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यादें

सूर्यनारायण व्यास

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :354
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 748
आईएसबीएन :81-263-1058-8

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प्रस्तुत संस्मरण में सूर्यनारायण व्यास के जीवन पर आधारित...

Yaadein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रख्यात ज्योतिर्विद् हिन्दी के यशस्वी लेखक एवं प्रतिष्ठित पत्रकार पण्डित सूर्यनारायण व्यास अपने जीवन-काल में देश की जिन महान विभूतियों के सम्पर्क में आये, वैचारिक आदान-प्रदान हुआ-वह सब यादें में उनके संस्मरणात्मक लेखों के रूप में संगृहीत है व्यासजी की सशक्त कलम से समय-समय पर निःसृत इन संस्मरणों का ऐतिहासिक महत्व है और ये युग की धरोहर हैं। इन संस्मरणों की शैली कुछ ऐसी है कि हम कभी-कभी ठहाका लगा बैठते हैं तो कभी अनायास आँखों को नम होने से रोक नहीं पाते। पण्डित सूर्यनारायण व्यास के आत्मज राजशेखर व्यास के कुशल सम्पादन में हिन्दी साहित्य-जगत को समर्पित है-यादें।

सूर्य-स्मरण

‘‘सकल गर्व दूर करी दीवो,
तोमार गर्व छोडिबे ना।
सबारे डाकिया कहिबे जे दिन, पावे तव पद रेणु-कणा।।’’

रवीन्द्रनाथ टैगोर

‘‘मैं अपना और सब गर्व छोड़ दूँगा, मगर जो गर्व मुझे तुम्हारे लिए है वह तो नहीं छोड़ पाऊँगा। इतना ही नहीं जिस दिन मुझे तुम्हारे चरण-रज-कण की सौंवीं धूलि भी मिल जाएगी, उसे अपने मस्तक पर धारण कर सारी दुनिया को अपनी सर्वोच्च उपलब्धि के बारे में बताऊँगा।’’ ‘कड़छूल से सागर नापने का प्रयास’ या ‘सूर्य को दीपक दिखाना’ उपमाएँ भले ही पुरानी पड़ गयी हों मगर फिर भी नयी हो जाती हैं-अगर जिस पर बात की जा रही हो, वह व्यक्ति सचमुच सूर्य हो। पं. सूर्यनारायण व्यास के बारे में बात करने या लिखने का मन हो तो मन सोचने लगता है कि उनके कौन-से आयाम पर बात करें या लिखें? इतिहासकार पं. सूर्यनारायण व्यास, पुरातत्त्ववेत्ता पण्डितजी, क्रान्तिकारी सूर्यनारायण व्यास, विक्रम पत्र के सम्पादक पं. व्यास, संस्मरण लेखक, निबन्धकार, व्यंग्यकार, कवि पं. व्यास, विक्रम विश्वविद्यालय, विक्रम कीर्ति मन्दिर, सिन्धिया शोध प्रतिष्ठान और कालिदास अकादमी के संस्थापक पण्डित व्यास, अखिल भारतीय कालिदास समारोह के जनक पं. सूर्यनारायण व्यास, ज्योतिष एवं खगोल के अपने युग के सर्वोच्च न्यायालय एवं सूर्य, पद्मभूषण, साहित्य वाचस्पति पं. सूर्यनारायण व्यास, किस आयाम के बारे में बात करें या लिखें ? उज्जयिनी स्थित सिंहपुरी में एक तिमंजिला भवन जहाँ 2 मार्च 1902 को प्रातःस्मरणीय महामहोपाध्याय, पण्डित नारायणजी व्यास के घर में पण्डित सूर्यनारायण व्यास का जन्म हुआ था। पण्डित नारायणजी व्यास, महर्षि सान्दिपनी की परम्परा के वाहक थे। खगोल और ज्योतिष के अपने समय के इस असाधारण व्यक्तित्व का सम्मान लोकमान्य तिलक एवं पं. मदनमोहन मालवीय भी करते थे। पं. नारायणजी महाराज के देश और विदेश में लगभग सात हज़ार से अधिक शिष्य फैले हुए थे जिन्हें वे वस्त्र, भोजन और आवास देकर निःशुल्क विद्या अध्ययन करवाते थे। अनेक इतिहासकारों ने यह भी खोज निकाला है कि पं. व्यास के उस गुरुकुल में स्वतन्त्रता संग्राम के अनेक क्रान्तिकारी वेश बदलकर रहते थे।

