् भास्कर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र बनकर जगत् का सृजन, पालन और संहार करते हैं, सूर्यनवग्रहों में सर्वप्रमुख देवता है।

जब ब्रह्मा अण्डका भेदन कर उत्पन्न हुए, तब उनके मुख से ‘ॐ’ यह महाशब्द उच्चारित हुआ। यह ओंकार परब्रह्म है और यही भगवान् सूर्यदेव का शरीर है। ब्रह्मा के चारों मुखों से चार वेद आविर्भूत हुए, जो तेज से उद्दीप्त हो रहे थे। ओंकार के तेजने इन तारों को आवृत कर लिया। इस तरह ओंकार के तेजसे मिलकर चारों एकीभूत हो गये। यही वैदिक तेजोमय ओंकारस्वरूप सूर्य देवता हैं। यह सूर्यस्वरूप तेज सृष्टि के सबसे आदि में पहले प्रकट हुआ, इसलिये इसका नाम आदित्य पड़ा।

एक बार दैत्यों, दानवों एवं राक्षसों ने संगठित होकर देवताओं के विरुद्ध युद्ध ठान दिया और देवताओं को पराजित कर उनके अधिकारों को छीन लिया। देवमाता अदिति इस विपत्ति से त्राण पाने के लिए भगवान् सूर्य की उपासना करने लगीं। भगवान् सूर्य ने प्रसन्न होकर अदिति के गर्भ से अवतार लिया और देवशत्रुओं को पराजित कर सनातन वेदमार्ग की स्थापना की इसलिए भी वे आदित्य कहे जाने लगे।

भगवान् सूर्य का वर्ण लाल है। इनका वाहन रथ है। इनके रथ में एक ही चक्र ही, जो संवत्सर कहलाता है। इस रथ में मासस्वरूप बारह अरे हैं, ऋतुरूप छः नेमियाँ और तीन चौमासे-रूप तीन नाभियाँ हैं इनके साथ साठ हजार बालखिल्य स्वस्तिवाचन और स्तुति करते हुए चलते हैं। ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष, राक्षस औऱ देवता सूर्य नारायणकी उपासना करते हुए चलते हैं। चक्र, शक्ति, पाश और अंकुश इनके प्रमुख अस्त्र हैं।

भगवान् सूर्य सिंह राशि के स्वामी हैं। इनकी महादशा छः वर्षकी होती है। सूर्य की प्रसन्नता और शान्ति के लिये नित्य सूर्यार्घ्य देना चाहिए और हरिवंशपुराणका श्रवण करना चाहिए। माणिक्य धारण करना चाहिये तथा गेहूँ, सवत्सा गाय, गुड़, ताँबा, सोना एवं लाल वस्त्र ब्राह्मण को दान करना चाहिये। सूर्य की शान्ति के लिए वैदिक मन्त्र —‘ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।।’, पौराणिक मन्त्र—‘जपाकुसुमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम्। तमोऽरिं सर्वपापघ्नं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम्।।’, बीज मन्त्र —‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः’ तथा सामान्य मन्त्र—‘ॐ घृणि सूर्यायनमः’ है। इनमें से किसी एकका श्रद्धानुसार एक निश्चित संख्यामें नित्य जप करना चाहिये जपकी कुल संख्या 7000 तथा समय प्रातःकाल है।

चन्द्रमा


चन्द्रदेव का वर्ण गौर है। इनके वस्त्र, अश्व और रथ तीनों श्वेत हैं। ये सुन्दर रथपर कमल के आसन पर विराजमान है। इनके एक हाथ में गदा है और दूसरा हाथ वरमुद्रा में है।
श्रीमद्भागवत के अनुसार चन्द्रदेव महर्षि अत्रि और अनसूया के पुत्र हैं। इनको सर्वमय कहा गया है। यो सोलह कलाओं से युक्त हैं। इन्हें अन्नमय, मनोमय, अमृतमय, पुरुषस्वरूप भगवान् कहा जाता है। आगे चलकर भगवान् श्रीकृष्ण ने इन्हीं के वंश में अवतार लिया था। इसीलिये वे चन्द्र की सोलह कलाओं से युक्त थे। चन्द्रदेवता ही सभी देवता, पितर, यक्ष, मनुष्य, भूत, पशु-पक्षी और वृक्ष आदि के प्राणों का आप्यायन करते हैं।

