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हास्य-व्यंग्य >> काग के भाग बड़े

काग के भाग बड़े

प्रभाशंकर उपाध्याय

प्रकाशक : अमरसत्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7543
आईएसबीएन :978-81-88466-63

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ऋग्वेद में मंत्रवाची मुनियों को टर्राने वाले मेढकों की उपमा दी गई है...

Kag Ke Bhag Bade - A Hindi Book - by PrabhaShankar Upadhyay

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

व्यंग्य को भले ही लेटिन के ‘सेटुरा’ से व्युत्पन्न बताया गया हो, किंतु भारत के प्राचीन साहित्य में व्यंग्य की बूझ रही है। ऋग्वेद में मंत्रवाची मुनियों को टर्राने वाले मेढकों की उपमा दी गई है। भविष्येतर पुराण तथा भर्तृहरिशतकत्रयं में खट्टी-मीठी गालियों के माध्यम से हमें हास्य-व्यंग्य प्रसंग उत्पन्न किए हैं–‘गालिदानं हास्यं ललनानर्तनं स्फुटम्’, ‘ददतु ददतु गालीर्गालिगन्तो भवन्तो’। वाल्मीकि रामायण में मंथरी की षड्यंत्र बुद्धि की कायल होकर, कैकेयी उसकी अप्रस्तुत प्रशंसा करती है, ‘‘तेरे कूबड़ पर उत्तम चंदन का लेप लगाकर उसे छिपा दूँगी, तब तू मेरे द्वारा प्रदत्त, सुंदर वस्त्र धारण कर देवांगना की भाँति विचरण करना।’’ रामचरितमान में भी ‘तौ कौतुकिय आलस नाहीं’ (कौतुक प्रसंग) तथा राम कलेवा में हास्य-व्यंग्य वार्ताएँ हैं। संस्कृत कवियों कालिदास, शूद्रक, भवभूति ने विदूषक के ज़रिए व्यंग्य-विनोद का कुशल संयोजन किया है, ‘‘दामाद दसवाँ ग्रह है, जो सदा वक्र व क्रूर रहता है। जो सदा पूजा जाता है और सदा कन्या राशि पर स्थित है।’’
लोक-जीवन में तमाशेबाज़ी, बातपोशी, रसकथाओं, गालीबाजों, भांड़ों और बहुरुपियों ने हास्य-व्यंग्य वृत्तांत वर्णित किए हैं। विवाह और होली पर्व पर हमारा विनोदी स्वभाव उभर आता है। अतः दीगर यह कि विश्व में हास्य-व्यंग्य के पुरोधा हम ही हैं।

अस्तु, इस व्यंग्य-संग्रह को विषय एवं शैली-वैविध्य के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास है। इसमें व्यंग्यकथा, निबंध, गोष्ठी, प्रश्नोत्तरी, प्रेस कॉन्फ्रेंस, संवाद, साक्षात्कार, सर्वे आदि शिल्पों की चौंतीस व्यंग्य रचनाएँ संकलित की गई हैं।

आह ! दराज़, वाह ! दराज़


दफ़्तरी आलम के कुछ आवश्यक तत्त्व हुआ करते हैं और उनके बग़ैर दफ़्तर-दफ़्तर-सा नहीं लगता। मसलन उधड़े प्लास्टर तथा बरसों से रंग-रोगन की चाह रखने वाली इमारतों के आभावहीन कमरे। लड़खड़ाती कुर्सियाँ, स्टूल, बेंचें। धूसर फ़ाइलें। घुड़कते बॉस। त्योरियों के तईं बतियाते बाबू। बीड़ी का सुट्टा मारते, उनींदे-चपरासी। चाय के कपों-गिलासों को टकराते रेस्टोरंटी छोकरे और काम हो जाने की आस में यत्र-तत्र धकियाते, आते-जाते आगंतुकगण।

