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नायिका

विमल मित्र

प्रकाशक : अनमोल पब्लिकेशन्स प्रा. लि. प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :151
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7536
आईएसबीएन :9788188564231

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बांग्ला साहित्य की चर्चित कृति...

Nayika - A Hindi Book - by Vimal Mitra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जीवन की, जिन्दगी की, इंसानियत की, अनेकों विविध आयामों की सतरंगी आभा को उकेरती, नदी की अजस्त्र धारा की तरह कहीं अवरुद्ध, कहीं तरंगायित तो कहीं भयावह उद्दामता की कही, अनकही बाहरी-भीतरी परतों को उकेरता यह उपन्यास सच में ही पाठक को दूर तक और देर तक अपने साथ बनाये रखने की क्षमता रखता हैं।

विमल मित्र के इस उपन्यास ‘नायिका’ के जटिल कथा-सूत्र को बढ़ाने का ढंग अनूठा और पाठक को इस उपन्यास के प्रत्येक पृष्ठ की प्रत्येक पंक्ति में किसी सम्मोहन के स्वरूप जकड़े रहेगा।
विमल मित्र के कृतित्व में पाठक को भावुकता का कम, संवेदनशीलता का अधिक समावेश मिलता है, और साथ ही मिलता है एक मोहक घटना प्रवाह जो कहीं भी अयथार्थ की झलक नहीं देता।

1


स्टूडियो के भीतर उस वक्त शूटिंग चल रही थी।
मानवीय दुनिया के अन्दर वहाँ एक और दुनिया का निर्माण होता है। वहाँ भी एक ओर हँसना, रोना, गाना चलता रहता है तो दूसरी ओर ईर्ष्या और झगड़े की लीला। सभी कुछ होता है वहाँ, पर ऐसा लगता है मानो सब कुछ दिखावा हो।
बलाई सान्या प्रोड्यूसर हैं। वे खड़े हैं और खड़े-खड़े एकटक सभी कुछ देख रहे हैं। उत्तेजनावश उनका कलेजा धक्-धक् कर रहा है। ब्लडप्रेशर तो था ही, उस पर डायबटीज अलग। उन्होंने पूछा, ‘‘हरीपद वहाँ गाड़ी भेजी गई कि नहीं ?’’
हरीपद आगे बढ़ आया। पूछा, ‘‘कहाँ, सर ?’’

‘‘तुम लोगों से और माथा-पच्छी नहीं कर सकता, बाबा ! गाड़ी कहाँ भेजनी है, क्या तुमको मालूम नहीं है ?’’
‘हरीपद बोला, ‘‘हाँ वह तो मालूम है, सर !’’
‘‘तब फिर ? भला बात समझते क्यों नहीं, बताओ ?’’

दरअसल सारा सिरदर्द बलाई सान्याल को ही था। दिमाग रहने पर ही सिरदर्द भी होता है। पर बलाई सान्याल का सिरदर्द जन-साधारण से बहुत अधिक था। अधिक होना स्वाभाविक भी था, क्योंकि केवल फिल्म बनाने का ही झंझट तो नहीं था; बल्कि आर्टिस्टों के कदमों में नाक भी रगड़नी पड़ती थी। विशेषकर वह आर्टिस्ट यदि टॉप-स्टार हो।
यद्यपि बलाई सान्याल ने आज पैसा कमा लिया है, पर जो कुछ भी कमाया है, वह सब उन्हीं टॉप-स्टारों की बदौलत ही तो !

बलाई सान्याल की इस फिल्म की हीरोइन भी टॉप-स्टार मंजरी सेन है।
मंजरी सेन अगर आज बलाई सान्याल के मुँह पर थूक भी दे, तो वह भी बलाई सान्याल को चाटना पड़ेगा और कहना पड़ेगा, ‘‘आहा ! आपका थूक बहुत मीठा है, मैडम !’’
बहुत ही निकृष्ट धन्धा है यह।

हारकर यही बात बलाई सान्याल सभी से कहा करते। वे कहते, ‘‘इस धंधे में अब कोई मजा नहीं रहा, भाई !’’
लोग कहते हैं, ‘‘जब मजा ही नहीं रहा, तो आअप इस कारोबार को बन्द भी तो कर सकते हैं !’’
‘‘ऐसा करना कहाँ संभव है, भई ? जगह-जगह कितने ही रुपये अटके पड़े हैं। छोड़ दूँगा, यह सोचने ही से क्या छोड़ा जा सकता है ? जिस समय धन्धे का जाल फैलाया था, तब कहाँ मालूम था कि इस जाल को वापस समेटना इतना मुश्किल होगा !’’