स्वाभाविक था कि युवा पं. सूर्यनारायण व्यास पर भी सशस्त्र क्रान्ति का प्रभाव पड़े। बाद के दिनों में श्री राजेन्द्र माथुर (अब स्वर्गीय) एवं श्री विष्णुकान्त शास्त्री ने चर्चा में एवं पत्रों में यह लिखा है, ‘‘जब हम छोटे थे तो ‘विक्रम’ के सोलह पृष्ठ के सम्पादकीय ‘व्यास उवाच’ एवं ‘बिन्दु-बिन्दु विचार’ पढ़ते थे और विस्मय यह होता था कि उज्जैन में रहनेवाला एक व्यक्ति अरब, ईरान, इराक, मलेशिया, रोडेशिया, साइप्रस, तुर्की पर भी लिखता है, बोल्शेविक क्रान्ति पर भी लिखता है। रास्पुटिन एवं बोल्शेविज़्म पर वे ‘विक्रम’ में लेखमाला चला रहे थे।’’ शायद वह पूरा-का-पूरा दौर, पूरी-की-पूरी पीढ़ी क्रान्तिकारियों की थी।
पं. सूर्यनारायण व्यास अठारह बरस के रहे होंगे, उनकी प्रतिनिधि रचनाओं के सम्पादक प्रभाकर श्रोत्रिय को भी यह जानकारी शायद नयी लगे, मुझे भी विस्मयजनक लगी-माधव महाविद्यालय की पत्रिका में उनकी आरम्भिक रचना ‘शारदोत्सव’ 1916 में मराठी में छपी थी, किन्तु उससे पूर्व मुझे उर्दू के एक शायर ने पं. व्यास के ‘शम्स उज्जयिनी’ के नाम से लिखी उर्दू रचनाएँ भी दीं-यानि उनके लेखन का काल 1914 तक जाएगा। मैं नहीं जानता कि वे कब से लिख रहे होंगे, 1918 से तो प्रामाणिक रुप से उनके अनेक लेख तमाम पत्र-पत्रिकाओं में देखने को मिलते हैं।
सिद्धनाथ माधव आगरकर का साहचर्य उन्हें किशोरावस्था में ही मिल गया था, लोकमान्य तिलक की जीवनी का अनुवाद उन्होंने आगरकरजी के साथ किया। सिद्धनाथ माधव आगरकर को बहुत लोग अब भूल गये हैं ! ‘स्वराज्य’ सम्पादक, (‘कर्मवीर’ के पहले सम्पादक भी आगरकर जी ही थे जिसे माखनलाल चतुर्वेदी ने बाद में सँभाला) का पण्डितजी को अन्तरंग साहचर्य मिला और शायद इसी वजह से वे पत्रकारिता की ओर प्रवत्त हुए।
तिलक की जीवनी का अनुवाद करते-करते वे क्रान्तिकारी बने, वीर सावरकर का साहित्य पढ़ा-सावरकर की कृति अण्डमान की गूँज (Echo from Andaman) ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। प्रणवीर पुस्तकमाला की अनेक ज़ब्तशुदा पुस्तकें वे नौजवानों में गुप्त रुप से वितरित किया करते थे। वर्ष 1920-21 के काल से तो उनकी अनेक क्रान्तिकारी रचनाएँ प्राप्त होती हैं जो-मालव मयूर, वाणी, सुधा, आज, (बनारस) सरस्वती, चाँद, माधुरी, अभ्युदय और स्वराज्य तथा कर्मवीर में बिखरी पड़ी हैं। वे अनेक ‘छद्म’ नामों से लिखते थे मसलन-खग, एक मध्य भारतीय, मालव-सुत, डॉ. चक्रधर शरण, डॉ. एकान्त बिहारी, व्यासाचार्य, सूर्य-चन्द्र, एक मध्य भारतीय आत्मा जैसे अनेक नामों से वे बराबर लिखते रहते थे। 1930 में अजमेर सत्याग्रह में पिकेटिंग करने पहुँचे, मालवा के जत्थों का नेतृत्व भी किया, सुभाष बाबू के आह्वान पर अजमेर में लॉर्ड मेयो का स्टैच्यू तोड़ा, और बाद के काल में वर्ष 1942 में ‘भारती-भवन’ से गुप्त रेडियो स्टेशन का संचालन भी किया जिसके कारण वर्ष 1946 में उन्हें इण्डियन डिफ़ेन्स ऐक्ट के तहत जेल-यातना का पुरस्कार भी मिला। आज़ादी के बाद पेंशन और पुरस्कार की सूची बनी तो उसमें उन्होंने तनिक भी रुचि नहीं ली।

