लोगों की राय

पौराणिक कथाएँ >> प्रमुख देवता

प्रमुख देवता

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :19
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 861
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

372 पाठक हैं

प्रमुख देवताओं का वर्णन....

Pramukh Devata a hindi book by Gitapress - प्रमुख देवता - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भगवान श्रीगणेश

भगवान् गणेश का रूप अत्यन्त ही मनोहर एवं मंगलदायक है। वे एकदन्त और चतुर्बाहु हैं। अपने चारों हाथों वे में क्रमशः पाश, अंकुश, मोदकपात्र तथा वरमुद्रा धारण करते हैं। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा पीतवस्त्रधारी हैं। वे रक्त चन्दन धारण करते हैं। तथा उन्हें रक्तवर्ण के पुष्प विशेष प्रिय हैं। वे अपने उपासकोंपर शीघ्र प्रसन्न होकर उनकी समस्त मनोकाननाएँ पूर्ण करते हैं। एक रूप में भगवान् श्रीगणेश उमा-महेश्वर के पुत्र हैं। वे अग्रपूज्य, गणों के ईश, स्वस्तिकरूप तथा प्रणवस्वरूप हैं। उनके अनन्त नामों में सुमुख, एकदन्त, कपिल, गजकर्णक, लम्बोदर, विकट, विघ्रनाशक, विनायक, धूम्रकेतु गणाध्यक्ष, भालचन्द्र तथा गजानन- ये बारह नाम अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। इन नामों का पाठ अथवा श्रवण करने से विद्यारम्भ, विवाह, गृह-नगरों में प्रवेश तथा गृह-नगर से यात्रा में कोई विघ्र नहीं होता है।

भगवान् गणपति के प्रकट्य, उनकी लीलाओं तथा उनके मनोरम विग्रहके विभिन्न रूपों का वर्णन पुराणों और शास्त्रों में प्राप्त होता है। कल्पभेदसे उनके अवतार हुए हैं। उनके सभी चरित्र अनन्त हैं। पद्मपुराण के अनुसार एक बार श्रीपार्वती जी ने अपने शरीर के मैल से एक पुरुषाकृति बनायी, जिसका मुख हाथी के समान था। फिर उस आकृति को उन्होंने गंगाजी में डाल दिया। गंगाजी में पड़ते ही वह आकृति विशालकाय हो गयी। पार्वती जी ने उसे पुत्र कहकर पुकारा। देव समुदाय ने उन्हें गणेश कहकर सम्मान दिया और ब्रह्माजी ने उन्हें गणोंका आधिपत्य प्रदान करके गणेश नाम दिया।

लिंगपुराण के अनुसार एक बार देवताओं ने भगवान् शिवकी उपासना करके उनसे सुरद्रोही दानवों के दुष्टकर्ममें विघ्र उपस्थित करने के लिये वर मांगा। आशुतोष शिवने ‘तथास्तु’ कहकर देवताओं को संतुष्ट कर दिया। समय आनेपर गणेशजी का प्राकट्य हुआ। उनका मुख हाथी के समान था और उनके एक हाथ में त्रिशूल तथा दूसरे हाथ में पाश था। देवताओं ने सुमन-वृष्टि करते हुए गजाननके चरणों में बार-बार प्रणाम किया। भगवान शिवने गणेश जी को दैत्योंके कार्यों में विघ्र उपस्थित करके देवताओं और ब्राह्मणों का उपकार करनेका आदेश दिया। इसी तरह से ब्रह्मवैवर्तपुराण, स्कन्दपुराण तथा शिवपुराण में भी भगवान गणेशजी के अवतारकी भिन्न-भिन्न कथाएं मिलती हैं। प्रजापति विश्वकर्माकी सिद्धि-बुद्धि नामक दो कन्याएं गणेश जी की पत्नियाँ हैं।

सिद्धसे क्षेम और बुद्धि से लाभ नाम के शोभासम्पन्न दो पुत्र हुए। शास्त्रों और पुराणों में सिंह, मयूर और मूषक को गणेशजी का वाहन बताया गया है। गणेशपुराणके क्रीडाखण्ड (1 । 18-21)- में उल्लेख है कि कृतयुग में गणेशजी का वाहन सिंह है। वे दस भुजाओं वाले, तेजस्वरूप तथा सबको वर देनेवाले हैं और उनका नाम विनायक है। त्रेतामें उनका वाहन मयूर है, वर्ण श्वेत हैं तथा तीनों लोकों में वे मयूरेश्वर-नामसे विख्यात हैं और छः भुजाओं वाले हैं। द्वापरमें उनका वर्ण लाल है। वे चार भुजाओंवाले और मूषक वाहनवाले हैं तथा गजानन-नामसे प्रसिद्ध हैं। कलियुगमें उनका धूम्रवर्ण है। वे घोड़े पर आरुढ़ रहते हैं,। उनके दो हाथ हैं तथा उनका नाम धूम्रकेतु है।
मोदकप्रिय श्रीगणेश जी विद्या-बुद्धि और समस्त सिद्धियों के दाता थोड़ी उपासना से प्रसन्न हो जाते है। उनके जपका मन्त्र ‘ॐ गं गणपतये नमः’ हैं।


