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उपन्यास >> हैट्रिक

हैट्रिक

राजेश आहूजा

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7915
आईएसबीएन :978-81-908204-2

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मेरा बड़ा बेटा ‘आकाश’ भी वहाँ बैठा था। उसने कहा, ‘‘आप इसे वही कहनी सुना दो न, जो आपने एक बार मुझे सुनाई थी—‘क्रिकेट वाली’’

Hat-trick - A Hindi Book - by Rajesh Ahuja

हर रात होने से पहले कहानी सुनना ‘तारक’ का नियम था। सच कहूँ तो कहानी सुनाए बिना मुझे भी चैन नहीं पड़ता था। कहानी सुनते हुए जितना मज़ा उसे आता था, उसके चेहरे के हाव-भाव और कैतूहल-भरी आँखें देखकर उससे भी अधिक सुख मुझे मिलता था। उस दिन कोई नई कहानी याद नहीं आ रही थी, सो मैंने उससे कहा, ‘कोई पुरानी कहानी सुना दूँ ?’ मैं कभी-कभी ऐसी कहानियाँ सुनाकर उसे बहला दिया करता था, जो मैं उसे पहले कभी सुना चुका था। अकसर वह सुनी हुई कहानी दोबारा सुनने के लिए राज़ी हो जाता था; पर उस दिन वह नहीं माना। ‘एक ही कहानी को बार-बार सुनने में कोई मज़ा आता है ?’ वह मुँह सुजाकर बैठ गया। मैंने बहुत समझाया पर वह ज़िद पर अड़ा रहा। मेरा बड़ा बेटा ‘आकाश’ भी वहाँ बैठा था। उसने कहा, ‘‘आप इसे वही कहनी सुना दो न, जो आपने एक बार मुझे सुनाई थी—‘क्रिकेट वाली’।’

इस कहानी अर्थात् उपन्यास में एक स्थान पर मैंने लिखा है, ‘कोई भी नया काम शुरू करते हुए मन में आशा, डर, संकोच आदि भाव एक साथ जागृत होते हैं।’ उपन्यास को लिखते समय यही स्थिति मेरी भी थी, किंतु उपन्यास के आगे बढ़ने के साथ-साथ, आशा का भाव आगे बढ़ता गया तथा डर और संकोच के भाव पीछे छूट गए।

—लेखक

हैट्रिक


सतपाल ने बीच वाली विकेट उखाड़ी और फुसफुसाते हुए बोला, ‘‘कल यहीं से आगे खेलना शुरू करेंगे, मेरी बैटिंग से।’’
‘‘ठीक है। ओवर मेरा चल रहा है। याद रखियो, दो गेंदें हुई हैं।’’ राकेश ने लेग साइड की विकेट खींचते हुए, दबी आवाज में ही उत्तर दिया।

‘‘और मेरी बैटिंग रहती है।’’ सुधीर ने भी गोपनीय बात बताने के अंदाज़ में कहा और एक झटके के साथ तीसरी विकेट अपने हाथ में ले ली। दिनेश ने सतपाल से अपने दस्ताने वापस लिए, बिजॉय ने उससे बैट लेकर गदाधारी भीम की भाँति उसे अपने कंधे से सटाया, राकेश ने बॉल उछालकर रणवीर को सौंप दी और तिरछी नज़रों से माली को घूरते हुए सभी पॉर्क के गेट की ओर चल पड़े। चलते हुए उनके कानों में माली के बुड़बुड़ाने का अस्फुट स्वर भी सुनाई पड़ा, किंतु किसी ने एक बार भी पलटकर नहीं देखा। ऐसा लगभग हर रोज ही होता था, इसलिए उन्हें इस बात की आदत हो चुकी थी।

पश्चिमी करनाल की एक महँगी कॉलोनी ‘पूर्व विहार’ के लगभग एक कोने में मेन रोड के निकट बना हुआ सेंट्रल पार्क, कॉलोनी में शेष रह गए बड़े पार्कों में से एक है, जो हरियाली को बचाए रखने का पूरा प्रयास कर रहा है। बाक़ी के अधिकतर छोटे-बड़े पार्क वहां रहने वाले धनाढ्य व्यक्तियों की लंबी कारों के लिए पार्किंग का स्थान बन चुके हैं।

इस कॉलोनी का निर्माण और विकास करने वाले लोगों का दिशा-ज्ञान वास्तव में बहुत कम रहा होगा, तभी तो पश्चिमी करनाल में बनाई कॉलोनी का नाम पूर्व विहार रखा और इसके एक कोने में बने पार्क को नाम दिया—सेंट्रल पार्क। समय बीतने के साथ-साथ पूर्व विहार को लोग ‘पूरब विहार’ पुकारने लगे और सेंट्रल पार्क वहाँ रहने वाले लोगों के बीच सी.पी. के नाम से जाना जाने लगा।