प्रजापितामह ब्रह्माने चन्द्रदेवता को बीज, औषधि, जल तथा ब्राह्मणों का राजा बना दिया। इनका विवाह अश्विनी, भरणी कृत्तिका, रोहिणी आदि दक्ष की सत्ताईस कन्याओं से हुआ। ये सत्ताईस नक्षत्रों के रूप में भी जानी जाती हैं। (हरिवंशपुराण)
महाभारत वनपर्व के अनुसार चन्द्रदेव की सभी पत्नियाँ शील और सौन्दर्य से सम्पन्न हैं तथा पतिव्रत-धर्म का पालन करनेवाली हैं। इस तरह नक्षत्रों के साथ चन्द्रदेवता परिक्रमा करते हुए सभी प्राणियों के पोषण के साथ-साथ पर्व, संधियों एवं विभिन्न मासों का विभाग किया करते हैं। पूर्णिमा को चन्द्रोदय के समय ताँबे के बर्तन में मधुमिश्रित पकवान यदि चन्द्र देव को अर्पित किया जाय तो इनकी तृप्ति होती है। उससे प्रसन्न होकर चन्द्रदेव सभी कष्टों से त्राण दिलाते हैं। इनकी तृप्ति से आदित्य, विश्वेदेव, मरुद्गण और वायुदेव तृप्त होते हैं।

मत्स्य पुराण के अनुसार चन्द्रदेव का वाहन रथ है। इस रथ में तीन चक्र होते हैं। दस बलवान् घोड़े जुते रहते हैं। सब घोड़े दिव्य अनुपम और मनके समान वेगवान् हैं। घोड़ों के नेत्र और कान भी श्वेत हैं वे शंख के समान उज्ज्वल हैं।
चन्द्र देवता की अश्विनी, भरणी आदि सत्ताईस पत्नियाँ हैं। इनके पुत्र का नाम बुद्ध है, जो तारा से उत्पन्न हुए हैं। चन्द्रमा के अधिदेवता अप् और प्रत्यधिदेवता उमा देवी हैं। इनकी महादशा दस वर्ष की होती है तथा ये कर्क राशि के स्वामी हैं। इन्हें नक्षत्रों का भी स्वामी कहा जाता है नवग्रहों में इनका दूसरा स्थान है।

चन्द्रदेवकी प्रतिकूलता से भौतिकरूप से मनुष्य को मानसिक कष्ट तथा श्वास आदि के रोग होते हैं। इनकी प्रसन्नता और शान्ति के लिये सोमवार का व्रत, शिवोपासना करनी चाहिये तथा मोती धारण करना चाहिये। चावल, कपूर, सफेद वस्त्र, चाँदी, शंख, वंशपात्र, सफेद चन्दन, श्वेत पुष्प, चीनी, बेल, दही और मोती ब्राह्मण को दान करना चाहिये। इनकी उपासना के लिये वैदित मन्त्र—‘ॐ इमं देवा असपत्नँसुवध्वं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठ्याय महते जानराज्यायेन्द्रस्येन्द्रियाय। इमममुष्य पुत्रमस्यै विश एष वोऽमी राजा सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानाँराजा।।’, पौराणिक मन्त्र —‘दधिशंखतुषाराभं क्षीरोदार्णवसम्भवम्। नमानि शशिनं सोमं शम्भोर्मुकुटभूषणम्।।’, बीज मन्त्र—‘ॐ श्रां श्रीं श्रौं सः चन्द्राय नमः’ तथा सामान्य मन्त्र ‘ॐ सों सोमाय नमः’ है। इनमेंसे किसी भी मन्त्र का श्रद्धानुसार नित्य एक निश्चित संख्या में जप करना चाहिये। कुल जप-संख्या 11000 तथा समय संध्याकाल है।


