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कन्नू

अजीत कौर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :141
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7502
आईएसबीएन :978-93-80146-05

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अजीत कौर का लेखन, जीवन की ऊहापोह को समझने और उसके यथार्थ को उकेरने की एक ईमानदार कोशिश है। उन्हीं की लेखनी से चार कहानियाँ...

Kannu - A Hindi Book - by Ajit Kaur

‘‘बहुत ऊँचे वर्ग की औरतें सोशल सर्विस करती हैं। मियाँ लोगों की व्यस्तताएँ ही इतनी होती हैं कि उनके पास न अपनी बीवी के लिए वक्त होता है, न बच्चों के लिए। सो हर कामयाब आदमी की बीवी बोर होती है। बोरियत दूर करने के लिए वह शॉपिंग करती है और सोशल सर्विस करती है। वैसे ख़ाविंद को भी यह सोशल सर्विस बहुत माफ़िक रहती है क्योंकि क्या पता इस तरह उनकी बीवी की मुलाक़ात किसी मंत्री की पत्नी से भी हो जाए। किसी बड़े सरकारी अफ़सर की बीवी से दोस्ती ही हो जाए। हर बिज़नेसमैन चूहे की तरह सरकार के घर के अंदर दाख़िल होने के लिए छोटे से छोटे सुराख़ को भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। क्योंकि वह छोटी चींटी बनकर भी अंदर जा सकता है, चूहा बनकर भी।’’

‘‘पर आजकल महारानी का छोटा बेटा ख़ुद सब सुराख़ों की पहरेदारी कर रहा है। नहीं क्या ?’’
‘‘हाँ, उसने कहा, मम्मी, यह सिस्टम ग़लत है। पहले मिनिस्टर फ़ाइल पर मुर्ग़ी की तरह बैठे, फिर कहीं जाकर चूज़ा निकले। और फिर उस चूज़े की ज़ख़नी वह खुद पी जाए, और बाक़ी बची हुई नीरस लाश आपके सामने रख दे। अब ज़ख़नी निकाले हुए चूजे को जितना मर्ज़ी मसाला डाल-डालकर छौंक लगाए जाओ, वह बात तो नहीं न बनती। क्यों न मुर्ग़ी वाला काम मैं ख़ुद करूँ।’’

‘‘सो सारे अंडे जब खुद इकट्ठे किए जाने लगे, तो विलायत से बहुत-से कंप्युटराइज़्ड इनक्यूबेटर मँगवाने पड़े।’’ कन्नू हँसती है।
इतनी नाजुक-सी लड़की की इतनी बड़ी समझ पर मैं हैरान होती हूँ।
‘‘ये सब बातें तुम्हें कैसे पता हैं ?’’
‘‘क्योंकि मैं भी चीटियों और चूहों के ख़ानदान में पैदा हुई थी,’’ वह हँसती है। निश्छल हँसी। मुक्त !

‘‘सो अब ऐरे-गैरे की ज़रूरत नहीं रही सरकार को। बहुत छोटे अंडे फ्राई करके खाए जा सकते हैं। बढ़िया नस्ल के अंडे इनक्यूबेटर में रख दिए जाते हैं। ज्यों ही दिन पूरे हुए, और चूँ चूँ करते चूँज़े ख़ुद अंडों को तोड़कर बाहर निकल आते हैं और गोल-गोल आँखें घुमाते हुए कहते हैं : हम तैयार हैं। हमें जब मर्ज़ी हो ज़िबह कर लो। भूनकर खा लो। पर ज़रा जल्दी करना। क्योंकि हमारे इंपोर्ट लायसेंस... हमारे एक्सटेंशन प्रोग्राम...हमारे डायवर्सिफिकेशन प्रोग्राम...हमारी नई फैक्ट्रियाँ...फैक्ट्रियों के लायसेंस...पब्लिक इशूज़...सब आपकी नज़रे-इनायत के मोहताज हैं, जहाँपनाह, शहज़ादा साहब ! मलिका-ए-आलिया !’’