न जाने कहाँ... शायद कहीं कोई जलपाईगुड़ी हाउस के पास ही दस हजार रुपये बाकी हैं। वे रुपये आज तक वसूल नहीं किए जा सके हैं। गोहाटी में एक पार्टी के पास चार लाफ रुपये अटके पड़े हैं, जिसके लिए मामला भी चल रहा है। यह धंधा बन्द करने के अन्त में ये रुपये भी अटके रह जाएंगे।
बलाई सान्याल ने शौकिया ही हाई ब्लडप्रेशर नहीं बढ़ा रखा था।

गोवर्धन बलाई सान्याल के ऑफिस में प्रोडक्शन मैनेजर थे।
गोवर्धन ने कहा, ‘‘आप इतनी फिकर क्यों करते हैं, सर ? हम लोग तो हैं ही...’’
बलाई सान्याल भड़क उठे। बोले, ‘‘क्यों खाक हो तुम लोग ? तुम लोगों के भरोसे पर सब कुछ छोड़ देने से ही तो मेरा यह हाल हुआ है। तुम लोग मैडम को सम्भाल सकोगे ?’’

सचमुच, मैडम को सम्भालना बड़ा ही टेढ़ा काम था। मैडम का किस वक्त कैसा मूड रहता है, यह शायद मैडम के सृष्टिकर्ता को भी नहीं मालूम था। रुपयों की या किसी फैशनेबल चीज की जरूरत हो, तब तो समझ में भी आए। लेकिन यह लड़की कब किस चीज के लिए खीज उठेगी, यह समझना किसी के वश की बात नहीं थी। बलाई सान्याल ने भी कम कोशिश नहीं की थी।

उधर अब तक लाइट वगैरह का सारा इंतजाम हो चुका था। मेकअप-मैन सब कुछ सजा-सँवारकर तैयार था। साउंड-ट्रैक भी रेडी था। ‘पथचारिणी’ का हीरो भी मेकअप किए बैठा था और हाथ में एक नॉवेल पकड़े सिगरेट के कश खींच रहा था।
हीरो, जिसका नाम अजय भादुड़ी है, अचानक पूछ लेता है, ‘‘क्यों रे, कहाँ तक हुआ ?’’
एक असिस्टेंट ने उठकर जवाब दिया, ‘‘अजय दा, मैडम को लाने आदमी गया हुआ है।’’

‘‘क्या बात करते हो ? ग्यारह बजने को आए और अभी लाने ही गया है ? तुम लोगों की यह मैडम अभी तक सो रही है क्या ?’’
असिस्टेंट छोकरे ने जवाब दिया, ‘‘अब यह कौन जाने, अजय दा ?’’
‘‘अपने प्रोडक्शन मैनेजर को तो बुला जरा।’’

पुकार सुनते ही गोवर्धन आ पहुँचा। पूछा, ‘‘क्या बात है, अजय दा ? आपने मुझे बुलाया था ?’’
अजय ने पूछा, ‘‘क्यों रे, मैडम को आने में इतनी देर क्यों हो रही है ?’’
‘‘पता नहीं, अजय दा ! गाड़ी तो सुबह ही भेज दी गई थी, पर अभी तक नहीं लौटी है।’’
बात खत्म होने से पहले ही बाहर न जाने कैसी गड़बड़ शुरू हो गई थी। बलाई सान्याल चीख रहा था।
गोवर्धन दौड़ते हुए बाहर निकल गया।

ड्राइवर ने आकर बताया, ‘‘मैडम घर में नहीं हैं।’’
बलाई सान्याल अपना धीरज खो बैठे, ‘‘मैडम घर में नहीं है, तो तू इतनी देर वहाँ क्या कर रहा था ? वहाँ बैठा-बैठा क्या घास काट रहा था ? इससे पहले आकर खबर नहीं दे सकता था ? अब क्या करूँ मैं ? मेरी क्या दशा होगी ?’’ बलाई सान्याल अपने बाल नोचने लगा, ‘‘मेरा ब्लडप्रेशर फिर बढ़ रहा है। मेरे सिर में मानो अग्नि धधक उठी है। अरे गोवर्धन अब क्या करूँ, भाई ? बोल अब मैं क्या करूँ ?’’

गोवर्धन पास खिसक आया। बोला, ‘‘आप यहाँ से जाइए, सर ! मैं देखता हूँ।’’
बलाई सान्याल ने कहा, ‘‘तुम उससे पूछो तो सही, मैडम कहाँ गई है। वह जानता है क्या ?’’
अभी तक ड्राइवर चुप्पी साधे था। अब बोला, ‘‘सुना है, गोहाटी गई है।’’
‘‘अब क्या होगा, गोवर्धन ? मैं गोहाटी जाऊँ ? पर मुझे ब्लडप्रेशर जो है।’’

गोवर्धन ने दिलासा दिया, ‘‘आप फिक्र न करें, सर ! आप चुपचाप देखते रहिए। मैं जा रहा हूँ गोहाटी। आप शान्त होइए।’’
उसके बाद, पता नहीं क्या हुआ। सभी कुछ माना शान्त हो गया और मिनट-भर में सारा स्टूडियो खाली हो गया।
फिलहाल यह बात छोड़े। इसके पहले एक दूसरी कहानी कहूँ–वही कदमफूली की कहानी। कदमफूली के ‘संस्कृति-संघ’ की कहानी। और ? और भी बहुतों की कहानी। अच्छा, तो कहानी शुरू होती है।

