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आवरण

भैरप्पा

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :295
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7378
आईएसबीएन :9789380146775

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भैरप्पा का दूसरा ऐतिहासिक उपन्यास...

Aavaran - A Hindi Book - by Bhairappa

यह मेरा दूसरा ऐतिहासिक उपन्यास है। आठवीं शताब्दी के संधिकाल के अंतस्सत्त्व को ‘सार्थ’ में, उपन्यास के रूप में, आविष्कृत करने का और अब ‘सार्थ’ के समय के बाद के सत्य को ‘आवरण’ (उपन्यास) में चित्रित करने का मैंने प्रयास किया है। भारत के इतिहास के अत्यंत संकीर्ण इस अवधि के बारे में विपुल प्रमाण में सामग्री उपलब्ध होती है, लेकिन आवरण की शक्ति इस विपुलता के ऊपर विजृंभित हो रही है। ‘सार्थ’ की अवधि का इतिहास ज्यादातर आवरण-शक्ति के लिए आहुति बन नहीं पाया है। उनके बारे में निर्भीक रूप से सत्य को अंकित किया जा सकता है। लेकिन ‘आवरण’ की अवधि के इतिहास के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती है। प्रत्येक सोपान में आवरण की शक्ति को बेधते हुए आगे बढ़ने की अपरिहार्यता सामने आती है। इसीलिए इस उपन्यास के स्वरूप और तंत्रों को उसके अनुकूल समायोजित कर लेना पड़ा।

इस उपन्यास की ऐतिहासिकता के विषय में मेरा अपना कुछ भी नहीं है। प्रत्येक अंश या पग के लिए जो ऐतिहासिक आधार हैं उनको साहित्य की कलात्मकता जहाँ तक सँभाल पाती है वहाँ तक मैंने उपन्यास के अंदर ही शामिल कर लिया है। उपन्यास के तंत्र के विन्यास में यह अंश किस प्रकार प्रधान रूप में कार्यान्वित हुआ है, इसको सर्जनशील लेखक और दर्शनशील पाठक, दोनों पहचान सकते हैं। शेष आधारों को उपन्यास के अंदर के उपन्यास को रच डालने वाले चरित्र ने ही, अपनी क्रिया की आवश्यकता के रूप में, प्रस्तुत कर दिया है, न कि मैंने। इस पूरी वस्तु को जो अद्यतन रूप प्रदान किया है, उसमें ही मेरी मौलिकता है। इतिहास की सच्चाई में कला का भाव यदि धुआ है, तो वहाँ तक साहित्य के रूप में यह सफल हुआ है, ऐसा मैं मानता हूँ।

 