सन् 1935-37 में उनकी पहली विदेश-यात्रा के विषय में अब बहुत कम लोग जानते हैं। यात्रा साहित्य के आरम्भिक लेखकों में आज लोग राहुल सांकृत्यायन, भगवत शरण उपाध्याय आदि का नाम लेते हैं लेकिन कम लोग जानते हैं कि पं. व्यास की यात्रा साहित्य की पहली कृति ‘सागर-प्रवास’ 1937 में बिहार के लहरिया सराय के आचार्य शिव पूजन सहाय ने प्रकाशित की थी। हिन्दी, मराठी और संस्कृत भाषा में प्रकाशित ‘सागर-प्रवास’ यात्रा साहित्य में मील का पत्थर है।
यूरोप यात्रा पर जाने से पूर्व महाकाल मन्दिर, भारती-भवन तथा सिंहपुरी में वे वर्ष 1928 से ‘कालिदास जयन्ती’ मना ही रहे थे, वे सारे संस्करण मिलते हैं, यूरोप में जगह-जगह पर उनसे पूछा जाता था-उज्जैन, मालवा, मध्य भारत या भारत में क्या कोई कालिदास का स्मारक है ? मन में शर्मिन्दगी आती थी। पण्डितजी के स्वाभिमान को गहरी पीड़ा और चोट लगी और भारत लौटकर उन्होंने ‘अखिल भारतीय कालिदास परिषद्’ का गठन कर कालिदास समारोह मनाना शुरु किया। लेकिन इधर प्रायः जब मैं कालिदास समारोह के बारे में अख़बारों में, पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता हूँ, पिछले 38 सालों से लगातार राजनेताओं एवं बुद्धिजीवियों के भाषण सुनता हुआ बड़ा हुआ हूँ-तब मुझे एक बात पर बराबर हैरत होती है कि आज तक किसी ने पं. सूर्यनारायण व्यास के उस ‘विजन’ को पकड़ने, द्रष्टा की उस दृष्टि को पकड़ने की कोशिश क्यों नहीं की, जिस पर मैं बराबर चिन्तन कर रहा हूँ, मुझे लगता है कि महर्षि अरविन्द, महर्षि रमण की तरह पं. व्यास भी अपने युग के बहुत बड़े दार्शनिक द्रष्टा थे-विचारक तो वे थे ही चूँकि वे ज्योतिष के भी विदग्ध विद्वान थे, उन्हें मालूम था कि देश तो आजाद होगा ही, आजादी के बाद भी हम मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं होंगे क्योंकि हमारे सारे राजनेता पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित थे, सबके सब राजनेता विदेशों से पढ़कर आये थे। सन् 1930 में पं. व्यास ने ‘आज’ में घोषणा कर दी थी कि 15 अगस्त 1947 को देश स्वतन्त्र होगा। देश की स्वतन्त्रता की अर्द्धरात्रि का मुहूर्त भी उन्हीं का निकाला हुआ था। सर स्टैफ़ोर्ड क्रिप्स ने ‘टाइम’ पत्रिका में एक लेख लिखा था ‘हू डज़ नॉट कन्सल्ट स्टार्स’। लेख में उन्होंने लिखा है कि देश की स्वतन्त्रा की अर्द्धरात्रि का मुहूर्त पं. व्यास से निकलवाया गया था। साथ ही यह लेख ‘हाउ ऐन इण्डियन ऐस्ट्रॉलॉजर सेव्ड द नेशन’ भी उपलब्ध है यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है-तब पं. व्यास को लगा होगा कि शेक्सपियर, शेक्सपियर कहते हुए इन राजनेताओं को बताना होगा कि भारत की अस्मिता में कालिदास नाम के एक कवि, एक महान नाटककार, एक महान चरित्र मौजूद है। वही हमारे आत्मगैरव के लिए काफ़ी है। और उन्होंने कालिदास के माध्यम से इस सोए हुए राष्ट्र को और उसके सोये हुए देवताओं को देवोत्थानी एकादशी के दिन जगाने का बड़ा कार्य किया। मुझे लगता है कि उस दृष्टि को समझने की अब फिर जरूरत है। जब हम स्वदेशी के बीच विदेशीकरण की ओर जा रहे हैं।
भारतीय रंगमंच की इस सांस्कृतिक आधारशिला को उन्होंने वर्ष अट्ठाईस से अखिल भारतीय कालिदास समारोह के रुप में जो उन्होंने उज्जयिनी में रखी थी वह आज कालिदास अकादमी के रुप में उनके सपनों का साकार ज्योतिबिम्ब है। राष्ट्रीय नाट्यविद्यालय और अपना उत्सव तथा भारत भवन से बहुत पहले की यह बात है।

