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महाभारती

चित्रा चतुर्वेदी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :297
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 751
आईएसबीएन :81-263-0936-9

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द्रौपदी (पांचाली) को केन्द्र में रखकर लिखे गये चित्रा चतुर्वेदी ‘कार्तिका’ के इस उपन्यास में द्रौपदी के संघर्ष भरे समय की जीवन्त व्याख्या...

Mahabharti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

द्रौपदी (पांचाली) को केन्द्र में रखकर लिखे गये चित्रा चतुर्वेदी ‘कार्तिका’ के इस उपन्यास में द्रौपदी के संघर्ष भरे समय की जीवन्त व्याख्या है। विपरीत परिस्थितियों से गुजरती हुई द्रौपदी की विचित्र ट्रेजेडी थी कि एक पति का वरण करने पर भी उसे पाँच पतियों की पत्नी बनने को बाध्य होना पड़ा। यही उसकी मूल व्यथा का कारण था। लेखिका की प्रौढ़ और भाषा-बंध के कारण ‘महाभारती’ की सराहना पाठकों ने ही नहीं, दिग्गज लेखकों ने भी की है। महाभारती उपन्यास हिन्दी पाठकों के बीच ही नहीं, मराठी में अनूदित होकर मराठी भाषियों के बीच भी लोकप्रिय हुआ है।

अपनी बात

‘लघु मति मोरि, चरित अवगाहा।’
‘महाभारती’ के प्रयाण पर अग्रसर होते समय गोस्वामी तुलसीदास की उपर्युक्त पंक्ति पथ का पाथेय बनी रही। मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीराम के अथाह चरित्र हेतु ये शब्द कहे गये थे, किन्तु द्रौपदी का चरित्र भी बड़ा रहस्यमय एवं वर्णनातीत प्रतीत हुआ है। किसी भी साधारण बुद्धि-विवेक दुर्बल व्यक्ति को ऐसा ही लगेगा। त्रेतायुग के मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तथा द्वापर के लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण पर तो सन्त ही अपनी लेखनी उठाएँ तो आकार दे सकते हैं। किन्तु द्वापर की इस अद्भुत लीला-नारी को ही आकार देने का सामर्थ्य जुटा पाना कितना कठिन रहा है मेरे लिए !

लगभग अठारह-उन्नीस वर्ष पूर्व इन्दौर में आकाशवाणी हेतु एक गम्भीर नाटक लिखने की चर्चा हुई थी। तब द्रौपदी पर एक रेडियो-नाटक लिखना प्रारम्भ किया था। परन्तु पांचाली के वेगवान् तथा विकट प्रवाहयुक्त व्यक्तित्व को आकाशवाणी की समयावधि की लक्ष्मण-रेखा में बाँध पाना दुरूह ही नहीं, असम्भव हो गया। फलतः नाटक वर्षों तक अधूरा पड़ा रहा, अछूता पड़ा रहा। जबलपुर आकर मन में वह सुप्त विचार पुनः अभिव्यक्ति के लिए कुनमुना उठा।

अतः छोड़ दिया कल्पना के सुनहरे अश्वों को मुक्त ! और वे उड़ चले ! वे उड़ चले हजारों वर्षों के दीर्घ अन्तराल में पड़ने वाले भाँति-भाँति के वन, पर्वत, सरिता-सरोवरों को लाँघते हुए, सुदूर इतिहास के अन्तरिक्ष में ! लेखनी की वल्गा कल्पना को नियन्त्रित व निर्देशित करती रही। महाभारत के पृष्ठ पर पृष्ठ पलटे गये। अन्य साहित्यिक-ग्रन्थों के कुंजों में विश्राम पाते, जल आचमन करते हुए, वे अश्व हौले-हौले उतर आये महाभारत काल की उस घाटी में जहाँ अन्ततः मिली द्रुपदनन्दिनी !
यहाँ साक्षात्कार एक ऐसी विलक्षण नारी से हुआ जिसकी दूसरी उपमा नहीं हो सकती, जो अद्वितीय है। वह एक महाशक्तिमती, तेजस्वनी, दुर्गास्वरूपा द्रौपदी थी जिसने हर प्रकार के अत्याचार, अन्याय और अपमान सहे, किन्तु जो न झुकी, न टूटी। द्रुपदसुता में वह तेज था कि वह कापुरुषों में भी वीरता फूँक दे। पाण्डवों में पुरुषत्व यदि बना रहा, तो श्रीकृष्ण के परामर्श और द्रौपदी की प्रेरणा से ही वह न टूटी !

बाकी बहुत कुछ टूट गया, बहुत कुछ छिन्न-भिन्न हो गया। समाज, राज्य, व्यवस्था, प्राचीन कुल आदि सब महाभारत युद्ध की प्रबल झंझा में उखड़कर टूट गये। किन्तु न टूटा तो द्रौपदी का मनोबल। आन और स्वाभिमान हेतु अपने पाँचों पुत्रों को आहुति चढ़ा देने पर भी वह हुंकारती ही रही। स्वाभिमान से जीने का सन्देश श्रीकृष्ण ने महाभारत में दिया और सन्देशवाहिका बनी द्रुपदनन्दिनी।
भारतीय इतिहास में एक-से-एक तेजस्विनी नारियाँ हुई हैं किन्तु द्रौपदी वह जगमगाता तेजपुंज है जिसके सामने अन्य सभी की प्रभा फीकी पड़ जाती है। द्रुपदनन्दिनी की तुलना में जनकनन्दिनी सीता की भी पीड़ा कम प्रतीत होती है। द्रौपदी अपने पाँचों पतियों के समकक्ष या अधिक है और ऊपर है, किन्तु नीचे या कम कदापि नहीं। वासुदेव ही समझे उसमें निहित दुर्लभ गुणों को। अतः समूचा नारी-कुल छोड़ द्रौपदी को ही उन्होंने अपनी मित्र या सखी का विशिष्ट पद देकर उसे अपने समकक्ष बना लिया।

