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उपन्यास >> राधिका मोहन

राधिका मोहन

मनोरमा जफ़ा

प्रकाशक : डॉल्फिन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7496
आईएसबीएन :978-81-88588-26

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एक आधुनिक उपन्यास...

Radhika Mohan - A Hindi Book - by Manoram Zafa

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

असमंजस में पड़े राधिका मोहन की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें ? एक तरफ प्रेमिका अलबा थी, तो दूसरी तरफ उनकी पत्नी सविता। कुछ भी समझ में नहीं आया तो दोनों की तुलना करने लगे :
‘अलबा तन से तो परी है और सविता...उँह–उँह...कोई तुलना ! अब रही खाने-पीने की...अलबा तो साथ में बैठकर बीयर पी लेती है। एक सविता जी हैं कि उनके मिजाज ही नहीं मिलते। यह व्रत, वह व्रत, और आज शाकाहारी खाने का दिन है वग़ैरह-वग़ैरह...और अपने करोड़ों देवी-देवताओं ! बस, ज़िंदगी-भर उनके पीछे भागते रहो। पागलपन ही है। रही अलबा, उसको किसी चीज़ से कोई भी परहेज़ नहीं है। हमारी ये घरेलू लड़कियाँ पति को परमेश्वर मानकर लग गईं पति के पीछे पूँछ की तरह। बस, उन्हें बेमतलब की बातों पर रोना आता है। अगर कोई लिपट जाए, चुंबन दे दे तो क्या उसे धक्का दे दें ? और इनके पास जाओ तो कहेंगी, ‘क्या करते हो ?’ यह भी कोई बात हुई ! आख़िर मैं ठहरा मर्द। भगवान ने अपने हाथों से हमें रचा है। देखो ज़रा कृष्ण भगवान् को। जिस गोपी को चाहते थे, उसी के साथ हो लेते थे। वाह, क्या लाइफ़ थी उनकी ! राधा-वाधा उन्हीं के पीछे भागीं और उनकी ब्याहता रुक्मिणी ने कृष्ण से कभी कोई प्रश्न नहीं किया। काश ! मैं भी कृष्ण सरीखा होता। तो क्या हूँ नहीं ? राधिका मोहन ने अपनी शक्ल फिर शीशे में देखी। चेहरे पर मक्खी मूँछ थी। उन्होंने दोनों हाथों से दो बाल पकड़कर गर्व से ऐंठ लिए, ‘आख़िर हूँ तो मर्द ही। सारे धर्मों का रचयिता और सारे कर्मों का रचयिता। मनु की संतान।’

राधिका मोहन


राधिका मोहन मौडवल कमरे में से मुँह देखने का बड़ा-सा शीशा और छोटी कैंची लेकर आँगन में एक कुर्सी खिसकाकर धूप की तरफ मुँह करके बैठ गए। उन्होंने आवाज़ लगाई, ‘‘मुनिया, बिटिया, अरे बिल्लो रानी!’’
कोई आवाज नहीं आई।
‘‘गुड़िया रानी,’’ राधिका मोहन ने बड़े प्यार से फिर से आवाज़ दी, ‘‘दो मिनट को रानी बिटिया, यहाँ आ जाओ।’’
‘‘क्या बात है काकू ?’’ आठ बरस की राधिका मोहन की भतीजी सलोनी अपने चाचा राधिका मोहन के पास आ गई।
‘‘बिल्लो रानी ! शीशा तो पकड़ियो ज़रा।’’

‘‘मुँछें ठीक करिएगा काकू ?’’ सलोनी मुँह टेढ़ा करके मुस्कराई।
‘‘तु तो फट से समझ जाती है। दिमाग़ की तेज़ है न ?’’
सलोनी काकू की बात सुनकर बड़ी प्रसन्न हुई। उसने दोनों हाथों से शीशा पकड़ा। राधिका मोहन ने ऊपर का ओठ दाँतों से दबाया और शीशे पर नज़र गड़ाई। फिर कैंची से मुँछ का दाहिनी तरफ़ का कोना काट दिया।

