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राजा कोयल और तन्दूर

पराग कुमार मांदले

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :142
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 724
आईएसबीएन :81-263-1147-9

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इसमें नैना साहनी प्रकरण के प्रेम समीकरण की भयावह परिणिता...

Raja, koyal aur tandoor

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह महज संयोग ही नहीं, बल्कि सृजन की सजगता है कि मांदले के प्रथम कथा-संग्रह ‘राजा, कोयल और तन्दूर’ की नौ कहानियों में से पाँच कहानियों का इतिवृत्त प्रेम से सम्बन्धित है जो अपनी कई संगतियों और विसंगतियों के साथ अनेक कोणों से उनमें मौजूद है। चाहे वह द्वन्द्व के रूप में हो या मोहभंग के रूप में, आत्मविश्वास के रूप में हो या अहंकार के रूप में, अथवा बन्धन या मुक्ति के रूप में-अनेक उत्तरित अनुत्तरित प्रश्नों को अपने में समेटे है।

‘राजा, कोयल और तन्दूर’ लोककथा की तर्ज पर लिखी गयी सचमुच बाँध लेने वाली कहानी है। उसमें नैना साहनी प्रकरण के प्रेम समीकरण की भयावह परिणिति को जिस सुघड़ता से गूँथा गया है वह अद्भुत है। ‘मंशाराम’ में अन्तर्निहित तीखे व्यंग्य निश्चय ही पराग कुमार मांदले में एक समर्थ व्यंग्यकार की प्रतीति पैदा कराते हैं।
चित्रा मुद्गल

मृगनयनी

उसे सीमा पसन्द नहीं थी।
उसे आकाश पसन्द था।
उसे आकाश इसलिए पसन्द था क्योंकि वह असीम होता है। अनन्त होता है।
उसे बन्धन पसन्द नहीं थे।
उसे परिन्दे पसन्द थे।

उसे परिन्दे इसलिए पसन्द थे क्योंकि वे किसी बन्धन को नहीं मानते हैं।  
वह सब पर छा जाना चाहती थी।
आकाश की तरह।
वह उड़ना चाहती थी।
परिन्दों की तरह।
उसे क्षुद्रता पसन्द नहीं थी।
उसे सागर पसन्द था।

उसे सागर इसलिए पसन्द था क्योंकि वह गहरा होता है। अब सागर असीम नहीं है तो क्या हुआ ?
मगर वह जानती थी, सागर को दृष्टि की सीमा में नहीं बांधा जा सकता।
किसी सागर के किनारे खड़े होकर कभी देखा है सागर को ?
क्या कोई कह सकता है कि वह असीम नहीं है ?
वह भी कभी नहीं कह पायी।

और फिर सागर की गहराइयों का छोर किसने नापा है आज तक ?
सागर की गहराइयों में ऐसा कितना कुछ छुपा है जहाँ अभी तक न मनुष्य के कदम पहुँच सके हैं और न ही निगाहें।
वह चाहती थी सागर की गहराइयों में खो जाना। वह खिलना चाहती थी।
वह फूल बनना चाहती थी।
वह सुरभित होना चाहती थी।

वह अपनी सौरभ को ब्रह्माण्ड के कोने-कोने में फैला देना चाहती थी।
उसे सपने पसन्द थे।
वह खूब सपने देखती थी।
उसे सपने देखना पसन्द था।

उसे सपनों को पूरे हो सकने वाले और पूरे न हो सकने वाले वर्गों में विभाजित किया जाना बिलकुल पसन्द नहीं था।
उसे सपनों को किसी तरह की सीमाओं में बाँधना पसन्द नहीं था।
वह सोचती थी कि यदि मनुष्य असम्भव से लगने वाले सपने नहीं देखेगा तो जीवन में कभी असम्भव-सी लगने वाली उपलब्धियाँ भी हासिल नहीं कर पाएगा। असम्भव-सी लगने वाली उपलब्धियों को हासिल करने के लिए जरूरी है कि इनसान पहले असम्भव से लगने वाले सपने देखे।
उसे संगीत बहुत पसन्द था।

सात स्वरों की सीमा के बावजूद सैकड़ों मधुर रागों और उनकी लाखों मनभावन बन्दिशों के सृजन की क्षमता और इस सिलसिले की अनन्तता उसे अत्यधिक प्रभावित करती थी। सुर, लय और ताल का मिलन जब स्वर्गीय आनन्द के संसार में प्रवेश का द्वार बन जाता तो उसका मन-मयूर नाच उठता था।
उसे धीमे विष की तरह असर करने वाला संगीत पसन्द नहीं था।
उसे ऐसा संगीत पसन्द था जो तीर की तरह सीधे हृदय में प्रवेश कर जाए और अपना वर्चस्व जमा ले। सदा के लिए।
उसे सारंगी बहुत पसन्द थी।

