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लोकतंत्र के पाये

मनोहर पुरी

प्रकाशक : प्रतिभा प्रतिष्ठान प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7538
आईएसबीएन :81-88266-74-4

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बहुत दिन से कई लोग मेरे पीछे लगे हुए थे कि मैं देह-दान कर दूँ...

Loktantra Ke Paye - A Hindi Book - by Manohar Puri

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अंग बेचने दो

मैं संसद के केंद्रीय कक्ष में दाखिल ही हुआ था कि कनछेदी लाल सामने से आता हुआ दिखाई दिया। उसका पीला चेहरा तोते की नाक सरीखा लाल होकर तमतमा रहा था। वह धीरे-धीरे कुछ बुड़बुड़ा रहा था। ज्यों ही वह मेरे समीप आया, मैंने पूछा, ‘‘कनछेदी लालजी, क्यों तमतमा रहे हो ? किस पर इतना गुस्सा दिखा रहे हो ?’’

‘‘अरे, किसी पर नहीं, अपने आपको ही कोस रहा हूँ। कैसा देश है मेरा, यह सोच रहा हूँ। मैं अपनी मरजी से अपनी चीज बेच नहीं सकता। किसी को देना चाहूँ तो दे भी नहीं सकता। आप हरदम कहते रहते हैं कि यह लोकतंत्र है, यहाँ का आम नागरिक भी सबकुछ करने को स्वतंत्र है।’’
‘‘ऐसा तुम क्या बेचना चाहते हो, अथवा क्या किसी को सहेजना चाहते हो ? और कौन उसमें तुम्हें टोक रहा है, अपनी ही चीज किसी दूसरे को देने से रोक रहा है ?’’

‘‘वही आपका कानून या फिर मेरा नियम न तोड़ने का जुनून। बहुत दिन से कई लोग मेरे पीछे लगे थे कि मैं देह-दान कर दूँ, अपना शरीर किसी संस्था के नाम कर दूँ। अब मैंने सोचा कि दिन की बजाय इसे बेचा क्यों न जाए, ताकि मेरे मरने के बाद कोई मेरा रिश्तेदार होने के कारण न पछताए। आप जानते ही हैं कि हमारे यहाँ दाह-संस्कार और फिर क्रिया-कर्म जैसे कर्मकांड पर कितना धन व्यय होता है। मरनेवाला तो मर जाता है, पीछेवाला उसके लिए बेकार की रस्मों का भार ढोता है।’’ कनछेदी लाल ने रुआँसा-सा होते हुए कहा।

‘‘मतलब, तुम देह-दान करने की बजाय उसे बेचना चाहते हो ! अथवा किसी संस्था के संरक्षण में सहेजना चाहते हो। पर यह तो घोर पाप है। इसीलिए तो दुनिया के किसी देश का कानून आत्महत्या की आज्ञा नहीं देता।’’ मैंने समझाने का प्रयास किया।

‘‘आत्महत्या की बात कौन कर रहा है। दाम मिलें तो मरने से कौन डर रहा है। इस समय मैं उन अंगों की बात कर रहा हूँ, जो दान किए जा सकते हैं। या यूँ कह लो कि जिनके दाम लिये जा सकते हैं। जिनके बिना आदमी पूरी तरह से स्वस्थ रहता है। जिनके निकल जाने पर डॉक्टर भी कुछ नहीं कहता है। आखिर वे मेरे अपने अंग हैं। भगवान् की कृपा से अभी तक भले-चंगे मेरे संग हैं। उदाहरण के रूप में, यदि मैं अपनी एक आँख किसी दूसरे को बेच दूँ तो वह भी ठीक से देख सकेगा और मेरे देखने की शक्ति में भी कोई कमी नहीं आएगी। ठीक यही मामला गुरदे का भी है। एक बेचने पर मेरी साँस कोई रुक नहीं जाएगी। जब मैं किसी चीज को दान कर सकता हूँ तो उसे बेच क्यों नहीं सकता, अथवा किसी संस्था के पास मरने के बाद सहेज क्यों नहीं सकता। यही बात तो मेरी समझ में नहीं आ रही, इसी कारण मेरी खोपड़ी चकरा रही है।’’ कनछेदी ने मुझे समझाने का प्रयास किया।

