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हिन्द स्वराज

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :132
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7552
आईएसबीएन :9788173157479

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हिंदुस्तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रिय अंश के रूप में स्वीकार करे और उसे अपनी राजनीति में शामिल करे तो स्वराज स्वर्ग से हिंदुस्तान की धरती पर उतरेगा...

Hind Swaraj - A Hindi Book - by Mahatma Gandhi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सन् 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जहाज पर हिंदुस्तानियों के हिंसावादी पंथ को और उसी विचारधारावाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को दिए गए जवाब के रूप में लिखी यह पुस्तक पहले-पहल दक्षिण अफ्रीका में छपनेवाले साप्ताहिक ‘इंडियन ओपिनियन’ में प्रकट हुई थी।

लिखने के एक सौ वर्ष बाद भी यह इतनी प्रासंगिक और विचारशील कृति है कि यह बालक के हाथ में भी दी जा सकती है। यह द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्मबलिदान को रखती है; पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है।

हिंदुस्तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रिय अंश के रूप में स्वीकार करे और उसे अपनी राजनीति में शामिल करे तो स्वराज स्वर्ग से हिंदुस्तान की धरती पर उतरेगा।
‘हिंद स्वराज’ में बताए हुए संपूर्ण जीवन-सिद्धांत के आचर में लाने से राष्ट्र के सामने जो प्रश्न हैं, समस्याएँ हैं, उनका उत्तर और समाधान खोजने में मदद मिलेगी।

‘हिंद स्वराज’ के बारे में


मेरी इस छोटी सी किताब की ओर विशाल जनसंख्या का ध्यान खिंच रहा है, यह सचमुच ही मेरा सौभाग्य है। यह मूल तो गुजराती में लिखी गई है। इसका जीवन-क्रम अजीब है। यह पहले-पहल दक्षिण अफ्रीका में छपनेवाले साप्ताहिक ‘इंडियन ओपीनियन’ में प्रकट हुई थी। 1909 में लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जहाज पर हिंदुस्तानियों के हिंसावादी पंथ को और उसी विचारधारावाले दक्षिण अफ्रीका के एक वर्ग को दिए गए जवाब के रूप में यह लिखी गई थी। लंदन में रहनेवाले हर एक नामी अराजकतावादी हिंदुस्तानी के संपर्क में मैं आया था। उसकी शूरवीरता1 का असर मेरे मन पर पड़ा था, लेकिन मुझे लगा कि उनके जोश ने उलटी राह पकड़ ली है। मुझे लगा कि हिंसा हिंदुस्तान के दुःखों का इलाज नहीं है और उसकी संस्कृति2 को देखते हुए उसे आत्मरक्षा3 के लिए कोई अलग और ऊँचे प्रकार का शस्त्र काम में लाना चाहिए। दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह उस वक्त मुश्किल से दो साल का बच्चा था। लेकिन उसका विकास इतना हो चुका था कि उसके बारे में कुछ हद तक आत्मविश्वास से लिखने की मैंने हिम्मत की थी। मेरी यह लेखमाला पाठक-वर्ग को इतनी पसंद आई कि वह किताब के रूप में प्रकाशित की गई। हिंदुस्तान में उसकी ओर लोगों के कुछ ध्यान गया। बंबई सरकार ने उसके प्रचार की मनाही कर दी। उसका जवाब मैंने किताब का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करके दिया। मुझे लगा कि अपने अंग्रेज मित्रों को इस किताब के विचारों से वाकिफ करना उनके प्रति4 मेरा फर्ज है।

मेरी राय में यह किताब ऐसी है कि यह बालक के हाथ में भी दी जा सकती है। यह द्वेष-धर्म की जगह प्रेम-धर्म सिखाती है; हिंसा की जगह आत्म-बलिदान को रखती है; पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है। इसकी अनेक आवृत्तियाँ हो चुकी है; और जिन्हें इसे पढ़ने की परवाह है, उनसे इसे पढ़ने की मैं जरूर सिफारिश करूँगा। इसमें से मैंने सिर्फ एक ही शब्द–और वह एक महिला मित्र की इच्छा को मानकर–रद्द किया है; इसके सिवा और कोई फेरबदल मैंने इसमें नहीं किया है।

इस किताब में ‘आधुनिक सभ्यता’ की सख्त टीका की गई है। यह 1909 में लिखी गई थी। इसमें मेरी जो मान्यता प्रगट की गई है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है। मुझे लगा है कि अगर हिंदुस्तान ‘आधुनिक सभ्यता’ का त्याग करेगा, तो उससे उसे लाभ ही होगा।