आवरण

तुंगभद्रा बाँध का सरकारी डाक-बँगला था। ऊपरी मंजिल के कमरे की खिड़की से रजिया बाहर देख रही थी। ठंडी हवा के झोंके से उसके बाल उड़ रहे थे। सवेरे से हंपे के खँडहरों में घूमने-फिरने से जो थकावट हुई थी, वह ठंडी हवा के स्पर्श से कम होती जा रही थी। ‘‘चाय लाने के लिए बोलू क्या ?’’ अमीर की यह बात उसके कानों में पड़ी ही नहीं। वह यह समझ नहीं पाया कि इसका कारण क्या है। सुविशाल जलाशय के ऊपर से अनवरत रूप से बहती आ रही हवा का झोंका है या उसका कोई अन्य मूड है ? वह तो थी मूडवाली औरत ही; रहती कहीं, तो मन विचरता रहता था कहीं और। उसकी यह आदत उसे मालूम थी। फिर जब कुछ न कुछ बोलने के मूड में खुद आ जाने पर, उसे उसकी हालत पर छोड़कर चुप रह जाना उसके लिए मुश्किल हो रहा था। हवा के झोंकों से ऊपर उठकर बल खाती हुई विशाल जलराशि को देखते हुए वह भी मूड में आ गया था। ‘‘शाम के धूप में तुम्हारे बाल चँवर के जैसे चमक रहे हैं; थोड़ा-सा डाई कर लेती तो और भी हसीन लगती।’’ आवाज में रोमानी भाव को झलकाते हुए उसने कहा। फिर भी वह इस तरफ मुड़ी नहीं, बोली भी नहीं। यह बात नए सिरे से उसी दिन कहीं गई बात तो नहीं थी। इससे पहले भी कई बार यह बात कही थी। एक बार तो उसने कह भी दिया था, ‘‘मैं काला रंग लगा लेने के लिए तैयार हूँ। मगर तुम्हें भी अपनी दाढ़ी को डाई करा लेना पड़ता है। ठीक है न ?’’ मौलाना जी की जैसी लंबी दाढ़ी होती तो डाई करा ले सकता था, मगर मेरी दाढ़ी तो मार्क्सवादियों या बुद्धिजीवियों की जैसी है। हफ्ते में एक बार उसे ट्रिम करा लेता हूँ। डाई कराया गया भाग कट जाता है। हर हफ्ते यदि डाई कराने लगू तो चमड़ा छिल जाता है। अलावा इसके सफेद बाल बुढ़ापे की पहचान भी तो नहीं है, मगर यह बात औरतों के लिए लागू नहीं होती है। लेकिन यह इस बात को मानती नहीं है। समानता की बात करती है। इन सारी बातों की याद आ जाने पर, वह चुप रह गया। चाय और बिस्कुट लाकर रखने वाले वेटर ने रात के खाने के बारे में जब पूछा, तब भी उसने अपनी फरमाइश बताई नहीं। जब कभी हम दोनों होटल जाया करते थे, वही खाने का ऑर्डर दिया करती थी। लेकिन अब उसने कहा, ‘‘जो कुछ तुम्हें पसंद हो, उसी का ऑर्डर दे दो।’’ यों कहकर चाय का प्याला लेकर, वह फिर खिड़की के नजदीक चली गई। अमीर ने कहा, ‘‘मिलता है तो चिकन-पुलाव ले आओ; नहीं तो बिरयानी ही सही।’’ वेटर ने जब कहा कि ‘‘वह आज मिलेगा नहीं, साहब। आज कोई और गेस्ट भी नहीं हैं। सिर्फ कुछ वेजेटेरियन बनाकर दे दूँगा। चपाती, आलू-भाजी, चावल, साँबार, दही दे दूँगा।’’ तो वह नाराज हो उठा। ‘‘यह क्या है, भैया ? सवेरे से लेकर सिर्फ वेजेटेरियन खाने पर ही जी रहा हूँ। एक बार भी नान-वेजेटेरियन खाना न मिले, तो हाथ-पैरों में ताकत भी आएगी कैसे ? क्या मैं यह शिकायत कर दूँ कि यहाँ खान-पान की व्यवस्था ठीक नहीं है। जानते हो कि हम सरकारी मेहमान हैं !’’–यों उसने फटकारा। फिर भी वह वेटर असहाय मुस्कान भरते खड़ा रहा। यह बात नहीं थी कि अमीर सरकारी डाक-बँगलों की हालत से नावाकिफ था। फिर भी, यदि इन पर रोब नहीं जमाएँगे तो और भी लापरवाही बरतेंगे, यों सोचकर, उसने ये बातें कहीं थीं, ‘‘ठीक है, जो कुछ भी है वही तैयार करो, मगर कल सवेरे के नाश्ते के लिए हमें आमलेट ही चाहिए।’’
‘‘ठीक है, साहब ! आमलेट ही बनाकर दूँगा। अभी किसी को होसपेटे भेजकर अंडे मँगाऊँगा।’’ इतना कहकर वह चला गया।

