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भारत की राष्ट्रीय संस्कृति

एस.आबिद हुसैन

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 70
आईएसबीएन :9788123707082

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प्रस्तुत पुस्तक इस तथ्य को उजागर करती है कि भारत में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विविधता होने के बावजूद भी आन्तरिक तौर पर एकता निहित है।

Bharat Ki Rastriya Sanskrati - A hindi Book by - S. Aabid Hussein - भारत की राष्ट्रीय संस्कृति - एस.आबिद हुसैन

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत पुस्तक इस तथ्य को उजागर करती है कि भारत में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विविधता होने के बावजूद भी आन्तरिक तौर पर एकता निहित है। लेखक ने इसमें भारतीय इतिहास और उसकी घटनाओं का काल-क्रमानुसार सर्वेक्षण करके ऐसी अनेक बातों पर प्रकाश डाला है जो भारत को नया स्वरूप प्रदान करती हैं। उन्होंने वर्तामान युग में व्याप्त अनेक विघटनकारी प्रवृत्तियों का इस पुस्तक में समावेश किया, लेकिन वे भविष्य के प्रति पूर्णतया आशावान रहे।

आबिद हुसैन (1896-1978) जामिया मिलिया, नई दिल्ली में 1926 से 1956 तक दर्शनशास्त्र और साहित्य के प्राध्यापक तथा उसके बाद अवकाश प्राप्त प्राध्यापक रहे। आपने 40 से भी अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें "इंडियन नेशनलिज्म एंड कल्चर" (तीन खंड), "द वे आफ गाँधी एंड नेहरू" "द डेस्टिनी आफ इंडियन मुस्लिम" के साथ अंग्रेजी और जर्मन से अनेक पुस्तकें अनूदित कीं। इस पुस्तक के मूल उर्दू संस्करण को 1956 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ तथा 1957 में डॉ. आबिद हुसैन को पद्य भूषण से सम्मानित किया गया। इसमें भारतीय संस्कृति का मार्मिक चित्रण किया गया।

 

प्राक्कथन

 

प्रस्तुत पुस्तक, भारत की राष्ट्रीय संस्कृति में डा. एस. आबिद हुसैन ने भारतीय संस्कृति के प्रारंभ से अभी तक विकास की मुख्य विशेषताओं की ओर संकेत किया है। विषय का प्रस्तुतीकरण उनकी योग्यता और उद्देश्य के प्रति दृष्टिकोण प्रकट करता है। वे तर्क प्रस्तुत करते हैं कि जीवन के संबन्ध में एक समान अध्यात्मिक दृष्टिकोण जिसमें विभिन्न जातियों और धर्मों का योगदान रहा है, ‘‘भारत का हजारों वर्षों का सांस्कृतिक इतिहास दर्शाता है कि एकता का सूक्ष्म किंतु मजबूत धागा जो उसके जीवन की अनंत विविधताओं में से होकर जाता है,

सत्ता समूहों के जोर देने या दबाव के कारण नहीं बुना गया, बल्कि भविष्य दृष्टाओं की दृष्टि, संतों की चेतना, दार्शनिकों के चिंतन और कवि कलाकारों की कल्पना का परिणाम है, और केवल ये ही ऐसे माध्यम हैं, जिनका राष्ट्रीय एकता को व्यापक, मजबूत तथा स्थायी बनाने में उपयोग किया जा सकता है।’’ यह कुछ आश्चर्यजनक प्रतीत होता है कि हमारी सरकार को धर्म निरपेक्ष होना चाहिए, ज
बकि हमारी संस्कृति की जड़ें आध्यात्मिक मूल्यों में हैं। धर्म निरपेक्षता का यहां अर्थ अधार्मिकता, नास्तिकता या भौतिकता आराम पर जोर दिया जाना नहीं है। उसका अर्थ यह है कि आध्यात्मिक मूल्यों की सार्वलौकिकता पर जोर दिया जाये, जिसे विभिन्न तरीकों से प्राप्त किया जा सकता है।

धर्म निरंतर परिवर्तित होने वाला अनुभव है। यह कोई दैवी सिद्घांत नहीं है। यह एक आध्यात्मिक चेतना है। आस्था और आचरण यज्ञ और अनुष्ठान, रूढ़िवादिता और अधिकार आत्मावलोकन की कला तथा दैवी संबंधों के अधीन होते हैं। जब कोई व्यक्ति अपनी आत्मा को बाह्य गतिविधियों से बाहर निकाल लेता है और आंतरिक रूप आश्चर्यजनक, पवित्र अनुभव होते हैं, जो उसे स्वयं को गतिशील बनाते हैं,

