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मुसाफ़िरख़ाना

ज्ञानप्रकाश विवेक

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7175
आईएसबीएन :0-14-310157-9

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समय के साथ समाज की सोच, नज़रिया, आपसी रिश्ते सब बदल जाते हैं। ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानियाँ इसी बदलती सोच की परछाईं हैं।...

Musafirkhana - A Hindi Book - by Gyan Prakash Vivek

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समय के साथ समाज की सोच, नज़रिया, आपसी रिश्ते सब बदल जाते हैं। ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी इसी बदलती सोच की परछाईं है। उनकी कहानियां कहीं केंचुल बदलते समाज का लहूलुहान नंगा जिस्म उघाड़ देती हैं, तो कहीं इस नंगेपन को ढांपने के लिए ख़ूबसूरत लिबास बन जाती हैं। ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानियों को पढ़ना अपने आप में एक भरापूरा अनुभव है।

पुराना मकान


बीयर के गिलास और हम ! हम यानी चारों भाई ! खाने का बहुत सारा सामान है। मैं कभी-कभी चने के कुछ दाने मुंह में डालता हूं। तीनों भाइयों को देखने लगता हूँ। वे आपस में बोल रहे हैं। मैं चुप हूं। हर शै को स्मृतियों से जोड़ता हुआ मैं। ख़ामोश...
यह पार्टी, दरअसल फ़ेयरवेल पार्टी है। तीनों भाइयों ने मिलकर अरेंज की है। टॉमी सिस्टम। यानी कंट्रीब्यूटरी। मैं आज रात यहां से चला जाऊंगा। यहां से... यानी इस मकान से... इस पुराने... बेहद पुराने मकान से। मकान ! नहीं, मकान नहीं। इस मकान में घर की कैफ़ियत थी। यह घर था। मैं इस घर से चला जाऊंगा।

घर ! शोर, क़हक़हे, गुफ़्तगू, छेड़छाड़—घर इन सबकी मुजस्सम तस्वीर था—सांस लेती तस्वीर ! जिसमें मंज़र बदलते, मौसम बदलते, कैलेंडर बदलते, इसके बावजूद घर नया लगता। मकान बेशक पुराना था। पुराने घर में कई सारी बातें नई लगतीं। रात को जुगनू आते और चमगादड़ भी। चमगादड़ों से हम डरते। जुगनुओं का अहतराम करते। मन करता उनसे दोस्ती गांठें, लेकिन जुगनू हमारी दोस्ती का प्रपंच ख़ूब समझते थे।
आंगन बड़ा था। एक कोने में तुलसी का पौधा था। जुगनू वहां से निकलते। उड़ते। भटकते। हम भाई उठ खड़े होते। शर्त बदते। जो पकड़ेगा उसे कन्नी हलवाई की जलेबी खिलाएंगे। बाक़ी के भाई।
बेचारा जुगनू ! हम उछलते। कूदते। भटकते। जुगनू कभी हाथ आता तो कभी मारा जाता। हमें लगता हमने एक बूंद उजाले की हत्या कर दी है।

अब हम बड़े हो गए हैं, बहुत बड़े। चालीस, पैंतालीस और पचास की उम्रवाले। लेकिन दोनों हाथों की गुल्लक बनाकर, जुगनू को उस गुल्लक में रखना, इतराना। इस तरह जुगनू को दिखाना, जैसे मदारी का खेल हो... अब भी याद आ रहा है। हम जुगनुओं को रोशनी की बूंदें कहते थे। पता नहीं, मेरे भाइयों को जुगनू पकड़ना और उन्हें हाथों की गुल्लक में रखना याद होगा या नहीं ?
‘‘साहब जी, हम दूसरा गिलास ख़ाली कर चुके और तुम्हारा वैसे का वैसे। साहब जी, बहुत सोच रहे हो।’’
मेरे एक भाई ने मुझे मेरे बीयर के गिलास की याद दिलाई है, जिसे मैंने अभी तक नहीं उठाया।
मेरे भाई मुझे साहब जी कहा करते थे। याद नहीं, ‘साहब जी’ संबोधन कब शुरू हुआ। लेकिन कैसे शुरू हुआ यह याद है। मां, मेरे छोटे भाइयों से कहती थी कि ‘बड़े’ को इज़्ज़त से बुलाया करो। ये क्या ‘ओए, ओए’ करके बुलाते हो।
‘‘तो क्या ‘साहब जी’ कहके बुलाएं ?’’ भाई जिरह करते।