ऐसे हाहाकारी माहौल में, मेज़ों के नीचे सुकून से छिपीं दराजों की भूमिका भी बहुत अहम है। यद्यपि इनकी कारगुजारी कोई कम नहीं। कार्रवाई हेतु प्रस्तुत प्रर्थना-पत्र की गति क्या होगी ? वह मार्गी होगा या वक्री ?
दाख़िले-फ़ाइल होगा अथवा दाख़िले-दराज़ ? यह आवेदन के संग रखे वज़न पर निर्भर होगा। अलबत्ता, जब तक कागज़ मेज़ पर है, उस पर समुचित कार्रवाई अपेक्षित है और अगर वह दराज़ में गया तो मानो उसका भविष्य अनिश्चित हो गया। पता नहीं वह, बेरहम, कब बाहर निकले ?

अतः, इस अदना-सी दराज़ पर, मैं फ़िलहाल विचारमग्न हूँ। पहला विचार यह कि ‘दराज़’ शब्द मुआ आया कहाँ से ? इस हेतु शब्दकोश खँगालता हूँ। संस्कृत-हिंदी कोश में इस आशय का मूल शब्द नहीं है। यह फ़ारसी से आया है। स्त्रीलिंग है। विशेषणयुक्त है। शब्दार्थ है–लंबा, दीर्घ, विशाल, शिगाफ़। क्रिय विशेषण है–बहु अधिक अर्थात् दराज़ में जो गया, समझो वह लंबे, दीर्घ, विशालकाय समय के लिए गतिहीन हो गया। अतएव नन्ही-सी इस दराज़ के कारनामे भी बहुत अधिक हैं। किसी शायर ने लिखा है–उलझा है पाँव यार का, जुल्फ़े दराज़ में।’

लुब्बेलुबाब यह कि दराज़ की खोज करने वाला कोई नामाकूल नहीं था बल्कि बुद्धिमान व्यक्ति था। इस नामकरण की सूक्ष उसे कैसे सूझी ? आइए, इस परिकल्पना पर ग़ौर करते हैं।
मेरे विचार से इसका रहस्य ‘दरज़’ में छिपा है। ‘दरज़’ का अर्थ है–चीर, दरार। मतलब कि किसी के बनते हुए काम में दरार डाल दो। आंग्ल भाषा का ‘ड्राअर’ भी कदाचित् ‘दरार’ से उत्पन्न हुआ लगता है।

मैं इस सोच को आगे बढ़ाता कि गुरुवर चमनचंद्र चक्रपाणि पधारते दिखाई दिए। वे संस्कृत के विद्वान् तथा भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक हैं। लिहाज़ा, मैं अपनी परिकल्पना गुरुदेव के सम्मुख प्रस्तुत की। चक्रपाणि जी बिफर गए, ‘‘हमारा भारत जगतगुरु रहा है और सदा रहेगा। वैज्ञानिक उपलब्धियाँ और अनुसंधान हमारी ही देन हैं। निश्चित ही ‘दराज़’ शब्द भी हमारा आविष्कार है। इसकी व्युत्पत्ति संस्कृत ‘दर्दर’ से हुई है।’’

योग कहें, संयोग कहें कि अरबी-फ़ारसी के जानकार, जनाब खच्चन खान की आमद भी उसी वक़्त हुई। आते ही, मियाँ इस नुक़्ते पर फ़रमाने लगे, ‘‘हजरत ! यह शब्द अरबी के ‘दरज़ा’ से आया है। गोया, दफ़्तर में पेश की गई अरज़ी को क्या दरज़ा हासिल हुआ ? क्या उसे दराज़-दरोज़ कर दिया गया ?’’
दराज़ के विदेशी भाषा से आयात होने की पुष्टि पर मैं उत्साह से उछला, ‘‘म्याँ ! यहाँ फ़ारसी के ‘दर्रा’ को भी मत भूलो। सारे महत्त्वपूर्ण पत्र-प्रपत्र, इस नामुराद दराज़रूपी ‘दर्रे’ में गुम हो जाते हैं।’’