मंगल


मंगल देवता की चार भुजाएँ हैं। इनके शरीर के रोयें लाल हैं। इनके हाथों में क्रमसे अभयमुद्रा, त्रिशूल, गदा और वरमुद्रा है। इन्होंने लाल मालाएँ और लाल वस्त्र धारण कर रखे हैं। इनके सिर पर स्वर्णमुकुट है तथा ये मेख (भेड़ा) के वाहन पर सवार हैं।
वाराह कल्प की बात है। जब हिरण्यकशिपुका बड़ा भाई हिरण्याक्ष पृथ्वी को चुरा ले गया था और पृथ्वी के उद्धार के लिये भगवान् ने वाराह का अवतार लिया तथा हिरण्याक्ष को मारकर पृथ्वी देवीका उद्धार किया, उस समय भगवान् को देखकर पृथ्वी देवी अत्यन्त प्रसन्न हुईं और उनके मनमें भगवान् को पतिरूप में वरण करने की इच्छा हुई। वाराहवतार के समय भगवान् का तेज करोड़ों सूर्यों की तरह असह्य था। पृथ्वी अधिष्ठात्री देवी की कामना पूर्ण करने के लिये भगवान् अपने मनोरमरूप में आ गये और पृथ्वी के साथ दिव्य एक वर्ष तक एकान्त में रहे उस समय पृथ्वी देवी और भगवान् के संयोग से मंगल ग्रह की उत्पत्ति हुई (ब्रह्मवैवर्तपुराण 2/8/29 से 43)। इस प्रकार विभिन्न कल्पों में मंगल ग्रहकी उत्पत्ति की विभिन्न कथाएँ हैं। पूजा के प्रयोगमें इन्हें भरद्वाज गोत्र कहकर सम्बोधित किया जाता है। यह कथा गणेशपुराण में आयी है।

मंगल ग्रहकी पूजा की पुराणों में बड़ी महिमा बतायी गयी है। यह प्रसन्न होकर मनुष्य की हर प्रकार की इच्छा पूर्ण करते हैं। भविष्यपुराण के अनुसार मंगलव्रत में ताम्रपत्र पर भौमयन्त्र लिखकर तथा मंगल की सुवर्णमयी प्रतिमा की प्रतिष्ठा कर पूजा करने का विधान है। मंगल देवता के नामों का पाठ करने से ऋणसे मुक्ति मिलती है। यह अशुभ ग्रह माने जाते हैं। यदि ये वक्रगति से न चलें तो एक-एक राशि को तीन-तीन पक्षमें भोगते हुए बारह राशियों को डेढ़ वर्ष में पार करते हैं।
मंगल ग्रह की शान्ति के लिये शिव-उपासना तथा प्रवाल रत्न धारण करने का विधान है।

दान में ताँबा, सोना, गेहूँ, लाल वस्त्र, गुड़, लाल चन्दन, लाल पुष्प, केशर, कस्तूरी, लाल वृषभ, मसूरकी दाल तथा भूमि देना चाहिये। मंगलवार को व्रत करना चाहिये तथा हनुमान चालीसा का पाठ करना चाहिये। इनकी महादशा सात वर्षोंतक रहती है। यह मेष तथा वृश्चिक राशि के स्वामी हैं। इनकी शान्ति के लिये वैदिक मन्त्र ‘‘ॐ अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्पतिः- पृथिव्या अयम् अपाँरेताँ सि जिन्वति।’’, पौराणिक मन्त्र—‘धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्कान्तिसमप्रभम्। कुमारं शक्तिहस्तं तं मंगलं प्रणमाम्यहम्।।’, बीज मन्त्र ‘ॐ क्रां क्रीं क्रौं सः भौमाय नमः’, तथा सामान्य मन्त्र—‘ॐ अं अंगारकाय नमः’ है। इनमें से किसी का श्रद्धानुसार नित्य एक निश्चित संख्यामें जप करना चाहिये। कुल जप-संख्या 10000 तथा समय प्रातः आठ बजे है। विशेष ॐ परिस्थिति में विद्वान ब्राह्मण का सहयोग लेना चाहिये।


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