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अष्टावक्र महागीता भाग-4 सहजता में तृप्ति

ओशो

प्रकाशक : फ्यूजन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :320
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7270
आईएसबीएन :81-89605-80-1

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अष्टावक्र महागीता भाग-4 सहजता में तृप्ति...

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Ashtavakra Mahageeta bhag-4 Sahajta Mein Tripti - A Hindi Book - by Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘यह गीता जनक और अष्टावक्र के बीच जरा भी विवाद नहीं है।... जैसे दो दर्पण एक-दूसरे के सामने रखे हों और एक-दूसरे के दर्पण में एक-दूसरे दर्पण की छवि बन रही है।... दर्पण दर्पण के सामने खड़ा है।... जैसे दो जुड़वां, एक ही अंडे मैं पैदा हुए, बच्चे हैं। दोनों का स्त्रोत समझ का ‘साक्षी’ है। दोनों की समझ बिलकुल एक है। भाषा चाहे थोड़ी अलग-अलग हो, लेकिन दोनों का बोध बिलकुल एक है। दोनों अलग-अलग छंद में, अलग-अलग राग में एक ही गीत को गुनगुना रहे हैं। इसलिए मैंने इसे ‘महागीता’ कहा है। इसमें विवाद जरा भी नहीं है।... यहां कोई प्रयास नहीं हैं। अष्टावक्र को कुछ समझाना नहीं पड़ रहा है। अष्टावक्र कहते हैं और उधर जनक का सिर हिलने लहता है सहमति में। दोनों के बीच बड़ा गहरा अंतरंग संबंध है, बड़ी गहरी मैत्री है। इधर गुरु बोला नहीं कि शिष्य समझ गया।’’

अनुक्रम


३१. मनुष्य है एक अजनबी
३२. प्राण की यह बीन बजाना चाहती है ३९
३३. हर जगह जीवन विकल है ६५
३४. धार्मिक जीवन–सहज, सरल, सत्य ९९
३५. अचुनाव में अतिक्रमण है १३॰
३६. संन्यास : अभिवन का स्वागत १५९
३७. जगत उल्लास है परमात्मा का १८९
३८. जागते-जागते जाग आती है २२३
३९. विषयों में विरसता मोक्ष है २५८
४॰. धर्म अर्थात उत्सव २९॰


प्रवचन : ३१

मनुष्य है एक अजनबी


अष्टावक्र उवाच।

भावाभावविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी।
निर्विकारो गतक्लेशः सुखेनैवोपशाम्यति ।।99।।
ईश्वरः सर्वनिर्माता नेहान्य इति निश्चयी।
अंतर्गलित सर्वाशः शांतः क्वापि न सज्जते।।100।।
आपदः संपदः काले दैवादेवेति निश्चयी।
तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वाग्छति न शोचति ।।101।।
सुखदुःखे जन्ममृत्यु दैवादेवेति निश्चयी।
साध्यादर्शी निरायासः कुर्वन्नपि न लिप्यते।।102।।
चिंतया जायते दुःखं नान्यथैहेति निश्चयी।
तया हीनः सुखी शांतः सर्वत्र गलितस्पृहः।।103।।
नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी।
कैवल्यमिव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्।।104।।
आब्रम्हस्तम्बपर्यन्तमहमेवेति निश्चयी।
निर्विकल्पः शुचिः शांतः प्राप्ताप्राप्तविनिर्वृतः।।105।।
नानाश्चर्यमिदं विश्वं च किंचदिति निश्चयी।
निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति ।।106।।

मनुष्य है एक अजनबी–इस किनारे पर। यहां उसका घर नहीं। न अपने से परिचित है, न दूसरों से परिचित है। और अपने से ही परिचित नहीं तो दूसरों से परिचित होने का उपाय भी नहीं। लाख उपाय हम करते हैं कि बना लें थोड़ा परिचय, बन नहीं पाता। जैसे पानी पर कोई लकीरें खींचे, ऐसे ही हमारे परिचय बनते हैं और मिट जाते हैं; बन भी नहीं पाते और मिट जाते हैं।