भई वाह ! ग़ज़ब हुआ ! हिंदी-उर्दू के फ़नकार तरन्नुम राजस्थानी भी तभी तशरीफ़ ले आए। उन्होंने अपनी मौजूदगी कुछ इस तरह दर्ज़ कराई, ‘‘राजस्थान में ‘दरा’ नामक जंगली जगह है। वर्तमान में यह दरा—अभयारण्य के नाम से जानी जाती है। लिहाज़ा ‘दराज़’ की प्रेरणा इसी ‘दरा’ शब्द से प्राप्त हुई है। मसलन एक बार जो काग़ज़ दराज़ में दाख़िल हुआ, वह अभय के अरण्य (जंगल) में गया समझो।’’ गुरुदेव चमनचंद्र चक्रपाणि बहुत देर से चुप थे। अब असहमत होकर मुखर हुए, ‘‘बंधु तरन्नुम, यह उत्तम बात है कि तुमने ‘दराज़’ की उत्पत्ति भारत भूमि से बताई है, इस स्वदेश प्रेम के लिए तुम्हें साधुवाद ! परंतु, मैं इसे ‘दरा’ से नहीं वरन् संस्कृत के ‘द्वार’ से मानता हूँ। प्रार्थना-पत्र के ‘दराज़’ में जाते ही प्रार्थी द्वार-द्वार डोलने लगता है।’’

अपनी मान्यता पर शरीफ़ाना चोट होते देख तरन्नुम ताव खा गए, ‘‘वाह पंडित जी, आपने यह शब्द द्वार से कैसे पैदा कर दिया ? इससे नज़दीक तो फ़ारसी का ‘दर’ है। काग़ज़ात के द़ारज़ में दफ़न होते ही उसका पेशकर्ता दर-दर नहीं भटकता क्या ?’’
पंडित जी कोई कम थोड़े थे, बोले, ‘‘मियाँ, तुम तो नेक-से विवाद पर भारत की भूमि छोड़ फ़ारस जा पहुँचे। आओ, हम तुम्हें पुनः हिंदुस्तान में लाते हैं। देव भाषा संस्कृत में भी ‘दर’ शब्द है एवं दराज़ की व्युत्पत्ति इसी ‘दर’ से हुई है। इसके शब्दार्थ हैं–कंदरा, गुहा। ‘दराज़’ किसी कंदरा से कम प्रतीत होती है भला ?’’

अब खच्चन भाई भी मैदान में ताल ठोंककर कूदे, ‘‘दोस्तों, लफ़्जों के साथ तोड़-मरोड़ की पहलवानी न करें। ‘दर’ को छोड़ो, दराज़ लफ़्ज ‘दरक’ से बना है। ‘दरक’ के मायने हैं–‘खाँचा’। यानी जो काग़ज़ किसी भी खाँचें में नहीं बैठे, उसे इस ‘दराज़ी–खाँचे’ में डाल दो।’’
यह महासंयोग ही था कि अनुवादक के पद पर कार्यरत ठेपीलाल मेरे कमरे में प्रविष्ट हुए। अब वातावरण एक लघु गोष्ठी सरीखा हो गया था।

ठेपी भाई ने अपनी स्थापना इस तरह दी, ‘‘दराज़ शब्द ‘दौर’ से अपभ्रंश होकर आया है। किसी पत्रावली के निबटान का पहला दौर उसे दराज़ में डाल देता है। सोचते हैं, जब फ़ुरसत होगी, तब देखेंगे और मुई फ़ुरसत कभी मिलती नहीं। अंग्रेज़ लोग ‘दौर’ का उच्चारण ‘डौर’ करते थे। इंगलिस्तान में जाकर यह ‘डौअर’ हो गया और शनैः-शनैः इससे ‘ड्राअर’ बना। फ़ारसी का दराज़ भी अंग्रेज़ी के ‘ड्राअर’ से बना है।