विभिन्न संकटों, अन्याय एवं अत्याचारों के मध्य द्रुपदसुता की एक और त्रासदी, और शायद सबसे अनोखी त्रासदी, उसका पाँच पतियों की पत्नी होना था। हृदय से उसने अर्जुन को वरा तथा जीवनपर्यन्त वह मन से अर्जुन को ही चाहती रही। किन्तु पाँच पतियों का पंचग्राम ऐसा कण्ठ में अटका कि न उसे निगल सकी, न उगल सकी। यही उसकी मूल व्यथा है।
इसके लिए जब-तब उसे अपशब्द सुनने पड़े और लांछन सहने पड़े। विचित्र मर्यादाओं का पालन करना पड़ा। विचित्र नियम उसी के लिए बनाये गये। अद्भुत दाम्पत्य का निर्वाह उसे ही करना पड़ा। स्वयंवर में उसके द्वारा अर्जुन-वरण को जैसे राहु ग्रस गया। पूरे भारत में द्रौपदी की यह पीड़ा हौले-हौले झलकती चली है। मन में जैसे द्रौपदी दो नारियों को पालती रही सदा। एक अर्जुन में अनुरक्त, एक अन्य चारों पतियों की सेविका। इस त्रासदी से माधव भी उसे बचा न पाये। उन्हीं की तो रचना थी सब ! अर्जुन के प्रति उनके अनन्य प्रेम के कारण ही युधिष्ठिर ने जीवन के अन्तिम क्षणों में, उस पर धनंजय के प्रति विशेष पक्षपात करने का आक्षेप सार्वजनिक रूप से लगाते हुए ताड़ना भी दे डाली।

पुस्तक में द्रौपदी को ‘महाभारती’ कहा गया है। ‘भारती’ भारतवर्ष की कोई भी पुत्री हो सकती है, कोई भी महिला हो सकती है। भारती शब्द सरस्वती हेतु भी प्रयुक्त किया जाता है। भारती वह है जो विद्या और बुद्धि की धनी हो, पण्डिता हो तथा कुशाग्रबुद्धि हो। द्रौपदी भी इसलिए ‘भारती’ पुकारी गयी है। इसके अतिरिक्त वह भरतवंशीय पाँच भारतों की भार्या भी थी, अतः वह ‘भारती’ हुई।

किन्तु पंचाली मात्र ‘भारती’ ही नहीं रह गयी। अद्भुत चरित्र है उसका जिसमें लपलपाती ज्वाला भी है और आर्द्र अश्रुमाला भी, जिसमें प्रतिशोध की कठोरता है और करुणा की अजस्त्र निर्झरनी भी। एक ओर उसमें सांसारिक वस्तुएँ व सुख पाने का प्रबल आग्रह है, तो दूसरी ओर भगवत् चरणों में सर्वस्व समर्पण की भावना भी। अर्जुनरूपी संसार की वह प्रेमिका है और कृष्णरूपी वैराग्य की भक्त। भोग व योग की सन्धि पर खड़ी है द्रौपदी ! समर में नन्हें-पुत्रों की आहुति चढ़ा देनेवाली वह वीर क्षत्राणी माता है, और दूसरी ओर वह परम भागवत है। वह पाँच की पत्नी है, किन्तु पंचकन्या में उसका नाम अग्रणी है। वह महासती है।

द्रौपदी देवी, माँ, पत्नी, प्रेमिका, सखी, रानी, दासी, आराधिका, भक्त-सभी कुछ है। ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व को अभिव्यक्ति दे पाना स्वाभाविक रूप से जटिल है। बड़े-बड़े महारथियों ने षड्यन्त्रों व कुचक्रों द्वारा हर सम्भव प्रयास किया द्रुपदनन्दिनी को झुकाने का; किन्तु वह अकेली ही खड़ी-खड़ी अन्याय के विरूद्ध अन्त तक गुहारती रही। वह झुकी नहीं, इसलिए वह ‘महाभारती’ हुई।

‘महाभारती’ पुस्तक एक प्रकार से महाभारत का संक्षिप्त रूप भी प्रतीत होती है, क्योंकि महाभारत की लगभग सभी महत्त्वपूर्ण घटनाओं एवं प्रमुख पात्रों का इसमें दर्शन होता है। पुस्तक को दो खण्डों में विभाजित किया गया हैः 1. पार्थ-प्रिया तथा 2. कृष्ण-क्रिया। प्रथम खण्ड में एक अल्पवयस कोमलमना बालवधू के उद्धेलन अधिक हैं। द्वितीय खण्ड में द्रौपदी एक धीर-गम्भीर महिला तथा श्रीकृष्ण की सखी के रूप में उभरी है। अध्यायों का संयोजन महाभारत के आधार पर पर्वों में किया गया है। ये पर्व, यथा-महाराज्ञी पर्व, करुणा पर्व, क्षमा पर्व, ज्वाला पर्व आदि, पांचाली के व्यक्तित्व तथा जीवन के विभिन्न पक्षों को उद्भाषित करते हैं।