जिसे कहते हम परिवार, जिसे कहते हम समाज–सब भ्रांतियां हैं; मन को भुलाने के उपाय हैं। और एक ही बात आदमी भुलाने की कोशिश करता है कि यहीं मेरा घर है, कहीं और नहीं। यही समझाने की कोशिश करता है : ‘‘यही मेरे प्रियजन हैं, यही मेरा सत्य है। यह देह, देह से जो दिखाई पड़ रहा है वह, यही संसार है; इसके पार और कुछ भी नहीं।’’ लेकिन टूट-टूट जाती है यह बात, खेल बनता नहीं। खिलौने खिलौने ही रहे जाते हैं, सत्य कभी बन नहीं पाते। धोखा हम बहुत देते हैं, लेकिन धोखा कभी सफल नहीं हो पाता। और शुभ है कि धोखा सफल नहीं होता, काश, धोखा सफल हो जाता तो हम सदा को भटक जाते ! फिर तो बुद्धत्व का कोई उपाय न रह जाता। फिर तो समाधि की कोई संभावना न रह जाती।
लाख उपाय करके भी टूट जाते हैं, इसलिए बड़ी चिंता पैदा होती है, बड़ा संताप होता है। मानते हो पत्नी मेरी है–और जानते हो भीतर से कि मेरी हो कैसे सकेगी ? मानते हो बेटा मेरा है–लेकिन जानते हो किसी तल पर, गहराई में कि सब मेरा-तेरा सपना है। तो झुठला लेते हो, समझा लेते हो, सांत्वना कर लेते हो, लेकिन भीतर उबलती रहती है आग। और भीतर एक बात तीर की तरह चुभी ही रहती है कि न मुझे मेरा पता है, न मुझे औरों का पता है। इस अजनबी जगह घर बनाया कैसे जा सकता है ?

जिस व्यक्ति को यह बोध आने लगा कि यह जगह ही अजनबी है, यहां परिचय हो नहीं सकता, हम किसी और देश के वासी हैं; जैसे ही यह बोध जगने लगा और तुमने हिम्मत की, और तुमने यहां के भूल-भुलावे में अपने को भटकाने के उपाय छोड़ दिए, और तुम जागने लगे पार के प्रति; वह जो दूसरा किनारा है, वह जो बहुत दूर कुहासे में छिपा किनारा है, उसकी पुकार तुम्हें सुनाई पड़ने लगी–तो तुम्हारे जीवन में रूपांतरण शुरू हो जाता है। धर्म ऐसी ही क्रांति का नाम है।

ये खाड़ियां, यह उदासी, यहां न बांधो नाव।
यह और देश है साथी, यहां न बांधो नाव।

दगा करेंगे मनाजिर किनारे दरिया के
सफर ही में है भलाई, यहां न बांधो नाव।

फलक गवाह कि जल-थल यहां है डांवाडोल
जमीं खिलाफ है भाई, यहां न बांधो नाव।

यहां की आबोहवा में है और ही बू-बास
यह सरजमीं है पराई, यहां न बांधो नाव।

डुबो न दें हमें ये गीत कुर्बे–साहिल के
जो दे रहे हैं सुनाई, यहां न बांधो नाव।

जो बेड़े आए थे इस घाट तक अभी उनकी
खबर कहीं से न आई, यहां न बांधो नाव।

रहे हैं जिनसे शनासा यह आसमां वह नहीं
यह वह जमीं नहीं भाई, यहां न बांधो नाव।

यहां की खाक से हम भी मुसाम रखते हैं
वफा की बू नहीं आई, यहां न बांधो नाव।

जो सरजमीन अजल से हमें बुलाती है
वह सामने नजर आई, यहां न बांधो नाव।

सवादे-साहिले-मकसूद आ रहा है नजर
ठहरने में है तबाही, यहां न बांधो नाव।

जहां-जहां भी हमें साहिलों ने ललचाया
सदा फिराक की आई, यहां न बांधो नाव।

किनारा मनमोहक तो है यह, सपनों जैसा सुंदर है। बड़े आकर्षण हैं यहां, अन्यथा इतने लोग भटकते न। अनंत लोग भटकते हैं, कुछ गहरी सम्मोहन की क्षमता है इस किनारे में। इतने-इतने लोग भटकते हैं, अकारण ही न भटकते होंगे–कुछ लुभाता होगा मन को, कुछ पकड़ लेता होगा।

