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हास्य-व्यंग्य >> जिंदगी ज़िंदादिली का नाम है

जिंदगी ज़िंदादिली का नाम है

ज़किया ज़हीर

प्रकाशक : पेंग्इन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :203
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7159
आईएसबीएन :9780143063377

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और मज़े की बात तो ये है कि कुछ न कहने पर भी हमेशा हम पर ये इल्ज़ाम लगा कि हम बहुत ज़्यादा बोलते हैं

Jindagi Jindadili Ka Nam Hai - A Hindi Book - by Zakia Zaheer

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कुछ कहने पे तूफ़ान उठा देती है दुनिया
अपनी तो ये आदत है कि हम कुछ नहीं कहते

और मज़े की बात तो ये है कि कुछ न कहने पर भी हमेशा हम पर ये इल्ज़ाम लगा कि हम बहुत ज़्यादा बोलते हैं। बचपन में हमको हमेशा तोता, मैना, chatterbox और बातूनी कहकर पुकारा गया। अब आप ही बताइए कि एक बच्ची के ज़हन में और आँखों के सामने जब इतनी ख़ूबसूरत और इतनी दिलचस्प और रंग-बिरंगी बातें हों, तो वो उनका इज़हार लफ़्ज़ों में कैसे न करे। सिर्फ हमारे वालिद हमारा दिल रखने को कभी-कभी अपने नाना ‘हाली’ का ये शेर पढ़ देते थेः

बहुत लगता है दिल बातों में उसकी
वो अपनी जा़त से एक अंजुमन है

अनुक्रम



१. मैं एक मिसाली मां हूं
२. मुझे मेरे पोतों से बचाओ
३. कोई आसान काम नहीं हरगिज़ घर किराए पर लेना
४. मुझे मेरे हमसायों से बचाओ
५. घर बनवाना या लोहे के चने चबाना
६. काश कि सोचा होता क़र्ज़ लेने से पहले
७. अनमोल गुर उधार न लौटाने के
८. घर का बजट–बला-ए-जान
९. बाज़ आए कमाऊ बीवी से
१॰. शौहर की नज़रबरदारी
११. अपने पाँव आप कुल्हाड़ी
१२. नौकरों की निगरानी कोई हंसी-खेल नहीं
१३. लगता नहीं है दिल मेरा बावर्चीख़ाने में
१४. न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी
१५. ऊंची दुकान और फीका पकवान
१६. सैरो-तफ़रीह–लुफ़्त या कोफ़्त ?
१७. हमें भी मिले हमसफ़र कैसे-कैसे
१८. दास्ताने-सफ़र ईदेमनतन (एडमंटन, कनाडा)
१९. त्योहार मनाना भी एक फ़न है
२॰. ज़्यादा बोलने का फ़ायदे
२१. तंज़ो-मिज़ाह या बीमारी-ए-मज़ाक़
२२. अंदाज़े बयां
२३. सास को ख़ुश रखना–मुश्किल दारद
२४. ग़ीबत, कौन करता है ग़ीबत ?
२५. चिड़चिड़ेपन के फ़ायदे
२६. फ़ैशन की अंधी तक़लीद
२७. सेलफ़ोन की नेमत या लानत ?
२८. सस्ती सेल महंगे दाम
२९. आज का काम कल पर टालने का फ़न
३॰. यार आप तो अपने ही आदमी निकले
३१. बाज़ आए बढ़ती आबादी से
३२. साले का चक्कर
३३. हमारे बचपन के पकवान

मैं एक मिसाली मां हूं


कहती हूं सच कि झूठ की आदत नहीं मुझे

बहुत दिन हुए मैंने एक अंग्रेज़ी फ़िल्म देखी थी जिसका उन्वान था Bringing up J.B. वह इस तरह शुरू होती है कि एक मियां बीवी अपने ड्रॉइंगरूम में बैठे थे। शौहर उठकर खिड़की से बाहर झांकता है और बीवी से कहता है, ‘‘सुनो कुछ लोग मोटर में आए हैं और हमारे बेटे जे.बी. को ढूंढ़ रहे हैं।’’ बीवी जवाब देती है ‘‘कोई अजनबी होंगे।’’ फिर मियां कहते हैं, ‘‘देखो उन्होंने ज़बरदस्ती जे.बी. को पकड़ लिया है और मोटर के अंदर धकेल रहे हैं।’’ ‘‘बेचारे’’ बीवी का जवाब। फिर मियां बोले, ‘‘अरे देखो तो। वह जे.बी. को मोटर में डालकर बहुत दूर निकल गए हैं’’ और बीवी इत्मीनान से कहती है, ‘‘ख़ुदा उन पर रहम करे।’’ बहरहाल प्लॉट इस तरह बढ़ता है कि जे.बी. उन अग़वा करनेवालों को नए-नए ढंग से तंग करता है। और वह लोग इस क़दर परेशान हो जाते हैं कि अपना Ransom का मुतालबा जो 5 लाख का था उसको कम करते-करते चार से तीन फिर दो और आख़िर में एक लाख कर देते हैं। और अंजाम यह होता है कि वह ख़ुद एक लाख देने को तैयार है। इस शर्त पर कि बराए-मेहरबानी जे.बी. को वापस ले जाइए।

