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अन्धी सुरंग

वेद राही

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :186
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 716
आईएसबीएन :81-263-0387-5

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प्रस्तुत है डोगरी उपन्यास का हिन्दी रूपान्तर...

Andhi Surang A Hindi book by Ved Rahi - अन्धी सुरंग - वेद राही

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘चरण और रानी’ इस उपन्यास के नायक और नायिका, दोनों एक-दूसरे को कुण्ठित और हाहाकारी परिस्थितियों से निकालते हुए यह भूल गये कि समाज और परिवेश के भ्रष्ट सिद्धान्त उनके विपरीत हैं। उनसे तालमेल बिठाना उनके लिए मुमकिन नहीं है। नतीजतन समय की अन्धी सुरंग से गुजरते हुए दोनों को वह सब सहना पड़ा,जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिन असहनीय यातनाओं, संघर्षो और त्रासदियों से वे गुजरे उन्हीं का दस्तावेज है यह उपन्यास। कहना गलत न होगा कि इस उपन्यास का सरोकार समाज में लगातार अकेले होते जा रहे व्यक्ति के अन्तर्मन से तो है ही, उससे कहीं ज्यादा भी है। अत्यन्त रोचक शैली में लिखे गये इस उपन्यास ‘अन्धी सुरंग’ की पृष्ठभूमि जम्मू-कश्मीर राज्य के वे हालात हैं, जिन्होंने वहाँ आज की दुर्दशा को जन्म दिया है....

अन्धी-सुरंग

एक

नाटक का दूसरा अंक समाप्त होते ही चरण मंच से उतरकर उस खाली कोने में जा खड़ा हुआ जहाँ से अपना मेकअप ठीक करती कमला साफ नजर आ रही थी।
उसने जेब से एक मुड़ा-तुड़ा सिगरेट निकालकर सुलगाया, लम्बा कश लेने से खाँसी आने लगी, लेकिन कोशिश करके उसने खाँसी की आवाज को दूर नहीं जाने दिया। कहीं कमला यह न समझ ले कि मैं जान-बूझकर उसका ध्यान आकर्षित करने के लिए इशारा कर रहा हूँ-यह सोचकर उसने खाँस तो रोक ली, लेकिन धाँस लगने से आँखों में पानी भर आया।
मंच पर परदे के आगे चार-पाँच कुर्सियाँ रख दी गयीं, वहाँ अब भाषण शुरू होंगे। चरण का ध्यान भाषणों की ओर नहीं था। इस समय वह कमला को देखते हुए उसी के बारे में सोच रहा था, अभी-अभी नाटक के जिस अंक पर परदा पड़ा था, उसमें डायलाग बोलते-बोलते कमला ने अचानक ही उसका बाजू पकड़ लिया था। आश्चर्यचकित हुआ वह अपना डायलाग भूल गया, जैसे क्षणों के लिए सोचने की शक्ति ही लुप्त हो गयी हो, यह सब इसलिए हुआ, क्योंकि कमला ने रिहर्सल करते हुए उसे कभी हाथ नहीं लगाया था.

परदे के आगे रखी कुर्सियों पर वे सभी लोग आ बैठे, जो इस नाटक के असली सूत्रधार थे। नेशनल कॉन्फ्रेन्स के जनरल सेक्रेटरी, चीफ मिनिस्टर साहब के प्राइवेट सेक्रेटरी, नारी कल्याण केन्द्र की श्रीमती राजदेव (कमला की माँ), कल्चरल अकादेमी के प्रधान और आर्ट्स कॉलेज के प्रिंसिपल।
चरण का ध्यान उस ओर बिलकुल नहीं था। वह कमला की ओर देखते हुए ऐसे लम्बे-लम्बे कश ले रहा था, जैसे कमला को ही पी रहा हो। मेकअप रूम से निकल कर कमला भाषण सुनने के लिए चरण के सामने विंग के पास आ खड़ी हुई। चरण की ओर देखकर वह थोड़ा मुसकरायी। उस मुसकान में कुछ नहीं था, न कोई इशारा न संकेत; लेकिन अपनत्व की गरमी थी उसमें। वह भी मुसकराया और भाषण सुनने का उपक्रम करता हुआ धीरे-धीरे कमला के पीछे जा खड़ा हुआ।
मिसेज राजदेव अपनी कड़कदार आवाज में कह रही थीं, ‘‘हमारी संस्कृति, हमारा कल्चर बड़ा समृद्ध है, और हमें इसे और भी समृद्ध बनाना है। इस काम का बोझ हमारे जिन नौजवानों ने उठा रखा है, उनका यह नाटक देखकर हम उन पर गर्व कर सकते हैं। देश का भविष्य उन पर निर्भर है। उनका उत्साह बढ़ाने की आवश्यकता है। खुशी की बात है कि हमारी लोक-सरकार ने अपना ध्यान इस ओर दिया है और....’’