सदियों से हमें पढ़ाया जाता रहा है कि हम मुग़लों के, अँग्रेज़ों के गुलाम रहे हैं-शोषित पीड़ित, पराभूत। अँग्रेज़ों द्वारा निर्धारित पाठ्य पुस्तक में पढ़ाया जाता रहा है कि हम 1857 की गदर में हारे, थके, लुटे-पिटे, चुके जुआरी हैं। पूरी-की-पूरी पीढ़ी आत्मविश्वास से हीन बनायी गयी। पं. व्यास ने इतिहास से एक पूर्ण चरित्र निकाला ‘विक्रम द्वि सहस्त्राब्दि’ के अवसर पर, ईसा पूर्व 57 में संवत् प्रवर्तक ‘विक्रम’ ! पराक्रम का यह चरित्र हमारे यहाँ मौजूद है जिसने ‘शक’ एवं ‘हूणों’ को परास्त किया। इस कायर और पराधीन राष्ट्र को जगाने के लिए, निज विक्रम के पराक्रम को आह्वान देने के लिए, पं. व्यास ने 1942 में ‘विक्रम’ मासिक का प्रकाशन आरम्भ किया। पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ जैसी क्रान्तिकारी हस्ती उनके साथ थी। उस युग के पत्रकार जो कि घर में ही रहकर एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लिखने का साहस करते थे। उग्र पं. व्यास के घर में रहकर उनके विचारों का विरोध भी करते थे। ‘उग्रजी’ सम्पादक, व्यासजी ‘संचालक’ क्या मित्रता रही होगी। लेकिन बड़ों की मित्रता और बड़ों की शत्रुता बड़े ही जानते हैं। उग्र की मित्रता और शत्रुता आज भी हिन्दी में लोग नहीं जान पाये हैं। कुछ अंशों में अपनी कृति ‘उग्र के सात रंग’ (1986) में मैंने इसे खोला है।
कथाकार विनोद शंकर व्यास ने पत्र में एक जगह लिखा है कि उग्र को साहित्य में बस दो व्यास ही समझे हैं-एक मैं और एक आप, मैं कह देता हूँ और आप चुप रहते हैं। चार-पाँच अंकों के सम्पादन के बाद सरकारी नोटिस के बाद ‘उग्र’ ने ‘विक्रम’ से नाता तोड़ लिया। वह एक स्वतन्त्र इतिहास है। बाद में संचालक व्यासजी सम्पादक बने। उन्हीं सम्पादक व्यासजी ने उज्जैन में ‘विक्रम’ के नाम पर एक विश्वविद्यालय की स्थापना का संकल्प धारण किया, विक्रम कीर्ति मन्दिर की स्थापना कर दी, विक्रम स्मृति ग्रन्थ का प्रकाशन हिन्दी, मराठी और अँग्रेज़ी में किया। एक विलक्षण ग्रन्थः जैसा महाभारत के बारे में कहा जाता है कि जो कुछ महाभारत में है वही भारत में है-और जो महाभारत में नहीं वो भारत में भी नहीं। मुझे लगता है उज्जयिनी, कालिदास, विक्रम के बारे में ऐसा अद्भुत विलक्षण ग्रन्थ मेरे जीवन में अभी तक देखने में नहीं आया। हिन्दी, मराठी और अँग्रेज़ी में पच्चीस सौ पृष्ठों पर बिखरा हुआ ऐसा अद्भुत काम, देश-विदेश के सभी चित्रकारों ने इसे सुसज्जित किया था।
पन्त, निराला, बच्चन, सुमन, प्रेमचन्द्र, प्रसाद या महापण्डित राहुल सभी बड़े लेखक हैं और मेरे मन में सबके प्रति असाधारण आदर है। लेकिन मेरा यह मानना है, कि लिख देना फिर भी आसान है लेकिन उसे अपने जीवन में ही चरितार्थ करदेना-उसे अपने जीवन में उतार लेना। सपने सँजो लेना, बड़ी बात नहीं-उसे अपने जीवन में साकार कर देना यह विलक्षण बात है। मैंने तो अपने जीवन में आज तक एक साहित्यकार ऐसा नहीं देखा, जिसने न केवल ‘विक्रम’ और कालिदास पर लिखा हो अपितु उसे अपने जीवनकाल में ही उसे स्मारक का रुप भी दे दिया हो। विक्रम विश्वविद्यालय, विक्रम कीर्ति मन्दिर, कालिदास अकादेमी, सिन्धिया शोध प्रतिष्ठान आज न सिर्फ उज्जयिनी में स्थापित हैं बल्कि उनके द्वारा आरम्भ किया हुआ अखिल भारतीय कालिदास समारोह अन्तर्राष्टीय स्तर पर स्थापित है। और यह सब कुछ इतनी विनम्रता से, इतनी सादगी से कि कहीं कोई नाम तक नहीं चाहा, कहीं अपने नाम का उल्लेख तक नहीं, असाधारण त्याग, तपस्या, और असाधारण साधना और अन्तःप्रेरणा से आत्मदानी पं. सूर्यनारायण व्यास जन्मते हैं। एक तरफ़ कवि कालिदास और विक्रम पर फ़िल्म भी बनवा देना, पृथ्वीराज कपूर को लेकर ‘विक्रमादित्य’ और भारतभूषण और निरुपाराय को लेकर रंगीन फीचर फ़िल्म ‘कवि कालिदासः’ दोनों ही चित्रपटों ने रजत जयन्ती मनायी, तो दूसरी तरफ़ भारत के पहले सोवियत रुस में कालिदास पर एक डाक टिकट निकलवा देना। हालाँकि बाद में भारत में भी कालिदास पर डाक टिकट जारी हुआ-किन्तु वह भी पं. व्यास के ही निजी एवं एकान्तिक प्रयासों से ही सम्भव हुआ।

आज ‘अँग्रेज़ी हटाओ’ की लड़ाई सारे देश में चर्चा में है, राजधानी ‘दिल्ली’ में भी अनेक ‘दुकानें’ खुल गयी हैं-मगर कितने लोग जानते हैं कि वर्ष 1958 में ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित पं. व्यास ने 1967 में ही अँग्रेज़ी को अनन्त काल तक जारी रखने के विधेयक के विरोध में अपना पद्मभूषण भी लौटा दिया था। जयप्रकाश और विनोबा भावे से वर्षों पूर्व डाकुओं के आत्मसमर्पण और पुनर्वास का विचार सर्वप्रथम उन्होंने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को दिया था और उन्हीं के सुझाव पर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने डाकू तहसीलदार सिंह (दस्युराज मानसिंह के पुत्र) की फाँसी माफ कर दी थी। राजेन्द्र बाबू के अनेक पत्र इसके प्रमाण हैं। पत्र साहित्य पर ही नज़र दौड़ाएँ तो बीस हज़ार से अधिक पत्रों का विशाल संग्रह, उनका पत्र-व्यवहार भी, बेहद नियमित और विस्तृत हुआ करता था। राष्ट्रपिता बापू से लेकर डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल, पं. नेहरु, के एम. मुंशी, मोरारजी भाई, जगजीवन राम, श्री प्रकाश जी, बाबू सम्पूर्णानन्द से लेकर साहित्यकारों में प्रेमचन्द, प्रसाद, पन्त, नवीन, दिनकर, यशपाल, उग्र, बच्चन, सुमन, राहुल, महादेवी वर्मा पूरी पीढ़ी के पत्र मिलेंगे। क्या ही असाधारण व्यक्तित्व रहा होगा सारे देश में चौतरफ़ा इतना पत्र-व्यवहार और वह भी नियमित। अखिल भारतीय कालिदास परिषद् और कालिदास समारोह के लिए भी उन्होंने नियमित पत्र-व्यवहार किया और डाक-ख़र्च भी परिषद् से नहीं स्वयं वहन किया।
पूर्व राष्ट्रपति (अब स्वर्गीय) डॉ. शंकरदयाल शर्मा के संयोग से मैं निकट संपर्क में रहा हूँ। उन्होंने एक बार मुझे एक महत्वपूर्ण बात बतायी, ‘‘पं. व्यास उज्जैन को मध्यप्रदेश की राजधानी बनाना चाहते थे। हमारी उनसे बड़ी लड़ाई हुई, बैर भी हुआ, हम जवाहर लाल जी के खेमे में थे और पण्डितजी राजेन्द्र बाबू के मित्र थे, जब व्यासजी को राजधानी नहीं मिली तो वे उज्जैन में विश्वविद्यालय ले आये। तब इन्दौर और भोपाल में भी विश्वविद्यालय नहीं था। मुझे लगता है कि पण्डितजी यह जानते थे मेरे नगर का नौजवान अगर पढ़-लिख लेगा तो वह अपने हक़ की लड़ाई तो खु़द ही लड़ लेगा।’’
इसलिए जब भी व्यासजी को देखा जाए तो उनके बोये हुए बीजों को, उनके सामर्थ्य को, उनकी प्रतिज्ञा को, उनकी त्याग-तपस्या को, उनके समर्पण को पूरे अर्थों में देखना चाहिए, उनकी समग्रता में देखा जाना चाहिए। वे एक विलक्षण व्यंग्यकार भी हैं तो पहले दर्जे के संस्मरण लेखक भी, व्यंग्य के सन्दर्भ में यहाँ यह लिखना समीचीन होगा कि यह उनका केन्द्रीय लेखन नहीं है। भारी-भरकम शोध से राहत पाने का जरिया है। फिर भी ज्ञानपीठ से शीघ्र प्रकाश्य उनका व्यंग्य संग्रह ‘वसीयत नामा’ देखकर अनेक लोगों को हैरानी होगी कि वे अनेक नामों से लिखते थे। व्यंग्य पर उनकी आरम्भिक कृति ‘तू, तू, मैं, मैं’ वर्ष 1935 में पुस्तक भवन, बनारस से प्रकाशित हुई थी। बाद के काल में उन्होंने ‘रंग चकल्लस’, ‘शंकर’स वीकली’, ‘ठिठोली’, ‘हजामत’, ‘व्यंग्य-ओ-व्यंग्य’ और ‘विक्रम’ के पूरे-के-पूरे होली विशेषांक स्वयं लिखे हैं।