सवेरे से ही हंपे में घूमते-फिरते समय जो पसीना छूटा था, वह बदन से चिपक गया था। इसलिए सारा बदन असहनीय-सा लग रहा था। वह गुसलखाने में शावर के नीचे तब तक खड़ा रहा जब तक मन को तसल्ली नहीं मिली। साबुन मलकर, अपने को साफ करके चड्ढ़ी और गंजी बदलकर बाहर आया। फिर भी वह खिड़की से बाहर देखती बैठी थी। उसने धुले और इस्तिरी किए गए पैंट और स्लैक पहनकर, चप्पल धरकर, उससे यह कहकर बाहर निकला कि ‘‘मैं यहीं बाँध के ऊपर आधे घंटे तक घूमकर लौटूँगा।’’ बाँध के ऊपर ही ठंडी हवा बह रही थी। वह सारा प्रदेश भट्टा-सा लग रगा था। हंपे तो जहन्नुम-सा लग रहा था। और सारी जगहें छोड़कर यहीं क्यों राजधानी बनाई ? सुरक्षा की दृष्टि से क्या ? हक्क और हुक्क जैसे गड़रिये का निवास-स्थान था; इसीलिए इसी को राजधानी बना ली होगी–यों उसने अनुमान किया। यह सारी पृष्ठभूमि और विवरण रजिया प्रस्तुत करेगी। यह उसकी जिम्मेदारी है। यह समाधान मिला। यह क्योंकर इतनी मूडी बनी हुई हैं ? शाम से ! नहीं-नहीं, दोपहर से ! यह बात याद आई। कलाकार होते ही हैं मूड़ी ! मैं भी तो एक कलाकार हूँ ! मगर, मूड को इतनी अहमियत देकर, उसकी प्रतीक्षा में बैठे रहें तो काम कैसे बनेगा ? इसी मुद्दे पर हम दोनों दो-चार बार झगड़ा कर चुके हैं। सिनेमा-निर्माण जैसी कला में, मूड़ की प्रतीक्षा में यदि कोई इधर चुप्पी साधे बैठा रहेगा, और वहाँ सौ-सौ लोग बोंबड़ा मारते रहेंगे, तो रुपए बहाने वाले निर्माता को खुदकुशी कर लेने के सिवा और कोई चारा ही नहीं रहेगा। यह तो अच्छा हुआ इसकी भूमिका चित्रपट की कहानी रचने तक मात्र सीमित रही–स्क्रिप्ट और स्क्रीन-प्ले तक ही। शूटिंग के समय इसकी भूमिका बहुत कम हुआ करती थी। फिर भी ठीक समय पर कभी उसने कोई स्क्रिप्ट नहीं दी थी। इस बात की याद हो आने पर, अमीर को नाराजगी आ गई। अबकी बार भी ऐसा ही करेगी क्या ? केंद्र सरकार के हेरिटेज विभाग ने देश के सारे हेरिटेज स्थलों के बारे में चलचित्र बनाकर, उनका प्रचार करवाने की जो योजना बनाई, उसमें हंपे से संबंधित चलचित्र तैयार करने का जिम्मा मुझे सौंपा है। वास्तविक अंशों को अर्थात् देखने बालों के मन में उभर आने वाली मुसलिम विरोधी भावनाओं को मिटा डालने वाले तरीके से वहाँ के भग्नावशेषों को चित्रित कर लेना चाहिए, यह सरकार का अलिखित आदेश या उद्देश्य था। इस बात को याद कर लेते समय सरकार के निर्धार की पृष्ठभूमि भी याद हो आई। फिलहाल देश में हिंद मूलभूतवाद को भड़काया जा रहा है; उसे समर्थन मिल रहा है। यदि देश के बहुसंख्यक लोग मूलभूतवादी बन जाएँगे, तो देश की एकता बनी रहेगी कैसे ? इस मूलभूतवादी मनोधर्म के परिणामस्वरूप जो घटना घटी, वह अब एक महीने पुरानी हुई है न ? एक महीना और आठ दिन ! वह ऐसी घटना थी जिसने राष्ट्र के हृदय को झकझोर दिया; अल्पसंख्यकों के मन में सुरक्षा की जो भावना बनी हुई थी, उसको एकदम हिला दिया; अल्पसंख्यकों के मन में सुरक्षा की जो भावना बनी हुई थी, उसको एकदम हिला दिया; अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत के गौरव को मिट्टी में मिला दिया। मैंने तो अयोध्या जाकर देखा नहीं। सुना कि वहाँ किसी को नहीं जाने दिया जा रहा है; प्रतिबंध लगा दिया गया है। पुलिस के कर्मचारियों का पहरा बैठा दिया गया है। एक महीना और आठ दिन ! अल्पसंख्यकों के लिए पवित्र माने जाने वाले उस प्रार्थना-स्थल-बाबरी मसजिद–को गिराए इतने दिन बीत चले हैं। वहाँ पुलिस का पहरा लगाना ही काफी नहीं होगा। देश की सारी जनता के मन में सहिष्णुता की भावना को दृढ़तर बनाए रखने वाले बुनियादी कार्यक्रमों को सरकार आयोजित कर रही है, ऐसा कहा जा रहा है। इसमें राज करने वाले पक्ष के लोग, धर्म-निरपेक्ष पक्ष के लोग, वाम-पंथ के लोग सभी शामिल हैं। शिक्षा के द्वारा, संचार माध्यमों के द्वारा अल्पसंख्यकों को बृहत-अनुपात में प्रतिनिधित्व हासिल करवाने के द्वारा अल्पसंख्यकों की किसी प्रकार की आलोचना करने वालों को बिना किसी प्रकार की देरी के, कुचल डालने के द्वारा सरकार यह काम साधना चाहती है। इस वृत्तचित्र के निर्माण एवं निर्देशन का जो जिम्मा मुझे सौंपा गया, उसका कारण क्या यह था कि मैं एक अल्पसंख्यक था या प्रतिभाशाली था ?–यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ। उनके इस विचार का आधार कुछ भी क्यों न रहा हो, मैं एक प्रतिभावान निदेशक ही था; नहीं तो यह काम मुझे सौंपते नहीं और मैं यह जिम्मा स्वीकार भी नहीं करता–यों मैंने अपने आप को समझा लिया। उन्होंने यह भी आश्वासन या संकेत दिया था कि यदि मैं इसको ठीक तरह से और निर्धारित समय के अंदर पूरा करके दे दूँ तो और भी वृत्तचित्रों का काम मुझे सौंप दिया जा सकता है। इनमें से प्रत्येक योजना ऐसी है कि उससे लाखों का फायदा हो सकता है। हंपे वास्तव में वह जगह थी जिसे हमने पहले भी देखा था। अब फिर से एक बार नए सिरे से उसे देख लेने के बाद, दो-चार ग्रंथों का अध्ययन करके, उसकी भूमिका तैयार करनी थी निर्देशक की हैसियत से। कैमरामैन के सहारे जो चित्र खिंचवाकर रख लेता था, उनके लिए योग्य पृष्ठभूमि तथा विवरण तैयार करवाने चाहिए थे। शूटिंग के समय यदि वह भी होती तो अच्छा लगता। इतना ही नहीं, उसका वहाँ रहना लाजिमी भी था। उसमें सिर्फ मूड की कमी नहीं थी; वह थोड़ा उदास भी लगती है। यह नई भावना जब जागी, ऐसा लगा कि यह उदासी नहीं है, थकावट है। यह धूप, गरम चट्टानों की दहक ! साथ में कार के होने पर भी, हर एक जगह खड़े होकर देख लेने की थकावट क्या होती है ? तीन दिनों से यह सब सहती आ रही है। अब उसकी उम्र भी चौवन साल की हुई है। थकावट होगी ही। मेरी भी उम्र उतनी ही है। लेकिन मैं उतना थका क्यों नहीं ? नहाकर, आराम से हवा खाने चला हूँ। जब यह फर्क दिखाई देने लगा तो मुझे ऐसा लगा कि लाख ढिंढोरा पीटने पर भी, कोई इस सच्चाई को मिटा नहीं सकता कि औरत सचमुच ही अबला है–शारीरिक तौर पर भी, बुद्धि और मन की कसौटी पर भी। भगवान् की सृष्टि झूठी नहीं हो सकती–यों उसने मान लिया।