कमला के जूड़े में उड़से हुए फूलों की सुगन्ध चरण की नाक तक पहुँची तो उसे ख्याल आया कि यह खुशबू मंच पर अभिनव करते हुए क्यों नहीं आयी ? वह थोड़ा और समीप जा खड़ा हुआ। अब उसके और कमला के बीच ही दूरी थी कि अगर वह चाहता तो उसके जूड़े में उड़से हुए फूलों को नाक से छूकर सूँघ लेता। अचानक उसे ख्याल आया कि कमला की सगाई हो चुकी है। एक रोज रिहर्सल करते हुए दूसरी लड़कियों ने बातों-बातों में यह बात खोली थी, और कमला शरमा गयी थी। सबने उसका मजाक उड़ाया था। चरण को इतने दिनों के बाद अचानक ही आज उस बात की याद आयी थी। सिगरेट का लम्बा और आखिरी कश लेकर उसने उसे पैर के नीचे मसल डाला। सामने देखा तो अब जनरल सेक्रेटरी साहब की तकरी हो रही थी। तिरछी टोपी पहने और अच्छी सुन्दर नक्काशीवाली कश्मीरी छड़ी पकड़े हुए वह कह रहे थे, ‘‘मेरे अजीज दोस्तो ! हमारी रियासत में पहली जमात से लेकर एम.ए. तक पढ़ाई मु्फ्त हो गयी है और नौजवानों को नये-नये रोजगार मुहैया किये जा रहे हैं। उनके सामने तरक्की के रास्ते खोल दिये गये हैं। ये सब लोक-राज की बरकतें हैं, हमें यह नहीं भूलना चाहिए। लेकिन कोई भी लोक-राज तब तक सही मायने में कामयाब नहीं हो सकता, जब तक उसे आम लोगों का सहयोग नहीं मिलता। खास तौर पर नौजवानों को इसके बारे में अपनी जिम्मेदारियों का एहसास जरूर होना चाहिए। मुझे यह देखकर बहुत खुशी हुई कि आज के इस ड्रामे में इन नौजवानों ने समाज-सुधार का पहलू पेश करके अपना फर्ज पूरा किया है। मैं इन्हें मुबारकबाद देता हूँ। मैं मिसेज रामदेव को भी मुबारकबाद देता हूँ जिनकी कोशिशों से यह ड्रामा खेला गया है।’’

शोर-शराबे और तालियों की कान फाड़नेवाली गूँज के बीच भाषण समाप्त हुए। कमला को तालयाँ बजाते देख चरण भी जोर-शोर से तालियाँ बजाने लगा। असली सूत्रधार मंच से नीचे उतर गये। वहाँ से कुर्सियाँ भी उठा ली गयीं। तीसरा और अन्तिम अंक आरम्भ हुआ। डायरेक्टर का इशारा होते ही चरण मंच पर चढ़ गया। वहाँ जाकर उसे ख्याल आया कि उसने शीशे मे अपना मेकअप तो देखा ही नहीं ! फिर भी घबराया नहीं। बालों पर हाथ-वाथ फेरकर उसने अपनी तसल्ली कर ली।
नाटक के अन्त में नायक जहर खा लेता है, लेकिन डॉक्टर की दवा और नायिका की दुआ के कारण वह बच जाता है। आँखें खोलकर वह सबसे पहले अपनी पत्नी-नायिका को देखता है। नायिका उसके ऊपर झुकती है और वह उससे माफी माँहता है; वचन देता है कि आगे से वह कभी शराब नहीं पियेगा और जुआ नहीं खेलेगा। वह अपने बच्चे की कसम खाकर कहता है कि अब वह भलामानस बनने की कोशिश करेगा। उस समय कमला उसकी ओर ऐसे देख रही थी, जैसे कह रही हो, मुझे तो डायरेक्टर ने यहाँ कुछ करने के लिए बताया ही नहीं।