 उज्जयिनी में अभी तक जारी, प्रति वर्ष होने वाले ‘टेपा सम्मेलन’ के भी वे उन्नायक थे। उन्हें छोड़ शायद ही कोई ऐसा व्यंग्यकार हो जिसने अपनी मृत्यु पर भी व्यंग्य लिखा हो ‘आँखों देखी अपनी मौत’ यह लेख 22 जून 1965 को पहली बार प्रकाशित हुआ, और हैरानी की बात है कि 22 जून को ही ग्यारह वर्ष बाद उनका स्वर्गवास हुआ और तब लेख में लिखा व्यंग्य अक्षर-अक्षर सत्य हो गया। एक व्यंग्य लेख उन्होंने ‘मूर्ति का मसला’ लिखा मानो उन्हें ज्ञात था कि उनके जाने के बाद उनकी प्रतिमा को लेकर उज्जयिनी में वाद-विवाद होंगे। इतिहासकार होने की वजह से उनकी ऐतिहासिक दृष्टि, और भविष्यद्रष्टा होने के कारण उनकी भविष्यदृष्टि भी उनके व्यंग्य लेखों में दिखाई देती है जैसे-‘मंगल ग्रह की सस्ती बस्ती’, ‘चीन की दीवार गिरनेवाली है’, ‘यदि भारत पाक एक हो जाएँ’, ‘चीनी चूहों की घुसपैठ’, ये सभी उनके कुछ व्यंग्यलेखों के शीर्षक हैं। अद्भुत भविष्य दृष्टि और उनके भविष्य दर्शन की तो क्या बात की जाए- भारत की आजा़दी का मुहूर्त उन्होंने निकाला-1924 में। ‘आज’ बनारस में प्रकाशित 8 लेख, जिसमें उन्होंने लिखा-‘गाँधी मरेंगे नहीं, मारे जाएँगे’ लेख के अन्त में वे लिखते हैं : ‘गाँधी की हत्या एक ब्राह्मण द्वारा होगी।’ 1930 में उनका एक लेख ‘टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’ में प्रकाशित हुआ, यही लेख ‘वीर अर्जुन’ में भी प्रकाशित है-‘भारत का भावी लेकिन-पं. नेहरू’ लेख में स्पष्ट लिखा है कि कैसे उनकी पत्नी का देहावसान होगा, कैसे वे विश्व इतिहास पर लिखेंगे, कब वे मेरी कहानी लिखेंगे और कैसे वर्ष 1947 से दस-बारह वर्ष भारत पर शासन करेंगे। प्रसिद्ध इतिहासकार जी. एस. करन्दीकर ने व्यासजी को ‘जीवित विश्वकोष’ कहा था। वर्ष 1941 में उन्होंने ‘कश्मीर के दुर्भाग्य की कथा’ लिख दी थी यह लेख सुरक्षित है। लालबहादुर शास्त्री ताशकन्द जा रहे थे-पं. व्यास ने हिन्दी ‘हिन्दुस्तान’ में एक लेख लिखा ‘शास्त्रीजी ताशकन्द से नहीं लौट पाएँगे’, पं. रतनलाल जोशी उस समय सम्पादक थे। वे भी मालवा के हैं। उन्होंने मुझे बताया, ‘‘मैं स्वयं भयभीत हो गया, प्रधानमन्त्री के बारे में ऐसी भविष्यवाणी कौन छाप सकता था ? मैंने शास्त्रीजी को सूचित अवश्य किया, वे हँसकर टाल गये।’’ जब वे नहीं लौटे-तब जोशीजी ने यह लेख अपनी सम्पादकीय टिप्पणी के साथ प्रकाशित किया। असंख्य प्रसंग हैं-स्वतन्त्रता पूर्व वे 114 ‘स्टेट्स’ के राज ज्योतिषी रहे और स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत का ऐसा कोई राजनेता नहीं है जो उनसे सलाह लेने उनके आवास ‘भारती-भवन’ नहीं गया हो।
हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं में उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे जिनका आज ऐतिहासिक महत्व है। ‘कालिदास’ और ‘विक्रम’ पर लिखा उनका साहित्य जग विख्यात है, फिर भी उनका बहुत-सा साहित्य अप्रकाशित या पत्र-पत्रिकाओं में बिखरा पड़ा है, अपने व्यस्ततम जीवन में जिसे वे पुस्तकाकार नहीं दे पाये। यूँ विगत वर्षों में मेरे संपादन में उनकी अनेक कृतियाँ आयीं। विषयकार विभाजन करके कालिदास विक्रम और ज्योतिष पर जो पर्याप्त चर्चित भी रहीं।