कई बार हँसी की बात से भी रोना क्यों आता है ?
अजीत कौर का लेखन, जीवन की ऊहापोह को समझने और उसके यथार्थ को उकेरने की एक ईमानदार कोशिश है। उनकी रचनाओं में न केवल नारी का संघर्ष और उसके प्रति समाज का असंगत दृष्टिकोण रेखांकित होता है, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक विकृतियों और सत्ता के गलियारों में व्याप्त बेहया भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक ज़ोरदार मुहिम भी नज़र आती है।
अजीत कौर ने विभाजन की त्रासदी को झेला है। लोगों को घर से बेघर होकर, आँधी में उड़ते सूखे पत्तों की तरह भटकते देखा है, जिनमें वह ख़ुद भी शामिल थीं। 1984 में बेगुनाह सिखों का क़त्लेआम होते देखा है। गुजरात में निरंकुश हिंसा का तांडव देखा है। अफ़गानिस्तान, इराक़, रवांडा, यूगोस्लाबिया, फ़िलिस्तीन में लोगों की तबाही का दर्द महसूस किया है। साठ लाख यहूदियों के क़त्ल की दास्तानें सुनते उनका बचपन गुज़रा है। फ़िलिस्तीनियों के पीढ़ी-दर-पीढ़ी बेघर होकर रहने, उनकी तबाही और बौखलाए गुस्से से उनकी आत्मा में ख़रोचें आई हैं। उन्हें तीखा अहसास है व्यापक भूख का–भारत में, एशिया में, सूडान में, अफ्रीका में।

उनकी कहानियों में न केवल बेक़सूर, निहत्थे लोगों के क़त्ल का दर्द है, बल्कि पेड़ों के कटने का, पंछियों के मरने का, चीटियों के बेघर होने का, नदियों के सूखने का और जंगलों की आख़िरी पुकार का भी शिद्दत से अहसास है।
अजीत कौर के लेखन में यह संघर्ष और ये समस्याएँ पूरी संवेदनशीलता, सजगता और आक्रोश के साथ प्रतिबिंबित हैं। इन सरोकारों के लिए वे सुप्रीम कोर्ट तक लड़ती भी हैं, ख़ासकर पर्यावरण और सांस्कृतिक विरासत को बचाने के लिए।
इन सरोकारों के लिए ही उन्होंने अपनी समूची पैतृक संपत्ति बेचकर और बेटी अर्पणा की पेंटिंग्ज़ बेच-बेचकर एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक संस्था एकेडेमी ऑफ़ फ़ाइन आर्ट्स एंड लिट्रेचर की स्थापना की, जो संस्कृति और कला का एक बहुआयामी केंद्र है।

एकेडेमी का एक विशेष कार्यक्रम है समाज के आर्थिक रूप से कमज़ोर तथा पिछड़े वर्ग की बालिकाओं को शिक्षा देना और व्यावसायिक प्रशिक्षण द्वारा उनका आर्थिक सशक्तीकरण करना।
अजीत कौर का लक्ष्य है सार्क देशों के सही सोच वाले लोगों को एकजुट करना। इसी इरादे से उन्होंने 1987 में फ़ाउंडेशन ऑफ़ सार्क राइटर्स एंड लिट्रेचर की स्थापना की और सार्क देशों के साहित्यकारों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों को एक मंच पर इकट्ठा किया है। उद्देश्य : आपसी मतभेदों से ऊपर उठकर, सार्क देशों में भाईचारे और सहयोग की भावना का विकास करना।

अनुक्रम


  • चीख़ एक उक़ाब की
  • आंक के फूल
  • कन्नू
  • अपने-अपने जंगल

  • चीख़ एक उक़ाब की


    मिसेज़ मल्होत्रा दिल्ली प्रशासन के राशन विभाग में क्लर्क थी जब उसकी मुलाक़ात दिल्ली के लैफ़्टिनेंट गवर्नर महेश चंद्रा से हुई।
    महेश चंद्रा अपने वक्त के आई.सी.एस. अफ़सर थे।
    अंग्रेज़ों को आदत थी हर नाम के बाद ‘आ’ लगा देने की। अशोक को ‘अशोका’, चित्रगुप्त को ‘चित्रगुप्ता’, कृष्ण को ‘कृष्णा’, राम को ‘रामा’ आदि। सो इसी फ़ैशन के प्रभाव तले महेश चंद्र ने भी अपने नाम को किसी ज़माने में ‘महेश चंद्रा’ बना लिया, और फिर यही नाम स्थायी हो गया।