चरण जिस वक्त माफी माँग रहा था, उस वक्त उसका मन हुआ कि वह कमला का हाथ पकड़ ले, लेकिन हिम्मत नहीं हुई। उसके हाथ काँप कर रह गये। उसे लगा कि वह डागलाग भूल जाएगा, लेकिन किसी प्रकार उसने मौका सँभाल लिया। उसके आखिरी शब्दों पर लोगों के मुँह से ‘वाह ! वाह !’ निकल गया और जोर-शोर से तालियों की आवाज गूँज उठी। परदा गिरते ही नाटक के लेखक और डायरेक्टर प्रोफ्रेसर गोपाल धवन ने मंच पर आकर चरण और कमला की पीठ पर हाथ रखकर उन्हें शाबासी दी। उसी समय मिसेज राजदेव भी वहाँ पहुँच गयीं। उन्होंने भी दोनों की बड़ी तारीफ की और कहा, ‘‘सेक्रेटरी साहब बहुत खुश हैं। उन्होंने वादा किया है कि वह जल्दी ही इस नाटक को दूसरे स्थानों पर खेलाने का प्रबन्ध करेंगे।’’ फिर मिसेज राजदेव कमला को लेकर जाने लगीं तो मुड़कर उन्हें चरण को कहा, ‘‘मैंने सेक्रेटरी साहब से बात कर ली है, एक-दो बार फिर से उन्हें याद दिलाना होगा, आप किसी भी समय घर आ जाना, मै आपका काम जरूर करा दूँगी।’’ कमला भी साथ जा रही थी, उसने कमला उसकी की ओर देखा, लेकिन कमला ओर नहीं देख रही थी।
सबसे पीछे पण्डाल से निकलनेवाले चार लोग थे-प्रोफ्रेसर गोपाल, चरण, मदन और परवेज। बाहर निकलते ही चारों ने मुसकराकर एक दूसरे की ओर देखा। सबने एक-दूसरे का मतलब समझ लिया, और पन्द्रह मिनट बाद चारों लोग कॉस्मो होटल के एक केबिन में बैठे हुए थे।

चरण बड़े मूड में बोला, ‘‘दोस्तो, मैंने नाटक के अन्त में शराब पीने की कसम उठायी है और इसी कारण मुझे बड़ी बेचैनी महसूस हो रही है। मुझ पर रहम करो, जल्दी करो, व्हिक्की का ऑर्डर दो और मेरा कलेजा ठण्डा करो। मुझे रोकना नहीं, मैं पहले ही बता दूँ कि मुझे आज ज्यादा पानी है।’’
प्रोफ्रेसर गोपाल बोला, ‘‘तुमने जो कसम उठायी, वह बिलकुल झूठी थी। इस बात का मुझसे बड़ा गवाह और कोई नहीं, क्योंकि यह नाटक मेरा लिखा हुआ है। मैं तुम्हारी कसम खाकर कहता हूँ कि नाटक मैंने इसलिए नहीं लिखा था कि लोग शराब पीना छोड़ दें। मेरा मतलब तो यह था कि मैं कुछ बड़े लोगों की नजर में आ जाऊँ और इस साल मैं डबल इन्क्रीमेण्ट ले सकूँ, मेरा ख्याल है कि मैं अपने मकसद मैं कामयाब रहा हूँ, क्योंकि मेरे प्रिंसिपल साहब काफी खुश होकर गये हैं। अब वह भी नेशनल कॉन्फ्रेन्स के सेक्रेटरी साहब को कह सकते हैं कि उनकी नौकरी एक साल के लिए और बढ़ा दी जाए।’’
‘‘सबको अपना-अपना उल्लू सीधा करना है,’’ मदन, जिसने नाटक में बैकग्राउण्ड म्यूजिक दिया था, बोला, ‘‘यारो, यह तो एक सोशल प्ले था, मैं तो रामलीला में भी सिर्फ इसलिए गाता हूँ ताकि पीने के लिए पैसे हाथ में आ जाएँ। मैं हैरान हूँ कि बैरा सामने बोलत रख गया है और तुम खाली बातें ही कर रहे हो।’’