भारतीय ज्ञानपीठ से स्वर्गीय व्यासजी के सहज स्नेह से सभी सुपरिचित हैं। ज्ञानपीठ जैसे साहित्यिक, सांस्कृतिक संस्थान से ही यह उपयुक्त होता कि व्यासजी का दुर्लभ साहित्य उपयुक्त साज-सज्जा और ठाठ-बाट से प्रकासित हो। व्यासजी का पत्र-साहित्य, संस्मरण-साहित्य और व्यंग्य-साहित्य भी बेहद विस्तृत है। भारतीय ज्ञानपीठ के प्रयासों से पं. व्यास का संस्मरण साहित्य ‘यादें’ आपके हाथों में है। व्यासजी का सम्पर्क क्षेत्र भी बहुत विस्तृत था। महात्मा गाँधी, बाबू पुरुषोत्तमदास टण्डन, आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, डॉ. राधाकृष्णन, स्व. मदन मोहन मालवीय, पं. नेहरू, सरदार पटेल, डॉ. सम्पूर्णानन्द, जयप्रकाश नारायण, शरद चन्द्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री से लेकर जगजीवनराम, यशवन्तराव चौहान, मोरारजी भाई से लेकर साहित्यकारों में प्रसाद, प्रेमचन्द, उग्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, शिवपूजन सहाय, डॉ. सुमन, पन्त, निराला, बच्चन, दिनकर, महादेवी वर्मा, पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी, बनारसीदास चतुर्वेदी से लेकर मुक्तिबोध तक पाश्चात्य साहित्यकार से लेकर सन्त, राजनेता से लेकर राजा महाराजा, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, उद्योगपतियों में बिरला, मफतलाल से लेकर सन्त मुनियों में आचार्य तुलसी और सुशील कुमार तक, क्रान्तिकारियों में चन्द्रशेखर आजा़द से लेकर विजयसिहं पथिक तक, कलाकारों में पृथ्वीराज कपूर, भारत भूषण, प्रेमअदीब, प्रदीप, विजय भट्ट से लेकर पं. ओंकारनाथ ठाकुर और कुमार गन्धर्व (कुमार गन्धर्व का तो सबसे पहला गायन ही पं. व्यास की अध्यक्षता में हुआ था) तक उनका निजी एवं अन्तरंग सम्पर्क था। इन सभी व्यक्तियों पर समय-समय पर, कभी उनके अभिनन्दन ग्रन्थों में, कभी उनके जीवन काल में तो कभी किसी की स्मृति में तो किसी विशेष अवसरों पर लिखे पं. व्यास के ये मार्मिक संस्मरण उन महान मनुष्यों के जीवन के अनछुए पहलू, अन्तरंग प्रसंगों पर प्रकाश डालते हैं।
कभी हँसी के ठहाके तो कभी आँखों में आँसू लानेवाले ये संस्मरण युग की धरोहर हैं। चूँकि पं. व्यास ज्योतिष जगत् के भी मर्मज्ञ थे (दाई से कहाँ पेट छुपता है ?) अतः अनेक गोपनीय एवं अन्तरंग प्रसंग भी इन संस्मरणों की सम्पदा हैं। इन सारे संस्मरणों से गुज़रने पर एक बात बहुत साफ़ तौर पर दिखाई देती है, स्पष्ट होती है कि मनुष्य का सत्संग अपने जैसे लोगों के साथ ही होता है-सारे-के-सारे लोग जिन पर संस्मरण-लेख यहाँ उपलब्ध हैं, आत्मदानी, निरअभिमानी और घनघोर स्वाभिमानी थे। ऐसे ईमानदार राष्ट्रकर्मी अब कहाँ ?
मैं तो केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि वह दौर ही दूसरा था जब लोग घर को खा़ली करके समाज भरते थे। पं. सूर्यनारायण व्यास ने अपना घर ख़ाली कर समाज को भरा, आज लोग समाज को ख़ाली कर अपना घर भर रहे हैं। मुझे तो उनका सान्निध्य बहुत कम मिला, शायद चुम्बक में कोई एक स्पर्शीय शक्ति होती है जिसे लौह पर घिसने से लौह भी चुम्बक बन जाता है। मैं जो जंग लगा लोहा हूँ तो यही कहूँगा कि चन्दन की छाया में कुछ दिन रहने का सौभाग्य मिला था, दुनिया समझ रही है मुझको, मैं भी मलयानिल हूँ, चन्दन हूँ।
उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर, उन्हीं के कर-कमलों से निःसृत ‘यादें’ हिन्दी साहित्य संसार को समर्पित करते हुए सिवा इसके क्या कहूँ कि-
‘‘ये तुम्हारा नूर है जो पड़ रहा है मेरे चेहरे पर,
वर्ना कौन देखता मुझे अँधेरों में ?’’