कथा का मूल आधार महाभारत ही है। अन्य साहित्यिक ग्रन्थों का प्रभाव होना भी असम्भव नहीं। प्रमुख घटनाएँ महाभारत से ली गयी हैं, किन्तु कुछ शुद्ध कल्पना पर आधारित हैं। सन्देह का लाभ भी भरपूर उठाया गया है। विभिन्न पात्रों के चरित्र-चित्रण के बीज भी महाभारत से ही बीने-बटोरे गये हैं। उनका विकास अवश्य अपने ढंग से किया है। महाभारत तो रत्नाकार-सिन्धु है जिनमें असंख्य रत्न भरे पड़े हैं। एक बार कोई डूब जाये इसमें तो फिर उबरने का मन नहीं होता। रत्नों का प्रलोभन बढ़ता जाता है। ऐसी ही कुछ मनोदशा है। रत्नों की खोज जारी है। आगे शायद अन्य रत्नों को खोजकर माला में गूँथ सकूँ। अभी तो ‘महाभारती’ में श्रीकृष्ण का जो व्यक्तित्व उभरा है, उससे उन पर पृथक् और स्वतन्त्र लेखन की प्रेरणा मिली है।

पुस्तक के विधिवत् सृजन का प्रारम्भ 1978 में हुआ था। लगभग साढ़े चार वर्ष के कठोर परिश्रम के पश्चात भी द्रुपदनन्दिनी की भव्य प्रतिमा को सही गढ़ पायी हूँ या नहीं, कह नहीं सकती। साढ़े चार वर्षों में महाभारती का बीज बोया गया, सिंचित हुआ, अंकुरित तथा पल्लवित हुआ और फिर लगभग साढ़े तीन वर्ष तक प्रकाशित होने की त्रासदायी प्रतीक्षा !

‘हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती है,
बड़ी मुद्दत में होता है चमन में दीदावर पैदा।’
ऐसा ही कुछ ‘महाभारती’ के साथ भी हुआ।

अब कहीं जाकर ‘महाभारती’ सुपुष्पित हो पा रही है। पुष्प में सौरभ है या नहीं, यह तो साहित्य-रसिक ही बता पाएँगे। द्रौपदी के विचित्र व्यक्तित्व को कहाँ तक लेखनी सही आकार दे पायी और कहाँ तक कल्पना की तूलिका ने सही रंग भरे हैं उसमें, यह भी पाठक ही बताएँगे।

यह कहानी न्याय पाने हेतु एकाकिनी भटकती हुई गुहार की कहानी है। आज भी न्याय हेतु वह गुहार रह-रहकर कानों में गूँज रही है। नारी की पीड़ा शाश्वत है। नारी की व्यथा अनन्त है। आज भी कितनी ही निर्दोष कन्याएँ उत्पीड़न सह रही हैं अथवा न सह पाने की स्थिति में आत्मघात कर रही हैं !

द्रुपदनन्दिनी भी टूट सकती थी, झंझाओं में दबकर कुचली जा सकती थी। महाभारत व रामायणकाल में भी कितनी ही कन्याओं ने अपनी इच्छाओं का गला घोंट दिया। कितनी ही कन्याओं ने धर्म के नाम पर अपमान व कष्ट के हलाहल पान कर लिया। क्या हुआ था अम्बिका और अम्बालिका के साथ ? किस विवशता में आत्मघात किया था अम्बा ने ? क्या बीती थी ययाति की पुत्री माधवी पर ? अनजाने में अन्धत्व को ब्याह दी जानेवाली गान्धारी ने क्यों सदा के लिए अपनी आँखें बन्द कर ली थीं ? और क्यों भूमि में समा गयीं जनकनन्दिनी अपमान से तिलमिलाकर ? द्रौपदी भी इसी प्रकार निराश हो टूट सकती थी।

किन्तु अद्भुत था द्रुपदसुता का आत्मबल ! जितना उस पर अत्याचार हुआ, उतनी ही वह भभक-भभककर ज्वाला बनती गयी। जितनी बार उसे कुचला गया, उतनी बार ही क्रुद्ध सर्पिणी-सी फुफकार-फुफकार उठी। वह याज्ञसेनी थी। यज्ञकुण्ड से जन्म हुआ था उसका। अन्याय के प्रतिकार हेतु सहस्त्रों जिह्वाओंवाली अक्षत ज्वाला-सी वह अन्त तक लपलपाती रही।
नीलकण्ठ महादेव ने हलाहल पान किया, किन्तु उसे सावधानी से कण्ठ में ही रख लिया था। कण्ठ विष के प्रभाव से नीला हो गया और वे स्वयं नीलकण्ठ। किन्तु आजीवन अन्याय, अपमान तथा पीड़ा का हलाहल पी-पीकर ही द्रुपदनन्दिनी का वर्ण जैसे कृष्णवर्ण हो गया था। वह कृष्णा हो चली, किन्तु झुकी नहीं ! श्रीकृष्ण की शक्ति के कारण वह अडिग खड़ी रही। हर आपत्ति व उत्पीड़न से श्रीकृष्ण उसे बचाते रहे। यदि यह कहा गया कि श्रीकृष्ण ही एकमात्र पुरुष थे, तो असत्य क्या और आश्चर्य क्या ?