परवेज ने कहा, ‘‘मैंने पहले ही अकाउण्टेण्ट से तुम सबके पैसे रखा लिये, नहीं तो शो के बाद इस महफिल का जमना मुश्किल था।’’
चारों के गिलास एक-दूसरे से टकराये तो चरण बोला, ‘‘कमला के नाम।’’ सब आँखें फाड़े उसकी ओर देखने लगे। चरण मुसकराया तो सब हँस पड़े, और पहला-पहला घूँट पीने लगे।
परवेज ने दस-दस के सोलह नोट मेज पर रखते हुए कहा, ‘‘यह हम चारों की कमाई है।’’ फिर उसने चार नोट उठाकर अपने कोट की बाहरवाली जेब में ठूँसे, ‘‘इनसे आज का होटल का बिल दिया जाएगा।’’ फिर सबने तीन-तीन नोट उठाकर अपनी-अपनी जेब में डाल लिये।
चरण ने अपना गिलास ‘बाटम-अप’ करते हुए कहा, ‘‘मुझे तो आज अपने काम का मुआवजा उस वक्त ही मिल गया था, जब अचानक ही कमला ने मेरी बाँह पकड़ ली थी।’’
‘‘मैंने ही कमला को कहा था,’’ गोपाल बोला, ‘‘उस जगह बाँह पकड़ना बड़ा जरूरी था। एक रोज जब रिहर्सल करते हुए मैंने उसे बाँह पकड़ने के लिए कहा था तो उसने मेरा कहना नहीं माना था। दूसरी बार मैंने फिर उसे कभी नहीं कहा। लेकिन आज दूसरा अंक शुरू होने से पहले सोचा कि क्यों नहीं उसे इस मौके पर एक बार फिर से कह देखूँ, क्या पता मान ही जाए। मेरा टोटका काम कर गया। पहले अंक की कामयाबी के कारण वह मूड में थी। मौज में आकर उसने तेरी बाँह पकड़ ही ली।’’
‘‘तुम उसे नहीं कहते तो अच्छा था,’’ अच्छा बोला।
‘‘क्यों ?’’ गोपाल ने पूछा।
‘‘मेरी बाँह ही सुन्न हो गयी है, नस-नाड़ियों में लहू जम गया है।’’
‘‘यार, तुम यह किन चक्करों में फँस गये,’’ मदन ने मजाक करते हुए कहा, ‘‘मेरे ख्याल में तुम कमला को नहीं जानते।’’
‘‘मैं आज तक किसी औरत को नहीं जान सका,’’ चरण ने नशे से बोझिल आँखों से सबकी ओर देखते हुए कहा, ‘‘और मैं जानना चाहता हूँ कि यह औरत चीज क्या है ? कुछ अता-पता तो लगे कि कमला के हाथ लगने से मेरी बाँह क्यों सुन्न हो गयी है, खून क्यों जम गया है।’’
‘‘तेरी मूख बहुत बढ़ गयी है,’’ गोपाल ने कहा, ‘‘परवेज, इसे किसी ठिकाने का पता बताओ, इसकी आग तब ही ठण्डी होगी।’’ ‘‘हाँ परवेज, आज मैं तेरे साथ जरूर चलूँगा, तेरा खर्चा भी आज मेरे जिम्मे,’’ चरण बोला।
‘‘तो फिर जल्दी गिलास खाली करो, नहीं तो देर हो जाएगी,’’ परवेज ने अपना गिलास उठाते हुए कहा।
चरण ने एक ही घूँट में सारी गटक ली।
गली में घुसते ही दोनों घुप्प अँधेरे में गुम हो गये। नशे के सरूर में लहराते चरण ने परवेज का हाथ पकड़ लिया, और बोला, ‘‘यहाँ तो कुछ दिखाई ही नहीं देता।’’

परवेज बुदबुदाया, ‘‘अगर इस गली में अँधेरा नहीं होगा तो यहाँ घुसेगा कौन ?’’
दोनों के पैर ईंटों-पत्थरों को टटोलते आगे बढ़ रहे थे। नालियों का भी ध्यान रखना पड़ रहा था। नशे में झूमता-सिमटता चरण अपने दिमाग को झकझोरने का यत्न कर रहा था। आज तो अन्तिम छोर तक भी जाने को तैयार था। बहुत समय से जिस कीचड़ में लथपथ सुलबुल कर रहा था, वह आज उसकी तह तक पहुँचना चाहता था।
‘‘ठहर जा,’’ परवेज धीमे स्वर में बोला।
चरण ने आँखों पर जोर डालकर देखा, एक दरवाजा-जैसा था सामने। अँधेरे में भी उसे कम ऊँची, कच्ची दीवार नजर आ रही थी। इस कोठे के आगे शायद गली बन्द थी। परवेज ने आहिस्ता से दरवाजे पर इस तरह हाथ से दो बार खटखटाहट की जैसे हवा ने दरवाजे को छू लिया हो। अन्दर से कोई आवाज नहीं आयी। खामोशी इतनी गहरी थी कि दोनों को बस एक-दूसरे की साँसों की आवाज ही सुनाई दे रही थी। कुछ क्षणों के लिए चरण को ऐसा लगा कि थोड़ी देर और अगर उसे खामोश सूनी गली में इसी प्रकार खड़े रहना पड़ा तो उसकी साँसें रुक जाएँगी। उसने परवेज को फिर से जरा जोर से दरवाजा खटखटाने के लिए कहना चाहा, लेकिन उससे कुछ बोला ही नहीं गया। परवेज की खामोशी से लगता था कि वह उस अँधेरे से भली-भाँति परिचित है।