‘‘अरे काकू, इधर की मूँछ तिरछी हो गई। बाईं तरफ़ की छोटी हो गई, दाहिनी तरफ़ की बड़ी,’’ और सलोनी हँस दी।
राधिका मोहन अभी भी ऊपर का ओठ दाँतों के बीच दबाए थे। सलोनी खिलखिलाकर हँसी, शीशा टेढ़ा हो गया।
‘‘काकू ! काकू !’’ सलोनी ने ठहाका लगाया। शीशा ज़मीन पर गिर गया और चटक गया।
 
राधिका मोहन को सलोनी पर गुस्सा आया। वह गुस्सा दबा गए और प्यार से बोले, ‘‘रानी बिटिया, ज़रा थाम तो लो शीशा, सिर्फ़ पाँच मिनट और।’’
सलोनी चटका शीशा पकड़कर राधिका मोहन के मुँह के ठीक सामने खड़ी हो गई–‘‘अब काकू, आप जल्दी मूँछें ठीक करिए, मुझे होमवर्क पूरा करना है।’’
‘‘बस, दो मिनट और खड़ी हो जा गुड़िया।’’

अब राधिका मोहन का मुँह चटके शीशे का सामने था और उन्हें अपने चेहरे दिखने लगे। शीशे में एक तरफ की मूँछ कभी बड़ी होकर दिखती तो कभी छोटी। बड़ा धर्मसंकट। उधर चंचल सलोनी कभी तिरछी होकर शीशा टेढ़ा कर देती। राधिका मोहन ताव खा गए, ‘‘अच्छा सलोनी, अब दो मिनट तक सीधी खड़ी रहिए।’’
‘‘खड़ी तो हूँ,’’ सलोनी शीशा पकड़कर पंजों के बल सीधी खड़ी हो गई।
‘‘इतना ऊँचा क्यों कर दिया शैतान ?’’

‘‘लीजिए, मैं बैठ जाती हूँ।’’
और वह ज़मीन पर उकड़ूँ बैठ गई। राधिका मोहन भी ज़मीन पर पालथी मारकर बैठ गए। लाख कोशिश करने पर भी दोनों तरफ मुँछ के कोने बराबर नहीं हुए। राधिका मोहन परेशान हो गए। उनकी बड़ी-सी तितली मुँछें अब मक्खी मुँछ हो गई। काकू की मक्खी मूँछ देखकर सलोनी ने शीशा एक तरफ़ रख दिया और पेट पकड़कर हँसने लगी। राधिका मोहन ने शीशा उठा लिया और अपना मुँह देखकर झल्ला गए। दौड़कर अंदर से छोटा उस्तरा उठा लाए।

‘‘पकड़ तो सलोनी शीशा।’’
सलोनी ने शीशा पकड़ लिया। राधिका मोहन मौडवल ने नाक के नीचे की मक्खी मूँछ धीरे-धीरे फिर तराशनी शुरू कर दी। टूटे शीशे में मुँछ ठीक नहीं बैठ रही थी। आख़िर में उन्होंने उस्तरे से एक बार में ही अपनी मक्खी मूँछ भी साफ़ कर दी। मूँछ के बिना अपना चेहरा देखकर पहले तो राधिका मोहन खिसियाए, पर जैसे ही उनकी भतीजी सलोनी ने कहा, ‘‘काकू, आप तो बड़े हैंडसम लगने लगे।’’ सुनकर राधिका मोहन मन ही मन ख़ुश हो हुए। उन्होने शीशा उठा लिया और अपना चेहरा देखा। ‘सलोनी ठीक ही तो कह रही है।’’ सोचकर उनको नई दृष्टि मिल गई। गुलाबी गोरा चेहरा, तराशी हुई नाक, ऊँचा माथा, काले बाल ! और राधिका मोहन अपने आप पर रीझ गए।