अब शायद मेरे हमसायों में कोई भी अग़वा करने की ख़्वाहिश नहीं रखता। या मेरे चार बच्चों की शोहरत जाबजा फैल चुकी है। वरना मैं भी चार लाख से मालामाल हो सकती थी। जी हां, मेरे भी जे.बी. की तरह के चार शरीर बच्चे हैं जिनमें सबसे शरीर मेरा चौथा बेटा है क्योंकि उनके बाद पांचवां नहीं आया और सब शरारतें उस पर ख़त्म हो गईं।
लोग समझते हैं कि मैं एक मिसाली मां हूं। मुझे बच्चों की तरबीयत करने के सही गुर और परवरिश का ढंग आता है। और मैं यह सुनकर मुस्कुराती हूं और सर झुकाकर इस तारीफ़ को क़ुबूल कर लेती हूं। शायद यह इस वजह से है कि मैं इन बच्चों के साथ ज़िंदगी के कई साल गुज़ारने के बावजूद अपने दिमाग़ का तवाज़ुन और आसाब बरक़रार रख पाई हूँ। लेकिन यह कोई आसान काम न था। आइए आज इस राज़ में आपको भी शामिल कर लूं कि किस तरह बावजूद इन चार शरीर बच्चों के मैंने एक नॉर्मल और पुरसुकून ज़िंदगी गुज़ारना सीखा।

औलाद होने से पहले मैं यह समझती थी कि मैंने अपने आपको इस तजुर्बे के लिए पूरी तरह तैयार कर लिया है। बच्चों की तरबीयत की बहुत किताबें पढ़ीं। इल्मे नफ़्सियात का मुताला किया। मुख़्तलिफ़ वालदैन से तबादला-ए-ख़्याल किया। और इस पर अमल करने की कोशिश की कि ‘खिलाओ सोने का निवाला, देखो शेर की निगाह’ वग़ैरह वग़ैरह। लेकिन हक़ीक़त क्या होगी यह मुझे ही क्या, किसी नौगिरफ़्तार मां को कभी पहले से अंदाज़ा नहीं हो सकता।

मैंने दुनिया की तारीख़ में बहुत सी अज़ीम और बाहौसला औरतों का ज़िक्र सुना और पढ़ा है लेकिन जिस औरत की इज़्ज़त और क़द्र मेरे दिल में सबसे ज़्यादा है वह मेरी हमसाई हैं जिनको एक दफ़ा मैंने बहुत सुकून और सब्र से अपने 4 साला बच्चों से यह कहते सुना था, ‘‘मैं तुमसे आठवीं दफ़ा कह रही हूं कि मेरे नए सोफ़े पर अपनी साइकिल न चलाओ।’’ अगर वह मेरा बेटा और मेरा सोफ़ा होता तो... ख़ैर जाने दीजिए। कौन यह जानेगा कि यह भोली-भाली सूरत वाले मासूम जो मन मोहना जानते हैं, कभी-कभी इंसान (या मां) को अपनी सीरत का वहशियाना-तरीन पहलू दिखाने पर भी मजबूर कर सकते हैं। बहरहाल यह गुमनाम औरत हमेशा के लिए मेरे दिल में घर कर गई और साथ ही यह हक़ीक़त भी मुझ पर रौशन हो गई कि बच्चों की तरबीयत आसान नहीं है। इसके लिए ग़ैर मामूली ज़ब्त, इंतहाई सब्र, लोहे के आसाब और माहौल की तरफ़ से क़द्रे बेहिसी बहुत ज़रूरी है और साथ-साथ कुछ अदाकारी, थोड़ी सख़्ती और हां हिम्मत और हौसला !