द्रुपदसुदा वह उत्पीड़ित नारी है जिसे मनुष्य नहीं, वस्तु समझा गया। पण्य समझा गया उसे व विद्वान पुरुषों तथा धर्मात्माओं से भरी हुई सभा में उसे दाँव पर लगाया गया।
मैं उन सभी के सुहृदों के प्रति कृतज्ञ हूँ जिन्होंने परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से ‘महाभारती’ हेतु उत्साहवर्धन किया है। विशेष रुप से मैं आभारी हूँ श्री एच. अंगिरस (विवेकानन्द केन्द्र, कन्याकुमारी), डॉ.वी.पी. जोहरापुरकर (प्राध्यापक संस्कृत), अपने अग्रज श्री भरतचन्द्र चतुर्वेदी (आई. ए. एस. भोपाल), तथा अपनी मित्र श्रीमती मालती तिवारी (सुपुत्री, स्व.डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी) के प्रति, जिन्होंने पाण्डुलिपि को आद्योपान्त पढ़, मूल्यवान् सुझाव देकर ‘महाभारती’ को सुगठित तथा परिमार्जित करने का सुयोग प्रदान किया। पद्मभूषण आदरणीय डॉ. उमाशंकर जोशी एवं श्री लक्ष्मीचन्द्र जी जैन के प्रति मैं हार्दिक कृतज्ञता अनुभव करती हूँ जिन्होंने ‘महाभारती’ की कथा एवं प्रकाशन में प्रारम्भ से ही गहरी रुचि ली।

गणेश-पूजन तो प्रारम्भ में ही कर देना चाहिए था ताकि विघ्न न पड़ें। विघ्न तो अब पड़ ही चुके हैं, इसलिए विघ्नहर गणेश का पूजन अन्त में कर रही हूँ। भारतीय ज्ञानपीठ को हार्दिक धन्यवाद !
अन्त में पाठकों से दो शब्द और। पता नहीं इस कथा के माध्यम से द्रुपदसुता आपके कितने निकट पहुँच सकी है या आपने कितने निकट पाया है। वह अपनी मर्म-कथा सुनाकर आपको द्रवित कर सकी अथवा नहीं। मेरी लेखनी की दुर्बलता व अभिव्यक्ति के दोषों के होते हुए भी, यदि आपमें संवेदनाएँ हैं तो आपका मन उद्वेलित अवश्य हुआ होगा। यही उद्देश्य है ‘महाभारती’ का। यही आशा व आकांक्षा भी। पुरुष द्वारा पण्य बनायी गयी एक तेजोमय नारी की व्यथा-कथा समर्पित है-हिन्दी के संवेदनशील मानसों को !
चित्रा चतुर्वेदी ‘कार्त्तिका’

1. युवराज्ञी पर्व

चारों वर्णों के कौतुक प्रेमीजन एकत्रित हो गये थे और उस एकत्रित जनसमूह ने महासागर जैसा रूप धारण कर लिया था। धनुर्विद्या के प्रकाण्य ज्ञाता आचार्य द्रोण का भव्य व्यक्तित्व अनोखी छटा बिखेर रहा था। श्वेत वस्त्र, श्वेत यज्ञोपवीत, श्वेत श्मश्रु, श्वेत केश, श्वेत चन्दन से अनुलेपित प्रशस्त ललाट और विशाल वक्ष पर झूलती श्वेत पुष्पों की विराट माला।
दूसरी ओर से भरतवंश के वीर राजपुत्रों का आगमन हो रहा था। तूणीर बाँधे, धनुष, गदा एवं शक्ति धारण किये वे गन्धर्व-सम सुन्दर कुमारगण सिंह की गति से प्रवेश कर रहे थे। रक्त चन्दन से सबके भाल प्रदीप्त थे। रक्त-पुष्प मालाएँ कण्ठ में झूल रही थीं। जिस प्रकार तपे-तपाये स्वर्ण के आभूषणों से वे मण्डित थे वैसी ही तपी-तपायी सुगठित उनकी देहयष्टि थी।

सभामण्डप के केन्द्र में एक ऊँचे मंच पर राजवंश के सदस्यगण बैठे थे और वहीं बैठी थी कुलवधुएँ-महाराज्ञी गान्धारी, भोजपुत्री देवी कुन्ती तथा कई अन्य देवांगनाओं-सी सुन्दर परिचित-अपरिचित राजकन्याएँ।
शिल्पियों द्वारा रचित उस अभूतपूर्व सुसज्जित रंगमण्डप में आज कुरू-राजपुत्रों द्वारा शस्त्रकौशल का प्रदर्शन एवं लक्ष्यवेध की अन्तिम परीक्षा थी। आचार्यवर ने एक ऊँचे से वृक्ष पर श्येन पक्षी दिया था, जिसका शिरोच्छेदन करना था। प्रत्येक कुरुकुमार आता, और आचार्य एक ही प्रश्न पूछते-
‘‘वत्स ! तुम क्या देख पा रहे हो ?’’
सभी राजपुत्र सम्पूर्ण दृश्य का विशद वर्णन करते और आचार्य निराशा से सिर हिला देते। जिसका ध्यान इतनी वस्तुओं पर बिखरा है वह क्या और कैसे एक पर ध्यान केन्द्रित कर पाएगा। लक्ष्यवेध के लिए तो एकाग्रता चाहिए-राजपुत्रों में इसका अभाव था। सव्यसाची अर्जुन के आते ही आचार्य के निराश मुखमण्डल पर आशा और उत्साह की आभा खेल गयी। अपने भाल से निराशा के स्वेदकण पोंछते हुए उन्होंने अपना प्रश्न दुहराया, ‘‘बोलो पुत्र, क्या देख पा रहे हो तुम ? यह राज-समुदाय, गुरुजन, पितामह, वृक्ष, पक्षी...?’’