शायद इसलिए क्योंकि सारंगी का स्वर, सीधे तीर की तरह हृदय में प्रवेश करने वाला स्वर है।
सारंगी का स्वर, मानो किसी की पीड़ा में डूबी हुई चीत्कार हो।
उसे ऐसे लगता मानो बजाने वाला सारंगी नहीं दर्द से भरा हुआ अपना हृदय बजा रहा है। हृदय के भीतर छुपे अधूरे अरमानों का एक-एक तार छेड़ रहा है।

वह कई बार किसी सारंगी में समा जाती और समय के हाथ जब उस सारंगी को बजाते तो उसकी स्वर लहरी लोगों के दिलों को भीतर तक चीर जाती और फिर ब्रह्माण्ड के दूसरे कोने तक गूँजती रहती।
हर रात वह यात्रा पर निकला करती थी।

कभी कोई परिन्दा बन जाती और तब तक लगातार उड़ती रहती जब तक कि उसकी साँस न भर आती और उसे यह महसूस न होने लगता कि अब और ऊपर जाना मुश्किल है। जब उसे ऐसा महसूस होने लगता तो वह उसे असीम अनन्त आकाश के बीच में किसी सितारे पर टँगा हुआ कोई सपना तोड़ लेती और फिर लौट आती।
हर रात वह यात्रा पर निकला करती थी।

कभी वह कोई मछली बन जाती और सागर की अथाह गहराइयों की थाह लेने निकल पड़ती। वह लगातार नीचे की ओर तैरती रहती। मानो कोई पनडुब्बी सागर का सीना चीरती हुई नीचे की ओर जा रही हो। वह तब तक सागर के भीतर नीचे की ओर तैरना जारी रखती जब तक कि उसे यह न महसूस होने लगता कि अब और नीचे जाना मुश्किल है। ऐसे समय में वह सागर में तैर रहे किसी सपने को थाम लेती और लौट आती।

जिस रात उसकी आकाश और सागर से लड़ाई हो जाती, उस रात वह उन दोनों से नाराज होकर ऊँचे हिम पर्वतों के शिखरों की ओर निकल पड़ती। चलते-चलते जब कभी वह थक जाती तो किसी हिमगुफा में प्रवेश कर कुछ देर को सुस्ता लेती और लौटते समय वहां जमा हुआ कोई सपना निकाल लाती।
हर रात वह यात्रा पर निकला करती थी।
उसे सीमा पसन्द नहीं थी।

इसलिए उसकी यात्राओं की भी कोई सीमा नहीं थी।
उसकी यात्राओं का कोई तय नियम भी नहीं था।
उसके लिए हर यात्रा नयी होती और उस यात्रा के नियम भी वह हर बार नये तय करती।
मगर नये नियम तय करने का भी यह अर्थ नहीं कि वह उन नियमों का पालन भी करती थी।
उसे बन्धन पसन्द नहीं थे। वह नियमों में बँधना भी पसन्द नहीं करती थी।
उसकी यात्राएँ भी नियमों में नहीं बँधा करती थीं।

वह एक रात यात्रा पर निकलती और सुबह होने तक लौट आती मगर रात और सुबह के बीच के इस सफर में केवल एक रात ही नहीं गुजरती, कई बार कई कई दिन गुजर जाते और कई बार कई-कई महीने। एक बार तो वह रात को यात्रा पर निकली और जब सुबह लौटी तो उस बीच दो साल बीत गये थे। और एक बार वह यात्रा पर निकली और सुबह को लौटी तो रात आगे बढ़ने की जगह एक साल पीछे को लौट गयी। वह कभी समय की सीमाओं में नहीं बँधी। और सच तो यह है कि कभी समय की भी यह हिम्मत नहीं हुई कि वह उसे अपनी सीमाओं में बाँधने का कोई प्रयास करे।

एक रात वह फिर यात्रा पर निकल पड़ी। उड़ती रही पंछी की तरह आसमान में। उड़ते उड़ते वह धरती की आकर्षण परिधि से बाहर निकलकर अन्तरिक्ष में पहुँच गयी। उस रात न जाने क्या हुआ कि लगातार उड़ने के बाद भी उसे थकान का कोई एहसास नहीं हुआ। दूर आसमान से जब उसने मुड़कर नीली पृथ्वी की ओर देखा था। तो उसे यह एहसास हुआ कि यदि सपनों का कोई रंग होता हो तो वह नीला ही होगा। नीली आँखों से नीली नींद में देखे गये नीले सपने। अन्तरिक्ष में खड़ी वह बड़ी देर तक पृथ्वी को निहारती रही मगर लौटी नहीं, और आगे बढ़ गयी।


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