दो देवदूत

भारतवर्ष में सदियों के पश्चात् हमारे समय में दो विशिष्ट विभूतियाँ उतपन्न हुईं और समान रूप से लोकादर प्राप्त कर सकीं। राष्ट्रपिता का ‘विरद्’ केवल महात्मा गाँधी को प्राप्त हुआ था, वे मन, वचन और कर्म से सत्यनिष्ठ, आदर्श एवं उदात्त-चरित महामानव थे। कलाकार और कर्मयोगी के रूप में हम जिन जवाहरलाल जी को आस्था के साथ स्मरण करते हैं, वे वस्तुतः गाँधीजी की ही देन थे। जहाँ कहीं भी वे गये, जनता उनके दर्शनों के लिए उमड़ पड़ती थी। गाँधीजी उतने व्यक्तित्व में आकर्षक नहीं थे, जितने नेहरूजी थे; किन्तु गाँधीजी की आकृति में चारों ओर एक तेजोवलय बन गया था, तपे हुए ताम्र की तरह उन पर अपूर्व आभा विद्यमान थी, उनकी आत्मा का दिव्य निर्मल आलोक उनके आनन पर देदीप्यमान रहता था। गाँधीजी यदि प्रजातन्त्र के राष्ट्रपिता थे तो जवाहरलाल जनता के लाड़ले राजकुमार ही थे। गाँधीजी और नेहरूजी पटु वक्ता नहीं थे, भाषण की कला में प्रवीण तो महामना मालवीयजी और राईट् ऑनरेबल श्रीनिवास शास्त्री माने जाते थे, किन्तु अलंकृत साहित्यिक भाषा के श्रोतागणों का वर्ग-विशेष ही इनकी वक्तृता सुनता था, पर गाँधीजी और नेहरूजी की भाषा हृदय की होती थी और सीधे हृदय का स्पर्श करती थी, इसलिए ‘वक्ता’ न होकर भी जन-मन को आकर्षित-प्रभावित करने में समर्थ-सफल बन जाते थे। गाँधीजी की भाषा निर्मल निर्झर की तरह, शिशुओं की तरह अटपटी किन्तु मनमोहक होती थी। जवाहरलालजी बहुधा भाषा में कविता बोलते थे और मौलिकता के कारण मन को मोहित कर लेते थे। दोनों में ही जनता को आकर्षित कर लेने की शक्ति विद्यमान थी। पण्डितजी प्रायः जनता को मीठी और सूखी फटकार भी बतला देते थे, पर जनता उनकी फटकार को दुलार अनुभव करती थी। गाँधीजी पण्डितजी की तरह फटकार तो नहीं देते थे, वे स्वयं अपनी आत्मा को अपराधी, बताकर प्रायश्चित करने पर उतर आते थे। उस समय उनकी मनोवेदना से मानव व्यथित हो उठता था, सारे देश में सन्नाटा-सा छा जाता था, जन-जन की आत्मा से उनका इस तरह आत्मैक्य हो गया था। यह सौभाग्य किसी अन्य त्यागी, तपस्वी या मेघावी नेता को नहीं मिल पाया था। गाँधी-नेहरू में पिता-पुत्र का वात्सल्य एवं सौहार्द था। प्रखरमति नेहरू का उग्र एवं जल्दबाज़ व्यक्तित्व गाँधी से मतभेद भी रखता था, विद्रोही भी बन जाता था; किन्तु इस विद्रोह में कभी पिता की वत्सलता से वंचित नहीं होते थे, और क्षण भर के विद्रोही नेहरू दूसरे क्षण ही राष्ट्रपिता की ममताओं के पात्रबन जाते थे। इसमें गाँधीजी का ही वैशिष्ट्य था। वे अपने लाड़ले को विद्रोह का खेल खेलने को मुक्त बना पुनः अपने प्रेमपाश में बाँध लेते थे और नेहरू का नत-मस्तक उनके अंचल में आवृत हो जाता था। एक बार दिल्ली में भरी-दोपहरी में हरिजन कॉलोनी में गाँधीजी के पास नेहरूजी तमतमाये चेहरे को लेकर पहुँचे, वे आवेश में कुछ कहना ही चाहते थे कि गाँधीजी ने उन्हें देखा, विकृतियों को परखा, शायद वे पूर्व भूमिका से सुपरिचित रहे हों। वे समझ गये और नेहरूजी की ओर देखकर ज़ोर से हँस दिये, इस अकृत्रिम-हँसी में कुछ ऐसा जादू था कि नेहरूजी भी खिलखिला पड़े। सारा आवेश काफ़ूर हो गया। फिर उतने ही सरल-स्निग्ध और बाल सुलभ, कोमल बन गये। नेहरूजी का आवेश सदैव क्षणिक होता था। कहा गया है कि उत्तम जन क्षणिक क्रोधी ही रहते हैं। अब उस ताप-तप्त दोपहरी में नेहरूजी को राष्ट्रपिता का आदेश शिरोधार्य कर एक गिलास-भर गर्म पानी नीबू और शहद मिला, गले से नीचे उतारना पड़ा, वे मना करने का साहस नहीं कर सके।