‘‘हूँ न मैं गुड़िया सलोनी हैंडसम ?’’
‘‘हाँ काकू’’ सलोनी ने उछलकर कहा।
‘‘फेंक दे टूटे शीशे को।’’ राधिका मोहन ने सलोनी से शीशा झपट लिया और निशाना लगाकर उसे दूर रखी कूड़े की बाल्टी में ऐसा फेंका कि वह बाल्टी के अंदर की जगह बाल्टी में टन्न से जा लगा। बाल्टी उलट गई। कूड़ा बिखर गया।

टन्न की आवाज सुनकर उनकी माँ, पापा और भाभी, सलोनी की माँ, भाई साहब सब लोग आँगन में आ गए। ‘क्या हुआ ? क्या हुआ ?’ का शोर मचने लगा पर जब सबकी नज़र राधिका मोहन के चेहरे पर पड़ी, तो सलोनी की माँ, भाभी जी मुँह पर हाथ रख हँसकर बोली, ‘‘अरे राधिका भैया, मूँछ कहाँ गई ?’’ उधर उसके पापा ज़रा पुराने ख़यालों वाले, राधिका मोहन का बिना मूँछ का चेहरा देखकर तन्ना गए, ‘‘भाईजान ! अभी तो हम जिंदा हैं।’’

सुनकर राधिका मोहन की माँ बिफर गईं, ‘‘अजी, क्या कहते हो यह ? मूँछ–दाढ़ी आदमी का चेहरा बिगाड़ देती हैं। देखो तो ठीक से, अपना राधिका सचमुच मोहन लग रहा है।’’
माँ की बात सुनते ही राधिका मोहन का चेहरा खिल गया। उधर सलोनी एक बार और उछलकर बोली, ‘‘बाबाजी ! देखिए तो कितने हैंडसम लग रहे हैं काकू।’’
अब तो सभी लोग राधिका मोहन का गुणगान करने लगे और राधिका मोहन भी मानो जग जीत गए।

राधिका मोहन के पिता सीता मोहन मौडवल शहर के नामी वकीलों में थे। उनके दो लड़के और एक लड़की थी। लड़की की शादी हो गई थी। अपने घर में सुखी थी। अभी पिछले हफ़्ते राधिका मोहन का आई.ए.ए.एस. का रिज़ल्ट निकला था इसीलिए वह शिमला जाने की तैयारी कर रहे थे। घर में बड़ी ख़ुशहाली थी। राधिका मोहन के बड़े भाई हरि मोहन भी शहर के अच्छे वकील थे और अपने पिता सीता मोहन मौडवल की ही तरह वकालत कर रहे थे। शहर में पिता और पुत्र की वकालत अच्छी चलती थी। हरि मोहन की पत्नी माधवी मौडवल स्थानीय कन्या इंटर कॉलेज में भूगोल की लेक्चरर थी। मौडवल परिवार में सभी पढ़े-लिखे थे और सभी को गाने-बजाने का भी शौक़ था। शहर में गाने की गोष्ठी एवं कवि सम्मेलन में परिवार के सभी लोग जाते थे।

राधिका मोहन मौडवल के अच्छी सरकारी नौकरी में आ जाने से सभी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था। राधिका मोहन को दिमाग तो मिला ही था, साथ ही वे ख़ूबसूरत, लंबे-चौड़े और उससे भी अधिक एक दिलफेंक नौजवान थे। राधिका मोहन की माँ शीला मौडवल एक आदर्श महिला थीं। खुले दिमाग की होने पर भी वे परंपरा की सभी मान्यताओं को मानती थीं।
सास और बहू में अच्छी बनती थी। माधवी मौडवल के दो बच्चे थे। सलोनी उनकी बड़ी लड़की और उससे छोटा चार साल का लड़का पुनीत था। राधिका मोहन अपने भतीजे एवं भतीजी को बहुत चाहते थे और दोनों बच्चे भी अपने काकू के सिरचढ़े थे।

