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थिएटर रोड के कौवे

ममता कालिया

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :252
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7166
आईएसबीएन :0-14-310024-6

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वक़्त बदलता है, वक़्त के साथ समाज और सामाजिक मान्यताएं भी बदल जाती हैं। इसी बदलते समाज, मान्यताओं और बदल गए जीवन-मूल्यों पर चुभता व्यंग्य...

Theater Road Ke Kauye - A Hindi Book - by Mamta Kaliya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वक़्त बदलता है, वक़्त के साथ समाज और सामाजिक मान्यताएं भी बदल जाती हैं। इसी बदलते समाज, मान्यताओं और बदल गए जीवन-मूल्यों पर चुभता व्यंग्य है यह कहानी संग्रह-थिएटर रोड के कौवे। ममता कालिया की सुपरिचित सरल-सहज शैली में लिखी गई ये कहानियां कहीं विषाद से भर देती हैं, तो कहीं कुछ खो जाने-छूट जाने का अहसास भी दे जाती हैं। साथ ही छोड़ जाती हैं एक जलता-सुलगता प्रश्न कि प्रगति की इस अंधी दौड़ में कहीं हम मानवता के स्तर पर पिछड़ते तो नहीं जा रहे ?

भूमिका की तरह


समय के साथ-साथ हमारे अंदर न जाने कितनी कहानियां भरती जाती हैं। स्मृति के इस छोटे से चिप में अनेक घटनाएं, दुर्घटनाएं, स्वप्न, दुस्वप्न, अनुराग-विराग और आशंकाएं ठसाठस समाई हैं। कई बार मैं सोचती हूं कि होती मैं हुसैन-मक़बूल फ़िदा–तो अपनी बेचैनियों को इतने ऊंचे बुर्ज पर लटका देती–यों। ऐसी तड़फड़ तबीयत से कोई क्या बताए कौन सी कहानी कब लिखी, क्यों लिखी, कहां लिखी। कई बार सुबह के अख़बार के साथ कोई कहानी मेरे पास चली आई, कतरन की तरह, कभी-कभी किसी जुमले के साथ रिबन की तरह खुलती गई कहानी; कभी दुखती उंगली की तरह रात भर चस-चस करती रही, तो कभी हालात बनकर हिला गई आपबीती।

जितना यह सच है उतना ही यह भी कि केवल भाव बोध के सहारे नहीं टिकी रहती कहानी, जब तक उसमें वृहत्तर समय-समाज का सरोकार और दृष्टि-बोध न हो। ‘थिएटर रोड के कौवे’ में शामिल कहानियों के पीछे वे समस्त विसंगतियां हैं जिनकी मूक दर्शक बनकर बैठना मुझे गवारा न हुआ। समय के सवालों से जूझने की चुनौती और उत्कंठा तथा जीवन के प्रति नित-नूतन विस्मय ने ही इन कहानियों का लिखना संभव किया है।
शीर्षक कहानी ‘थिएटर रोड के कौवे’ कहानी जैसे खिड़की के रास्ते फड़फड़ाती हुई अंदर आ गई। इस घटना को दो साल हो गए लेकिन आज भी कौवा देखती हूं तो दहशत से कांप जाती हूं। कोलकाता में थिएटर रोड पर इतने कौवे हैं कि यहां रहते हुए कौवों पर महागाथा (एपिक) लिखी जा सकती है।

एक बार हम इलाहाबाद से मुंबई जा रहे थे। हमारे सहयात्री दंपती ने अपने घर में हुई चोरी का क़िस्सा कुछ ऐसे चमत्कार से सुनाया कि वह याद रह गया। खास बात यह कि उन्हें इसका कोई अहसास नहीं था कि दो रचनाकार उनकी बातें सुन रहे हैं। इस घटना पर रवीन्द्र ने पहले कहानी लिखी। मुझे लगा बात अभी ख़त्म नहीं हुई, कहानी इससे आगे जानी चाहिए। मैंने अपनी तरह से लिखी ‘चोरी’। रवि की कहानी ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ और ‘चोरी’ एक ही प्रकरण के एकदम अलग संस्करण हैं।
‘ख़ुशक़िस्मत’ पूरी तरह अपने पर ही घटित हुई वारदात है। इस लिहाज़ से ‘सेमिनार’, ‘आपकी छोटी लड़की,’ ‘उनका जाना’, ‘बाथरूम,’ ‘बोलने वाली औरत’, ‘ऐसा ही था वह’, ‘लैला मजनूं’ सभी की चोट और कचोट ख़ुद पर झेली गई है। कभी-कभी लगता है जिसे हम जिजीविषा कहते हैं, कहीं वह बेहयाई का ही दूसरा नाम तो नहीं–तीर खाते जाएंगे और मुस्कराते जाएंगे।

मेरे लिखने का कोई निश्चित समय नहीं होता। बिना किसी नक़्शे के कहानी शुरू कर देती हूं मानो शून्य गगन में एक तारा टांक रही हूं। पहले तो फ़ुर्सत ही नहीं मिलती, अगर मिल गई तो बजाय लिखने के टीवी के ऊटपटांग उत्पात देखने में समय नष्ट करती हूं। न लिखा जाए तो रसोई में घुस जाती हूं, रसोई में कोई काम बिगड़ जाए तो पैर पटकती हुई वापस कमरे में आ जाती हूं। कमरे की मेज़ पर मेरे काग़ज़ हरदम फैले रहते हैं। कई बार दो-चार पन्ने उड़कर ग़ायब भी हो जाते हैं । लोग जीवन में अराजक होते हैं, मैं लेखन में अराजक हूं। लिखने के बाद, छप जाने पर रचना पढ़कर अफ़सोस और असंतोष होता है, अरे इसमें वह सब तो लिखा ही नहीं गया, जो सोचा था।