प्रवीण ठेपीलाल समाँ बाँधते हुए आगे बोले, ‘‘अब मैं आपको ‘दौर’ और ‘ड्राअर’ का अंतःसंबंध एक उदाहरण के माध्यम से समझाता हूँ, हमारे साहब की मेज़ में तीन दराज़ें हैं। किसी भी पत्र या काग़ज़ की प्राप्ति पर वे उस पर लाल स्याही से टिप्पणी अंकित करेंगे, ‘टू बी सी’ और उसे पहली दराज़ में डाल देंगे। यह हुआ, उनके कार्य को निबटाने का पहला दौर।
‘‘दूसरे रोज़, एक दिन पूर्व के प्राप्त काग़ज़ातों को दराज़ से बाहर निकालेंगे और उन सभी पर टिप्पणी अंकित करेंगे, ‘टू बी सी लेटर’। तत्पश्चात् उन सभी पत्रों-प्रपत्रों को दूसरी दराज़ में डाल देंगे। इस प्रकार पहली दराज़ नवीन आगत के लिए स्वागत के लिए ख़ाली हो जाएगी और दूसरी भर जाएगी। यह हुआ कार्य निपटाने का दूसरा दौर।’’

‘‘तीसरे दिन दूसरी दराज़ के काग़ज़ों को निकालेंगे। उन पर लाल स्याही से लिखेंगे, ‘टू बी फ़ाइल’ और तीसरी में डाल देंगे। इसी क्रम में पहली दराज़ के पत्र-प्रपत्र दूसरी दराज़ में आ जाएँगे।
‘‘चौथे दिन, तीसरी दराज़ के सारे पत्रों-प्रपत्रों को निकालेंगे और ‘टू बी फ़ाइल’ लिखे समस्त काग़ज़ात संबंधित कर्मचारियों के पास भिजवा देंगे।’’

‘‘अब क्रमसः दूसरी दराज़ के काग़ज़ात तीसरी में तथा पहली के दूसरी दराज़ में आ जाएँगे। पहली दराज़ नए काग़ज़ों की आगत के लिए सदा की भाँति तैयार हो जाएगी। यह होगा, हमारे साहब के काग़ज़ात निबटाने का चौथा और अंतिम दौर।’’
ठेपी भाई के क़िस्से को परवान चढ़ाते हुए, तरन्नुम राजस्थानी ने उसी मिज़ाज का परवीन कुमार ‘अश्क’ का एक शे’र पढ़कर सभी की दाद लूट ली–

बरसों से ज़िंदगी की अरज़ी गुम है दराज़ों में।
कभी अफ़सर नहीं होता कभी बाबू नहीं होता।।

एक अदद घोटाला


सदा की भाँति श्रीमती जी ने चाय का कप और अख़बार एक साथ थमाया। फिर, ख़ुद पास आकर बैठ गईं। चाय को मेज़ पर रख, मैंने अखबार को खोला। मुख्यपृष्ठ पर प्रकाशित एक ख़बर को पढ़कर चित्त उदास हो गया। दीर्घ निश्वास छोड़ी मैंने।
पत्नी ने शंकित स्वर में पूछा, ‘‘क्या हुआ ? तबीयत तो ठीक है ?’’

मैंने उस सचित्र समाचार की ओर संकेत किया। पत्नी ने ख़बर की तरफ़ ध्यान नहीं देकर उसके साथ छपे चित्र को घूरा और बोली, ‘‘हाय...क्या हैंडसम पर्सनैल्टी है ? कैसा मुस्करा रहा है ? लेकिन इसे देख आप उदास क्यों हुए ?’’
मैं बोला, ‘‘इस आदमी पर अरबों रुपए के घोटाले का आरोप है।’’
‘‘तो क्या हुआ ? वह रुपया आपका तो नहीं है ! अरे, इतने उदास तो आप दंगों और दुर्घटनाओं के समाचारों को पढ़कर भी नहीं होते।’’