‘‘क्षमा करें गुरुवर !.... मैं तो वह वृक्ष-शाख भी नहीं देख पा रहा जिस पर श्येन पक्षी रखा है। मुझे इस समय केवल श्येन पक्षी मात्र ही दृष्टिगोचर हो रहा है। जिसका शिरोच्छेदन करने की आपने आज्ञा दी है।’’ अर्जुन ने लक्ष्य साधे ही उत्तर दिया। गुरु प्रसन्न हो उठे। आदेश मिलते ही अर्जुन ने क्षुर-वाण छोड़ा और पलक झपकते श्येन-मस्तक उड़कर विलुप्त हो गया। मुग्ध प्रजा साधु-साधु कह उठी। गुरु ने गद्गद होकर अपने-प्रिय शिष्य को कण्ठ से लगा लिया।

वह स्तम्भित थी। अवाक् थी। पांचाल नरेश द्रुपद की अल्पवयस्क किशोरी राजकन्या द्रौपदी अपने कुछ सम्बन्धियों के साथ इस दृश्य का आनन्द ले रही थी। उस अपरिचित राजपुत्र अर्जुन के जयघोष से वह रोमांचित हो आयी और उसका नन्हा हृदय अकारण ही आन्दोलित हो उठा।

उसके बाद कितनी ही स्पर्धाएँ हुई। रथ-संचालन, लक्ष्यवेध, खड्ग और कृपाण के प्रयोग। गदा-युद्ध में पारंगत भीमसेन और दुर्योधन वीरोचित उत्तेजना में एक-दूसरे के प्राणों के ग्राहक बन गये। बड़ी चेष्टा से गुरु-पुत्र अश्वत्थामा ने दोनों को एक-दूसरे से विलग किया। किन्तु धनंजय की कोई समानता नहीं कर पाया। अकेले अर्जुन ही आग्नेयास्त्र छोड़कर अग्नि प्रज्वलित कर सके। उन्होंने वारुणास्त्र छोड़कर जलधारा उत्पन्न की और वायवास्त्र छोड़कर वेगवती वायु प्रवाहित कर जनता का मन मोह लिया। प्रजा हर बार उत्साह से उठ खड़ी होती और कुन्तीपुत्र अर्जुन की जय-जयकार के तुमुल नाद से आकाश गुँजा देती। प्रत्येक जयघोष द्रुपदनन्दिनी के हृदय में तुमुल ज्वार उठा देता। उसकी विकल दृष्टि रह-रहकर धनंजय पर ही टिक जाती।

‘‘ऐसा न सोचो अर्जुन, कि पृथ्वी पर तुम ही एक पराक्रमी वीर बचे हो ! जो शस्त्र-संचालन और युद्ध-कौशल तुमने यहाँ प्रदर्शित किया है, मेरे बायें हाथ का खिलवाड़ है। यदि गुरुवर आज्ञा दें तो मैं अपनी योग्यता सिद्ध करूँ !’’ राधानन्दन कर्ण वृषभ की भाँति रंगशाला के मध्य अड़ा था। उसके चुनौतीभरे स्वर से सभा में उत्तेजना फैल गयी। किन्तु पृथापुत्र अर्जुन अविचलित थे। मुस्कराकर बोले, ‘‘बिना निमन्त्रित हुए भी सभा में आनेवाले राधापुत्र ! तुम्हारा आचरण सर्वथा निन्दनीय है। अतः ऐसे निन्दनीय व्यक्ति जिस लोक के योग्य हैं, मैं उसी लोक में तुम्हें अभी पलभर में पहुँचाता हूँ...!’’
‘‘वाह रे वीर अर्जुन ! आक्षेप करना सदा दुर्बलों और कायरों की नीति रही है। यदि तुम सचमुच ही पराक्रमी हो तो आओ, वाणों के माध्यम से चर्चा करें !’’

उत्तेजना बढ़ चली। यह देख शरद्वान्-पुत्र कृपाचार्य ने हस्तक्षेप किया, ‘‘कर्ण ! कुन्तीदेवी के पुत्र अर्जुन कुरुवंश के अमूल्य पुत्ररत्न हैं। महाबाहो ! ये अपने समकक्ष ही किसी राजवंशीय व्यक्ति से द्वन्द्व-युद्ध कर सकते हैं, स्वयं से हीन कुल में उत्पन्न व्यक्ति से नहीं। अतः पहले तुम अपने माता-पिता एवं कुल का परिचय दो और समाज को बताओ कि तुमने किस राजवंश को अलंकृत किया है... तुम किस राजपरिवार के कुलभूषण हो !’’
कर्ण का मुख आरक्त हो उठा। निस्सन्देह वह वीरपुरूष था, किन्तु राजपुरुष...कदापि नहीं !
‘‘अरे सूत-पुत्र ! तू तो पाण्डुनन्दन अर्जुन के हाथों से मरने के योग्य भी नहीं ! तेरे हाथ में तो धनुष शोभा ही नहीं देता। सारथी ! प्रतोद धारण कर हाथ में-प्रतोद !’’ वीरवर भीम दहाड़ उठे।

कर्ण के अनन्य सखा दुर्योधन से यह न सहा गया। आगे बढ़ वह गरज उठा-
‘‘शान्त रहो वृकोदर ! क्या कोई सरिताओं का उद्गम जान सकता है ? क्या कोई शूरवीरों की उत्पत्ति जान सकता है ? भीमसेन नदियों और पराक्रमी व्यक्तियों की उत्पत्ति का कारण कोई नहीं जानता, न कोई पूछता है। पराक्रमी व्यक्ति का कुल-परिचय नहीं पूछा जाता। उसका शौर्य एवं पराक्रम ही उसका श्रेष्ठ परिचय है। यदि हीन जाति में भी जन्म पाकर व्यक्ति पराक्रमी हो तो उसके पराक्रम को विश्व में सदा सम्मान दिया जाता है। अतः उचित यही है कि अर्जुन कर्ण की चुनौती वीरों की भाँति स्वीकार करें। यही क्षात्र-धर्म है।’’