लेकिन मैं पाठकों को एक चेतावनी देना चाहता हूँ। वे ऐसा न मान लें कि इस किताब में जिस स्वराज की तसवीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज कायम करने के लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं। मैं जानता हूँ कि अभी हिंदुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है। ऐसा कहने में शायद ढिठाई का भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्वास है इसमें जिस स्वराज्य की तसवीर मैंने खींची है, वैसा स्वराज पाने की मेरी निजी कोशिश जरूर चल रही है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज मेरी सामूहिक5 प्रवृत्ति का ध्येय तो हिंदुस्तान की प्रजा की इच्छा के मुताबिक पार्लियामेंटरी ढंग का स्वराज पाना है। रेलों या अस्पतालों का नाश करने का ध्येय मेरे मन में नहीं है, अगरचे उनका कुदरती नाश हो तो मैं जरूर उसका स्वागत करूँगा। रेल या अस्पताल दोनों में से एक भी ऊँची और बिलकुल शुद्ध संस्कृति की सूचक ‘(चिह्न) नहीं है। ज्यादा-से-ज्यादा इतना ही कह सकते हैं कि यह एक ऐसा बुराई है, जो टाली नहीं जा सकती। दोनों में से एक भी हमारे राष्ट्र की नौतिक ऊँचाई में एक इंच की भी बढ़ती नहीं करती। उसी तरह मैं अदालतों के स्थायी6 नाश का ध्येय मन में नहीं रखता, हालाँकि ऐसा नतीजा आए तो मुझे अवश्य बहुत अच्छा लगेगा। यंत्रों और मिलों के नाश के लिए तो मैं उससे भी कम कोशिश करता हूँ। उसके लिए लोगों की आज जो तैयारी है, उससे कहीं ज्यादा सादगी और त्याग की जरूरत रहती है।

इस पुस्तक में बताए हुए कार्यक्रम7 के एक ही हिस्से का आज अमल हो रहा है–वह है अहिंसा। लेकिन मैं अफसोस के साथ कबूल करूँगा कि उसका अमल भी इस पुस्तक में दिखाई हुई भावना से नहीं हो रहा है। अगर हो तो हिंदुस्तान एक ही रोज में स्वराज पा जाए। हिंदुस्तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रिय8 अंश के रूप में स्वीकार करे और उसे अपनी राजनीति में शामिल करे, तो स्वराज स्वर्ग से हिंदुस्तान की धरती पर उतरेगा। लेकिन मुझे दुःख के साथ इस बात का भान है कि ऐसा होना बहुत दूर की बात है।

ये वाक्य मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि आज के आंदोलन9 को बदनाम करने के लिए इस पुस्तक में से बहुत सी बातों का हवाला दिया जाता, मैंने देखा है। मैंने इस मतलब के लेख भी देखे हैं कि मैं कोई गहरी चाल चल रहा हूँ, आज की उथल-पुथल से लाभ उठाकर अपने अजीब खयाल भारत के सिर लादने की कोशिश कर रहा हूँ और हिंदुस्तान को नुकसान पहुँचाकर अपने धार्मिक प्रयोग कर रहा हूँ। इसका मेरे पास यही जवाब है कि सत्याग्रह ऐसी कोई कच्चा खोखली चीज नहीं है। उसमें कुछ भी दुराव-छिपाव नहीं है, उसमें कुछ भी गुप्तता नहीं है। ‘हिंद स्वराज’ में बताए हुए संपूर्ण जीवनसिद्धांत के एक भाग को आचरण में लाने की कोशिश हो रही है, इसमें कोई शक नहीं। ऐसा नहीं कि उस समूचे सिद्धांत का अमल करने में जोखिम है; लेकिन आज देश के सामने जो प्रश्न10 हैं, उसके साथ जिन हिस्सों का कोई संबंध नहीं है, ऐसे हिस्से में लेखों में से देकर लोगों को भड़काने में न्याय हरगिज नहीं है।

जनवरी, 1921
–मोहनदास करमचंद गांधी
(‘यंग इंडिया’ के गुजराती अनुवाद से)

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1. बहादुरी, 2. तमद्दुन, 3. अपना बचाव, 4. तरफ, 5. आम, 6. कायमी, 7. प्रोग्राम, 8. अमली, 9. तहरीक, 10. सवाल।

कांग्रेस और उसके कर्ता-धर्ता


पाठक : आजकल हिंदुस्तान में स्वराज की हवा चल रही है। सब हिंदुस्तान आजाद होने के लिए तरस रहे हैं। दक्षिण अफ्रीकता में भी वही जोश दिखाई दे रहा है। हिंदुस्तानियों में अपने हक पाने की बड़ी हिम्मत आई हुई मालूम होती है। इस बारे में क्या आप अपने खयाल बताएँगे ?