चरण की खुमारी पल-पल घटती जा रही है। एक पौआ साथ ले आते तो अच्छा था-उसने सोचा।
कुछ देर के बाद परवेज ने फिर से उसी प्रकार दरवाजे को धीरे से थपथपाया अन्दर एक आहट हुई। खाट की चूलों ने चीं-चीं किया, जैसे कोई लेटा हुआ उठा हो। फिर दरवाजे की ओर आनेवाले पैरों की आवाज, और फिर दरवाजे के पास आकर कोई खड़ा हो गया।
चरण को ऐसा लगा जैसे वह किसी रहस्यपूर्ण कथा का पात्र बन गया है। उसकी नजरें दरवाजे के साथ चिपक गयी थीं। अभी दरवाजा खुलेगा-अभी दरवाजा खुलेगा-उसका रोयाँ-रोयाँ बोल रहा था।
चिटखनी खुलने की आहट हुई, और फिर धीरे से किसी ने दरवाजा खोल दिया।
परवेज फौरन अन्दर दाखिल हो गया। पीछे-पीछे चरण भी।
घरवाली ने दरवाजा फिर बन्द कर दिया; और चिटखनी भी चढ़ा दी। अन्दर बहुत धीमी रोशनी थी। लालटेन की उस रोशनी में उसका चेहरा-मोहरा भी ठीक तरह से दिखाई नहीं दे रहा था। फिर भी इतना तो दिखाई दे ही रहा था कि वह कोई लड़की नहीं, औरत है। लम्बी कमीज और सुत्थन पहनी हुई थी उसने। दुपट्टा नहीं लिया हुआ था। माथे पर लाल बिन्दी थी। आँखें नींद से बोझिल थीं।

‘‘बैठ जाइए,’’ उसने चरण को खाट के समीप पड़ी एक टूटी-फूटी-सी कुरसी पर बैठने का इशारा किया। चरण बैठ गया। फिर उसने परवेज को ‘चलो’ कहा और भीतरी कोठरी का दरवाजा खोलने लगी। उस कोठरी में एकदम अँधेरा था। परवेज ने सिर हिलाकर चरण को इशारा किया कि पहले वह अन्दर चला जाए। लेकिन चरण ने वैसे ही सिर हिलाकर न कर दी। परवेज अन्दर चला गया, थोड़ी देर बाद दरवाजा बन्द हो गया।
बाहर बैठा चरण अन्दर अँधेरे में हो रहे कारोबार के सम्बन्ध में अटकल लगाने लगा। वहाँ पड़ी हर चीज उसे हिलती, चलती, घेरे डालती महसूस होने लगी। साँस तेज हो गयी और सारी देह में सुइयाँ-सी चुभने लगीं।
उसने कुरसी पर से उठने की कोशिश की, लेकिन उठ नहीं सका। उसे लगा कि अगर वह उठेगा तो फिर से गिर जाएगा। उसकी आँखों के सामने कई सूरतें, जीती-जागती आ खड़ी हुईं। कमला की सूरत नजर आयी तो उसे लगा-उसे देखकर वह हँस रही है। उसकी मुसकान बड़ी निर्मल और स्वच्छ थी। फिर कमला के चेहरे के नीचे से चंचल का चेहरा उभर आया। चंचल, उसकी छोटी बहन तोशी की सहेली है। चंचल ने कई बार अकेले में चरण का हाथ पकड़ा है। एक बार सीढ़ियों में अकेले देखकर उसने चंचल को कसकर अपनी बाँहों के घेरे में ले लिया था, लेकिन डरकर जल्दी ही छोड़ दिया। अपनी नशे से बोझिल आँखों से उसे चंचल की सूरत डूबी-डूबी-सी लगी। फिर चंचल की जगह आँखों के सामने उसकी बहन सन्तोष आ खड़ी हुई। उसे जोर से शॉक लगा। उसने झटके से उठने की कोशिश की, लेकिन उठा नहीं गया। वह पसीना-पसीना हो गया था। जेब में से रूमाल निकालकर वह मुँह पोंछने लगा।