कभी-कभार कोई एक अष्टावक्र होता है, कभी कोई जागता; अधिक लोग तो सोए-सोए सपना देखते रहते हैं। इन सपनों में जरूर कुछ नशा होगा, इतना तो तय है। और नशा गहरा होगा कि जगाने वाले आते हैं, जगाने की चेष्टा करते हैं, चले जाते हैं–और आदमी करवट बदल कर फिर अपनी नींद में खो जाता है। आदमी जगाने वालों को भी धोखा दे जाता है। आदमी जगाने वालों से भी नींद का नया इंतजाम कर लेता है; उनकी वाणी से भी शामक औषधियां बना लेता है।
बुद्ध जगाने आते हैं; तुम अपनी नींद में ही बुद्ध को सुन लेते हो। नींद में और-और सपनों में तुम बुद्ध की वाणी को विकृत कर लेते हो; तुम मनचाहे अर्थ निकाल लेते हो; तुम अपने भाव डाल देते हो। जो बुद्ध ने कहा था, वह तो सुन ही नहीं पाते; जो तुम सुनना चाहते थे, वही सुन लेते हो–फिर करवट लेकर तुम सो जाते हो। तो बुद्धत्व भी तुम्हारी नींद में ही डूब जाता है, तुम उसे भी डुबा लेते हो।

लेकिन, कितने ही मनमोहक हों सपने, चिंता नहीं मिटती। कांटा चुभता जाता है, सालता है, पीड़ा घनी होती जाती है।
देखो लोगों के चेहरे, देखो लोगों के अंतरतम में–घाव ही घाव हैं ! खूब मलहम-पट्टी की है, लेकिन घाव मिटे। घावों के ऊपर फूल भी सजा लिये हैं, तो भी घाव नहीं मिटे। फूल रख लेने से घावों पर, घाव मिटते भी नहीं।
अपने में ही देखो। सब उपाय कर के तुमने देखे हैं। जो तुम कर सकते थे, कर लिया है। हार-हार गए हो बार-बार फिर भी एक जाग नहीं आती कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो हम कर रहे हैं वह हो ही नहीं सकता।

अपरिचित, अपरिचित ही रहेगा। अगर परिचय बनाना हो तो अपने से बना लो; और कोई परिचय संभव नहीं है, दूसरे से परिचय हो ही नहीं सकता। एक ही परिचय संभव है–अपने से। क्योंकि दूसरे के भीतर तुम जाओगे कैसे ? और अभी तो तुम अपने भीतर भी नहीं गए। अभी तो तुमने भीतर जाने की कला भी नहीं सीखी। अभी तो तुम अपने भी अंतरतम की सीढ़ियां नहीं उतरे। अभी तो तुमने अपने कुएं में ही नहीं झांका, अपने ही जलस्रोत में नहीं डूबे, तुमने अपने की केंद्र को नहीं खोजा–तो दूसरे को तो तुम देखोगे कैसे ? दूसरे को तुम उतना ही देख पाओगे जितना तुम अपने को देखते हो।
अगर तुमने माना कि तुम शरीर हो तो दूसरे तुम्हें शरीर से ज्यादा नहीं मालूम पड़ेंगे। अगर तुमने माना कि तुम मन हो, तो दूसरे तुम्हें मन से ज्यादा नहीं मालूम पड़ेंगे। यदि तुमने कभी जाना कि तुम आत्मा हो, तो ही तुम्हें दूसरे में भी आत्मा की किरण का आभास होगा।