सर्वप्रथम महात्माजी के प्रत्यक्ष-दर्शन मैंने कानपुर काँग्रेस के समय किये। जवाहरलाल जी तब काँग्रेस के स्वयंसेवक दल के युवक प्रधान थे, भाग-दौड़ कर रहे थे। इन्तजाम में अविश्रान्त लगे हुए थे। उसी पण्डाल के बाहर स्व. अर्जुनलाल सेठी का तम्बू तना हुआ था, एक रोज चार-पाँच सौ व्यक्तियों को लेकर सेठजी ने काँग्रेस पण्डाल में प्रवेश करने के लिए हमला कर दिया। जवाहरलालजी और स्वयंसेवकों का दल रोकने के लिए दौड़ा। पर सेठजी का दल अन्दर घुस पड़ा। जवाहरलालजी रोक न पाये, चेहरा लाल सुर्ख हो गया था। साहसा मंच से गाँधीजी का परामर्श लेकर अकेले राजेन्द्र बाबू उस प्रवाह की ओर पहुँचे। अर्जुनलाल सेठी के कन्धे पर हाथ रखकर कान में कुछ कहा और देखते-ही देखते, शान्ति के साथ सेठी और उनका दल पण्डाल से बाहर हो गया। लोग देखते ही रह गये। वर्षों बाद सहसा राष्ट्रपति-भवन में एक रोज़ गप-शप के बीच मैंने बाबूजी (राजेन्द्र बाबू) से पूछा कि ‘वह क्या जादू था, जो सेठजी पर चल गया था ?’ तब बाबूजी ने सारी घटना सुनायी थी कि अर्जुनलालजी सेठी कैसे माने गये थे। सारी घटना अपना एक इतिहास रखती है।
मैं भी उन दिनों राजनीति के चक्कर में पड़ा हुआ था। कई बार बापू के साथ पत्र-व्यवहार करने, मिलने का अवसर भी आया है, पर बहुधा दूर ही रहता था। आस्था रखते हुए भी व्यक्तिगत रूप से उन महान पुरुष का महत्वपूर्ण समय लेना नहीं चाहता था। कानपुर, लाहौर, कलकत्ता और दल्ली में भी दर्शन किये हैं, लाहौर काँग्रेस में पण्डित नेहरू अध्यक्ष बनाये गये थे। उनका सफ़ेद-घोड़े पर निकला जुलूस देखा, अनारकली में एक ‘भल्ले-दि-हट्टी’ भवन था, उसके दूसरे मंजिल पर पं. मोतीलाल जी नेहरू, पण्डितजी की माता, पत्नी, बहनें और श्रीमती नायडू की पुत्री पद्मजा जी थीं, वहीं से जुलूस देख रहे थे, साथ में मृदुला साराभाई भी थीं। जब अनारकली जुलूस पहुँचा, लाखों व्यक्ति जय-जयकार कर रहे थे, सच्चे शब्दों में तिल रखने को वहाँ जगह नहीं थी और नेहरूजी पर लाख-लाख हाथ फूलों की बारिश कर रहे थे, और पण्डितजी पर फूलों की ऐसी मार पड़ रही थी कि वे आँख-मुँह उठाकर देख ही नहीं पा रहे थे। अद्भुत दृश्य था, पण्डितजी के माता-पिता गद्गद हो रहे थे, जब पण्डित मोतीलाल जी और उनकी वृद्धा माँ ने फूलों की वृष्टि अपने भाग्यशाली बेटे पर की, मैंने देखा कि माता-पिता की रुमाल और पल्ले से आँखें पोंछी जा रही थीं।
जब कार्यकारणी की मीटिंग काँग्रेस पण्डाल में चल रही थी, नेहरू रिपोर्ट पर चारों ओर से प्रहार हो रहे थे। मंच पर गाँधीजी बैठे थे, उनके पास सरदार, मोतीलाल जी, सुभाष बाबू, सरोजनी आदि प्रमुख लोग थे। गाँधीजी तकली चला रहे थे, कभी मोतीलाल जी और कभी सरदार से भी बातें होती रहती थीं। उस समय सत्यमूर्ति नेहरू रिपोर्ट पर बहुत तीव्र प्रहार कर रहे थे। अध्यक्षता मोतीलाल जी ही कर रहे थे। जब सत्यमूर्तिजी ने गाँधीजी को तकली चलाते तथा मोतीलाल जी से बातें करते देखा तो सत्यमूर्ति ने एक वाक्य-बाण उधर भी छोड़ दिया, ‘‘बापू मेरी कड़ी आलोचना अपने लाड़ले के ख़िलाफ नहीं सुन रहे हैं-बातों में लगे हुए हैं,’’ तब गाँधीजी ने सत्यमूर्ति की तरफ़ देख ज़ोर से ठहाका मार दिया। बस उस सहज ठहाके ने सत्यमूर्ति के सारे प्रहारों को ठण्डा कर दिया और फिर बापू अपनी बातों में मशगूल हो गये। सत्यमूर्ति का सारा भाषण समाप्त हुआ और जब उत्तर देने के लिए गाँधीजी प्रस्तुत हुए तब उनकी आँखों पर लगा चश्मा सिर (कपाल) पर चढ़ गया और सत्यमूर्ति के एक-एक तर्कों को चुन-चुनकर समेट लिया। दर्शक चकित और मुग्ध थे कि बापू बातों में व्यस्त रहकर भी सत्यमूर्ति के सारे प्रहारों को सावधान

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