अब उसकी आँखों के सामने एक ही चेहरा था, उस औरत का, जो अभी-अभी परवेज के साथ अँधेरी भीतरी कोठरी में चली गयी है। और अपने टूटते-बिखरते वजूद को इस समय सँभालना-सहेजना चरण के लिए कठिन था।
परवेज बाहर निकला।
‘‘जा, चला जा अन्दर,’’ उसने चरण से कहा।
चरण घूरकर परवेज की ओर देखता हुआ उठा। परवेज उसे लुढ़के खाली बर्तन की तरह, अपने से भी ज्यादा किरची-किरची हुआ, टूटा हुआ, बिखरा हुआ प्रतीत हो रहा था, जैसे अन्दर से और भी पी आया हो। उसके बाल बिखरे हुए थे, कोट की एक बाँह पहनी हुई थी, एक निकली हुई थी।...
‘‘जा भई,’’ परवेज ने जिप चढ़ाते हुए उसे दोबारा कहा।
चरण ने भीतरी कोठरी के दरवाजे की ओर देखा; दरवाजा आधा खुला हुआ था। वह आगे बढ़ा। दरवाजे के समीप पहुँचकर सहम गया। परवेज ने फिर से पीछे से आवाज दी, ‘‘देख क्या रहे हो, जाओ अन्दर !’’
अन्दर पाँव रखते ही उस औरत की आवाज कानों में पड़ी, ‘‘दरवाजा बन्द कर दो।’’
दरवाजा बन्द करके वह मुड़ा तो घुप्प अँधेरे में उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया।
समझ में नहीं आया कि वह किस तरफ से आगे बढ़े, और वह कोठरी किस दिशा में आगे बढ़ती है। जिस ओर उसका मुँह था, वह उसी ओर आगे जाने लगा। दो कदम ही आगे बढ़ाये होंगे कि घुटनों से कुछ लगा। उसे अपना कोट भी खिंचता महसूस हुआ। साथ ही आवाज आयी, ‘‘यहाँ बैठ जाओ !’’
कोट उतारकर उसने एक ओर रखा; फिर वह खाट पर बैठकर बूट खोलने लगा। बूट खोलकर वह सीधा होने ही लगा था कि लेटी हुई उस औरत ने उसे खींच लिया। उसे कुछ सोचने का अवसर नहीं दिया। और फिर धीरे-धीरे वह किसी गहरी अँधेरी गुफा में उतरता चला गया।

नींद खुल गयी थी और रजाई में दुबके चरण का मन सिगरेट पीने को कर रहा था। रात सोने से पहले ही सिगरेट की डिब्बी खाली करके उसने फेंक दी थी। अब अमल चढ़ रहा था, लेकिन ओढ़ी रजाई की गरमी और टूटी खुमारी का एहसास उसे उठने नहीं दे रहा था। आखिर तलब इतनी बढ़ी कि उससे रहा नहीं गया। एक झटके से उसने रजाई सिर के नीचे से निकाली और पैर मारकर उसे खाट पर पैरों की ओर उछाल दिया। ठण्ड की एक लहर सरसरा गयी। जम्हाई लेते-लेते रुक गया। तुरत स्वेटर पहनकर खाट से नीचे उतरा और चप्पलें पहनने लगा। उसी समय ‘राम-राम सिया राम’ जपती माँ मन्दिर से लौटी। उसके एक हाथ में छोटी-सी टोकरी थी, जिसमें कुछ फूल थे, प्रसाद था और धूपदानी थी। धूप सुलग रहा था। माँ को देखते ही चरण को अन्दाजा हो गया कि साढ़े आठ बजे गये हैं। माँ रसोई के करीब पहुँची तो चरण बाहर निकलने लगा। माँ ने आवाज दी,’’ प्रसाद तो लेता जा।’’
वह रुक गया। कुल्ला करने के लिए गुसलखाने में दाखिल हुआ तो देखा तोशी पहले ही वहाँ बैठी ब्रुश कर रही थी। जिस तरह वह ब्रुश कर रही थी, चरण समझ गया कि आज वह देर से उठी है, और कॉलेज लेट पहुँचने का डर है उसे। उसके हाथ मशीन की तरह चल रहे थे।
‘‘ड्रामा खत्म होने के बाद तुम कहाँ चले गये थे, भैया ?’’ तोशी ने पूछा।
‘‘काम था, सारा हिसाब-किताब करना बाकी था।’’ कहकर उसने कुल्ला किया और मुँह पर छींटें मारने लगा।
‘‘अच्छा नाटक था, सब तारीफ कर रहे थे। चंचल को तो बहुत पसन्द आया, खास तौर पर तुम्हारी ऐक्टिंग !’’ फिर तोशी को ख्याल आया कि वह लेट हो चुकी है, वह फिर से जल्दी-जल्दी ब्रुश करने लगी।