‘‘मैंडम ! मीडिया घोटालेबाज़ों को बड़ा उछाल रहा है। शेष समाचार घोटालों की ख़बरों के नीचे हैं। छोटे सो छोटा घोटाला भी ख़ासी सुर्ख़ियों में प्रकाशित होता है। राई का पहाड़ बन जाता है। बस, इसी बात से मेरा मन रोता है। नैतिक समाचारों को नीचा दर्जा और अनैतिक को ऊँचा। सोच रहा हूँ कि एक घोटाला मैं भी कर दूँ।’’
‘‘दैया रे...!’’ पत्नी बोली, ‘‘नौकरीपेशा होकर कैसी बात कर रहे हैं आप ? ऐसा सोचना भी पाप है। आप फँस गए तो हम कहीं के नहीं रहेंगे।’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं होगा। हाँ, पूछताछ और गिरफ़्तारी जैसी कुछेक प्रक्रियाओं से अवश्य गुज़रना होगा। लेकिन, हमारे क़ानून में बच निकलने की अनेक गलियाँ हैं। तभी तो घोटालेबाज़ों का बाल भी बाँका नहीं हो पाता है। प्रसिद्धि पाने का इससे आसान उपाय कोई और नहीं। एक अदद घोटाला कर दो। फिर मीडिया में सनसनीखेज़ सुर्खियाँ होंगी। हो सकता है कि कोई अखबार संपादकीय भी लिख मारे। कदाचित् कभी प्रतियोगी परीक्षाओं के सामान्य ज्ञान के पर्चे में अपना नाम भी जुड़ जाए। विधानसभा या लोकसभा में हंगामें मच जाएँ। घोटालेबाज़ की पाँचों अंगुलियाँ घी में हुआ करती हैं, मैडम !’’
इससे पहले पत्नी कुछ कहतीं, मित्र ठेपीलाल नमूदार हुए। मैं उमंगपूर्वक बोला, ‘‘आओ भई, आओ; बड़े मौक़े पर तशरीफ़ लाए हो।’’

‘‘आज भाभी से बड़ी घुट-घुटकर बातें हो रही हैं। मैं दो मिनट से खड़ा हूँ और आप लोगों को मेरे आने के आभास तक नहीं है।’’ ठेपीलाल सोफ़े पर पसरते हुए बोले।
मैंने कहा, ‘‘ठेपी भाई, कई दिन से एक कीड़ा मेरे दिमाग़ में कुलबुला रहा है। घोटालों के इस दौर में, क्यों न एक घोटाला मैं भी कर डालूँ ?’’ मैंने अखबार ठेपी की ओर ठेलते हुए कहा, ‘‘यह देखो, इस घोटालेबाज़ की ख़बर कैसी प्रमुखता से प्रकाशित हुई है ?’’

ठेपी ने एक उड़ती निगाह समाचार-पत्र पर डाली और बोले, ‘‘इसके बारे में कल रात इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विस्तार से ख़बर दे चुका है। बहरहाल, पहली दफ़ा तुमने अकलमंदों जैसी बात की है। मैं तो कब से कह रहा था कि नाम कमाना है तो यह लेखन-वेखन का चक्कर छोड़ो और अपनी प्रतिभा को किसी दूसरी दिशा में लगाओ। साहित्य में कैसा भी बड़ा काम कर गुज़रोगे तो दो-चार पंक्तियों का समाचार छपेगा। गिने-चुने लोग उसे पढ़ेंगे। औऱ अगर एक छोटा-सा घोटाला भी कर डालोगे, तो कई दिन तक मीडिया जगत तुम्हारे पीछे हाथ धोकर पड़ जाएगा। और तुम्हारे इतने गीत गाएगा कि देश का बच्चा-बच्चा भी तुम्हें जान जाएगा।’’

‘‘फिर सुझा ही दो, घोटाला करने का आसान-सा कोई उपाय। तरीका ऐसा हो कि साँप भी मरे और लाठी भी नहीं टूटे यानी कि नौकरी भी सही-सलामत रहे।’’
‘‘फ़िक्र मत करो मित्र, मैं एक घोटाला-किंग को जानता हूँ। अनेक बड़े कांड करके भी वह पाक दामन सिद्ध हुआ है। कल उससे तुम्हारी मुलाकात करवा देता हूँ। इस वक़्त मुल्क और मीडिया का मिज़ाज भी घोटालों के अनुकूल है। अतः ईश्वर ने चाहा तो तुम्हें सरलता से सफलता मिल जाएगी।’’

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