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जय-यात्रा

रामकुमार भ्रमर

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :353
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7202
आईएसबीएन :978-81-216-1362

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संपूर्ण श्रीकृष्ण कथा का अंतिम खण्ड जय-यात्रा...

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्रीकृष्ण-कथा पर आधारित 5 खण्डों में यह एक ऐसी उपन्यास-माला है, जो पाठकों का भरपूर मनोरंजन तो करती ही है, साथ ही सभी को श्रद्धा के भाव जगत में ले जाकर खड़ा कर देती है।
इन सभी उपन्यासों में लेखक ने श्रीकृष्ण के जीवन में आए तमाम लोगों का सजीव मानवीय चित्रण किया है तथा अनेक नए चौंकाने वाले तथ्य भी खोजे हैं। इस गाथा में श्रीकृष्ण का जीवंत चरित्र उद्घाटित होता है।
इस श्रृंखला के प्रत्येक खण्ड में 2 उपन्यास दिए गए हैं, जो समूची जीवन-कथा के 10 महत्वपूर्ण पड़ावों को मार्मिक ढंग से रेखांकित करते हैं।

नौवें खण्ड ‘जन-जन हिताय’ में श्रीकृष्ण के कर्म युद्ध का वर्णन सहेजा गया है। वे जन-जन की आस्था के पुरुष हैं, कोई उनके प्रति श्रद्धा को नहीं त्याग सकता, जबकि दसवें खण्ड ‘जय’ में श्रीकृष्ण की जीवन-यात्रा का अतिंम पड़ाव है। इसमें वह उस जय का सत्य-सनातन मानव रूप हैं। बहुतों ने इसका साक्षात दर्शन किया। यहां सत्य और शून्य का शाश्वत मेल है और केवल शून्य को ही स्थायी बताया गया है। शून्य-सत्य !... शून्य जय...।

जय-यात्रा


सब कुछ अविश्वसनीय लगता है !... एक ओर शिशुपाल सोच रहे थे, दूसरी ओर यही कुछ सोचा था भरतखंड की उन शक्तियों ने, जो महाराज जरासंध की मित्रता का खोल ओढ़े हुए, वस्तुस्थिति में उनकी सेवक थीं।
इस सबसे अधिक अविश्वसनीय लगा था गद्काल को ! जिस क्षण श्री कृष्ण, सात्यकि, उद्भट आदि ने कुशस्थली में तटक्षेत्र से असुर जलपोत को विदाई दी, गद्काल सोचने-समझने की शक्ति खो चुका था।
वैसे हुआ ?... या जो हुआ है क्या वह सत्य है ? जी होता था कि अपने को ही थप्पड़ मारकर चैतन्य करे ! अविश्वसनीय सत्य को कुछ ही पहरों के बीच घटते पाकर उसकी चेतन-शक्ति विलुप्त हो गई थी। महाराज अतिसुर तो इस तरह स्तब्ध हुए कि बिना सुरापान किए ही लगता था जैसे गहरे नशे में डूबे हुए हैं। शब्दहीन। फटी-फटी आंखों से परिवर्तन का वह विचित्र क्षण देखते रह गए।

मदासुर प्रारंभ में बौखला उठे थे, किंतु जल्दी ही समझ लिया था–सब कुछ सत्य है ! अपने विशाल असुर देश के राजनीतिक उलटफेरों के समय-साक्षी थे, वह अतः चकित और स्तब्ध कर देनेवाले आर्यावर्त के इस गुप्तयुद्ध ने बिल्कुल भी प्रभावित नहीं किया। केवल एक ही चिंता व्यक्त की थी गद्काल से–‘‘सेनापति ! ..क्या विजेता आर्यों का नेतृत्व भी हमारी ही तरह कठोर दंड देने में विश्वास करता है ?’’
गद्काल तय नहीं कर सका–क्या उत्तर दे ? जिसने जीवन भर केवल खंग को ही सत्य समझा है, जिसके संस्कार में क्षमा और दया शब्द कभी भी न रहे हों, भला वह वैसे निर्णय करे कि विजेता आर्यशक्ति का नेतृत्व कैसा होगा ? क्या दंड प्रक्रियाएं होंगी उसकी ?

मदासुर की चिंता बढ़ गई थी। पराजय से अधिक जीवनमोह के भय ने आतंकित कर दिया था असुर सम्राट को। अतिसुर स्तब्ध थे। चेहरा ऐसा, जैसे धुएं से नहाया हुआ हो। न दिखने के लिए देखने वाले की दृष्टि स्पष्ट देख पाती थी, न ही वह स्वयं कुछ देखने-समझने की स्थिति में रहे थे।
भव्य राजभवन के एक विशेष कक्ष में उन सभी असुर-प्रमुखों को एकसाथ बंदी बना लिया गया था। समारोह स्थल से इधर-उधर तो हुए थे वे, किंतु जिस शक्ति-संयोजन के लिए हुए वह शक्ति ही गुम हो चुकी थी। इस तरह पकड़े गए थे, जैसे साधारण चोर पकड़ लिए जाते हैं। जब सभी ओर आर्य सैनिकों के उत्तेजित और हिंस्र समूहों को पाया तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। समझ ही नहीं आया की किस तरह, क्या हुआ ?...