अचानक महिला-वर्ग में हलचल मच उठी। कुन्ती अचेत हो गयी थीं। केवल महात्मा विदुर जानते थे उनके मूर्च्छित होने का कारण, यह कि अपने दोनों पुत्रों कर्ण एवं अर्जुन को परस्पर युद्धोद्यत देखकर पृथा विचलित हो गयी है। पितामह उद्विग्न हो उठे-कहीं कुछ अघटनीय न घटित हो जाये। वे खड़े हुए और दूरदर्शितापूर्वक अस्ताचलगामी सूर्य की ओर इंगित कर उन्होंने समारोह समाप्त होने की घोषणा कर दी। आरोप-प्रत्यारोप, आक्षेप, चुनौती और उत्तेजना के वातावरण में सभा विसर्जित हो गयी।

अजेय अर्जुन महिला-समाज की ओर आये-माता के चरण-स्पर्श करने और उनकी अनायास अस्वस्थता के विषय में पूछने। चरण-स्पर्श करते हुए उन्हें अनुभव हुआ कि कहीं से दो शुभ्र तारक उनके श्रीमुख को अपलक निहार रहे हैं। वे सहसा संकुचित हुए और मुड़कर देखा-एक अल्पवयस अनिन्द्य सुन्दरी चित्रलिखित-सी खड़ी थी। वह मुग्ध थी। अर्जुन के युद्धकौशल से अचम्भित और विमोहित ! अर्जुन की सुगठित देहयष्टि, वृषभ- स्कन्ध और सिंह-सम चाल पर वह किशोरी ठगी-सी रह गयी थी। अर्जुन एकाएक अपनी दृष्टि उसपर से हटा नहीं पाये। जब हटा ली तो पुनः क्षणभर में उनकी दृष्टि उन्हीं नील शुक्र-तारकों में उलझकर रह गयी। कितनी निर्मल-नील ज्योति थी-उन दो अबोध शुक्र-तारकों में। कौन है यह नयनतारा ? बेसुध द्रुपदसुता सहसा संयत हो गयी और लजाकर उसने दृष्टि चुरा ली। तब ऐसा कुछ था, जो कभी नहीं हुआ था। कपोलों पर कितनी गुलाबी साँझें एकसाथ झूम उठीं ! और अब, अर्जुन ठगे-से खड़े थे।

भीड़ में से चलते-चलते उन्होंने एक भरपूर दृष्टि पुनः उस अपरिचित बाला पर डाली। किन्तु तब उसकी दृष्टि किसी और दिशा में व्यस्त थी। मुख का भाव बदल चुका था। लाज के स्थान पर तेज था, कठोरता थी। भँवें कमान-सी तनी हुई थीं। नयनों में वितृष्णा थी। अर्जुन ने उसकी दृष्टि का पीछा किया तो उनकी दृष्टि पहुँची धृतराष्ट्र दुर्योधन पर। दुर्योधन कर्ण के कण्ठ में बाँह डाले द्रुपदसुता की ओर इंगित कर हँसते हुए कुछ कह रहा था, जो शायद उचित न था। उस अपरिचित बाला के लिए अकारण ही अर्जुन का रक्त खौल उठा, बाहु फड़क उठीं। अर्जुन और दुर्योधन की दृष्टि परस्पर मिली। अर्जुन के नेत्रों में तिरस्कार था, दुर्योधन के नेत्रों में ढीठता।

अन्तिम बार अर्जुन और द्रपदसुता में दृष्टि विनिमय हुआ, और द्वादश वर्षीया किशोरी एकाएक युवती हो गयी। नयनों में गहन अनुनय था, प्रेम था, लज्जा थी। आन्दोलित हृदय पर आँचल थामे वह चली जा रही थी-जैसे आँचल में अर्जुन की उस दृष्टि को भी समेटती, सँभालती ले जा रही हो। नीची दृष्टि किये, काँपते चरणों से सखियों के साथ वह चली गयी और अर्जुन खोये-से खड़े रह गये। अपनी उस दिन की उपलब्धि, विजयीश्री, प्रशंसा, आशीर्वाद, सफलता-सब कुछ भूल चुके थे वे। केवल स्मरण थे-तो दो शुभ्र नील-तारक। कौन थी वह नयनतारा ? कौन थी वह शुक्रबाला ?....
कर्ण और दुर्योधन, पाण्डुपुत्र अर्जुन और द्रुपदपुत्री के परस्पर मुग्ध दृष्टि-विनिमय को देख ढीठता से हँसते हुए बाहर चल दिये।

उस दिन के बाद से द्रुपद-सुता वैसी न रही जैसे वह पहले थी। उसकी बाल-सुलभ चंचलता मन्थरता में बदल गयी। अल्हड़पन का स्थान अलसभाव ने ले लिया। एक अनोखी स्वप्निलता में डूबती-उतराती वह वातायन से मेघमालाएँ निहारती प्रतीक्षा करती। दूर क्षितिज के पार स्वप्नलोक से आएगा उसका राजकुमार-श्वेत अश्वों पर आरूढ़ हो ! सौम्य, शान्त, धीर, गम्भीर, श्वेत-वाहन धनंजय ! दिन-दिन उसकी काया क्षीण हो रही थी। सखियाँ चिन्तित हुईं। भाई धृष्टद्युम्न चिन्तित हुआ। महाराज द्रुपद चिन्तित हुए। अपनी प्रिय सखी धीरा के समक्ष धीरे-धीरे पांचाली ने अपनी सारी मनोव्यथा उँड़ेल दी कि कौन उसके स्वप्नों में आता है और उसकी नींद चुरा ले जाता है।