गुसलखाने से निकलकर चरण तौलिये से हाथ पोंछने के लिए जब पसार के दरवाजे के पास पहुँचा, बाऊजी बाहर आये हुए थे। चरण को देखकर उन्होंने मुँह फेर लिया। चरण को मालूम है कि वह जब भी किसी ड्रामे में पार्ट करके आता है, बाऊजी उससे दो-तीन दिन बात नहीं करते। सारी बुराइयों की जड़ वह ड्रामे को मानते हैं। वह सोचते हैं कि अगर इन कामों में नहीं पड़ता तो उसने पढ़ाई पूरी कर ली होती। कॉलेज के पहले वर्ष में ही पढ़ाई छोड़ देना मूर्खता नहीं तो और क्या है ? लेकिन यह सारा झगड़ा अब पुराना हो चुका है। अब वह चाहते हैं कि चरण किसी काम पर लग जाए। लेकिन उन्हें पता है कि काम पर लगना इतना आसान नहीं। उन्होंने स्वयं भी काफी जोड़-तोड़ किये हैं लेकिन कुछ नहीं बना। चरण भी कोशिश कर रहा है-वह जानते हैं, फिर भी चरण के नाटकों से उन्हें बड़ी चिढ़ है।
चरण दूसरी बार बाऊजी की ओर नहीं देख सका। जल्दी-जल्दी हाथ-मुँह पोंछकर वह प्रसाद लेने के लिए माँ के पास जा खड़ा हुआ।
‘‘रात तुमने रोटी भी नहीं खायी ?’’ माँ ने किशमिश के कुछ दाने उसकी हथेली पर रखते हुए कहा।
‘‘मैं कहीं खाकर आया था,’’ चरण ने उत्तर दिया और किशमिश मुँह में डाल बाहर निकल गया। ‘भल्ले दी हट्टी’ (भल्ला की दुकान) पहुँचते ही उसने सिगरेट की डिब्बी, एक कप चाय और दो उबले हुए अण्डों का ऑर्डर दिया। रात रोटी न खाने के कारण इस वक्त भूख लग रही थी। उसके ऑर्डर देने के ढंग से ही भल्ला समझ गया, आज माल मिल सकता है। सिगरेट की डिब्बी देते हुए धीरे से अर्ज गुजारी, ‘‘चरण जी, आज कुछ उम्मीद है ?’’

‘‘क्यों नहीं,’’ कहकर चरण ने सिगरेट सुलगाया और जेब से पाँच का एक नोट निकालकर भल्ला के आगे ऐसे बढ़ाया जैसे उसके लिए यह नोट किसी गिनती में नहीं। चारमीनार के कश-अजीब ही नशा है इन तीनों चीजों के ‘कम्बीनेशन’ में। उसके होठ भी साथ-साथ गाने लगे। पैरों ने ताल देनी शुरू कर दी। रात की यादें धीरे-धीरे उभरने लगीं। उसे महसूस हुआ कि रात उसने कोई सपना देखा था। ‘‘कैसी अजीब बात है,’’ वह सोचने लगा, ‘‘हो चुकी, बीत चुकी भी कैसे अनुभव से न गुजरी हुई लगती है।’’ अँधेरे का साक्षी कोई नहीं था, उसकी अपनी आँखों ने भी तो कुछ नहीं देखा था।
उसने जेब में हाथ डालकर देखा। अभी इतने पैसे थे कि वह आज फिर उस अँधेरी गली में जा सकता।
‘‘सुना भई चरण,’’ मदन के आते ही पूछा, ‘‘रात तेरा काम सिरे चढ़ा कि नहीं ?’’ फिर वहाँ जा रहा हूँ।’’
‘‘वाह, जवाब नहीं तेरा, जिन्दगी की पहली सुहागरात तुमने मना ली। चल, इसी खुशी में आ चाय पिला।’’
चरण ने आवाज देकर भल्ला को चाय का ऑर्डर दिया और उससे पूछा, ‘‘तुम इस वक्त कहाँ से आज रहे हो ? आज बड़े सजे-सँवरे हो !’’
‘‘मैं अपने मक्का शरीफ गया हुआ था, हज्ज करके आया हूँ।’’
‘‘खुदा-ए-वक्त के दीदार हुए ?’’
‘‘दीदार किये बगैर मैं वापस कैसे आ सकता था। आज तो कमाल ही हो गया।’’
‘‘क्या हुआ ?’’
‘‘मिनिस्टर की कोठी पर आज ज्यादा लोग नहीं थे। मैं भी लेट हो गया था। इधर मैं पहुँचा, उधर मिनिस्टर साहब अन्दर से बाहर निकले। मैंने सलाम गुजारी। मुझे देखते ही उन्होंने अपने पास आने का इशारा किया। मैं झट आगे हुआ, मुझे कन्धे से पकड़कर उन्होंने जोर से मेरी पीठ पर घूँसा मारा।’’
‘‘घूँसा मारा ? बख्शी साहब ने ?’’ चरण हैरान हुआ।