तभी आ पहुंचे थे उन टुकड़ियों के नेतृत्वकर्ता। किसी का नाम सात्यकि था, किसी का उद्धव। सभी तेजस्वी थे। उससे कहीं अधिक शांत। कहा था–‘‘सेनानायक गद्काल को ससम्मान उस राजनिवास में पहुंचा दिया जाए, जिसमें अन्य असुरश्रेष्ठ हैं। असुर राज-परिवारों के स्त्री-पुरुष और बालक बंद हैं !’’
किंतु अनेक सैनिकों में आर्य दासों का भी समूह था। गद्काल से घोर घृणा करते थे वे सब। लगता था कि हर आंख के सामने विगत में घटी असुर सेनानायक की क्रूरताओं के दृश्य उभर रहे हैं। हर दृश्य गद्काल को बुरी तरह हत कर देने की उत्तेजना देता हुआ। कुछ तो गालियां बकते और धिक्कारते हुए असुर सेनापति तक पहुंच ही चुके थे, किंतु ऐसे मौकों पर यादव सैनिक या उनके नायक गद्काल के सुरक्षा-कवच बने। चीखकर अपने ही सैनिकों को चेतावनी दी थी उन्होंने–‘‘नहीं !... यादवेंद्र कृष्ण का निर्देश स्मरण रहे !... असुरों से मुक्ति पाना ही हमारा उद्देश्य था, उनकी हत्या करना नहीं !... न्याय व दंड-निर्णय महाराज उग्रसेन ही कर सकेंगे।’’

थम गए थे वे। अनेक जगहों पर और अनेक जगह यही स्थिति उत्पन्न हुई। किसी बार आर्य दासों की भीड़ ने घेरा था गद्काल को, किसी बार आर्य स्त्रियों ने और गद्काल को हर बार लगा था कि उसकी जीवनयात्रा पूर्ण हुई,... पर पूर्ण नहीं हुई थी। मानसिक रूप से अर्धृमृतावस्था में वह राजनिवास आ पहुंचा था। राजा अतिसुर और मदासुर आदि वहां पहले ही लाए जा चुके थे।

क्षण बीते, फिर प्रहर... वे शब्दहीन बैठे रहे। भवन से बाहर जिस ओर दृष्टि जाती, आर्य दास और यादव सैनिक अस्त्रास्त्र लिए घूमते दीखते। असुर सैनिकों का कहीं पता नहीं था। जो थे, वे बंदी हो चुके थे। अधिकतर मारे गए थे। असुर प्रजा को उसके अपने-अपने घरों में रहने के लिए कह दिया गया था। अनेक धनिक असुर व्यापारियों के घर पर आर्य दासों ने आक्रमण कर दिया था। कुछ का वध कर डाला गया, कुछ को उन्हीं के सामने अपमानित किया गया, पर जल्दी ही यादव सैनिकों ने कठोरता से उग्र दासों को संयत किया, स्वयं आर्य उद्भट ने अपने धर्म, शक्ति और श्री कृष्ण का नाम लेकर उनके आवेश को संभाला। फिर भी लगता था कि समूचा नगर और नगर के बाहर तक का संपूर्ण कुशस्थली क्षेत्र एक विस्फोट के बहुत पास बैठा हुआ है। ऐसे जैसे ज्वालामुखी उसके कगार पर ही मौजूद हो।

इस ज्वालामुखी को शांत होते-होते समय लगेगा... पर उस बीच क्या अतिसुर, मदासुर, सेनापति गद्काल, उनके विश्वस्त सेवक रानियां और परिजन आदि बच सकेंगे ?... सभी अनुभव कर रहे थे नए शासकों का अदृष्य भय ! यह भय, आतंक बनकर कभी-कभी किसी स्त्री को अचानक रुला देता। कोई चीख उठती–‘‘नहीं !... क्षमा कर दो हमें ?... हम आश्रित हैं तुम्हारे !....’’
पास वाला उसे संयत करता, ‘‘शांत हो, शांत हो असुर सुंदरी !.... क्या हुआ तुम्हें ?’’ और असुर स्त्री फैली, भयभीत निगाहों से उस संयत करते असुर स्त्री या पुरुष को देखती। अवाक् हो जाती ! पल भर पहले उसे जागृत स्वप्न दीखा था। जो आर्य दास हर क्षण उसका तिरस्कार और अपमानित शब्द यहां तक कि गालियां सुनाता आया था, वही अब खंग लिए उसका और उसके बालक का वध करने वाला था...