‘‘देश अपने किसी नागरिक को इसके लिए प्रोत्साहित नहीं कर सकता। आखिरकार हम एक कल्याणकारी राज्य में रहते हैं।’’ मैंने कनछेदी को अपने लोकतांत्रिक देश होने की मजबूरी समझाते हुए कहा।
‘‘आपका कानून मुझे एड़ी रगड़-रगड़कर मरते तो देख सकता है। मरने के बाद मेरी लाश कूडे के ढेर पर सड़ते हुए देख सकता है। क्रिया-कर्म के नाम पर उसे मिट्टी का तेल डालकर जलाते हुए तो देख सकता है। जिंदा हूँ तो रोटी के अभाव में मुझे मरने भी देगा, परंतु यदि मैं अपनी रोजी-रोटी का मरने से पहले जुगाड़ कर लूँ तो वह क्या करने नहीं देगा ? क्यों भाई, उसे क्या एतराज होना चाहिए ?’’ कनछेदी ने अपना तर्क दिया।

‘‘रोटी-रोजी का प्रबंध करने में किसी को आपत्ति नहीं। आपत्ति है अपने अंग बेचकर ऐसा करने में। तुम्हारी देह पर इस समाज और देश का भी तो हक है, फिर तुम कैसे अपने शरीर को अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए बेच सकते हो। आखिर मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।’’ मैंने कहा।

‘‘चलो ठीक है, आपकी बात मानता हूँ। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज के लिए जीवित रहता है तो समाज के लिए मर कयों नहीं सकता ? और यदि मेरे शरीर पर समाज और देश का हक है तो इसे ठीक से जीवित रखना भी तो उसी का दायित्व है।’’ कनछेदी हार मानता हुआ दिखाई नहीं दे रहा था।
‘‘मैं तुम्हारी बात ठीक से समझा नहीं। जरा विस्तार से समझाओ और थोड़ा शांत हो जाओ।’’ मैंने उसके गुस्से पर ठंडे पानी के छींटे डालने का प्रयास करते हुआ कहा।

‘‘तो ठीक है, मैं समझाता हूँ। आप जानते हैं कि मेरी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि मेरे परिवारवाले मेरे मरने के बाद मेरे सारे तथाकथित संस्कार शास्त्रों के अनुसार भलीभाँति कर सकें। मेरा शरीर देख रहे हो। मेरे लिए लकड़ी खरीदने में ही उनका खुद ही मरना हो जाएगा। फिर कौन इस भारी लाश को उठाएगा। मान लो, आज मैं अपना एक गुरदा बेच दूँ तो दूसरे के सहारे आराम से जीवन व्यतीत कर सकता हूँ। गुरदा बेचने से मिलनेवाले लाखों रुपए से कोई काम-धंधा शुरू कर सकता हूँ। अपने परिवार का पेट पाल सकता हूँ और उनके लिए कुछ धन-दौलत छोड़कर भी मर सकता हूँ। अब यदि इतना बढ़िया सौदा हो रहा है तो आप रोकने वाले कौन हैं ? अरे भाई, जिसे चाहिए वह खरीद रहा है। जिसके पास फालतू है वह बेच रहा है। आप बेकार ही दाल-भात में मूसलचंद बन रहे हैं।’’ कनछेदी लाल ने अपनी बात को विस्तार देते हुए मुझे समझाया।

मैंने उत्तर दिया, ‘‘हमारी सरकार ने गुरदा बेचने और खरीदने पर रोक लगा रखी है। आप चाहें तो भी अपना गुरदा बेच नहीं सकते। हाँ, किसी रक्त संबंधी को जरूरत हो तो उसे दान कर सकते हैं।’’
‘‘यही तो। यही तो मेरा एतराज है। जो रक्त संबंधी मुझे भूखा मरता हुआ देखता है और मेरे परिवार के लिए दो रोटी का प्रबंध भी नहीं करना चाहता, उसे मैं यूँ ही लाखों रुपए का गुरदा दान में दे दूँ। और जो आदमी मुझे इस गुरदे का पूरा-पूरा मूल्य चुकाना चाहता है, उसे मैं बेच नहीं सकता। यह कहाँ का न्याय है ?’’ कनछेदी लाल बोला।

