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दिशाहीन

सूर्यबाला

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7901
आईएसबीएन :81-88266-85-X

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कहानी संग्रह...

Dishaheen - A Hindi Book - by Suryabala

सर ‘करेक्ट’ बोलकर होठों के कोनों में हलके से मुसकराते हुए ब्लैकबोर्ड की ओर मुड़ गए, लेकिन बोलने के साथ ही जबरदस्ती दबाई जानेवाली हँसी का धीमा फौवारा पीछे से छूटा था। यह मेरे द्वारा अंग्रेजी शब्दों के कस्बाई उच्चारण पर था। दबे शब्दों में मेरे उच्चारण की नकल की जा रही थी—जैसे नॉट को नाट, स्केल को इस्केल आदि।
क्लास से उठकर जाते हुए एक लड़के से दूसरे को कहते सुना, ‘चील-गोजा।’ मैं एकाएक तिलमिलाता हुआ उस ग्रुप के पास पहुँच गया—‘आप लोग ‘चीलगोजा’ किसे कह रहे थे ?’

ग्रुप थोड़ा चौंका, फिर एक लड़का ढिठाई से बोला—चीलगोजा, वो-वो एक ड्राइफ्रूट होता न—उसी को।’
‘चुप रहिए !’ मेरा सारा चेहरा अपमान से दहक रहा था—‘मैं आप लोगों की तरह शान-शौक़तवाला अंग्रेज नहीं, गँवार हूँ पर इतना पागल नहीं हूँ।’

‘पागल ? कौन आपको पागल कहता है ? एक लड़का पुचकारता हुआ पास आ गया—आप तो खाली-पीली में गुस्सा करता—चीलगोजा सच्ची में ड्राईफ्रूट, ओ-क्या कहते हैं मदर टंग में बोल न।’ उसने दूसरे लड़के को धकियाया।

‘जानता हूँ।’ मैं बात काटकर बोला, ‘इतनी अंग्रेजी मैं भी जानता हूँ—यह भी जानता हूँ कि अपने देश की हिंदा या कोई भी भाषा आप गलत बोलेंगे तो न आपको शर्म आएगी, न सुननेवाले को, लेकिन अगर कोई अंग्रेजी गलत बोल दे तो आप सरेआम मजाक उड़ाने से नहीं चूकते। आप जैसे भारतीय।’

 

—इसी संकलन से

 

बाजार और व्यावसायिकता के सारे दबावों से मुक्त होकर एकनिष्ठ भाव से कलम चलानेवाली सूर्यबाला की ‘दिशाहीन’ कहानी की प्रस्तुत पंक्तियाँ आधुनिक शिक्षा व्यवस्था की विडंबना पर बहुत सारे मार्मिक सवाल उठाती हैं।

 

अनुक्रम

 

  • मेरा विद्रोह
  • कतारबंद स्वीकृतियाँ
  • गुजरती हदें
  • पुल टूटते हुए
  • घटनाहीन
  • कंगाल
  • इसके सिवा
  • दिशाहीन
  • सिंड्रेला का स्वप्न

 

मेरा विद्रोह

 


किवाड़ धीरे से सरकाकर दबे पाँव घर में दाखिल होने की कोशिश करता हूँ, पर कोने में बैठे पिताजी की निगाहें मुझे दबोच लेती हैं—
‘किधर गए थे ?’
‘लॉण्ड्री में कपड़े देने।’

‘तुम्हारे कपड़े क्या रोज लॉण्ड्री में धुलते हैं ?’
‘रोज कब जाते हैं ?’
‘बकवास मत करो ! दिन भर सड़कों पर मटरगश्ती करते फिरते हो, अपने कपड़े खुद नहीं धो सकते ?’

‘हूँऽऽ !’ मैं गुन्नाता हुआ ढीठ सा अंदर आ जाता हूँ। मन तो करता है कि उन्हें मुँहतोड़ जवाबों से घोंप दूँ; पर जानता हूँ—परिणाम वही होगा, उनका दहाड़ना, गरजना, मेरा कई-कई घंटों के लिए घर से गायब हो जाना और हफ्तों हम पिता-पुत्र का एक-दूसरे की नजरों से बचना, सामने पड़ने पर मेरा ढिठाई से गुजर जाना, माँ का रोना-धोना और पूर्व-कर्मों को दोष देते हुए लगातार बिसूरते चले जाना...।

ठीक-ठीक याद नहीं आता कि यह सिलसिला कब से और कैसे शुरू हुआ। मैंने तो अपने आपको जब से जाना, ऐसा ही विद्रोही, उद्दंड और ढीठ। बचपन मेरे लिए बिलकुल एक शब्द के प्याले जैसा ही था, जिसे होठों से लगाते-लगाते ही पिता की महत्त्वाकांक्षा का जहर उस प्याले में घुल गया था।