संपादक : आपने सवाल ठीक पूछा है। लेकिन इसका जवाब देना आसान बात नहीं है। अखबार का एक काम तो है लोगों की भावनाएँ जानना और उन्हें हाजिर करना; दूसरा काम है लोगों में अमुक जरूरी भावनाएँ पैदा करना; और तीसरा काम है लोगों में दोष हों तो चाहे जितनी मुसीबतें आने पर भी बेधड़क होकर उन्हें दिखाना। आपके सवाल का जवाब देने में ये तीनों काम साथ-साथ आ जाते हैं। लोगों की भावनाएँ कुछ हद तक बताती होंगी, न हों वैसी भावनाएँ तो उनमें पैदा करने की कोशिश करनी होगी और उनके दोषों की निंदा भी करनी होगी। फिर भी आपने सवाल किया है, इसलिए उसका जवाब देना मेरा फर्ज मालूम होता है।

पाठक : क्या स्वराज की भावना हिंद में पैदा हुई आप देखते हैं ?

संपादक : वह तो जब से नेशनल कांग्रेस कायम हुई, तभी से देखने में आई है। ‘नेशनल’ शब्द का अर्थ ही वह विचार जाहिर करता है।

पाठक : यह तो आपने ठीक नहीं कहा। नौजवान हिंदुस्तानी आज कांग्रेस की परवाह ही नहीं करते। वे तो उसे अंग्रेजों का राज्य निभाने का साधन1 मानते हैं।

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1. औजार, जरिया।

संपादक : नौजवानों का ऐसा खयाल ठीक नहीं है। हिंद के दादा दादाभाई नौरोजी ने जमीन तैयार नहीं की होती तो नौजवान आज जो बातें कर रहे हैं, वह भी नहीं कर पाते। मि. ह्यूम ने जो लेख लिखे, जो फटकारें हमें सुनाईं, जिस जोश में हमें जगाया, उसे कैसे भुलाया जाए ? सर विलियम वेडरबर्न ने कांग्रेस का मकसद हासिल करने के लिए अपना तन, मन और धन सब दे दिया था। उन्होंने अंग्रेजी राज्य के बारे में जो लेख लिखे हैं, वे आज भी पढ़ने लायक हैं। प्रोफेसर गोखले ने जनता को तैयार करने के लिए, भिखारी जैसी हालत में रहकर अपने बीस साल दिए हैं। आज भी वे गरीबी में रहते हैं। मरहूम जस्टिस बदरुद्दीन ने भी कांग्रेस के जरिए स्वराज का बीज बोया था। यों बंगाल, मद्रास, पंजाब वगैरह में कांग्रेस का और हिंद का भला चाहनेवाले कई हिंदुस्तानी और अंग्रेज लोग हो गए हैं, यह याद रखना चाहिए।

पाठक : ठहरिए, ठहरिए। आप तो बहुत आगे बढ़ गए। मेरा सवाल कुछ है और आप जवाब कुछ और दे रहे हैं। मैं स्वराज्य की बात करता हूँ और आप परराज्य की बात करते हैं। मुझे अंग्रेजों का नाम तक नहीं चाहिए और आप तो अंग्रेजों के नाम देने लगे। इस तरह तो हमारी गाड़ी राह पर आए, ऐसा नहीं दीखता। मुझे तो स्वराज्य की ही बातें अच्छी लगती हैं। दूसरी मीठी सयानी बातों से मुझे संतोष नहीं होगा।

संपादक : आप अधीर हो गए हैं। मैं अधीरपन बरदाश्त नहीं कर सकता। आप जरा सब्र करेंगे तो आपको जो चाहिए वही मिलेगा। ‘उतावली से आम नहीं पकते, दाल नहीं चुरती’ यह कवाहत याद रखिए। आपने मुझे रोका और आपको हिंद पर उपकार करनेवालों की बात भी सुननी अच्छी नहीं लगती, यह बताता है कि अभी आपके लिए स्वराज दूर है। आपके जैसे बहुत से हिंदुस्तानी हों, तो हम (स्वराज से) दूर हटकर पिछड़ जाएँगे। वह बात जरा सोचने लायक है।

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