‘‘हां ! साहब जी कहके बुलाओ।’’ मां दृढ़ता से कहती।
भाई मुझे मज़ाक़-मज़ाक़ में साहब जी कहते। और फिर इस मज़ाक़ ने संजीदगी हासिल कर ली। वे तोनों मुझे साहब जी कहने लगे। वे साहब जी कहते तो मुझे लगता, जैसे मैं सचमुच का कोई साहब हूं। तीनों भाइयों ने मुझे रुतबा दिया था। आज मैं उस रुतबे को यहीं छोड़कर चला जाऊंगा। यहां से पांच किलोमीटर दूर... नए मकान में।
एक भाई दूसरे भाई से कह रहा है, ‘‘पांच किलोमीटर का फ़ासला ज़्यादा होता है ?’’
दूसरा जिरह कर रहा है, ‘‘फ़ासला तो एक दीवार का भी ज़यादा होता है। आंगन में जब दीवार पड़ती है तो वो दीवार, दिल में आए फ़ासले की तस्दीक़ करती है।’’

‘‘फ़िलॉसफ़ी मत झाड़.’’ पहला चिढ़कर बोला है, ‘‘मैंने तो सिर्फ़ यही कहा है कि साहब जी ज़्यादा दूर चले गए। पता नहीं, कब मिलें ?’’
मैं चुप रहना चाहता हूं। कुछ कहने का मन नहीं। फिर भी पता नहीं क्यों बोल पड़ता हूं, ‘‘कुछ चीज़ें इस तरह आकार लेती हैं कि फ़ासले ख़ुद-ब-ख़ुद बीच में आकर बैठ जाते हैं।’’
मैं बोलकर चुप हो जाता हूं। मेरी बात सुनकर वे तीनों भी ख़ामोश हैं।

मैं चने के कुछ दाने उठाकर मुंह में डालता हूं। भुने हुए चने। कितने सारे भड़भूजे होते थे शहर में। भुने हुए चने खाने से अधिक उनकी ख़ुशबू हमें मुग्ध करती थी। हम चारों भाई शनिवार को ज़रूर भड़भूजे के पास चने लेकर पहुंचते। हम भड़भूजे को देखते रहते। वो दुनिया का सबसे व्यस्त आदमी नज़र आता। भाड़ में लकड़ी का बुरादा झोंकता। लकड़ियां फेंकता। फिर उसकी कड़ाही तप जाती। रेत भी तपकर सुर्ख़ हो जाती। वो चने डालता। दराती की उल्टी साइड से चने घुमाता रहता। चनों का रंग बदलता। वो छलनी में छानता। फिर उन्हें एक दूसरे ठीये पर रखता और उन्हें मिट्टी की किसी चीज़ से रगड़ता। छानकर थाली में डालता। चवन्नी लेता। हम भाई, गर्म चने लेकर घर पहुंचते। उनमें देसी घी, नमक, मिर्च मिलाते। खाते...। यह हमारा जश्न होता।

भाई हल्दीराम की भुजिया खा रहे हैं।
मुझे उस भड़भूजे की याद आ रही है जो अपने भाड़ के पास बैठकर फूट-फूटकर रोया था।
कुछ शोहदों ने उसका भाड़ तोड़ दिया था। जैसे उसकी रोटी छीन ली हो किसी ने। भड़भूजा हिम्मती था। रो चुकने के बाद उसने हिम्मत बटोरी थी। भाड़ को बनाने में जुट गया। ग़रीबी थी। संघर्ष था।
कुछ दिनों बाद फिर पहले जैसी रौनक। धुआं। लपटें। ताप। चने। ख़ुशबू। मैं भुनते हुए चनों की ख़ुशबू कभी नहीं भूल पाया। पता नहीं भाइयों को याद होगा कि नहीं। वे हल्दीराम की भुजिया खा रहे हैं। वे इस इंतज़ार में हैं कि मैं अपना पहला बीयर का गिलास ख़ाली करूं। उन्होंने कई बार मुझे याद दिलाया है।
मैं यादों के दश्त में गुम हूं।