अभी भी वह दिन याद आता है, जब माँ ने बाल सँवारे, किताबों का नया बैग मेरे कंधों पर लटका, मुझे पिताजी के साथ साइकिल पर बिठाकर स्कूल भेजा था। संस्कारों से शुद्ध भारतीय और तंगहाल मध्य वर्गीय गृहस्थ होने पर भी पिताजी तमाम दौड़-धूप कर मुझे कॉन्वेंट में दाखिल करा पाने में सफल हो गए थे।

मैं अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने लगा। घर में पूरी तौर से हिंदी वातावरण, माँ-पिताजी तो बल्कि भोजपुरी में बोलते और स्कूल में बोलना पड़ता मुझे ख़ालिस अंग्रेजी में; तीन-चार भाषाओं की खिचड़ी से मेरा दिमाग उखड़ गया। क्लास के जिन बच्चों के घरेलू महौल भी अंग्रेजियत से युक्त थे, उनपर ही टीचर्स भी शाबाशी के टोकरे उछालतीं, क्योंकि वे छोटे उम्र में ही धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलते। कक्षा में उन्हीं लड़कों का दबदबा रहता। कुछ बच्चों के पिता ‘डोनेशन’ देने में आगे रहते, कुछ के स्कूल को और किसी तरह की सरकारी सुविधा देने में ! मेरे पिताजी इनमें से किसी श्रेणी में नहीं आते थे।

माँ यूँ तो इंटर पास थीं और मुझे अच्छी तरह पढ़ा सकती थीं, पर अंग्रेजी माध्यम होने की वजह से लाचार थीं। अतः सारी मेहनत पिताजी ही करते। ऑफिस से आने के साथ ही सारी किताब-कॉपियों सहित मुझे घेरकर पढ़ाना-रटाना शुरू कर देते। शायद उनकी मेहनत के ही बल पर मैं जब पहली क्लास की रिपोर्ट लेकर घर पहुँचा तो मुझे पताया गया कि थर्ड आया हूँ।

पिताजी खुशी से अधिक उत्साहित थे कि चलो, कोई बात नहीं, अगले साल और मेहनत करेगा तो आसानी से फर्स्ट आ जाएगा। और इस पर अमल करने के लिए अगले साल मुझे और ज्यादा मशक्कत करने के लिए दिन-रात समझाया जाने लगा। पढ़ाई के घंटे एवं कड़ाई और बढ़ा दी गई। शाम को ज्यादा समय न निकाल पाने पर पिताजी स्वयं सुबह जल्दी उठने और मुझे भी उठाकर पढ़ाने लगे। लेकिन बावजूद इन सब मशक्कतों के क्लास में एक नया लड़का रमन आ गया था। उसके पिता कोई बड़े ऑफिसर थे और वह एकदम मातृभाषा की तरह अंग्रेजी बोलता था। सारी क्लास पर उसका दबदबा छा गया था।

पिताजी बुरी तरह झुँझला गए थे। थोड़ा मुझे भी भला-बुरा कहा था; लेकिन हिम्मत न हारी उन्होंने। गरमियों की छुट्टियों में अगले साल की सारी पुस्तकें उठा लाए और पूरी छुट्टियाँ मुझे डिक्टेशन देते, राइटिंग कराते और अंग्रेजी पहाड़े के थ्री, थ्रीज आर नाइन करते बिता दीं। मैं पूरी छुट्टियाँ और लड़कों की तरह न नानी-दादी के घर गया, न बगीचे से आम चुरा पाया, न सड़कों, चबूतरों पर गुल्ली-डंडी खेल पाया, बस किताबों में सिर गाड़े रहा। पिताजी का उत्साह बढ़ रहा था, मेरा मन मर रहा था।

स्कूल में भी, दूसरे बच्चों की मम्मियाँ महीने-दो महीने पर पढ़ाई वगैरह के विषय में पूछने आतीं; पर चूँकि मेरी माँ अंग्रेजी नहीं बोल पाती थीं, इसलिए पिताजी ही हमेशा आते, वह भी अक्सर पंद्रह दिनों पर ही। करीब-करीब सारी ही टीचर्स उन्हें जानने लगी थीं। क्लास की मिस उनके आने पर होठों के कोनों पर हलके से मुसकरातीं और मैं तिलमिला उठता।
अगले साल की पढ़ाई मेरे लिए और भी उबाऊ सिद्ध हुई, क्योंकि पूरी गरमियों रटा हुआ कोर्स मुझे इतना नीरस और बेकार लगता कि दुबारा पढ़ने का मन ही न करता। कुछ घमंड भी कि सबकुछ तो पढ़ा हुआ है। मिस भी शुरू में एक बार जान लेने पर दूसरे लड़कों से प्रश्न पूछतीं। मैं ऊबकर क्लास में और बाहर दूसरों से भिड़ता, खुराफातें करता और तमाम अंग्रेजी-हिंदी की गालियाँ देता। घर में बराबर ‘स्टुपिड’...‘नॉनसेंस’ कहकर छोटे भाई-बहन और माँ पर भी रुआब जमाने की कोशिश करता।