‘‘हाँ यार, इतने जोर से मारा कि वहाँ जितने लोग खड़े थे, सारे मेरी खुशकिस्मती पर अश-अश कर उठे। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी पीठ में कीला गड़ गया है, लेकिन मैंने अपना दर्द किसी पर प्रकट नहीं होने दिया। सबकी आँखों में यही इच्छा थी कि ऐसा ही एक घूँसा उनकी पीठ पर भी पड़े। घूँसा मारकर मिनिस्टर साहब ने मुझे थपकी दी, आज मैं बड़ा खुश हूँ।’’
इतनी देर में ही चाय आ गयी। मदन ने चाय का घूँट भरा और फिर से बोलना शुरू किया, ‘‘इसलिए खुश हूँ कि मिनिस्टर साहब ने आखिर मुझे पहचानना शुरू कर दिया है। मेरी तपस्या सफल होने लगी है। नौकरी मिली कि मिली समझो।’’
‘‘वहाँ और भी तो उम्मीदवार होते होंगे ?’’
‘‘बहुतेरे, लेकिन मेरा ढंग सबसे अलग है। दूसरे लोग तो यह सोचकर जाते हैं कि उन्हें अभी नौकरी मिल जाएगी। बख्शी साहब के आगे बढ़-बढ़कर अपनी योग्यता बताते हैं। बख्शी साहब उन्हें टालने-बहलाने के लिए जो बहाने बनाते हैं, उन्हें ही जमा करके एक दिलचस्प किताब लिखी जा सकती है। मेरे बारे में उन्हें कुछ पता ही नहीं। हाँ, इतना तो वह जरूर जान ही गये होंगे कि मैं भी कोई मकसद लेकर रोज सुबह-सवेरे उनके आस्ताने पर सजदा करने जाता हूँ। वह देख रहे हैं कि मैं कब तक अपना मकसद उन्हें नहीं बताता, और मैं इन्तजार में हूँ कि वह कब तक नहीं पूछते।’’
चरण को मालुम है कि मदन को नौकरी हासिल करने का यह ढंग एस.पी. खजूरिया ने बताया हुआ है, जिसने खुद भी इसी तरह हाजिरी भर-भरकर और सलाम कर-करके नौकरी लपकी थी। आज यह बात प्रकट हो गयी है कि उसने घूँसे भी खाये होंगे तभी तो वह बात-बात पर गरीब-कमजोरों पर हाथ उठा लेता है। पहले मदन ने चरण को भी साथ लपेटना चाहा था, लेकिन चरण को यह तरीका कुछ जँचा नहीं। वह तो बस सरकारी दफ्तरों में चक्कर लगा आता है, पूछ लेता है कि कोई जगह खाली है या नहीं। मन में वह जानता है कि सिर्फ पूछने से खाली जगह की सूचना नहीं मिल सकती। इसी कारण दूसरों के मुँह से यह सुनकर कि ‘कोई जगह खाली नहीं’ उसे कभी अफसोस नहीं हुआ। बल्कि अपनी बात सच्ची साबित होने पर उसे तसल्ली होती है।

मदन ने चाय का आखिरी घूँट भरा और बोला, ‘‘मैं आज एक कदम और आगे बढ़ा रहा हूँ, मुझे पता चला है कि मिनिस्टर साहब आज आर.एस. पुरा जा रहे हैं। यहाँ से एक ही घण्टे का रास्ता है। अगर मैं उनसे पहले वहाँ पहुँच जाऊँ और उनके पहुँचते ही सलाम ठोक दूँ तो वह मेरी मुस्तैदी और वकादारी पर और भी खुश हो जाएँगे। मैं उनकी नजरों में और भी चढ़ जाऊँगा। तेरा क्या ख्याल है, मैं जाऊँ कि नहीं जाऊँ ?’’
‘‘मुझे तो यह सब खेल-तमाशा लगता है,’’ चरण बोला।
‘‘मुझे इसमें एडवेंचर फील होता है।’’
‘‘तो जा फिर !’’
‘‘अभी टाइम है।’’
फिर वे दोनों फिल्मी गानों का प्रोग्राम सुनते रहे। कुछ देर बाद वे वहाँ से निकले तो मदन ने पूछा, ‘‘तेरा क्या प्रोग्राम है ?’’
‘‘परवेज के पास जाना है दोपहर को, हो सकता है कि उसका चाचा गुलाम मुहम्मद कोई टिप्पस भिड़ाकर कहीं अड़ा ही दे। नहीं तो लारे तो दे ही रहा है।’’
गली के मोड़ पर पहुँचकर चरण घर की ओर चल दिया, और मदन घड़ी देखते हुए सोचने लगा कि अब उसे आर.एस. पुरा की बस पकड़ लेनी चाहिए।

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