सुबह और शाम के समय इस सी. पी. में बड़ी संख्या में लोग व्यायाम और सैर के लिए आते हैं। लोगों की सैर के लिए बने फुटपाथ ने इस पार्क को चार हिस्सों में बाँट रखा है। प्रतिदिन संध्या के समय टीम के दो खिलाड़ी, शेरलॉक होम्स की तरह झाड़ियों और पेड़ों की ओट लेते हुए, दबे पांव पार्क के भीतर जाते और यह पता लगाकर लौटते कि माली पार्क के किस हिस्से में, किस स्थान पर बैठा है। उसी सूचना के आधार पर आपस में गंभीर विचार-विमर्श करके यह निर्णय लिया जाता कि खेल किस हिस्से में खेला जाएगा। कहीं माली को को पता न चल जाए इसलिए खेल के दौरान किसी खिलाड़ी के आउट होने, आउट होने की संभावना होने अथवा अच्छा शॉट मारने जैसे अवसरों पर ज़ोर से चिल्लाने या तालियाँ बजाने पर प्रतिबंध था। बाक़ी के नियम वही थे, जो हर गली-मुहल्ले और पार्क में खेले जाने वाले इस खेल के होते हैं। यानी एक टिप्पा पड़ने पर एक हाथ से कैच आउट, शॉट मारने पर गेंद यदि झाड़ियों में जाएगी तो जिस बल्लेबाज़ ने स्ट्रोक खेला होगा वही उसे निकालेगा और यदि गुम हो जाएगी तो वही नई गेंद खरीदकर लाएगा आदि-आदि। अंपायर तो कोई होता ही नहीं था; क्योंकि कुल सात-आठ खिलाड़ियों में से यदि किसी एक को अंपायर की भूमिका अदा करनी पड़ी तो क्षेत्ररक्षण के लिए एक खिलाड़ी कम नहीं हो जाएगा क्या ? बल्लेबाज़ आउट है या नहीं, इसका निर्णय लड़-झगड़कर, बहसबाजी करके या फिर बहुमत के आधार पर कर लिया जाता था। और सबसे बड़ी बात तो यह कि अगर कोई पहली गेंद पर आउट हो जाता था तो वह अपने आप को आउट मानने के लिए कतई तैयार नहीं होता था। माने भी क्यों ? भई, पहली बॉल तो ट्राई बॉल होती है।

यह खेल अँधेरा होने तक अथवा तब तक चलता रहता जब तक माली को पता न चल जाए। उसकी डाँट और फटकार की वर्षा होते ही खेल अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दिया जाता।

प्रारंभ में उन्होंने माली को मनाने का यथासंभव प्रयास भी किया। ‘जीवन में खेल-कूद का महत्त्व’ विषय पर जो निबंध बड़ी कठिनाई से पाठ्यपुस्तक से रटा था, वह पूरा का पूरा उसे सुना दिया, साथ ही अपनी यह विवशता बताते हुए कि खेलने के लिए आसपास कोई मैदान नहीं है, उससे प्राधानाचार्य को लिखे जाने वाले पत्र की तरह सविनय निवेदन किया कि वह उन्हें वहाँ खेलने की अनुमति प्रदान करे। वे उसके अत्यंत आभारी रहेंगे। किंतु माली के वितर्कों के समक्ष उनके सभी तर्क छोटे पड़ गए।

‘‘सबतै पैली बात तो या सै कि खेल्लण-कूद्दण तै घास खराब हो ज्या सै। फेर घड़ी-घड़ी थारी बोल क्यारियाँ में जावे सै तो सारे फूल-पोद्धे खराब हो ज्या है। और सबतै बड़ी बात, अगर बोल किसी के लाग गी तो जवाब कोण देगा ? रै तुम तो पढ्ढे-लिक्खे हो, पारक के बाहर बोरड लाग रया सै, पढ़ ल्यो के लिखया सै।’’

जिस बोर्ड को पढ़ने के लिए माली ने कहा था, वह पार्क के मुख्य द्वार के बिलकुल बराबर में दाईं ओर लगा है और उसमें राष्ट्रभाषा हिंदी का पूर्णतः अशुद्ध प्रयोग करते हुए लिखा है, ‘इस पारक में किरकेट, फुटबाल इत्यादि खेलना सखत मना है।’
पार्क के उसी गेट से साँप की तरह बल खाते हुए बाहर आकर सभी उस बोर्ड के आगे से निकले और बाईं ओर मुड़ गए।

‘‘आज मज़ा ही नहीं आया, सिर्फ़ आधा घंटा ही खेल पाए।’’ चलते-चलते ही बिजॉय ने बैट से शॉट मारने का एक्शन करते हुए कहा।
‘‘सब इसकी वजह से हुआ है’’, मोनू सतपाल की ओर देखते हुए बोला, ‘‘क्या जरूरत थी इतना तेज स्ट्रोक खेलने की ?’’
‘‘ऐसी फ़्लाइटेड बॉल पर भी शॉट न मारूँ क्या ?’’