2


धीरे-धीरे गाँव-गाँव में वह बात फैल गई थी।
गाँव-गाँव कहने का तात्पर्य यह नहीं कि कदमफूली निपट देहात ही था। दरअसल किसी समय कदमफूली गाँव उन्नति पर था। उस वक्त विष्णु बाबू के पूर्वज इस गाँव के कर्ता-धर्ता थे। वे जिस दिन हाट-बाजार चले जाते, उस दिन हाट के सभी व्यापारी अपना सौदा उनके कदमों में रख देते और सिर झुकाकर प्रणाम करते। वे लोग भी ठीक वैसे ही थे। सबका कुशल-क्षेम पूछते, उनके अभावों-अभियोगों की बातें, सुनते; जैसे, किसके पोखर पर जाकर जमींदार के प्यादे ने मछली पकड़ी। मालगुजारी न दे पाने के फलस्वरूप किसके नाम सदर-कचहरी में मुकदमा दायर किया गया, आदि-आदि बहुत-सी बातें।

हाँ, अब विष्णु बाबू की हालत पहले-सी नहीं रह गई है। विष्णु बाबू का मतलब विष्णुचरणराय। उनके पूर्वज तो ‘राय’ पदवी के साथ ‘रायान’ शब्द भी लगाते थे यानी ‘राय रायान’ लिखा करते थे, लेकिन कांग्रेसी शासन के समय से उन्हों वह शब्द हटा दिया और सिर्फ ‘राय’ लिखने लगे।

उस दिन सुबह-सुबह ही उनको खबर मिली। बारहयारीतल्ला के सामने पहुँचते ही देखा कि बाजार के ठीक बीचों-बीच बहुत बड़ा शामियाना बाँधने का इन्तजाम हो रहा है। पूछा, ‘‘क्या बात है, भई निरापद ?’’

निरापद मुहल्ले का नामी लड़का है। आजकल के लड़कों से बराबरी के स्तर पर बात करनी पड़ती है। अब जमाना बदल गया है। पुराना जमाना होता तो विष्णु बाबू के सामने खड़े होकर बात करने तक की हिम्मत नहीं होती किसी को।
फिर भी निरापद बहुत श्रद्धा के साथ आगे बढ़ आया। बोला, ‘‘क्या बात कर रहे हैं, ताऊजी ? क्या आप सब कुछ भूल गए ? आगामी बुधवार को हम लोगों का फंक्शन जो है ! आपके पास चन्दा लेने गए थे न ?’’

इतनी देर बाद विष्णु बाबू को याद आया। एक महीने पहले से ही सब लोग इन्तजाम में लगे हुए थे। निरापद ही उस बल का अगुआ था। विष्णु बाबू के पास से पचास रुपए चन्दा ले आए थे वे लोग, पर यह बात बिल्कुल ही भूल गए थे विष्णु बाबू।

यूँ तो विष्णु बाबू तड़के ही घूमने निकला करते थे, आज ही कुछ देर हो गई। घूमते-घूमते एकदम स्टेशन तक चले गए थे। तमाम चीजें कितनी बदलती जा रही थीं। जमाने के साथ-साथ शायद सभी चीजें बदल जाती हैं।
निरापद ने पूछा, ‘‘फंक्शन की तारीख तो याद है न ताऊजी ?’’

विष्णु बाबू चलते-चलते ठहर गए। बोले, ‘‘कौन-सी तारीख की है ?’’
‘‘यही...आगामी बुधवार को।’’
‘‘हाँ, हाँ बुधवार को, अब याद आया। पर वहाँ ज्यादा देर तो नहीं ठहरना पड़ेगा न ?’’

निरापद ने कहा, ‘‘नहीं ताऊजी ! आपको अधिक तकलीफ नहीं देंगे। आप सिर्फ मीटिंग में शरीक होकर ही जा सकते हैं।’’
‘‘कुछ भाषण-वाषण भी देना होगा क्या मुझे ?’’
‘‘थोड़ा बहुत बोल दीजिएगा, क्योंकि सभी ने आपका भाषण सुनने का विशेष आग्रह किया है।’’ 
यह बात विष्णु बाबू के मन लायक हुई। तो क्या लोग अब भी उनका भाषण सुनने को उत्सुक रहते हैं ?

बारहयारीतल्ला से इधर आने के बजाय विष्णु विपरीत दिशा की ओर चल पड़े-कदमफूली की तरफ। विष्णु बाबू के पूर्वजों की इज्जत थी। उनको बाद देकर कोई काम नहीं होता था। लेकिन आज भी ये लोग जो नाटक कर रहे हैं, उसमें विष्णु बाबू को रखना जरूरी है। विष्णु बाबू ने पचास रुपये चन्दा दिया है। पचास रुपये चन्दा देने में मन-ही-मन तकलीफ तो जरूर हुई थी। कारण, अब पहले वाला समय भी तो नहीं रहा। चीज-वस्तु के दाम भी तो आजकल बहुत बढ़ गए हैं। सारी चीजों के भाव आग की तरह बढ़ रहे हैं। लेकिन यह सोचने से क्या फायदा ? मुहल्ले के आवारा लड़के नाटक कर रहे हैं, उसमें भी चन्दा दो और न दो तो तुम्हें खराब आदमी सिद्ध कर देंगे !

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