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प्रयोजनमूलक हिन्दी

माधव सोनटक्के

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7003
आईएसबीएन :81-8031-055-8

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प्रयोजनवती भाषा के इस स्वरूप की आवश्यकता छात्र के लिए ही नहीं हर उस व्यक्ति के लिए आवश्यक है जो इस बाजार प्रबंधन के युग में रहना चाहता है...

Prayojanmulak Hindi - A Hindi Book - by Madhav Santakke

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

डॉ. माधव सोनटक्के ने अत्यंत सजगता और परिश्रम से यह पुस्तक लिखी है। राजभाषा होने के तर्क से हिन्दी भाषा का प्रयोग तो बढ़ा ही है, संचार-साधनों और माध्यमों के कारण प्रयोजन भी बदलते हैं और तेजी से बदल रहे हैं कम्प्यूटर क्रान्ति ने भाषा की प्रकृति को ही प्रायः बदल डाला है। इस प्रकार सम्प्रेषण तकनीक और प्रयोजनों के आपसी तालमेल से भाषा का चरित्र निरंतर बदल रहा है। प्रयोजन मूलकता गतिशील है-स्थिर नहीं। इसलिए प्रयोजनों के अनुसार भाषा-प्रयोग विधियाँ ही नहीं बदलती हैं, वाक्य गठन और शब्द चयन भी बदलता है। बहुभाषी समाज में सर्वसामान्यता और शब्द चयन भी बदलता है। बहुभाषी समाज में सर्वसामान्यता और मानकीकरण का दबाव बढ़ता है। ऐसे में प्रयोजन मूलक हिन्दी केवल वैयाकरणों और माध्यम विशेषज्ञों की वस्तु नहीं रह जाती है।

 कार्यालयीय आदेशों और पत्र व्यवहारों आदि के अतिरिक्त उसका क्षेत्र फैलता जाता है। इसलिये आज वही पुस्तक उपयोगी हो सकती है जो छात्रों को भाषा के मानकीकृत रूपों और सही प्रयोगों के अलावा प्रयोजनों के अनुसार भाषा में होने वाले वांछित परिवर्तनों के बारे में भी बताये। प्रयोजनवती भाषा के इस स्वरूप की आवश्यकता छात्र के लिए ही नहीं हर उस व्यक्ति के लिए आवश्यक है जो इस बाजार प्रंबधंन के युग में रहना चाहता है। डॉ. माधव सोनटक्के लिखित इस पुस्तक में इन समस्याओं का निदान खोजने का प्रयत्न किया गया है। उन्होंने परम्परागत प्रयोजन मूलकता से भिन्न प्रयोजनों में भाषा के प्रयोग और उस माध्यम या यंत्र की जानकारी देने का अच्छे ढंग से प्रयत्न किया है। कम्प्यूटर में हिन्दी प्रयोग अध्याय इसका उदाहरण है। प्रत्यक्षतः इसका विषय से सीधा सम्बन्ध नहीं है परन्तु प्रौद्योगिकी और भाषा के सम्बन्ध और प्रयोग की दृष्टि से यह अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार की जानकारी से पुस्तक की उपादेयता और समकालीनता दोनों बढ़ी है। अनुवाद आजकल विषय के रूप में ध्यान में रखते हुए उसका बहुत सावधानी से विचार किया गया है। परम्परागत विषयों पर लिखते समय लेखक ने आवश्यकता, प्रचलन, व्यावसायिकता पर ही ध्यान नहीं रखा है बल्कि वांछित प्रभाव पर भी बल दिया है जो, भाषा की प्रयोजन मूलकता का अनिवार्य लक्षण है।

‘व्यापार और जन-संचार माध्यम’ अध्याय इस पुस्तक की विशेषता है। विज्ञापन की भाषा पर लेखन ने आकर्षण और प्रभाव की दृष्टि से विचार किया है, जो आज पठन-पाठन के लिये ही नहीं, वाणिज्य व्यवसाय की दृष्टि से भी आवश्यक है। पुस्तक का महत्व इससे और बढ़ गया है। एक दृष्टि से यह व्याकरण से अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है।
व्याकरण से सम्बद्ध भाग इस अर्थ में अधिक सटीक और तर्कसंगत है। इसमें भाषा पर विचार वास्तविक कठिनाई के आधार पर भी किया गया है। सामान्य त्रुटियों के अतिरिक्त पुस्तक में गलत प्रचलनों पर भी विचार किया गया है। मानकीकरण की दृष्टि से लेखन ने वर्तनी के प्रयोग पर अलग से गंभीरता से लिखा है।
अनुभागों में विभक्त यह पुस्तक छात्रों के लिये आज की दृष्टि से सर्वाधिक उपयुक्त तो है ही, उन पाठकों को भी इससे लाभ होगा जो सामान्य हिन्दी और विविध प्रयोजनों के अनुसार बदलने वाली भाषा-प्रयोग-विधियों के बारे में जानना चाहते हैं। लोकभारती प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक सामान्य विद्यार्थी के अतिरिक्त प्रतियोगी छात्रों और विशेषज्ञों को भी निश्चय ही लाभान्वित करेगी।