‘‘यही तो नियम है।’’ मैंने उसे समझाने का प्रयास किया।
‘‘तो बदल डालो अपने इस घटिया नियम को। मान लो, मैं आज मर जाऊँ तो कौन मेरे परिवार की देखभाल करेगा और मेरे इतने सारे कीमती अंगों का क्या होगा ? मैं हिंदू हूँ, इसलिए शरीर को जला दिया जाएगा मेरे लाखों रुपए मूल्य के अंगों के साथ। जो कोई मुसलमान होता तो उसे मिट्टी में दबा दिया जाएगा मेरे लाखों रुपए मूल्य के अंगों के साथ। जो कोई मुसलमान होगा तो उसे मिट्टी में दबा दिया जाएगा, ताकि उसके अंगों को कीड़े खा जाएँ। भाई, इससे किसी व्यक्ति, समाज अथवा देश को क्या लाभ होने वाला है। कुछ नहीं न !’’

‘‘तो अब तुम मृत शरीर में भी लाभ की बात देख रहे हो। अपने नेताओं की तरह से मौत में भी राजनीति कर रहे हो। जानते हो, यह बात हमारे धर्म के भी खिलाफ है।’’ मैंने अपना रोष व्यक्त किया।

‘‘एक ओर तो आप कहते हैं कि हम धर्मनिरपेक्ष हैं, धर्म का देश के साथ कुछ लेना-देना नहीं है और दूसरी ओर, आप मुझे मरने के बाद भी धर्म से मुक्त नहीं होने देना चाहते। यह कहाँ का इनसाफ है ? आखिर यह मेरा शरीर है और इसका एक-एक अंग मेरा है। मैं बेचूँ या रखूँ, आप कौन लगते हैं ? इन्हें चोरी से लगाने के लिए डॉक्टर हमें ही तो ठगते हैं। तब कोई कुछ नहीं बोलता। हमारे अंग निकल जाते हैं और हम जानते तक नहीं। कहाँ जाकर लग गए, पहचानते भी नहीं। जब से जिंदा आदमियों को अपने अंगों के बाजार भाव पता लगे हैं, वे सावधान हो गए हैं। अंग-चोर इससे जरूर परेशान हो गए हैं। इसी कारण अब चोरों की नजर जिंदा शरीर की बजाय मुरदा शरीर पर गड़ गई है। वे जान हुए हैं कि जिंदा आदमी इतना मूर्ख होता है कि वह अपने किसी भी अंग को किसी भी मूल्य पर बेचना नहीं चाहता है। अपने सड़-गल जानेवाले अंगों को लेकर भी हमेशा इतराता रहता है। कितना भी गरीब हो, चाहे भूख से मरने की नौबत आ जाए, पर अंद नहीं बेचेगा। यह भी नहीं जानना चाहता कि मर गया तो अंग इसके लिए सहेजेगा। वह यह भी नहीं सोचता कि उसके सब अंग मरने के बाद बेकार ही जला दिए जाएँगे अथवा दबा दिए जाएँगे। मुरदा शरीर का कोई अंग निकालो और उसे बेचो मृत शरीर को कोई आपत्ति नहीं होगी। जिंदा आदमी द्वारा अपने अंग बेच देने पर आप आपत्ति क्यों करते हैं ? आखिर मेरी चीज है, तभी तो मैं दान कर सकता हूँ, तो फिर बेच क्यों नहीं सकता ! भाई, आँख दान होती है तो ही तो वह दूसरे को लगती है। इसी प्रकार, यदि एक आँख बेच दी जाएगी तो उससे एक और व्यक्ति देख सकेगा इसमें किसी को क्या एतराज है, आखिर अपने अंगों का आदमी खुद ही तो मुख्तार है।’’ कनछेदी लाल बोला।