और यही मैंने अपनी मादराना ज़िंदगी का उसूल बना लिया। पहले मैं हमेशा इस फ़िक्र में रहती थी कि किस तरह सुबह-सुबह उठकर ख़ुशमिज़ाजी से बच्चों को उठाऊंगी ताकि इसकी वजह से मेरा और उनका पूरा दिन अच्छा गुज़रेगा। लेकिन यक़ीन कीजिए बावजूद आधी रात इस फ़िक्र में जागने के जब भी मैं सुबह-सुबह सूजी आंखों और थके दिमाग़ से उनको उठाने जाती तो हमेशा उनको जागता और मसरूफ़ पाती। और यही नहीं मैं देखती कि बेदारी का यह वक़्त उन्होंने ज़ाया नहीं किया है। बड़े साहबज़ादे मेरी नई लिपस्टिक से कमरे की ज़मीन पर न मालूम किस अनजानी दुनिया का नक़्शा बनाने में मसरूफ़ होते, मंझले मियां मंजन से दाढ़ी-मूंछ बनाकर आईने में अपने आपको पसंदीदा नज़रों से देख रहे होते और मुन्ने साहब मेरे नाखून की रेती से अपने पलंग के दिल में गहरे-गहरे शिगाफ़ करके इसकी लकड़ी का बुरादा निकालकर उसका नाश्ता करते हुए पाए जाते।

लिहाज़ा अब मैंने हालात से समझौता इस तरह कर लिया कि मैं इत्मीनान से पूरी नींद सोती हूं। और अपने वक़्त पर उठकर जब मैं यह नक़्शा देखती हूं तो बजाय अपनी आवाज़ को ख़राब करने के ख़ुशमिज़ाजी से लिपस्टिक के टुकड़े जमा करती हूं। नए मंजन के ख़ाली ट्यूब बाहर फेंकती हूं और नाख़ून की टेढ़ी रेती को सीधा करके मुन्ने मियां के मुंह से लकड़ी का बुरादा निकालकर उनके पेट की ख़ैर मनाती हूं। और मुस्कुराने की कोशिश करते हुए बच्चों को नाश्ते की मेज़ तक ले जाने की कोशिश करती हूं। लेकिन कमाल तो यह है कि चार बच्चों को वहां तक ले जाने के लिए कम अज़ कम बारह दफ़ा पकड़ना पड़ता है। और आख़िर में सबसे छोटे को कुर्सी पर बांधकर और बाक़ियों को धमकी से बिठा देती हूं और फिर... थोड़ी देर में मेज़ पर दूध और मक्खन की नहरें रवां हो जाती हैं। जैम से प्लेटों पर नाम लिखे मिलते हैं। और कॉर्न फ़्लैक्स का छिड़काव। और फिर छुरी-कांटे जंग का हथियार बन जाते हैं। लेकिन फिर भी क्या आप यक़ीन करेंगे कि मैं अपनी ख़ुशमिज़ाजी बरक़रार रखकर सिर्फ़ उनके हाथों से छुरी-कांटे छीनने पर इक्तफ़ा करती हूं और उनको नाश्ते की तरफ़ मुतवज्जा करती हूं। लेकिन थोड़ी ही देर बाद जब मैं बचा हुआ मक्खन वापस रखने को मक्खनदान तलाश करती हूं और न मालूम अल्हाम या तजुर्बे से ख़ुद-ब-ख़ुद मेरे क़दम ग़ुसलख़ाने की तरफ़ बढ़ जाते हैं और जब मैं वहां मक्खनदान को इत्मीनान से फ़्लश में तैरता देखती हूं तो उस वक़्त न जाने मेरे दिमाग़ को क्या हो जाता है और बस फिर मुझे इतना ही याद है कि मेरे शौहर मुझे पकड़े हुए कह रहे हैं, ‘‘ज़रा आहिस्ता चीख़िए। इस मुहल्ले में और लोग भी रहते हैं।’’

और इन वाक़ेयात और तजुर्बात ने मुझे अब यह अक़्ल सिखाई कि मैं बजाय मुहल्ले के लोगों को अपनी दिमाग़ी हालत से मश्कूक करने के सिर्फ़ चंद छोटी-छोटी टांगों को अपने घुटने पर रखकर हाथों को एहतेजाज करने की इजाज़त दे देती हूं। हो सकता है कि इसमें कभी बेइंसाफ़ी हो जाए और ग़लत टांगें हाथ के नीचे आ जाएं। लेकिन आपको यह सुनकर तअज्जुब होगा कि इस तरह घरेलू नुक़सान और प्लम्बर का बिल कम हो जाता है। और घर की फ़िज़ा शांत हो जाती है।

