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भारतीय वास्तुकला

परमेश्वरीलाल गुप्त

प्रकाशक : विश्वविद्यालय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7591
आईएसबीएन :81-7124-031-3

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भारतीय वास्तुकला

Bhartiya Vastu-Kala - A Hindi Book - by Parmeswarilal Gupta

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अध्याय 1

विषय-प्रवेश

1. ‘‘भवन-निर्माण एवं शिल्प-विज्ञान का नाम वास्तु-कला है।’’ उसका विकास मानव-सभ्यता के विकास के साथ हुआ, ऐसी कल्पना स्वभावतः की जा सकती है। संसार के प्राणिमात्र में आत्मरक्षा और सुख-साधन का भाव नैसर्गिक रूप में पाया जाता है। हम देखते हैं कि पक्षी घोंसले बनाते हैं, चूहे आदि बिल खोद लेते हैं और दीमक भोटे बनाती हैं। इस प्रकार बुद्धि-शून्य कहे जाने वाले जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों में भी आत्मरक्षा के लिए सुन्दर कलायपूर्ण निवास बनाने की भावना पायी जाती है, तो यह कल्पना स्वाभाविक है कि मानव में यह भावना, यह आकांक्षा और भी तीव्र रही होगी। उसने अपने जन्म के साथ ही सर्दी, गर्मी, बरसात, धूप आदि अनेक प्रकार की प्राकृतिक असुविधाओं से अपनी रक्षा की आवश्यकता का अनुभव किया होगा और उसी दिन वास्तु-कला का जन्म हुआ होगा।

2. मनुष्य का आरम्भिक जीवन अस्थिर था। वह एक स्थान से दूसरे स्थान घूमता, शिकार करता, गाय चराता और विचरण करता रहा। ऐसी अवस्था में उसने अपने चारों ओर रहने वाले पक्षियों की देखा-देखी अपने लिए घास-फूल की अस्थायी झोपड़ियाँ बनायी होंगी; पश्चात् धीरे-धीरे उसने स्थायी एवं सुदृढ़ निवास बनाने की ओर ध्यान दिया होगा। सम्भव है कि मनुष्य ने अपने निवास में पशुओं का भी अनुकरण किया हो और अपने रहने के लिए भूमि में माँद बनाये हों और पर्वतों की गुफाओं और कन्दराओं की शरण ली हो। यह बातें उस काल की हैं जिसे मानव-सभ्यता का आदिकाल कहा जा सकता है। यह अवस्था सम्भवतः आज से दस-बारह हजार वर्ष पूर्व तक रही होगी।

3. उसके बाद निवास ने सुदृढ़ रूप लिया और धीरे-धीरे सामूहिक निवास का रूप धारण करते-करते वह नगर के रूप में परिवर्तित हुआ। सभ्यता के विकास के साथ-साथ नगर की आवश्यकता और उपयोगिता के विस्तार ने सुचारु निर्माण की भावना को उद्दीप्त किया और मनुष्य ने उसे वैज्ञानिक रूप दिया; पश्चात् उसने अपनी प्रत्येक आवश्यकता के लिए अनेक प्रकार के स्वतन्त्र भवनों का निर्माण किया और उनकी वास्तु-कला ने स्वतन्त्र रूप धारण किया। संक्षेप में वास्तुकला का क्रय-विकास यही है जिसे विश्व के इतिहास के साथ सम्बद्ध कर सकते हैं।

4. आज की विकसित वास्तु-कला में स्थायित्व के साथ-साथ कलात्मक भावना प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। उसमें उपयोगिता के साथ-साथ सौन्दर्य की आवश्यकता का भी अनुभव किया जाता है। आज की वास्तु-कला का महत्त्व संयोजन (प्लान) के सजाने और उसे इस रूप में प्राण देने में समझा जाता है कि भवन में सौन्दर्य, भव्यता, एकरूपता और स्थायित्व का इस प्रकार सम्मिश्रण हो कि मनुष्य के सुख में बाधा न पड़े।

5. वास्तुकला के इस विकास-क्रम का अध्ययन करने और समझने के लिए मानवीय भावनाओं का अध्ययन आवश्यक है। इस निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि किसी वास्तु के निर्माता के मस्तिष्क में उस समय क्या भावनायें काम कर रही थीं जब उसने उस वास्तु के निर्माण की कल्पना की। साधारणतया जब कोई शिल्पी किसी भवन के निर्माण का उपक्रम करता है तो उसका प्रयत्न होता है कि वह उस भवन के प्रयोजन को ध्यान में रखकर उसके निमित्त उपलब्ध भूमि की सीमा के भीतर ही उस वास्तु का ऐसा संयोजन करे कि उसकी सारी आवश्यकताएँ सुविधापूर्वक पूरी हो जायँ। किन्तु अपने इस प्रयत्न के साथ-साथ वह यह भी देखने की चेष्टा करता है कि उसी प्रकार के वास्तु-निर्माण में पहले के वास्तु-निर्माता ने किस प्रकार का संयोजन किया है, फिर वह अपने साधनों के अनुरूप अपनी तात्कालिक आवश्यकता की दृष्टि से उसमें समुचित काट-छाँट, संशोधन-परिवर्तन कर अपनी कल्पना को मूर्त करता है। फलतः उस नव-निर्मित वास्तु पर अपनी सारी मौलिकताओं के बावजूद उस पूर्ववर्ती वास्तु की छाप किसी न किसी रूप में उतर आती है। वास्तु-शैली के विकास पर विचार करते समय बहुधा हम इस बात की उपेक्षा कर जाते है और विभिन्न वास्तु-शैलियों के विकास के बीच काल की सन्धि-रेखा खींचने की चेष्टा करते हैं। किन्हीं दो शैलियों में स्पष्ट अन्तर होते हुए भी मूलतः वे एक दृष्टि से सर्वथा भिन्न होंगे ही, ऐसा नहीं कहा जा सकता। शताब्दियों में शिल्पियों की कल्पनाओं के रूप विकसित होते-होते मूल रूप से परिवर्तित होकर एक नया रूपा धारण करते हैं। इस प्रकार इन सबके बीच क्रम की एक श्रृंखला बनी रहती है जिसे तोड़कर विभिन्न शैलियों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। वास्तुकला के तीन मूल तत्वों–संयोजन (प्लान), निर्माण (कॉन्स्ट्रक्शन) और रूप (फॉर्म) में से किसी न किसी में वह अभिन्नता बनी होती। उसकी किसी भी प्रकार उपेक्षा नहीं की जा सकती। किसी वास्तु के क्रम-विकास का अध्ययन करते समय उसके प्राचीन रूप से आरम्भ कर उसके सामने रखकर ही किसी वास्तु का उचित अध्ययन किया जा सकता है।