मुझसे छोटा भाई मेरी मनोदशा भांप गया है शायद ! वह अपने बाक़ी भाइयों से कह रहा है—‘‘साहब जी बहुत पीछे चला गया है।’’
सचमुच, आज मैं बार-बार पीछे की ओर लौट रहा हूं, जैसे इस घर को छोड़ते हुए तमाम यादों को भी यहीं छोड़कर जाना होगा। मुझे डर है... इस बात का डर कि मैं चला जाऊंगा। यादें यहीं रह जाएंगी। लेकिन ऐसा होता है क्या ? वे ज़िंदगी भर साथ रहती हैं, अच्छे दोस्तों की तरह। वे अंधेरे-उजालों के रंग भरती, ज़िंदगी के कैनवस में हलचल पैदा करती हैं। याद ! जैसे आसमान से... उतरकर, गर्म तवे पर गिरती पानी की बूंद। एक हल्की सी आवाज़। होने की, न होने की।
‘‘याद है, जब हम छोटे थे।’’ मैं अपने से छोटे भाई को कहता हूं। वो मेरी तरफ़ देखता है। जैसे कुछ याद कर रहा हो। वो फ़िश का एक पीस उठाता है। सबसे छोटा भाई मुझे बहुत देर से वॉच कर रहा है। मैं कुछ भी नहीं खा रहा। उसे महसूस हो रहा है, ‘‘साहब जी, आप तो कुछ खा नहीं रहे... एक ही शहर में तो हैं हम सब। हम मिलते रहेंगे।’’

मैं उसकी तरफ़ देखकर हंसने की कोशिश करता हूं। हंसा नहीं जाता। ज़रा सा मुस्कराता हूं। गिलास ख़ाली करता हूं और गुम हो जाता हूं। कितने कम पैसे होते थे हमारे पास और कितनी ज़्यादा ख़ुशी। हज़ारों ठहाके और न ख़त्म होने वाली मस्ती। हम रेहड़ी पर जाते। मंगतू की रेहड़ी पर। हमारे पास सिर्फ़ दो विकल्प होते, गुड़गट्टा ख़रीदे या चौलाई के लड्डू। हम अक्सर तय नहीं कर पाते थे। फिर हेड-टेल करते। मुझे चौलाई के लड्डू पसंद थे। दूसरे भाई को गुड़गट्टा। तीसरे भाई को संतरेवाली खट्टी-मिट्टी गोलियां। हमें गोलियां अच्छी नहीं लगती थीं। लेकिन होता क्या था, मंगतू जब गुड़गट्टा या चौलाई के लड्डू हमें देने लगता, इस बीच हम संतरेवाली गोलियों का एक पैकेट चुपके से पार कर लेते। संतरेवाली गोलियों का पैकेट चुराने का सुख अभूतपूर्व होता। रास्ते में हम चौलाई के लड्डूओं या फिर गुड़गट्टे की बंदरबांट करते। एक-एक संतरेवाली गोली और मंगतू को बेवक़ूफ़ बनाने की ख़ुशी...। हम ख़ूब ठहाके लगाते। ज़ोर-ज़ोर से हंसते।
 
मकान शिफ़्ट करने का मैंने जब से तय किया था, मैं परेशान रहने लगा था। वैसे भी, बहुत ज़्यादा ठहाके हमारे जीवन में नहीं बचे थे। हम चारों भाई हंसते ज़रूर थे। बातें भी ख़ूब करते। लेकिन जो रस और मस्ती बीस-बाईस साल तक रही, वो बाद में कम हो गई। शायद हम दुनियावी बातों में उलझ गए थे। या फिर, हम ज़्यादा स्वार्थी होते चले गए थे।
चौलाई के लड्डू... गुड़गट्टा और संतरेवाली गोलियों का चुराना... और ख़ूब ठहाके लगाना और उन्हें देर तक चूसते रहना।
वो जश्न न जाने कहां ग़र्क़ हो गया।
‘‘आज हम साहब जी के जाने पर पी रहे हैं, इसे क्या कहेंगे ?’’
एक भाई दूसरे से पूछता है।
‘‘पार्टी।’’
‘‘तू हमेशा बात का मज़ा किरकिरा कर देता है, इसे सेलिब्रेशन कहेंगे।’’

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