    अब उन्हें कई बार कोफ़्त होती। वे इस कम्बख़्त ‘आ’ को अपने नाम से हटा क्यों नहीं सकते। पर नहीं, एक बार बला गले में डाल ली, सो डाल ली। छुटकारा नहीं हो सकता था।
    वैसे इस तरह की मुसीबत से छुटकारा पाने का और तरीक़ा भी होता है। जिस तरह अगर दयाराम आहूजा को अपने नाम से ‘दया’ की ग्रामीण गंध आए, तो वो मज़े से डी.आर. आहूजा हो जाता है। पर महेश चंद्रा यह भी नहीं कर सकते थे।
    क्योंकि उनकी जात काफ़ी अटपटी थी : ‘खंडपुर’। अब एम.सी. खंडपुर से तो महेश चंद्रा ही बेहतर है।

    आजकल महेश चंद्रा दिल्ली के लैफ़्टिनेंट गवर्नर थे। चुस्त-दुरुस्त, ‘थ्री पीस’ सूट, चमकते बूट, बूटों के रंग से मैच करती जुराबें, सूट के रंग से मैच करती टाई और रूमाल। पाँच फुट दो इंच क़द, और इससे ज़रा-सी कम चौड़ाई।
    बड़ी बावक़ार पर्सनैलिटी थी महेश चंद्रा की।
    वैसे बौद्धिक वर्ग में यह भी प्रचलित था कि महेश चंद्रा तो उनकी ही बिरादरी के हैं। उन्हें पुस्तक पढ़ने का और म्यूज़िक सुनने का शौक़ है।

    यानी जिस तरह के बौद्धिक लोग यह देश पैदा कर सकता है, उसी तरह के।...
    मिसेज़ मल्होत्रा कभी-कभार कहानियाँ लिखती थीं, हिंदी में। रोने-धोने वाली, इश्क़ और नाकाम मोहब्बत की कहानियाँ, नामुराद ज़ालिम समाज की सताई हुई औरतों की कहानियाँ, घरों के कलह की और बुरी सासों की जैसी कहानियाँ आमतौर पर औरतें लिखती हैं, वैसी ही बेचारी मिसेज़ मल्होत्रा भी लिखती थी।

    अपनी तरफ़ से मेहनत भी बहुत करती थी। चार-चार बार, आठ-आठ बार सुधार-सुधारकर लिखती थी, फिर टाइप करवाती थी, और फिर पत्रिकाओं को भेजती थी। और पत्रिकाओं के बिगड़े हुए संपादकों को तो देखो, दो शब्दों की चिट्ठी भी नहीं लिख सकते कि क्यों वापस कर रहे हैं कहानी। छपवाकर रखी हुई हैं चिटें, साथ में नत्थी कीं, और वापस भेज दीं कहानियाँ। मुक्ति मिली।
    वापस भेजने में कौन-सा मूल्य लगता है ! टिकट लगा, पता लिखा लिफ़ाफ़ा तो बेचारे लेखक ने साथ ही भेजा होता है। क्योंकि यही दस्तूर है, यही रिवाज़ है, और यही संपादक का तकाज़ा है।

    मिसेज़ मल्होत्रा को यक़ीन था कि हर संपादक ने शक्तिशाली, पहलवानी जिस्म वाला, ज़रूर कोई चपरासी क़िस्म का अनपढ़-सा व्यक्ति रखा हुआ है जो सब की कहानियों और नज़्मों को बड़ी-सी टोकरी में डालकर बिलोता है और फिर उनमें से तीन-चार चुनकर, जो भी बिलोने के बाद मक्खन की तरह ऊपर आ जाएँ, संपादक की मेज़ पर रख देता है और बाक़ी को ख़ुद ही वापस भेज देता है। काम ही क्या रह जाता है बाक़ी ! टिकट लगे, पता लिखे, पिफ़ाफ़े में भरो कूड़ा-कबाड़ा, थूक लगाकर लिफ़ाफ़े को बंद करो, और डाल दो डाकख़ाने में।