प्राक्कथन

भारतीय संविधान में हिन्दी भाषा को केन्द्रिय संघ राज्य की राजभाषा के रूप में स्वीकृति प्राप्त है, परन्तु व्यवहार में अंग्रेजी भाषा का बोल-बाला ज्यादा है। अंग्रेजदाँ लालफिताशाही तथा भाषा की राजनीति करने वाले राजनयिक अंग्रेजी के पक्ष में कितने भी तर्क देते रहें, इस देश का सामान्य-जन एक सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी भाषा का भाषिक संरचना, व्याकरण तथा अनुवाद के धरातल पर अध्ययन आज की एक परम आवश्यकता है। प्रयोजनमूलक, प्रयुक्तिमूलक तथा व्यावहारिक आदि सम्बोधनों से होनेवाला यह भाषिक अध्ययन ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा के वास्तविक सिंहासन पर अधिष्ठित कराने का सही और सार्थक मार्ग बन सकता है। आज तक एक साहित्यिक भाषा के रूप में हिन्दी ने अपनी क्षमता का परिचय दिया और हिन्दी पर अविकसित भाषा होने का लांछन लगाने वाले अंग्रेजदाँ की बोलती बंद की है। इसलिए अब यह तर्क दिया जा रहा है कि एक कामकाजी भाषा के रूप में हिन्दी की प्रकृति क्लिष्ट और दुर्बोध है। भाषा की क्लिष्टता उसकी प्रयुक्तिगत संरचना के साथ ही प्रयुक्ति मात्रा पर निर्भर होती है। इसलिए आवश्यक है कि विविध प्रयुक्ति-रूपों में उसका व्यापक रूप में प्रयोग हो तथा प्रयोग के आधार पर ही अद्भुत समस्याओं का निराकरण हो। हमारी विडम्बना है कि तालाब के किनारे खड़े होकर तैराकी की अनिवार्यता और उसकी समस्याओं पर मात्र परिचर्चाओं में हम मशगूल हैं। इस विडम्बना से मुक्त होना अनिवार्य है। इसलिए विविध विश्वविद्यालयों के हिन्दी के पाठ्यक्रमों में ‘प्रयोजनमूलक हिन्दी’ को स्थान दिया जा रहा है। डॉ. बाबासाहेब मराठवाड़ा विश्वविद्यालय तथा स्वामी रामानन्द तीर्थ मराठवाड़ा विश्वविद्यालय ने भी बी. ए. द्वितीय वर्ष के पाठ्यक्रम में प्रयोजनमूलक हिन्दी’ को स्थान दिया है। प्रयोजनमूलक हिन्दी की विविध प्रयुक्तियाँ, व्याकरण तथा अनुवाद का अध्ययन इस पाठ्यक्रम में अपेक्षित है।

प्रयोजनमूलक हिन्दी की प्रयुक्तियाँ, व्याकरण तथा अनुवाद के संदर्भ में विद्वानों के चिन्तन को सहज, सरल भाषा में छात्रों तथा अध्येताओं तक पहुँचाने का प्रामाणिक प्रयास इस पुस्तक का उद्देश्य है। इसलिए सर्वप्रथम उन सभी विद्वानों के प्रति श्रद्धायुक्त आभार व्यक्त करता हूँ; जिनके ग्रन्थों के सहारे इस विषय को समझने-समझाने का प्रयास किया गया है। ग्रन्थों के साथ ही गुरुजनों, मित्र तथा आत्मीजनों के सहयोग के बल ही एक नये विषय को छूने का साहस कर पाया हूँ। इसलिए डॉ. भ. ह. राजूरकर, चन्द्रदेव कवड़े, डॉ. नारायण शर्मा, डॉ. कमलाकर गंगावणे, डॉ. नन्दकिशोर शागा, प्रा. गंगाधर देगांवकर, प्राचार्य अशोक हजारे, डॉ, चन्द्रभानु सोनवणे, आचार्य डॉ. बेग आदि गुरुजनों के प्रति श्रद्धानत हूँ। विषयांशों की व्याप्ति तथा अध्ययन-स्त्रोत, संदर्भ आदि के विषय में डॉ. नारायण शर्मा तथा डॉ. चन्द्रदेव कड़वे जी से कई बार परामर्श करने का अवसर प्राप्त हुआ। आपने आत्मीय सहयोग दिया, इसलिए विशेष आभार। डॉ. शशिकान्त ब्रह्मणपुरकर, श्री सुभाष माने, प्रा. प्रह्लाद लुलेकर श्री बालचंद बागुल, डॉ. बलभीमराज गोरे, प्रा. गोविन्द आढ़े, प्रा. आप्पासाहेब फण्ड. डॉ. श्रीमती राजलक्ष्मी नायडू, प्रा. सकुमार  भण्डारी आदि मित्रों का सहयोग तथा प्रोत्साहन प्राप्त होता रहा, साथ ही हिन्दी विभाग के श्री अनिल कोठारकर, श्री शंकरपुरी, श्री हरिभाऊ गायकवाड़, वाघमारे तथा लोखंडे मामा आदि का भी सहयोग बना रहा, इसलिए सबके प्रति कृतज्ञ हूँ। मेरी सहचारिणी श्रीमती सुषमा तथा पुत्र कुमार मधुरेश मेरे अपने हैं, मेरे हर कार्य में शामिल हैं, इसलिए धन्यवाद के अधिकारी भी हैं।

अन्त में, मेरे छात्र तथा पाठकगणों के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ, जिनके प्रेम तथा सराहना के बल एक और पुस्तक प्रस्तुत करने का साहस कर रहा हूँ। यह नया संस्करण, नये टाइप सेट में, अब लोकभारती, इलाहाबाद प्रकाशित कर रहा है।

औरंगाबाद,

                               डॉ. माधव सोनटक्के


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