‘‘महाराजकुमारी द्रौपदी विवाह योग्य हो चुकी है, किसी सुयोग्य वर के हाथ में उसे सौंप दूँ तो निश्चिन्त हो जाऊँगा।...काश, पाण्डुनन्दन महावीर अर्जुन को अपने जामाता के रूप में पा सकता !....अर्जुन पराक्रमी हैं, उच्च कुल के हैं और यदुकुल-नन्दिनी महारानी कुन्ती के पुत्र हैं। अपनी सर्वगुणसम्पन्न सुलक्षणा पुत्री कृष्णा के लिए कोई अन्य ऐसा योग्य वर मुझे नहीं सूझ रहा....।’’ महाराज द्रुपद अपने पुरोहित, पुत्र एवं प्रमुख मन्त्रियों से कह रहे थे।
पांचाली ने सुना तो जैसे उसके तन-मन-प्राण में पंख लग गये। वह दौड़ी नहीं-उड़ चली। हँसते-थिरकते हुए आकर उसने अपने शुक-सारिकाओं के स्वर्ण-पिंजरों को वेग से हिला डाला, और वे समवेत स्वरों में पुकार मचाने लगे, ‘‘महाराजकुमारी प्रसन्न हैं...आज महाराजकुमारी प्रसन्न हैं...सखी धीरा ! ओ सखी सुमना ! देखो तो ! आज राजदुलारी प्रसन्न हैं...!’’
हँसती खिलखिलाती सखियों की भीड़ लग गयी। राजकन्या की मुँहलगी, सिरचढ़ी सारिका प्रियंवदा ने तब बड़े गम्भीर स्वर में पूछ डाला, ‘‘महापराक्रमी राजकुमार अर्जुन आ गये क्या ?’’

महाराजकुमारी लज्जा से आरक्त हो उठी, ‘‘वाचाल ! शठ ! चुप रह।’’ किन्तु...सारिका ने भेद खोल दिया था और सखियों की खिलखिलाती हँसी के बीच अब वह कर भी क्या सकती थी।
लेकिन महाराज द्रुपद की पूरी बात उसने सुनी कहाँ थी ? उनके मन में संशय था। क्या द्रोणाचार्य अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को अपने शत्रु द्रुपद का जामाता बनने देंगे ? अर्जुन पर गुरुवर द्रोण का प्रबल प्रभाव था, और द्रोणाचार्य महाराज द्रुपद से कुपित थे।

उस दिन अचानक नगर में हलचल मच गयी। चारों ओर कोलाहल और भगदड़ थी। कुरुपुत्रों ने दुर्योधन के सेनापतित्व में पांचाल देश पर आक्रमण कर दिया था। यह सर्वथा अघोषित आक्रमण था जिसकी पूर्वसूचना अथवा चेतावनी नहीं दी गयी थी। आक्रमण किसी भी दृष्टि से वीरोचित नहीं था। अनायास पांचाल देश में घुसकर कुरुपुत्र व उनके सेनानी लूटखसोट करने लगे थे। निर्दोष नागरिक मारे जा रहे थे। और प्रजा त्राहि-त्राहि करती चारों दिशाओं में भाग रही थी। पांचालनरेश ने पुत्रों सहित अपनी चतुरंगिणी ले कौरवों पर कसकर प्रहार किया। घमासान युद्ध हुआ। दुर्योधन आदि तो वीरों का सामना करने नहीं आये थे, वे तो मात्र लूट-मार मचा रहे थे। महाराज द्रुपद, धृष्टद्युम्न एवं शिखण्डी के तीक्ष्ण वाण-प्रहार के समक्ष कुरु-सेना टिक नहीं पायी।

आचार्य द्रोण के समक्ष पराजित कौरवकुमार अपनी असफलता पर सिर लटकाये खड़े थे। आचार्य विक्षुब्ध थे। उनके आचार्यत्व एवं द्रुपद के राजत्व का यह संघर्ष था और उनका आचार्यत्व पराजित हुआ था। द्रोणाचार्य भुला नहीं पाते थे कि नितान्त दीनहीन दरिद्र अवस्था में जब वे अपने सहपाठी एवं बाल-सखा पांचालनरेश द्रुपद के राजसमाज में आजीविका की आशा में पहुँचे थे तो किस दम्भ और अहंकार के साथ महाराज द्रुपद ने उन्हें पहचानना तक अस्वीकार कर दिया था। वह अपमान आचार्य द्रोण के उर में शूल की भाँति चुभ रहा था। कालान्तर में वे जब कुरु-राजपुत्रों के गुरु हुए तब से उनके मन में यह तीव्र अभिलाषा थी कि एक बार द्रुपद के राजमद को वे अवश्य चूर-चूर करेंगे। और जब उनके कुरुवंशी शिष्य धनुर्विद्या में दक्ष हो गये तो यही अभिलाषा उन्होंने शिष्यों से प्रकट की कि वे पांचालनरेश को बन्दी बनाकर उनके समक्ष ले आएँ। पराजित धृतराष्ट्र-पुत्रों की अकर्मण्डता व शिथिलता देख गुरु का बाह्मण-अहं जाग्रत हो गया था। ये क्षत्रिय हैं ! ये राजपुत्र हैं जो युद्ध करके पांचालनरेश को बन्दी न बना सके ! जो गुरु दक्षिणा देने में असमर्थ रहे...और एक एकलव्य था जिसने उनके कहते ही दाहिने हाथ का अंगुष्ठ तक विनम्रता से काटकर गुरु के चरणों में रख दिया था !....उनके आचार्यत्व का यह अपमान ! उनकी दी हुई शिक्षा-दीक्षा भी इन कुरु-पुत्रों को वीर नहीं बना सकी !