    और ये संपादक क्या करते हैं ! बस हराम की खाते हैं। सारा दिन मिलने-जुलने वालों से गप्पें हाँकते हैं, चाय-कॉफ़ी पीते हैं, और शाम को कहीं न कहीं दोस्तों की महफ़िल में दारू पीकर झूमते-झुमाते रात को घर पहुँच जाते हैं, मिसेज़ मल्होत्रा सोचती।
    इसी कारण तो कोई संपादक सुबह साढ़े ग्यारह-बारह से पहले दफ़्तर नहीं पहुँचता। कई बार फ़ोन किया था मिसेज़ मल्होत्रा ने, कई संपादकों को। बारह बजे तक ‘साहब तो अभी आए नहीं’। बारह बजे के बाद ‘साहब मीटिंग में हैं’। एक बजे के बाद ‘साहब तो लंच के लिए बाहर गए हैं’। दो बजे ‘साहब लंच से अभी वापस नहीं आए !’

    काम इन्हें है ! मिट्टी ! और करना भी कब है ! कोई वक़्त ही नहीं इनके पास !–मिसेज़ मल्होत्रा बल खाती।
    कभी-कभार वह ख़ुद चली जाती संपादक से मिलने–किसी भी अख़बार के पत्रिका विभाग के संपादक को मिलने, जो हर रविवार एक कहानी छापते हैं। या किसी साहित्यिक पत्रिका के संपादक से मिलने। उसे पता था कि सबसे अच्छा वक़्त साढ़े तीन और साढ़े चार बजे के बीच का होता है। और संपादक साहब अपने कमरे में, कुर्सी पर विराजमान, दोपहर खूब पेट भरकर खाना खाने के कारण आने वाली ऊँघ से दो-दो हाथ करने के लिए चाय-कॉफ़ी पी रहे होते हैं।

    अब ये सब बातें शुरू-शुरू में तो पता नहीं लग जातीं। काफ़ी तजुर्बा चाहिए होता है इनकी ‘मालूमात’ के लिए। सो ज़ाहिर है कि मिसेज़ मल्होत्रा को कहानियाँ लिखते आठ-दस साल हो ही गए थे।
    जब भी वह किसी संपादक से मिलने जाती, संपादक साहब शाइस्तगी से अपने कमरे में बुला लेते। ज़ाहिर है कि लिखने-लिखाने वाली औरतें मार्किट में कम ही नज़र आती हैं। और कम- ज़्यादा जितनी भी हैं, उनमें से सभी तो संपादक का दरवाज़ा नहीं खटखटातीं। अगर कोई आ ही जाए दरवाज़े पर तो संपादक का उस पर पूरा अधिकार है। है कि नहीं ? तब भीतर कैसे नहीं बुलाएगा वो ? उसके तो फ़रिश्ते भी बुलाएँगे।

    फिर मिसेज़ मल्होत्रा शक्ल-सूरत से भी अच्छी भली ही थी। भरा हुआ, गदराया हुआ जिस्म। कद ज़रा कम था, पर रंग काफी गोरा था। नयन-नक्श साधारण थे, पर गोरा रंग सब कुछ पर भारी पड़ता था।

    इस देश में गोरे रंग का भी अजीब कॉम्प्लैक्स है।
    महेश चंद्रा कहा करते थे, ‘‘कई लोग यही समझते हैं। यानी गोरी चमड़ी वालों ने हम पर दो सौ वर्ष राज किया है, इसीलिए हमारे मन में गोरे रंग के लिए इज़्ज़त है। पर यह ग़लत है। यह कॉम्प्लैक्स आर्यों ने पैदा किया होगा शायद। द्रविड़ों का रंग चूँकि साँवला था इसलिए उन्हें घटिया समझने के लिए और उन्हें समझाने के लिए कि आप हमसे घटिया हो। बाक़ी रही बात अंग्रेज़ों की। मुझ पर तो उन्होंने दो सौ बरस कोई राज-वाज नहीं किया। मुझ पर तो मुश्किल से सौ वर्ष किया है।’’–वे हँसते, क्योंकि वे पंजाबी थे और उन्हें नाज़ था अपनी पंजाबियत पर, (क्योंकि यह उस ज़माने की बात है जब पंजाबियत पंजाबियों की सांझी मिल्कियत थी, और सांझी विरासत, और सांझा ग़रूर !) और इस बात पर कि ‘अंग्रेज़ों ने बाक़ी पूरे देश की दो सौ बरस ऐसी की तैसी कर दी, पर पंजाब की तरफ़ मुँह करने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। बाद में जिन-जिन बहादुरों शूरवीरों को उन्होंने फ़तह किया हुआ था, मराठा, गोरखा, बिहारी और बंगाली तथा और सब, जिन्हें बाहुबल पर और अपनी तहज़ीब पर नाज़ था, और आज भी है, उन सबको साथ लेकर उन्होंने पंजाब पर हमला कर दिया। पूरे देश पर दो सौ बरस राज किया, और पंजाब पर मुश्किल से सौ बरस !’’

