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किशोरावस्था उलझाव-सुलझाव

नीरजा शर्मा

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7453
आईएसबीएन :9788123746365

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आयु के इस दौर में बच्चों के अपने पालकों से टकराव होते हैं, उनके सामने पहचान का संकट खड़ा दिखता है...

Kishoravastha Uljhav Suljhav - A Hindi Book - by Neerja Sharma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बालपन से युवावस्था में प्रवेश का समय बच्चों के साथ-साथ उनके अभिभावकों; शिक्षकों व शुभचिंतकों के लिए बेहद जटिल होता है। किशोरावस्था में बच्चे के शारीरिक व यौन बदलाव तो होते ही हैं, उनकी बुद्धिमत्ता, भावनाओं, नैतिकता में भी परिवर्तन आता है। यह पुस्तक ऐसे ही सभी व्यावहारिक विषयों को बेहद सहज और सरल तरीके से प्रस्तुत करती है। आयु के इस दौर में बच्चों के अपने पालकों से टकराव होते हैं, उनके सामने पहचान का संकट खड़ा दिखता है, वे भविष्य के प्रति चिंतित हो जाते हैं। इन सभी परिस्थितियों को यह पुस्तक उदाहरण सहित प्रस्तुत करती है। लेखिका ने ग्रामीण व शहरी परिवेश, विभिन्न आर्थिक-सामाजिक वर्ग की परिस्थितियों, सांस्कृतिक विविधता को ध्यान में रखकर किशोर मनोविज्ञान को उभारा है।

 

1
बचपन

 

एक मजेदार बात बताऊं ? जब हम बच्चे थे तो हम शीघ्र ही बड़े होना चाहते थे, ताकि हम भी अपने बड़े भाई-बहन, मौसा-मौसी अथवा माँ व पिताजी जैसे हो जाएं। हमें लगता था कि बड़ा होना बहुत मज़े की बात है। देखो ना, बड़ा भाई जब चाहे अपने मित्रों के साथ बाहर घूमने जा सकता है, देर रात तक घर से बाहर रह सकता है। बड़ी बहन के पास कितने सुंदर कपड़े व अन्य कई वस्तुएं हैं। यदि हम भी जल्दी बड़े हो जाएं तो हमें भी वो सब मिल सकता है जो छोटा होने के कारण नहीं मिल पाता। क्या आप भी अपने बचपन में ऐसा ही कुछ सोचते थे ?

वास्तव में सभी बच्चे इसी प्रकार से सोचते हैं। वह सोचते हैं कि बड़ों के पास विशेष अधिकार व सुविधाएं होती हैं। बड़ा होने पर वह अधिकार व सुविधाएं हमें भी मिल सकती हैं। इसलिए हम सब शीघ्र ही बड़ा होना चाहते हैं। पर अफसोस ! बड़ा होने पर ही हम जान पाते हैं कि बचपन जैसा मस्त जीवन न तो किशोरावस्था में है और न युवावस्था में, बुढ़ापे की तो बात ही छोड़ दो। तब हमें याद आने लगते हैं वो दिन, वो पल जब माँ हमें प्यार से बहला-बहला कर खाना खिलाती थी, जब हम सब भाई-बहन मजे से खेलते थे, जब हमें जन्म दिन पर ढेरों उपहार मिलते थे। पर यह तो मानना पड़ेगा कि यह सब बातें मध्यवर्गीय अथवा उच्च आयवर्गीय परिवारों में ही अधिक देखने को मिलती हैं। गरीबी में पले बच्चों में बचपन जैसी कोई बात ही नहीं होती। वहां तो परिवार के भरण-पोषण के लिए जितने भी हाथ हों उतने ही कम हैं। बस थोड़ा बड़ा होते ही बच्चे, बच्चे न रहकर बड़े हो जाते हैं और काम में, चाहे वह घर का हो अथवा बाहर का, बड़ों का हाथ बंटाना आरंभ कर देते हैं।

बड़ा होने के साथ-साथ हमारी झोली में आ जाते हैं ढेर सारे कर्तव्य व उत्तरदायित्व। सच्चाई तो यह है कि उम्र के साथ-साथ बढ़ती हैं चिंताएं, तनाव व तरह-तरह की उत्सुकताएं। इन चिंताओं का निस्तार करना बड़े होने का उतना ही एक हिस्सा है जितना कि किसी भाग्यशाली की तरह जेब में पर्स लेकर घूमना अथवा अपने छोटे भाई-बहनों पर रौब गांठना। बड़े भाई के पास जहां दोस्तों के साथ घूमने की आजादी है तो वहीं पर अच्छे अंकों से परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने का कठिन कार्य भी। इनमें किस प्रकार संतुलन बनाए रखना है, इसकी जिम्मेदारी भी उस पर है।


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