‘‘गुरुवर ! क्षमा करें एक अवसर हम लोगों को भी दें ! आज्ञा दें गुरुवर कि इस बार हम लोग पांचाल-राज्य पर आक्रमण करके वहाँ के राजन्य को बन्दी बनाकर आपके चरणों में डाल दें।’’ अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव हाथ जोड़े विनम्र स्वर में प्रार्थना कर रहे थे।

आचार्य ने अर्जुन को देखा तो उनका जैसे आधा विषाद समाप्त हो गया। हृदय में आशा का संचार हुआ। ‘‘जाओ वत्स ! स्यात् यह कार्य तुम्हारे द्वारा ही सम्पन्न होना निर्दिष्ट हो।’’
इधर धृतराष्ट्र-पुत्रों को हराकर पांचालनरेश प्रसन्न थे। राज्य में हर्ष मनाया जा रहा था कि तभी नगरभर में विद्युत्-तरंग-सा यह समाचार फैल गया कि अब पाण्डुनन्दन अर्जुन के सेनापतित्व में पुनः कुरु-सेनाएँ आक्रमण हेतु आ रही हैं। अर्जुन का नाम सुनते ही पूरा राज्य सन्त्रस्त हो उठा-वह तो विकट योद्धा है।...
वसन्तोद्यान में झूला झूलती पांचालकुमारी के नूपुर युक्त चरण एकाएक भूमि पर टिक गये। झूला रुक गया। उर-स्पन्दन तीव्र हो गया। दुःख, भय, अपमान, लज्जा कैसी मिश्रित-सी अद्भुत अनुभूति ! दुःख भी नहीं, भय भी नहीं, अपमान भी नहीं, लज्जा भी नहीं ! कैसी अद्भुत अनुभूति ! अर्जुन कहीं जीत गये तो....पांचाल राज्य... द्रुपदनरेश... राजपरिवार !..ओह !...औऱ अर्जुन कहीं वीरगति पा गये तो...तो ओह !..नहीं ! आगे नहीं सोचा जाता ।...और अनिश्चितता बढ़ते ही झूला फिर आरम्भ हो गया..गति बढ़ गयी और द्रुत और...तीव्र...और तीव्र...।

अर्जुन सैन्य संचालन करते हुए नगर में आ गये थे। उनकी सिंह-गर्जना सुनाई दे रही थी, ‘‘कुरु सैनिको ! आप युद्ध करने आए हैं, निर्दोष नागरिकों को आतंकित करने नहीं ! सामान्य प्रजाजन से हमारी शत्रुता नहीं। हर नागरिक हमारे सम्मान का पात्र है। नागरिकों को कोई कुरु-नहीं सताये। हे पांचाल राज्य के नर-नारी ! आबाल-वृद्ध, नर-नारी! आप लोग भयभीत न हों। हमारा कोई सैनिक मर्यादा के परे नहीं जाएगा। आपको किसी प्रकार आतंकित नहीं किया जाएगा। निर्भय हों ! निर्भय हों !...’’ हमारा युद्ध महाराज द्रुपद व उनकी सेना से है। नागरिक निर्भय हों ! निर्भय हों !...’’
पांचाल-नागरिकों ने सुना तो अभिभूत हो पाण्डव-वीर अर्जुन का जयघोष कर उठे। महाराज द्रुपद ने सुना तो मुग्ध हो गये। वे आज अर्जुन को निकट से देख रहे थे-अर्जुन ने कब से उनके हृदय में जामाता का रुप धारण कर लिया था ! वे पुलकित थे। नहीं ! अर्जुन का बाल बाँका भी न होने दूँगा-इस दृढ़ निश्चय के साथ वे आगे बढ़े।

कुछ समय पश्चात ही राजमहल में रुदन और भय से विभिन्न स्वर गूँज रहे थे। नगर में त्राहि-त्राहि मच गयी थी। पाण्डुपुत्र अर्जुन ने महाराज द्रुपद को बन्दी बना लिया था। आचार्य द्रोण के समक्ष वे पांचालनरेश को उस बन्दी अवस्था में ही प्रस्तुत करने हेतु ले जा रहे थे। प्रजाजन विकल हो यह दृश्य देख रहे थे।

द्रोणाचार्य ने जब देखा कि उनका दम्भी सहपाठी उनके शिष्य के हाथों अन्ततः बन्दी हुआ तो दग्ध हृदय को हिमशीतलता मिली। देखा, अन्ततः ब्राह्मणत्व के समक्ष क्षत्रियत्व कैसा पराजित हुआ ! कहाँ गया वह दम्भपूर्ण राजत्व ?...
पांचालनरेश ने द्रोणाचार्य को देखा। निकट खड़े तरुण वीर अर्जुन को देखा, और उन्हें दिन-प्रतिदिन कृष्णपक्ष की क्षीण होती ज्योत्स्ना-सी अपनी पुत्री याज्ञसेनी स्मरण हो आयी। बड़े चातुर्य से उन्होंने ब्राह्मण-देवता द्रोणाचार्य को प्रसन्न किया और फिर उनके अभिन्न मित्र हो गये। फिर पाण्डुपुत्रों का व उनके गुरु का अभूतपूर्व स्वागत हुआ। पांचाली ने दीर्घ श्वास लिया। संघर्ष समाप्त हुआ। संकट टला और वह पुनः स्वप्नो

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