इस सबके बावजूद अब तक मैंने जो भी, जैसा भी लिखा, उस सब को मैं स्वीकार करती हूं। मैं अपनी हर कहानी पर यह शपथ-पत्र लगा सकती हूं कि यह मैंने बड़ी शिद्दत से, अपनी नसों पर महसूस करते हुए लिखी। हर कहानी को अपने कलेजे की गर्मी से सेंका और पकाया। कितना ही यथार्थ ख़ुद झेला, कितना औरों को झेलते हुए देखकर विकल हुई। जिस वक़्त जो लिखा उसमें अपनी पूरी ऊर्जा और ऊष्मा लगा दी। अपने समय से संवाद और विवाद करती इन रचनाओं के साथ मैं निष्कवच खड़ी हूं आपके सामने।

थिएटर रोड के कौवे


‘इतने सारे साबुत समय का आख़िर तुम करोगी क्या ?’ सैकत ने आंखें फैलाकर पूछा।
चेहरे पर आने नहीं दी पर चिढ गई बेला बंसल। उसे नहीं पसंद कि कोई उसके समय की छानबीन करे। छह से आठ तुमने क्या किया, आठ से दस कहां रही ?
इसीलिए मोबाइल फ़ोन नहीं रखती बेला। क्या ज़रूरत है हर समय जानने की कि दूसरा क्या कर रहा है ? कल्पना और अनुमान का आनंद समाप्त करता मोबाइल कैसे विचित्र क्षणों में बज उठता है। वह नहीं चाहती उसके समय का सी.टी. स्कैन होता रहे।

वह देखती है, बस स्टॉप पर हर यात्री कान पर मोबाइल चिपकाए बोले जा रहा है। उसके नंबर की बस आ जाए तो वह बात करते-करते बस में चढ़ जाएगा। टिकट लेना है, वह कंधा उचकाकर मोबाइल को गिरने से रोक लेगा, दूसरे हाथ से पैसे निकालकर कंडक्टर को देगा पर बात बंद नहीं करेगा। बेला को लगता है ये सब सूचना के नहीं, हस्तक्षेप के मामले हैं।
प्रकट उसने कुछ नहीं कहा।
‘नहीं, नहीं, इतने बड़े फ़्लैट में तुम्हें अकेले मैं नहीं छोड़ सकता, तुम्हें दिक़्क़त क्या है ?’
बेला हंस पड़ी, ‘तुम तो अभी मेरी ज़िंदगी में आए हो। सत्ताईस साल मैंने अपनी रक्षा ख़ुद की है, समझे।’

‘अपने को बहुत आत्मनिर्भर समझती हो। मुझे लगता है, तुम्हें किसी कॉन्वेंट में पादरिन होना चाहिए था।’
‘सैकत, तुम्हें बुरा लग रहा है। आई लव यू, पर मैं थोड़ा अलग और एकांत समय चाहती हूं। तुम्हें लगता है, मैं महीना भर क्या करूंगी ? ऑफ़िस से लौटने पर वक़्त कितना बचता है, उसी के टुकड़े-टुकड़े जोड़कर अपनी अधूरी कहानियां पूरी करूंगी। अपनी पंद्रह साड़ियों में फ़ॉल लगाना है और तुम्हें याद करना है, तुमसे प्रेम करना है।’
अंदर से उबलता वह ट्रैवल एजेंट को फ़ोन मिलाने लगा। बेला ने गतिरोधक लगा रखे हैं। चुंबन से आगे नहीं जाने देती। सैकत की कोई श्रद्धा नहीं इन रुकावटों में। शादी के बाद देखेगा कैसे साबुत रखती है बेला समय और सान्निध्य ?

सैकत को फ़ॉर्स्टर सम्मान मिलना है, लंदन में एक जनवरी को। उसकी कहानी प्रथम आई है जबकि यहां कितनी जगहों से यह लौट आई थी। वह चाहे तो एक सहयात्री ले जा सकता है। सहयात्री का हवाई टिकट और आतिथ्य मेज़बान के ऊपर।
बेला के अनुशासन से सैकत खिन्न है। लेकिन अपनी उतावली में वह पहले तीन दोस्तियां बिगाड़ चुका है। इस पर उसने सोचा है, तीस का हो चुका हूं। एक बार लड़की की समझ से चलकर देखूं। ऐसा न हो कि सारी उम्र बेघर रह जाऊं।
बेला शुरू से एकांत-प्रेमी। थिएटर रोड पर अकेली अपने फ़्लैट में रहती है। यानी तैयारी तो उसकी चिर-कौमार्य की है, बीच में अब सैकत आ टपका है तो यह भी साथ रहने लगेगा । वे दोनों एक सेमिनार में मिले चंडीगढ़ में। सैकत को बेला की बुलंदी पसंद आ गई और बेला को सैकत की सौम्यता।

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