एक बार पूरी क्लास पिकनिक पर जा रही थी। मैंने भी जिद की। पिताजी ने मना किया—फिजूल दस रुपए फेंकने से फायदा, बेकार दिन भर थकोगे। मेरे जिद करने पर माँ और पिताजी में भी झिक-झिक होने लगी। मैं अड़ा ही रहा। परिणामस्वरूप पहले समझाया, धमकाया और डाँटा गया और सबसे आखिर में दो चाँटे लगाकर नालायक करार दिया गया। बाद में भी, हमेशा यह होता कि स्कूल में मिस पिकनिक के फायदे बतातीं और घर पर पिताजी उसे पैसों की बरबादी।

कभी ‘डोनेशन’ या सालाना जलसे आदि के लिए चंदे वगैरह की छपी पर्चियाँ लाता तो पिताजी झल्ला पड़ते। एक-दो रुपए देते भी तो मैं अड़ जाता कि बाकी लड़के दस-दस, बीस-बीस रुपए लाते हैं, मैं क्यों एक-दो ही ले जाऊँ ?

*
रमन के ‘बर्थडे’ की बात तो मैं कभी भूल ही नहीं सकता। हम दोनों में अच्छी दोस्ती थी, इसलिए सबसे पहले उसने मुझे ही बताया था कि अगले महीने उसका बर्थडे है। और बर्थडे से एक दिन पहले कुछ अन्य दोस्तों के साथ मुझे भी एक गुलाबी कार्ड थमा दिया था। मेरे नाम से खालिस मेरे लिए मिला यह एक अनोखा निमंत्रण था। मैं अंदर-बाहर एकदम खुशी से किलकता घर पहुँचा था। पर पिताजी ने कार्ड को जरा भी महत्त्व न दिया। उलटे पढ़ाई के महत्त्व पर भाषण देने लगे। मुझे कुछ समझ में न आया। मैं शायद रमन से भी ज्यादा बेसब्री से उसके बर्थडे का इंतज़ार कर रहा था; क्योंकि रमन ने अपने बर्थडे की तैयारियों का जो चित्र खींचा था, उसने मुझे पूरे एक महीने से बेचैन कर रखा था।

लेकिन उस दिन पिताजी ने मुझे एकदम डपट दिया—‘नहीं जाना है, चुपचाप पढ़ाई करो।’ मैंने जोर-जोर से लड़ना, जिद मचाना और रोना-चिल्लाना शुरू कर दिया। गुस्से में आकर पिताजी ने एक भरपूर थप्पड़ गालों पर जड़ दिया। पूरे गाल पर सख्त मरदानी उँगलियों के लाल निशान उभर आए। उस दिन पहली बार माँ मेरे गालों पर उँगलियाँ फेर रो पड़ी थीं और एकदम आपे से बाहर हो पिताजी से लड़ पड़ी थीं। पिताजी को भी शायद पछतावा हुआ था। वे बाहर चले गए थे। माँ ने मेरा मुँह धुलाया, गाल पर दवा मली और बाजार से बिस्कुट का एक डिब्बा मँगाकर तथा तैयार कर पिताजी के साथ रमन के घर बिजवा दिया।

रमन के पापा दरवाजे पर ही मिल गए थे। खूब खुश होकर उन्होंने रमन को बुलाया। फिर उनकी दृष्टि गालों पर पड़ी। पिताजी जल्दी से बोले, ‘आते-आते सीढ़ियों से गिर गया...पर मैंने कहा, ‘तुम्हारे दोस्त का बर्थडे है, जरूर जाओ।’
मेरा दिमाग गुस्सा से पागल हो गया। मन किया, जोर से चीख पड़ूँ—रमन के पापा के सामने ही—कि ये झूठे, मक्कार और निर्दयी हैं, मुझे पीटकर लाए हैं और यहाँ झूठ बोल रहे हैं। पर बोला कुछ नहीं, बस गुस्से से उन्हें घूरता रमन की उँगली पकड़े अंदर चला गया।

अंदर जाकर तो मुझे लगा कि मैं लाल परी के जादुई देश में आ गया हूँ—ढेर-के-ढेर झूलते रंग-बिरंगे-गुब्बारे, रिबंस, प्रेजेंट्स, टॉफियां—गुलदस्ते-सा सजा, उल्लास से हमेशा हँसते से उसके मम्मी-डैडी। घर लौटकर मैंने पहला प्रश्न माँ से यही किया—‘तुम और पिताजी मेरा बर्थडे क्यों नहीं मनाते ?’ मैं कई-कई रातें, महीनों अपने बर्थडे का सपना देखता...रंगीन गुब्बारों, रिबनों की सजावट और सजावटी केक...और सुबह उठकर माँ से पूछता—‘तुम और पिताजी रमन की तरह मेरा बर्थडे क्यों नहीं मनाते ?’

उत्तर में पिताजी की झिड़की ने उनके प्रति उपेक्षा व आक्रोश को और भी बढ़ा दिया।

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