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सीपियां

सी.बी.टी. प्रकाशन

प्रकाशक : सी.बी.टी. प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 8595
आईएसबीएन :81-7011-823-9

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गुदगुदाने वाली, हँसाने वाली, प्रेरणा देने वाली, विविध मनोरंजन से भरपूर मनमोहक कहानियां।

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बच्चों की दुनिया बड़ी रंगबिरंगी है। अपने-अपने परिवेश में कोई जिद्दी और अड़ियल है तो कोई विनम्र और दूसरों को नई राह दिखाने वाला। ऐसे पात्रों के साथ घटना-चक्र क्या नए-नए मोड़ लेता है ? आइए पढ़ें, गुदगुदाने वाली, हँसाने वाली, प्रेरणा देने वाली, विविध मनोरंजन से भरपूर मनमोहक कहानियां।


रंगीन कोट


नानक कॉलोनी। पहली गली का पहला मकान। इसी मकान में रहते हैं बच्चों के दोस्त नवीन बाबू।

नवीन बाबू को बच्चे बहुत प्यार करते हैं। इसी प्रकार नवीन बाबू भी बच्चों को बेहद प्यार-दुलार करते हैं। नवीन बाबू ने अपनी बैठक में दर्जी की दुकान खोली है। साफ-सुथरी छोटी-सी दुकान। दुकान में छोटे-छोटे कपड़े झूलते रहते। रंग-बिरंगे फ्राक, निकर, कोट, स्कूल-ड्रेस आदि। इतने सुंदर कपड़ों से दुकान अपने आप ही सज जाती। दुकान को सजाने-संवारने के लिए, नवीन बाबू को विशेष मेहनत नहीं करनी पड़ती। वे सफाई पसंद थे। हर चीज को ठीक उसकी जगह पर बड़े सलीके से रखते। ऊपर से बच्चों के इतने सुंदर-सुंदर कपड़े। इसी से दुकान दूर से ही चमकती और लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती।

हर शाम को बच्चे वहां जाते। नवीन बाबू को हाथ जोड़कर नमस्ते करते। नवीन बाबू मुस्कराते और बेंचों की ओर इशारा करते। उन्हीं पर बच्चे बैठ जाते।

पर एक रोज सभी बच्चे नवीन बाबू से रूठ गए। क्यों ? कारण बाद में पता चलेगा, अभी तो दुकान और नवीन बाबू के बारे में थोड़ा और जान लें।

हां, तो बच्चे उन्हीं छोटी-छोटी बेंचों पर बैठ जाते। धीरे-धीरे आपस में बातें करते, होम-वर्क में एक-दूसरे की सहायता करते। नहीं आता तो नवीन बाबू से पूछ लेते। नवीन बाबू हाथ का काम छोड़ देते और जल्दी से उनकी समस्या हल कर देते, फिर अपने काम में जुट जाते। कहते, ‘‘बच्चो ! मुझे तो बस तुम्हारा ही काम करना है। चाहे कपड़ों का करा लो, चाहे स्कूल का।’’

इसलिए बच्चे स्वयं ही इस बात का ध्यान रखते कि नवीन बाबू के समय का अधिक हरजा न हो। बच्चे नवीन बाबू का मन से आदर करते थे। इसके बहुत से कारण थे।

बच्चे इस बात से बहुत प्रसन्न थे कि बाबू जी बस उन्हीं के हैं। उन्हीं के लिए काम करते हैं। काम भी ठीक समय पर कर देते हैं और पैसे भी बहुत कम ! यही सब कारण थे कि नवीन बाबू के पास काम की कमी नहीं थी। और न ही कमी थी बच्चों के प्यार की।

यह सब होते हुए भी आखिर बच्चे बाबूजी से रूठ क्यों गए ? यह तो थोड़ा बाद में पता चलेगा।

पर सच्चाई यही है कि यह दुकान खुली ही बच्चों के लिए थी।

आओ, यह कहानी भी जान लें –

बात एक रात की है। पड़ोस में एक बच्चा जोर-जोर से रो रहा था। नवीन बाबू से किसी भी बच्चे का रोना सहन नहीं होता। बाबू जी इन्हीं दिनों सेवा निवृत्त हुए थे। गरमी के दिन थे। वे बड़े मजे से अपने खुले आंगन में चारपाई पर सो रहे थे।

रोने की आवाज से नवीन बाबू उठ बैठे। पड़ोस में जाकर दरवाजा खटखटाया। दरावाजा खुला तो नवीन बाबू ने पूछा, ‘‘मेहरा साहब, राधे क्यों रो रहा है ?’’

मेहरा साहब ने नाराजगी भरे स्वर में कहा, ‘‘अपनी ही नालायकी की वजह से रो रहा है।’’

नवीन बाबू ने फिर पूछा, ‘‘वह कैसे ?’’

मेहरा साहब ने बताया, ‘‘कहता है कि स्कूल ड्रेस खेलते-खेलते फट गई। ड्रेस न पहनने पर स्कूल में सजा मिलेगी। पहले तो इसने बताया नहीं। आप ही बताइए नवीन बाबू, इस वक्त हम क्या कर सकते हैं ?’’

नवीन बाबू ने राधे से कहा, ‘‘दिखाओ तो अपनी ड्रेस ?’’

राधे रोते-रोते ड्रेस ले आया।

नवीन बाबू ने कहा, ‘‘नौकरी लगने से पहले मैंने दर्जी का काम किया था। लाओ आज फिर से कोशिश करता हूं।’’

घर आकर नवीन बाबू ने देखा, ड्रेस बुरी तरह से मैली चीकट थी। फटी भी इतनी थी कि मरम्मत नहीं हो सकती थी। नवीन बाबू सोच में पड़ गए, अब क्या करें ? जो भी हो राधे की सहायता तो करनी होगी। वे उठे और संदूक खोला। उसमें कुछ कपड़े रखे हुए थे। रात भर बैठकर उन्होंने राधे की ड्रेस तैयार कर दी।

ड्रेस इतनी खूबसूरत सिली थी कि बच्चे ही नहीं, बड़े भी पूछने लगे, ‘‘राधे, तूने यह ड्रेस कहां से सिलवाई ? वाह, कितनी अच्छी सिली है ! हमें भी तो बतलाओ कहां से सिलवाई ?’’

उत्तर सुनकर बहुत से बच्चे नवीन बाबू के पास अपना कपड़ा लाने लगे।

पहले तो वे सबको मना करते रहे। पर बच्चे थे कि बार-बार बड़े भोलेपन के साथ उनसे कहते, ‘‘बाबू जी, बस एक बार हमारी ड्रेस भी सी दीजिए ना ! राधे की ड्रेस की ड्रेस कितनी सुंदर सी कर दी है !’’


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