    मिसेज़ मल्होत्रा भी वैसे तो पंजाबी ही थी, पर उसे इन सब बातों में न कोई दिलचस्पी थी और न ही जानने की उत्सुकता।
    महेश चंद्रा तो उसके साथ इसलिए ऐसी बातें करते थे, क्योंकि उसने कहा था, वह कहानियाँ लिखती है।
    पहले ही दिन जब उनकी मुलाकात हुई, उसने यही कहा था, ‘‘सर, मैंने आपकी बहुत तारीफ़ सुनी है। सब कहते हैं, पहली बार एक बुद्धिजीवी दिल्ली का लैफ़्टिनेंट गवर्नर बना है। मैं भी कहानियाँ लिखती हूँ। मुझे अपनी किताब आपको भेंट करनी है। बहुत दिनों से मेरी इच्छा थी। आज आपके साथ मुलाक़ात हो गई। मेरा सौभाग्य है। मैं कब आऊँ सर ?’’
    और ‘सर’ ने मुस्कराकर कह दिया, ‘‘कल आ जाना, कोई साढ़े ग्यारह बजे। सूट करेगा ?’’

    ‘‘बिलकुल करेगा सर !’’ मिसेज़ मल्होत्रा शुक्राने में दोहरी होते-होते बची।
    मिसेज़ मल्होत्रा की कभी-कभार कोई कहानी किसी छोटी-मोटी पत्रिका में छप जाती थी। ज़्यादातर वापस चली आतीं। पर उसे यक़ीन था कि उसकी कहानियाँ बहुत बढ़िया थीं। ‘अब’ आप ख़ुद ही बताओ, ये लोग मुंशी प्रेमचंद के गुण गाते थकते नहीं, उसके जीवन में ज़रूर उसकी कहानियाँ भी ये साले संपादक इसी तरह वापस करते होंगे। है कि नहीं ?’
    और फिर इन साले आलोचकों से कोई पूछे, क्या है प्रेमचंद की कहानियों में जो मेरी कहानियों में नहीं ? वह ज़रा गाँव-कस्बों की मुसीबतों की बातें ज़्यादा करता है और मैं अपनी कहानियों में शहरों की ज़िंदगी की ‘जटिलताओं’ का ‘विश्लेषण’ करती हूँ। और शरही ज़िंदगी की ‘जटिलताओं’ में फँसी औरत की ज़िंदगी का !

    अब अपना-अपना फ़ील्ड है। हर इंसान वही तो लिखेगा जो ‘ऑब्ज़र्व’ करेगा, जैसे वातावरण में वह रहता होगा। है कि नहीं।
    कोई समझता ही नहीं !
    अहमक साले !
    –मिसेज मल्होत्रा कुढ़ती।

    वैसे नाम से भी बहुत फ़र्क़ पड़ता है। अगर वह अपनी माँ का दिया नाम ‘सत्यवती’ ही लिखती रहती तो जो दो-चार कहानियाँ छपीं हैं, वे भी नहीं छपनी थीं। ‘सत्यवती’ नाम पढ़कर ही संपादकों के वे पहलवान चपरासी उसकी कहानी वापस कर देते। उसे बाक़ी कहानियों के साथ बिलोने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती।

    पर उसने समझदारी की। लिखना शुरू करते ही अपना नाम बदल लिया ‘अलका’। कितना हलका-फुलका और म्यूज़िकल और सार्थक नाम था अलका ! मुँह में मलाई की तरह घुलता था। मलाई नहीं भई, मलाई कौन खाता है आजकल ! आइसक्रीम ! आइसक्रीम की तरह घुलता है मुँह में नाम !–मिसेज़ अलका मल्होत्रा सोचती और मुस्कराती।

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