जब से राधिका मोहन सर्विस में आए, तब से उनकी शादी के पैग़ाम पर पैग़ाम आने लगे। नौकरी में आते ही लड़कों की जैसे बोली लग जाती है। लड़की वाले लड़के व लड़के के बाप को लाखों का लालच देना शुरू कर देते हैं। वकीलों का परिवार था। सीता मोहन ने अपनी बेटी सुप्रिया की शादी पास के शहर के नामी वकील के लड़के से की थी। सुप्रिया ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. किया था। राधिका मोहन ने अंग्रेज़ी में एम.ए. किया था और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हॉस्टल में ही रहकर आई.ए.ए.एस. की तैयारी की थी। मेहनत सफल हुई, जब राधिका मोहन का नाम अख़बार में निकल आया। नाम निकलते ही घर में पूजा-पाठ, हवन आदि सब कुछ करा लिया गया। इधर शहर में क्या, दूर-दूर के रिश्तेदारों में राधिका मोहन के बढ़िया सरकारी नौकरी में आ जाने की ख़बर फैल गई। रात में खाने के समय पैग़ामों की बात चलती तो परिवार के सभी लोग अपने-अपने मत देना शुरू कर देते। इस तरह की समस्या का समाधान करना सभी को मुश्किल लगने लगा। अच्छी लड़की होनी चाहिए। राधिका मोहन की ही तरह सुंदर, गोरी होनी चाहिए, पढ़ी-लिखी होनी चाहिए, सर्वगुणसंपन्न होनी चाहिए आदि, आदि। बड़ी बहसें चलतीं, बड़ी बाते होतीं।

सुबह राधिका मोहन गुसलख़ाने के बड़े शीशे में जब अपना चेहरा देखते तो अपने ही ऊपर रीझ जाते। मन ही मन अपना भाव भी बढ़ाते जाते। उनकी तौल में किसी भी लड़की का पैग़ाम खरा नहीं उतरता। पर साथ ही साथ अपनी शादी की बातचीत में उनको सबसे अधिक रुचि भी थी। अच्छी सरकारी नौकरी मिल गई थी। अब दुनिया से ऊपर उनकी पत्नी भी तो होनी चाहिए।

लखनऊ के नामी वकील करोड़पति रघुपति सहाय की अकेली लड़की सविता वर्मा की शादी का पैग़ाम भी आया। पैग़ाम आते ही पूरे घर में खलबली मच गई। सीता मोहन मौडवल जब ख़त लेकर घर में घुसे, उस समय उनकी पत्नी शीला कमीज़ में बटन टाँक रही थीं। उन्होंने शादी के पैग़ाम की चिट्ठी सामने कर दी। शीला मौडवल ने अधटँके बटन की कमीज़ एक तरफ़ खिसका दी और आँखें फाड़-फाड़कर एक बार, दो बार, तीन बार पत्र पढ़ा। वह उठ खड़ी हुई–‘‘भई, ऐसे घर में रिश्ता आया है, कितनी बड़ी बात है। राधिका, राधिका बेटा, ज़रा यहाँ तो आना।’’

राधिका मोहन ऊपर के कमरे में आदमकद शीशे के सामने खड़े होकर ट्रेनिंग में जाने की तैयारी कर रहे थे। माँ की आवाज़ सुनकर छज्जे पर आकर पूछा, ‘‘क्या है मम्मी ?’’
‘‘जल्दी से नीचे तो आना बेटा !’’
राधिका मोहन कमरे की कुंडी बिना चढ़ाए दो-दो सीढ़ियाँ फाँदकर माँ के पास खडे हो गए। शीला ने शादी के पैग़ाम की चिट्ठी राधिका मोहन को पकड़ा दी। चिट्ठी पढ़कर राधिका मोहन की आँखें फटी रह गईं। मन उछालें लेने लगा और फ़ौरन कह दिया, ‘‘हाँ कर दें।’’

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