6. बहुधा लोग वास्तु–शैली के विकास पर विचार करते समय उसके मूल की कल्पना वर्तमान रूप के आधार पर करने लगते हैं। ऐसा करते समय वे उसके क्रम-विकास की मध्यावस्था को छोड़कर सर्वथा आदिम अवस्था की कल्पना करने लग जाते है, जिसके कारण उनका निष्कर्ष बहुत ही भ्रामक हो जाता है और सन्देह के लिए पर्याप्त स्थान रह जाता है। उचित तो यह है कि आज के वास्तु के विकसित रूप का कल के वास्तु से सन्तुलन करें और फिर उसका सम्बन्ध परसों से जोड़े और अन्त में उसके आदिम रूप का अनुमान करें। उसी क्रम से किसी प्राचीन वास्तु का भी आज के वास्तु से सम्बन्ध स्थापित करें। यथा–मनुष्य ने आरम्भ में अपनी रक्षा के साधन गुफाओं, कन्दराओं और झोपड़ियों को बनाया था। इनमें गुफाएँ और कन्दराएँ प्राकृतिक थीं और झोपड़ियाँ मानवकृत। इन्हीं दो रूपों से वास्तु का विकास हुआ यह स्पष्ट है। झोपड़ी बनाने के आरम्भकालीन साधन क्या-क्या थे, इसका पता हमें नहीं है। उनके पास जो भी साधन रहे होंगे, उनकी सहायता से सरलता-सुविधापूर्वक वे जो भी रूप दे सके होंगे, उन्होंने दिया होगा। इसके बाद मानव-बुद्घि के विकास के साथ-साथ जब उन्होंने अधिक स्थायी सामग्री से अपना निवास बनाया होगा, उस समय वे अपने पुराने वास्तु के रूप को सर्वथा त्याग न सके होंगे और उसे मूल आधार मानकर ही नये वास्तु को जन्म दिया होगा और इसी क्रम से वास्तु की योजना (प्लान), निर्माण (कॉन्स्ट्रक्शन) और रूप (फॉर्म) का विकास हुआ होगा। वास्तु-विकास के अध्ययन के लिए यही क्रम उत्तम होगा।

अध्याय 2

नागरिक वास्तु

7. भारतवर्ष के इतिहास की कल्पना लोग आर्य जाति और उसकी सभ्यता के विकास से करते हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि आर्य लोग मूल रूप में उत्तरी ध्रुव के निवासी थे और अफगानिस्तान, हिन्दूकुश होकर भारत में आये और पहले सिन्धु के उपरले काँठे में बसे, फिर क्रमशः गंगा के उपरले काँठे, विन्ध्य, नर्मदा आदि में बसते-बसते समुद्र तक फैल गये, फिर वे दक्षिण की ओर बढ़े। पर अनेक विद्वान् आर्यों को विदेशी नहीं मानते। पुराणों से ऐसा ज्ञात होता है कि आर्य कहीं बाहर से नहीं आये। वे पहले कश्मीर-पामीर में केन्द्रित थे फिर वहाँ से सरस्वती प्रदेश (वर्तमान अम्बाला तथा उसका निकटवर्ती भाग) तथा देश में अन्यत्र बिखरे।

8. इन आर्यों के प्रधान साहित्य ऋग्वेद में भवन-निर्माण के अत्यन्त उन्नत आदर्शों का वर्णन है। उनमें एक स्थान पर सहस्त्र स्थूणों के भवन का उल्लेख है लिखा है कि ‘प्रजा का द्रोही न होकर राजा तथा मन्त्री दृढ़ उत्तम तथा हजार स्तम्भों वाले भवन में रहें’ (2। 41। 5) उसमें अन्यत्र पत्थर के 100 फलकों से बने एक मकान का उल्लेख है (4। 39। 20)। इसी प्रकार उसमें लोहे और पत्थर के बने नगरों का भी वर्णन है। (7। 85। 1; 2। 20। 8; 1। 58। 8; 7। 3। 7; 7। 15। 14 आदि)। आर्य जीवन की उन्नति अवस्था में ही सम्भवत: ऐसा रहा होगा। उसके प्रारम्भिक काल में तो वास्तु-कला बहुत ही शैशवावस्था में रही होगी। अन्य देशों की तरह लोग पेड़ो अथवा गुफाओं में रहते रहें होगें और वास्तु-निर्माण की चेष्टा मिट्टी, बाँस अथवा बल्लियों से आरम्भ हुई होगी। पश्चात् सामान्य जीवन में काष्ठ का प्रयोग मुख्य रूप से होने लगा होगा।


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