कनछेदी लाल का गुस्सा बढ़ता जा रहा था।
मैंने कहा, ‘‘कनछेदी, गुस्सा मत दिखाओ। यदि तुम्हारी बात मान लें तो गरीब लोग अंग बेचने की होड़ में शामिल हो जाएँगे। और अंग बेचने के लिए हर हस्पताल के बाहर लाइनें लगाएँगे।’’

‘‘तो उसमें किसी का क्या बिगड़नेवाला है ? आज क्या राशन के डिपो के बाहर अथवा इलाज करवाने के लिए हस्पतालों में लाइनें नहीं लगतीं। अरे, अपने देश में तो लघुशंका जाने और अंति संस्कार के लिए भी लाइन लगानी पड़ती है। साठ साल में आप लोगों की गरीबी दूर नहीं कर सके। यदि लोग स्वयं अपनी गरीबी दूर करने का समाधान निकाल रहे हैं तो भी आपको समस्या है। जानते हो, कुछ चतुर लोग हर रोज देह-दान की बात करके मुफ्त में ही मानव-देह को हथियाना चाहते हैं। डॉक्टर भी मुरदा जिस्मों के पैसे खाना चाहते हैं। यदि व्यक्ति को अपनी देह-दान करने का अधिकार है तो बेचने का भी होना चाहिए। जिसकी गरज हो वह खरीदे। इससे लाखों लोगों की रोटी-रोजी का प्रबंध हो जाएगा और लाखों बीमारों को भी जीवन-दान मिलेगा।’’

‘‘दुर्भाग्यवश हमारे देश का कानून इसकी आज्ञा नहीं देता। हाँ, व्यक्तिगत रूप से मैं मानता हूँ कि यदि व्यक्ति को अपनी देह दान करने का अधिकार है तो बेचने का भी होना ही चाहिए। आखिर आप उसी वस्तु का दान कर सकते हैं, जो आपकी है, और जो वस्तु आपकी है उसे बेच क्यों नहीं सकते ?’’ मैंने कनछेदी लाल के तर्कों के सामने हथियार डालते हुए कहा।

‘‘भाई साहब, यही तो मैं कह रहा हूँ। आज परिवारवाले मरने के बाद अपने मृतक की आँखें दान कर सकते हैं। कुछ कर भी देते हैं। देश में फिर भी असंख्य अंधे हैं। मेरा दावा है कि यदि परिवारवालों को मृतक की आँखें बेचने का अधिकार दे दिया जाए तो देश तो क्या, पूरे विश्व में एक भी अंधा नहीं बचेगा। यदि व्यक्ति को अपने जीवनकाल में अथवा मरने के बाद उसके परिवारवालों को अंग बेचने का अधिकार दे दिया जाए तो मृतक संस्कार पर होनेवाली भारी-भरकम व्यय को लेकर उसके सगे-संबंधी आपस में झगड़ना बंद कर देंगे। फिर यह कहावत बेमानी हो जाएगी–‘‘साँझा बाप न रोए कोय’, क्योंकि अंग बेचने से होनेवाली आय के हिस्से बाँटने के लिए इतने अधिक वारिस अचानक पैदा हो जाएँगे कि रोनेवालों की लाइन लग जाएगी, आँसुओं की बाढ़ आ जाएगी।’’

‘‘रोनेवालों की नहीं, बँटवारा करने के लिए झगड़नेवालों की। तब लाश के वारिस शरीर पर कब्जा करने के लिए कुत्तों की तरह लड़ेंगे, कनछेदी, इतना जान लो। लाश पर कब्जे को लेकर अदालतों में मुकदमों की लाइनें लग जाएँगी। पहले ही देश के न्यायालयों में करोड़ों मुकदमें निर्णय की प्रतीक्षा में लंबित पड़े सारी न्याय प्रणाली को ठप किए दे रहे हैं।’’

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