रात को खाना खाते समय भी वह अपनी ही सोच में डूबी हुई थी। लेटते समय उसने कहा, ‘‘जो कुछ देखना था, वह सब देख चुके हैं। यदि पहले ही मालूम होता कि देखने का काम आज तक पूरा हो जाता, तो आज रात की रेल से हम बंगलूर लौट सकते थे। कल दिन-भर इसी गेस्ट हाउस में आराम करके, रात की रेल पकड़ लेंगे। तुम्हें तो पढ़ना है अभी या अब तक की पढ़ाई की याद के आधार पर ही भूमिका लिख दोगीं ? हर एक आइटम के प्रति निरूपण प्रस्तुत करने के लिए विशेष रूप से पढ़ाई करनी पड़ती है। अच्छे गाइड़ों को पकड़ लेंगे तो काफी सूचनाएँ मिल सकती है।’’

तब भी वह बोली नहीं। यह सिर्फ मूड़ का अभाव है या मेरे प्रति वह नाराज तो नहीं है ? यह शक भी पैदा हुआ। उसके यो रुष्ट हो जाने का कारण मेरी कोई भूल तो नहीं ? यों सवेरे से शाम तक की घटनाओं को याद किया। कुछ समझ में नहीं आया। सोचा कि औरत के रूठ जाने के लिए किसी एक कारण का होना जरूरी नहीं है। कुछ ही बोलने को सूझ नहीं रहा था। उसे ऐसा लगा कि कुछ और बोलने से आत्मगौरव को धक्का लगता है। आत्मगौरव को चोट पहुँचाने वाले कई ऐसे मौके तो आए हैं। याद आया कि ऐसी घटनाओं को दांपत्य जीवन का एक अविभाज्य अंग समझकर, अपने आप को सांत्वना पहुँचाते हुए, उनको छोड़ आया हूँ।