इसी तरह बच्चों को सुलाने का मसला भी एक टेढ़ी खीर है। अब कोई पूछे कि भई इसमें क्या प्रॉब्लम है। नींद आएगी तो जाकर सो जाएंगे। जी नहीं। यह ऐसा आसान काम नहीं। शायद यह मासूम ज़ालिम मां-बाप का चैन, सुकून और नींद ग़ायब करने के लिए ही पैदा होते हैं। आप चाहे कितने पहले से प्लान करें। नर्सरी सजाएं और इसमें हज़ारों ख़र्च करें और खुशमि़ज़ाजी से उनको एक घंटा टहल-टहलकर लोरियां सुनाएं। किताबों से कहानियां पढ़ें। और फिर इत्मीनान की सांस लेकर यह समझकर कि अब वे सो गए हैं अपने कमरे का रुख़ करें ताकि अपने नाज़ुक मिज़ाज शौहर का मूड ठीक कर सकें, जो बच्चे होने के बाद अहसासे लापरवाही का शिकार हो गए हैं। लेकिन अभी आपके मुंह से पहला जुमला-ए-मुहब्बत निकलता ही है कि नर्सरी से चीख़ों की आवाज़ सुनाई देती है जैसे किसी को शिकंजे में कसा जा रहा है। ‘‘अम्मी मेरे पेट में दर्द है’’ या ‘‘अम्मी मेरा दम घुट रहा है,’’ ‘‘अम्मी मुझे डर लग रहा है’’ और अम्मी अपने दर्द, घुटन और डर में मुब्तला बच्चे को गोद में उठाकर डॉक्टर या एंबुलेंस का नंबर देखने लगती हैं। लेकिन ऐसी तकलीफ़ का क्या किया जाए जो सिर्फ़ हमारे बिस्तर और रज़ाई में दुबककर ठीक हो सकती है ! और नतीजा ? बच्चा आराम की नींद सोता है, मैं बेआराम और बेख़्वाब और शौहर ख़फ़ा !

अब इसका इलाज भी तजुर्बे ने यह सिखाया कि हम अपना कमरा बंद करके रज़ाई से मुंह ढककर सो जाएं। बच्चों की आवाज़ से कान बंद करके। इससे हमारी सेहत और शौहर का मिज़ाज भी ठीक रहेगा और शायद हमारी ब्याहता ज़िंदगी ज़्यादा, ख़ुशगवार हो जाए !

शुरू-शुरू में मैंने बहुत कोशिश की कि बच्चों को रोज़मर्रा की गुफ़्तगू का सलीक़ा और अदब, तहज़ीब सिखाऊं। इस पर मैंने बहुत किताबें भी पढ़ीं। मुझे हमेशा यह फ़िक्र रहती थी कि कहीं वह मुझे दूसरों के सामने शर्मिंदा न करें लेकिन अब मेरी समझ में आ गया है कि चाहे मैं कुछ भी कहूं, लेकिन उनकी ज़बान और फ़ितरी तजस्सुस को नहीं रोक सकती। और न ही उन हज़ारों मुमकिन और नामुमकिन बातों को उनको मना कर सकती हूं जिनका मेरे ज़हन और अक़्ल में गुमान ही नहीं हो सकता। मसलन मैं अपने बच्चों से यह तो कह सकती हूं कि मेहमानों से तमीज़ से बात करना, लेकिन मैं पहले से उनको किस तरह मना कर सकती हूं कि आते ही मेहमान पर चॉकलेट न लाने का इल्ज़ाम मत लगाना या दीवार में छेद करके दूसरी तरफ़ से उसको सलाख़ न चुभाना। या घर आए दोस्त को ख़रगोश के पिंजरे में बंद करके ऊपर से ग़िलाफ़ न ढकना। यहां तक कि मैंने पहले से यह भी नहीं कहा कि जब तुम्हारे पापा के बॉस घर आएं तो उनके बैठने की कुर्सी पर पिनों का डिज़ाइन बनाकर न छोड़ना, ताकि वह फिर कभी न आएंगे बल्कि तुम्हारे पापा की तरक्क़ी भी रोक देंगे ! और यह कि आने वाले मेहमानों से यह भी न पूछना कि आपकी नाक इतनी लंबी क्यों है। लेकिन अब चार बच्चों को पालने के बाद मुझमें अक़्ल आ गई कि न सिर्फ़ उनको हर मुमकिन और नामुमकिन बात करने से मना करूं बल्कि बोलने से भी मना कर दूं।

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