हम दूसरे में उतना ही देख सकते हैं, उसी सीमा तक, जितना हमने स्वयं में देख लिया है। हम दूसरे की किताब तभी पढ़ सकते हैं जब हमने अपनी किताब पढ़ ली हो।
कम से कम भीतर की वर्णमाला तो पढ़ो भीतर के शास्त्र से तो परिचित होओ तो ही तुम दूसरे से भी शायद परिचित हो जाओ।
और मजा ऐसा है कि जिसने अपने को जाना, उसने पाया कि दूसरा है ही नहीं। अपने को जानते ही पता चला कि बस एक है, वही बहुत रूपों में प्रगट हुआ है। जिसने अपने को पहचाना उसे पता चला : परिधि हमारी अलग-अलग, केंद्र हमारा एक है। जैसे ही हम भीतर जाते हैं, वैसे ही हम एक होने लगते हैं। जैसे ही हम बाहर की तरफ आते हैं, वैसे ही अनेक होने लगते हैं। अनेक का अर्थ है : बाहर की यात्रा। एक का अर्थ है : अंतर्यात्रा।

तो जो दूसरे को जानने की चेष्टा करेगा, दूसरे से परिचित होना चाहेगा...। पुरुष स्त्री से परिचित होना चाहता है, स्त्री पुरुष से परिचित होना चाहती है। हम मित्र बनाना चाहते हैं, हम परिवार बनाना चाहते हैं। हम चाहते हैं अकेले ने हों। अकेले होने में कितना भय लगता है ! कैसी कठिन हो जाती हैं वे घड़ियां जब हम अकेले होते हैं। कैसी कठिन और दूभर–झेलना मुश्किल ! क्षण-क्षण ऐसे कटता है जैसे वर्ष कटते हों। समय बड़ा लंबा हो जाता है। संताप बहुत सघन हो जाता है, समय बहुत लंबा हो जाता है।

तो हम दूसरे से परिचय बनाना चाहते हैं ताकि यह अकेलापन मिटे। हम दूसरे से परिवार बनाना चाहते हैं ताकि यह अजनबीपन मिटे, किसी तरह टूटे यह अजनबीपन–लगे कि यह हमारा घर है !
सांसाकि व्यक्ति मैं उसी को कहता हूं जो इस संसार में अपना घर बना रहा है। हमारा शब्द बड़ा प्यारा है। हम सांसारिक को ‘गृहस्थ’ कहते हैं। लेकिन तुमने उसका ऊपरी अर्थ ही सुना है। तुमने इतना ही जाना है कि जो घर में रहता है, वहा संसारी है। नहीं, घर में तो संन्यासी भी रहते हैं। छप्पर तो उन्हें भी चाहिए पड़ेगा। उस घर को चाहे आश्रम कहो, चाहे उस घर को मंदिर कहो, चाहे स्थानक कहो, मस्जिद कहो–इससे कुछ फर्क पड़ता नहीं। घर तो उन्हें भी चाहिए होगा। नहीं, घर का भेद नहीं है, भेद कही गहरे में होगा।

संसारी मैं उसको कहता हूं, जो इस संसार में घर बना रहा है; जो सोचता है, यहां घर बन जाएगा; जो सोचता है कि हम यहां के वासी हो जाएंगे, हम किसी तरह उपाय कर लेंगे। और संन्यासी वही है जिसे यह बात समझ में आ गई है : यहां घर बनता ही नहीं। जैसे दो और दो पांच नहीं होते ऐसे उसे बात समझ में आ गई कि यहां घर बनता ही नहीं। तुम बनाओ, गिर-गिर जाता है। यहां जितने घर बनाओ, सभी ताश के पत्तों के घर सिद्ध होते हैं। यहां तुम बनाओ कितने ही घर, सब जैसे रेत में बच्चे घर बनाते हैं, ऐसे सिद्ध होते हैं; हवा का झोंका आया नहीं कि गए। ऐसे मौत का झोंका आता है, सब विसर्जित हो जाता है। यहां घर कोई बना नहीं पाया।

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