खिड़की से ठंडी हवा आ रही थी। वह आवाज भी सुनाई दे रही थी जिसमें बाँध के जल में उठ आने वाली लहरें, बाँध से टकराकर पीछे हटती जा रही थीं। खिड़की के पास ही आकर खड़ा हो जाऊँ, तो भी अँधेरे में कुछ नहीं दिखाई देगा यों मानकर वह लेटा रहा। थोड़ी देर के बाद वह खुद बोली, ‘‘प्रस्थापना और भूमिका का स्क्रिप्ट प्रस्तुत करना उतना आसान नहीं है। कैमरे के सहारे वास्तविक अंशों को दिखाते समय, स्क्रिप्ट में सही कारणों को प्रस्तुत करना पड़ता है। नहीं तो प्रेक्षक इस निर्णय पर तत्काल ही पहुँच जाते हैं कि इनका वक्तव्य झूठा है। व्यक्ति की आँखों से हजारों गुना कैमरे की आँखें अधिक शक्तिशाली होती हैं। यदि हमें इस असुविधा से बचना है, तो उन सारे वास्तविक विचारों को छोड़ देना पड़ता है। उनको छोड़कर हंपे के बारे में कैसा वृत्त-चित्र तैयार किया जा सकता है?’’

उसके बोलने से इसके हृदय को थोड़ी-सी सांत्वना मिली। बोला, ‘‘उदाहरण के साथ सीधे बोलो। तुम भी यह बात जानती हो कि सच और झूठ को सुलझाने की शक्ति कलाकार में जिस मात्रा में होती है, उतनी मात्रा में किसी और में नहीं हुआ करती है।

‘‘उग्र-नरसिंह की मूर्ति हमने देखी है न ! उसकी भग्न स्थिति में यह पता नहीं चलता कि वह मूर्ति उग्र-नरसिंह की है या लक्ष्मी नरसिंह की। कैसी सुंदर शिल्पकारिता है। उसका आकार, प्रमाणबद्धता, सामने खड़े होकर देखने पर मन में उभर आने वाला अलौकिक भाव ! उसके हाथ-पैर किसने तोड़ डाले ? विजय-विट्टल जी के मंदिर में भी उसी तरह काठ के टुकड़े भरकर, आग लगाने के बाद, विनाश कार्य किया गया है–यह बात किसी की समझ में आसानी से आ जाती है; क्योंकि पत्थरों में आग लगा देने के चिह्न अब भी वहाँ मौजूद हैं। इसी प्रकार अन्य मंदिरों, मूर्तियों आदि को किसने और क्यों ध्वस्त कर दिया, इन विचारों को बताएँगे नहीं तो हमारा वक्तव्य अप्रामाणिक बन जाएगा।’’

‘‘जरूर बताना चाहिए। इस विचार को दृढ़ रूप से उनके मन में बिठा देना चाहिए कि मध्ययुगीन सामंतशाहों एवं सामंतशाही शक्तियों ने उनको बरबाद कर दिया। मेरा एक अंतर्दर्शन है जिससे सारे बुद्धिजीवी सहमत हैं। यह बात सही है कि उन दिनों मैं विजयनगर ऐश्वर्य का ऐसा अनूठा केंद्र बना था जिसकी तुलना और किसी शहर से नहीं की जा सकती थी। यह भी सच है कि वह ऐसी वाणिज्य-केंद्र बना था जहाँ हीरे-जवाहरात को बड़े-बड़े सेरों से भरकर बेचा जाता था। इतनी संपत्ति का एक जगह केंद्रित हो जाना किस बात को सूचित करता है ? श्रमिक वर्ग का खून चूसकर पूँजीशाही ने तोंद बढ़ा ली थी। संपत्ति का न्यायोचित वितरण नहीं हो रहा था। श्रमिक वर्ग रुष्ट हो चला था। अंदर ही अंदर विद्रोह करके उसने चोरी-छिपे शत्रु-राजाओं को निमंत्रित कर दिया। शत्रुओं ने जब हमला बोल दिया, उसने उनके साथ हाथ जोड़ दिए। श्रमिक वर्गों को योग्य पारिश्रमिक दिए बगैर, अपने धार्मिक विश्वासों को पत्थर की मूर्तियों के तथा मंदिरों के रूप में विजृंभित जो किया था, उसके विरुद्ध उन्होंने ही काठ के टुकड़े भरकर, आग लगाकर उनको बरबाद किया और बाद में हथौड़ों से मारकर प्रतिशोध ले लिया।

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