इसी स्वप्नाधार पर चीख पड़ी थी वह !
किंतु अब तो वह स्वप्न कहीं दीख नहीं रहा ? थूक का घूंट निगलकर सन्नाटे में डूब गई थी वह। किसी ने कहा था, ‘‘इस क्षण तक हम सुरक्षित हैं देवी !...’’
और तभी किसी ने प्रश्न किया, ‘‘कब तक सुरक्षित रह सकेंगे ?’’
‘‘जैसी भगवान अशूर की इच्छा !...’’ किसी वृद्ध ने कराहकर उत्तर दिया।
अशूर !... अशूर !... अशूर !... लगता था कि ऐसा कोई भगवान है ही नहीं ! यदि है तो वह कहां है ? क्यों नहीं उनकी रक्षा करता ? पंखोंवाली महाशक्ति है अशूर। भला उसे क्या कठिनाई ?...

पर कुछ नहीं किया उसने ! राजनिवास में अशूर की विशाल प्रतिमा भी लगी हुई थी। वे उसके गिर्द कितनी देर तक बैठे रहे ? विशाल चोंच.. पंखोवाली मनुष्याकृति, तीखी क्रोधित आंखे... उन्होंने माथे टेके। कितनी ही बार स्त्री, पुरुष, बालक, वृद्ध सभी ने चुप रहकर या पुकारकर प्रार्थनाएं कीं–‘‘रक्षा ! आर्यों से हमारी रक्षा कर, ईश्वर !...
बहुत समय बीत गया। हर पल आतंक, भय और आशंकाओं की आंधियों के असंख्य थपेड़े खाते हुए मन सूखे पत्तों की तरह यहां-वहां उछलते-बिखरते रहें... सब बंदी ! सब या तो शांत या फिर रह-रहकर एक-दूसरे पर बौखलाते हुए !
सहसा आंधी थम गई थी। आर्य सैनिकों ने राजनिवास का द्वारा खोला और फिर अनेक आर्य स्त्री-पुरुष उनके लिए भोजन ले आए। उत्तम और स्वादिष्ट भोजन। वे विक्षिप्तों की तरह टूट पड़े थे भोजन पर। सामिष-निरामिष का भी किसी ने कोई भेद नहीं किया था। वे भूखे थे, थके हुए थे और निराश भी थे।

पर सबसे ज्यादा चकित ! विचित्र हैं ये विजेता ? बंदियों को, भले ही वे राज-परिवार के क्यों न हों, इतना दिव्य भोजन कराते हैं ? कैसा मूर्ख है इनका ईश्वर ?... किस की आराधना करते हैं वे ?
एक ने हंसकर उत्तर दिया था, ‘‘आर्य परम मूर्ख हैं !... संयोग से कुशस्थली पर जय तो प्राप्त कर ली है उन्होंने, किंतु नीति नहीं जानते वे।... जान भी कैसे सकते हैं ? गौ की रक्षा और पूजा करनेवाली यह जाति मूर्ख नहीं तो और क्या है ?’’
बहुतेक ने हंसे थे। भोजन ने उनमें अब हंसने की शक्ति पैदा कर दी थी, पर बहुतेक गंभीर ही बने थे। एक बोला था–‘‘यही उनकी नीति है!...’’
‘‘क्या कहते हो तुम ?’’ किसी स्त्री ने प्रश्न किया, फिर कटाक्ष भी–‘‘भला शत्रु को दिव्य भोजन देनेवाले, स्नेहादर सहित रखनेवाले लोग मूर्ख नहीं हैं तब क्या हैं ?’’

पहले ने उत्तर दिया था, ‘‘शत्रु को पराजय देकर उसे जीवन दान देनेवाले मूर्ख नहीं होते स्त्री !... बल्कि वे अधिक नीतिज्ञ होते हैं। आर्य हम सभी को जीवित छोड़ देंगे, किंतु अपमानित, लांछित और ग्लानियुक्त जीवन जीने के लिए !... हमें यहां रहने दिया जाए या कुशस्थली से निकालकर महान असुरदेश जाने दिया जाए–किंतु हम जहां जाएंगे, जीवन भर मृतवत जिएंगे !... आर्यों की नीति यही है !...’’
‘‘विक्षिप्त हो तुम !...’’ एक अन्य असुर ने तर्क दिया था, ‘‘असुर संस्कृति में ग्लानि जैसा कोई शब्द है ही नहीं और न अनुभूति है। हम केवल जय में विश्वास करते हैं। आज आर्यों ने छलपूर्वक हमें पराजित कर दिया है, किंतु किसी दिन हम उन्हें फिर विजित कर लेंगे !...’’

कुछ हंसी उठीं... सहसा थम गईं !... द्वार खुला। यादव नायक वसुहोम सामने थे। सहसा हर हंसता हुआ असुर स्त्री-पुरुष चेहरा कुम्हला गया। अनेक ने उस असुर को देखा जो नीति के नाम पर असुर सभ्यता और शक्ति का बखान कर रहा था... कहीं इस आर्य नायक ने सुन न लिया हो ? मूर्ख साथी के उद्दंड शब्दों से उत्तेजित होकर आर्य नायक सभी को मृत्यु न दे डाले ?...

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