भगवान श्री सूर्य



वैदिक और पौराणिक आख्यानों के अनुसार भगवान, श्रीसूर्य समस्त जीव-जगत के आत्मस्वरूप हैं। ये ही अखिल सृष्टि के आदि के कारण हैं। इन्हीं से सबकी उत्पत्ति हुई है। पौराणिक सन्दर्भ में सूर्यदेव की उत्पत्ति के अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं। यद्यपि उनमें वर्णित घटनाक्रमो में अन्तर हैं, किन्तु कई प्रसंग परस्पर मिलते-जुलते हैं। सर्वाधिक प्रचलित मान्यताके अनुसार भगवान पुत्र होने के कारण ही उनका एक नाम आदित्य हुआ। पैतृक नाम के आधार पर वे काश्यप प्रसिद्ध हुए। संक्षेप में यह कथा इस प्रकार है। एक बार दैत्य-दानवों ने मिलकर देवताओं को पराजित कर दिया। देवता घोर संकट में पड़कर इधर-उधर भटकने लगे। देव – माता आदिति से इस हार से से दुःखी होकर भगवान सूर्यकी उपासना करने लगीं। भगवान् सूर्य प्रसन्न होकर अदितिके समक्ष प्रकट हुए। इन्होंने अदिति से कहा- ‘देवि ! तुम चिन्ता का त्याग कर दो। मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा तथा अपने हजारवें अंश से तुम्हारे उदरसे प्रकट होकर तेरे पुत्रोंकी रक्षा करूंगा’ इतना कहकर भगवान सूर्य अन्तर्धान हो गये।

कुछ समय के उपरान्त देवी अदिति गर्भवती हुईं। संतानके प्रति मोह और मंगल-कामना से अदिति अनेक प्रकार के व्रत-उपवास करने लगीं। महर्षि कश्यपने कहा-‘अदिति ! तुम गर्भवती हो, तुम्हें अपने शरीर को सुखी और पुष्ट रखना चाहिये। परन्तु यह तुम्हारा कैसा विवेक है कि तुम व्रत-उपासना के द्वारा अपने गर्भाण्डको ही नष्ट करनेपर तुली हो। अदिति ने कहा- ‘स्वामी ! आप चिन्ता न करें। मेरा गर्भ साक्षात सूर्य शक्ति का प्रसाद है। यह सदा अविनाशी है।’ समय आने पर अदिति के गर्भ से भगवान सूर्यका प्राकट्य हुआ और बादमें वे देवताओं के नायक बने। उन्होंने देवशत्रु असुरोंका संहार किया। प्रजापति विश्वकर्माने उन्हें हर तरह से सुयोग्य मानकर अपनी पुत्री संज्ञाके साथ उनका विवाह कर दिया। संज्ञा से भगवान सूर्यको दो पुत्र (वैवस्वत मनु और यम) तथा एक कन्या (यमुनाजी) उत्पन्न हुईं। बादमें सूर्य का तेज न सह सकने के कारण संज्ञाने अपनी छाया को प्राणवान् बनाकर सूर्यदेव के सन्निकट रहने की आज्ञा दी और स्वयं छिपकर उत्तरकुरुमें एकान्तवास करने लगी। छाया ने भी कालान्तर में तीन संतानों को जन्म दिया, दो पुत्र- सावर्णि मनु और शनि तथा एक पुत्री-तपती (ताप्ती नदी)। भगवान् सूर्य के परिवार की विस्तृत कथा भविष्य, मत्स्य, पद्म, ब्रह्म, मार्कण्डेय तथा साम्बपुराण में वर्णित हैं।

ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवगणों का बिना साधना एवं भगवत्कृपा के प्रत्यक्ष दर्शन होना सम्भव नहीं है। शास्त्र के आज्ञानुसार केवल भगवान के द्वारा ही ध्यान और समाधि में उनका अनुभव हो पाता है, किन्तु भगवान् सूर्य नित्य सबको दर्शन देते हैं। इसलिये प्रत्यक्ष देव भगवान् सूर्य की नित्य उपासना करनी चाहिये। वैदिक सूक्तों, पुराणों तथा आगमादि ग्रन्थों में भगवान सूर्यकी नित्य आराधनाका निर्देश है। मन्त्र महोदधि तथा विद्यार्णवमें भगवान, सूर्य के दो प्रकार के मन्त्र मिलते है। प्रथम मन्त्र –ॐ घृणि सूर्य आदित्य ॐ, तथा द्वितीय मन्त्र- ‘ॐ ह्मीं घृणि सूर्य आदित्यः श्रीं ह्मीं मह्मं लक्ष्मीं प्रयच्छ’ हैं। भगवान् सूर्य के अर्घ्यदान की विशेष महत्ता हैं। प्रतिदिन प्रातः रक्तचन्दनादि से मण्डल बनाकर तथा ताम्रपात्र में जल लाल चन्दन, चावल, रक्तपुष्प और कुशादि रखकर सूर्यमन्त्र का जप करते हुए भगवान सूर्य को अर्घ्य देना चाहिये। सूर्यार्घ्य का मन्त्र ‘ॐ एहि सूर्य सहस्त्रांशो तेजोराशे जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्यं दिवाकर’ है। अर्घ्यदानसे प्रसन्न होकर भगवान सूर्य आयु, आरोग्य, धन-धान्य यश, विद्या, सौभाग्य, मुक्ति-सब कुछ प्रदान करते हैं।


भगवान श्रीविष्णु




सर्वव्यापक परमात्मा ही भगवान श्रीविष्णु हैं। यह सम्पूर्ण विश्व भगवान विष्णु शक्ति से ही सञ्चालित है। वे निर्गुण भी। वे अपने चार हाथों में क्रमशः शखं, चक्र, गदा, और पदम् धारण करते हैं। जो किरीट और कुण्डलों से विभूषित, पीताम्बरधारी, वनमाला तथा कौस्तुभमणिको धारण करने वाले, सुन्दर कमलों के समान नेत्रवाले भगवान् श्रीविष्णु का ध्यान करता है वह भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है।

पद्यपुराण के उत्तरखण्ड में वर्णन हैं कि भगवान् श्री विष्णु ही परमार्थ तत्त्व हैं। वे ही ब्रह्मा और शिवसहित समस्त सृष्टि के आदि कारण हैं। वे ही नारायण वासुदेव, परमात्मा, अच्युत, कृष्ण, शाश्वत, शिव, ईश्वर तथा हिरण्यगर्भ आदि नामों से पुकारे जाते हैं। नर अर्थात् जीवों के समुदायको नार कहते हैं। सम्पूर्ण जीवों के आश्रय होने के कारण भगवान् श्रीविष्णु ही नारायण कहे जाते हैं। कल्प के प्रारम्भ में एकमात्र सर्वव्यापी भगवान् नारायण ही थे। वे ही सम्पूर्ण जगतकी सृष्टि करके सबका पालन करते हैं और अन्त में सबका संहार करते हैं। इसलिये भगवान् श्रीविष्णु का नाम हरि है। मत्स्य, क्रूर्म, वाराह, वामन, हयग्रीव तथा श्रीराम-कृष्णादि भगवान श्रीविष्णुके ही अवतार हैं।

भगवान श्री विष्णु अत्यन्त दयालु हैं। वे अकारण ही जीवों करुणा-वृष्टि करते रहते हैं। उनकी शरणमें जानेपर परम कल्याण हो जाता है। जो भक्त भगवान् श्री विष्णु के नामों का कीर्तन, स्मरण, उनके अर्चाविग्रहका दर्शन, वन्दन, गुणों का श्रवण और उसका पूजन करता है। उसके पाप-ताप विनष्ट हो जाते हैं। यद्यपि भगवान् विष्णु के अनन्त गुण हैं, तथापि उनमें भक्तवत्सलताका गुण सर्वोंपरि है। चारों प्रकार के भक्त जिस भावना से उनकी उपासना करते हैं, वे उनकी उस भावनाको परिपूर्ण करते हैं। ध्रुव प्रह्लाद अजामिल, द्रौपदी, गणिका आदि अनेक भक्तों का उनकी कृपा से उद्घार हुआ।

भक्तवत्सल भगवान को भक्तों का कल्याण करने में यदि विलम्ब करनें में यदि विलम्ब हो जाय तो भगवान उसे अपनी भूल मानते हैं और उसके लिये क्षमा-याचना करते हैं धन्य है उनकी भक्त वत्सलता। मात्स्य, कर्म, वाराह, वामन, श्रीराम आदि अवतारों की कथाओ में भगवान् श्रीविष्णु की भक्तवत्सलता के अनेक आख्यान आये हैं। ये जीवों के कल्याण के लिये अनेक रूप धारण करते हैं। वेदों में इन्हीं भगवान् श्रीविष्णुकी अनन्त महिमाका गान किया गया है।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book