‘‘तो अब ले-ले मज़ा शॉट मारने का।’’ राकेश ने विकेट को ज़मीन पर मारते हुए अपना गुस्सा निकाला।
‘‘अरे लड़ो मत यार !’’ सुधीर ने राकेश को शांत कराते हुए कहा और फिर सतपाल को समझाते हुए बोला, ‘‘कम से कम उस तरफ़ तो मत मारता जिस तरफ माली बैठा था।’’

राकेश का गुस्सा कम नहीं हुआ था। आज उसकी बैटिंग जो नहीं आ पाई थी। वह उसी तरह खीजता हुआ बोला, ‘‘अगर इतना ही शौक है चौके-छक्के मारने का तो स्टेडिम में जाकर खेल।’’
‘‘मुश्किल तो यही है कि यहाँ पूरब विहार में कोई स्टेडियम ही नहीं है ?’ सतपाल ने हताशा-भरे स्वर में कहा।

‘‘यहाँ न सही, विकास नगर में तो है। पिछले महीने ही वहाँ कोचिंग शुरू हुई है। कोई बहुत दूर थोड़ी न है। सुरजन सिंह सिखाता है वहाँ। ऑल राउंडर रह चुका है इंडिया की टीम का।’’
‘कितना मज़ा आता होगा न वहाँ पर। मैं तो छुट्टियों में सीखने जाऊँगा।’’
‘‘मुझे भी मम्मी ने कहा हुआ है कि अगर इस बार एग्ज़ाम्स में अच्छे नंबर आए तो छुट्टियों में वहीं भेजेंगे सीखने के लिए।’’

कभी लड़ते-झगड़ते, तो कभी भविष्य के रंगीन और सुखदायी सपने देखते हुए सभी वापस अपने मुहल्ले की ओर चले जा रहे थे। अभी केवल चार ही बजे थे, और गर्मी के ऐसे मौसम में छह बजे तक अच्छा-ख़ासा उजाला रहता है, इसलिए रास्ते में ही यह तय कर लिया गया कि बचे हुए समय में खेल किसके घर में खेला जाएगा। जब कभी पार्क में खेलना संभव नहीं हो पाता तो किसी के घर के आँगन को खेल का मैदान बना दिया जाता है। आज सुधीर के घर पर धमा-चौकड़ी मचाने की बात तय हुई।

वापस पहुँचते ही दिनेश और सतपाल ने दीवार के सहारे विकटें टिकानी शुरू कीं, सुधीर ने वहाँ खड़ी अपनी साइकल को एक किनारे करके मैदान साफ़ किया और इतनी देर में रणवीर, चमड़े की बॉल रखकर अपने घर से रबड़ की बॉल ले आया। फिर छोटे से मैदान पर क्रिकेट का खेल शुरू हो गया। खेलने की जगह भले ही कम हो गई थी, पर जोश और जुनून में कोई कमी नहीं आई थी। खेल कोई भी हो, बड़े मैदान पर खेलने में जितना मज़ा आता है, उतना ही रोमांच घर के आँगन में खेलने पर भी बना रहता है। हालाँकि दुनिया के इन सबसे छोटे मैदानों पर खेल के नियम बिलकुल अलग होते हैं।

अभी खेलते हुए कुछ ही देर हुई थी कि इस छोटे से मैदान पर एक बड़ा-सा शॉट लग गया। बल्लेबाज़ ने ज़्यादा ताक़त नहीं लगाई थी, पर बॉल इतनी तेज़ थी कि बल्ले से टकराने के बाद हवा में ऊँची उछल गई और गली के उस पार, एक घर के दरवाज़े से जा टकराई। दरवाज़े के ऊपर का हिस्सा शीशे का था। हालाँकि कोई नुकसान नहीं हुआ, पर सबकी साँसें थम-सी गईं। वे एक-दूसरे के निकट आ गए। बॉल दरवाज़े से टकराने और ज़मीन पर चार-पाँच टप्पे खाने के बाद वहीं आराम कर रही थी। उन सबकी निगाहें कभी उस घर के दरवाज़े की ओर जातीं, तो कभी आराम फ़रमाती हुई उस बॉल की ओर। वे जानते थे कि अब क्या होने वाला है। तभी अचानक राकेश ने हिम्मत दिखाई। वह चीते की गति से भागता हुआ गया और उस-घर की दीवार पर चढ़ गया। पर इससे पहले कि वह दूसरी ओर कूद पाता, एक झटके के साथ घर का दरवाज़ा खुला। वह जहाँ था, वहीं जम गया। अब उसमें दीवार के उस पार कूदने का साहस नहीं था। उसकी रही-सही हिम्मत भी तब ख़त्म हो गई और जब एक मोटी-सी महिला, दरवाज़े से दनदनाते हुए बाहर निकली। उसे देखते ही वह तुरंत पलटकर वापस बाहर की ओर कूद गया। चीते की तरह गया था, खिसियानी बिल्ली की तरह लौट आया। उस औरत ने कमर पर दोनों हाथ रखकर सबको घूरा और फिर गेंद को उठाकर वापस घर के अंदर चली गई। दरवाज़ा जैसे खुला था, वैसे ही एक झटके के साथ बंद भी हो गया।

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