उसे बंधन में कर लेते हैं उसकी स्वयं की एक सत्ता बन जाती है। जो तर्क और विज्ञान के मानने वाले हैं, वे भी आध्यात्मिक अनुभवों के तथ्यों को स्वीकार करेंगे, जो प्राथमिक और सकारात्मक हैं। हम धर्म विज्ञान के संबंध में मतभेद व्यक्त कर सकते हैं किंतु तथ्यों से इंकार नहीं कर सकते।
जीवन की आग उसके जलने के प्रकट रूप में सहमत होने के लिए लाचार करती है, किंतु आग के चारों ओर बैठे धुआं उड़ाने वालों के टटोलने और अंदाज लगाने से सहमति प्राप्त नहीं होती। उपलब्धि जबकि एक तथ्य है तथ्य है तो वास्तविकता का सिद्धांत एक संदर्भ है। वास्तविकता के साथ संबंध और उसके बारे में दृष्टिकोण के बीच, दैवी रहस्य और ईश्वर के प्रति आस्था के बीच अंतर है। यह राज्य की धर्म निरपेक्ष अवधारणा का अर्थ है, यद्यपि सामान्य तौर से वह समझ के परे है।

यह दृष्टिकोण भारतीय परंपराओं के समान ही है। ऋग्वेद के दृष्टा इस बात की पुष्टि करते हैं कि वास्तविकता एक ही है, जबकि विद्वान उसके बारे में विभिन्न तरह से बोलते हैं। अशोक राक एडिक्ट (xii) में अंकित करता है, ‘‘वह व्यक्ति जो अपने धर्म का सम्मान करता है,

दूसरों के अपने धर्म के प्रति निष्ठावान रहने की निंदा करता है और दूसरे धर्मों की तुलना में अपने धर्म को श्रेष्ठ बताता है, वह निश्चित ही अपने स्वयं के धर्म का अहित करता है, वास्तव में धर्मों के प्रति सामंजस्य ही श्रेष्ठ है।’’ समवाय इवा साधु’। सदियों के बाद अकबर ने व्यक्त किया-‘‘विभिन्न धार्मिक समुदाय ईश्वर द्वारा हमें सौंपे गये दैवी खजाने हैं। हमें उसी रूप में उससे प्रेम करना चाहिए हमारा यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि प्रत्येक धर्म एक ईश्वरी देन है। शाश्वत् नियंता सभी मनुष्यों पर बिना किसी भेद-भाव के प्रेम की वर्षा करता है।’’

यही सिद्धांत है जो हमारे संविधान में समाहित होते हैं और जो सभी को अपने धर्मिक विश्वासों और अनुष्ठानों को व्यवहार में लाने और प्रचार करने की तब तक स्वतंत्रता देता है, जब तक कि वह नीतिपरक भावों के विपरीत नहीं होता। हम उस आधार को मान्यता देते हैं जिस पर विभिन्न धार्मिक परंपराएं अवलंबित हैं। इस समान आधार पर हम सभी का अधिकार है,
क्योंकि इसका स्रोत शाश्वत् है। मूलभूत विचारों की एकरूपता जो हमें ऐतिहासिक अध्ययन एवं धर्मों की तुलना करने से ज्ञात हुई, भविष्य की आशा है। इससे धार्मिक एकता और समझ बढ़ती है इससे मालूम होता है कि हम सब एक अनदेखी ईश्वरीय संस्था के सदस्य हैं चाहे भले ही ऐतिहासिक कारणों से हम उस विशेष धर्मिक समुदाय के सदस्य बन गये हों।
आबिद हुसैन ने राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए कुछ सुझाव प्रस्तुत किए हैं। हम उन्हें स्वीकार करें या नहीं किंतु सभी भारतीय चिंतकों द्वारा उन पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।

 

20 अप्रैल, 1955

 

एस. राधाकृष्णन

 

प्रस्तावना

 

अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में संयुक्त राज्य अमेरिका का एक स्वतंत्र प्रजातांत्रिक शक्ति के रूप में उदय, जो परोक्ष में फ्रांस की क्रान्ति का कारण बना, एक ऐतिहासिक घटना थी। उसने आधुनिक प्रजातंत्र की क्षीण धारा को निरंतर बहने वाली विशाल नदी के रूप में गहन और चौड़ा बना दिया। आज जबकि ऐसा प्रतीत होता है कि प्रजातांत्रिक आवेग, दुनिया के अनेक भागों में सूख सा गया है, नए भारतीय गणतंत्र का जन्म एक उल्लेखनीय घटना है जो स्वतंत्रता प्रेमियों के लिए एक नया संदेश लेकर आया है। किंतु यह आशा भी छाये हुए उस भय से मुक्ति नहीं है कि भारत में प्रजातंत्र का उदय परिपक्व न सिद्ध हो जाये, जैसाकि कुछ अन्य एशियाई देशों में हुआ।

एशिया के विभिन्न देशों में प्रजातंत्र की पक्की जड़ें जमाने की असफलता के पीछे तीन मुख्य कारण हैं। कुछ में राष्ट्रीय व्यवस्था और ऐतिहासिक परंपराओं ने मिलकर प्रतिकूल स्थितियां उत्पन्न कीं। दूसरों में लोगों में न्यूनतम शिक्षा और राजनैतिक चेतना की कमी रही और एक दो देशों में बाहर से प्रजातंत्र विरोधी शक्तियों ने अवरोधात्मक प्रभाव डाला। भाग्य से भारत में इनमें से कोई भी बाधा इतनी बड़ी नहीं है

जो प्रजातांत्रिक प्रयोग के लिए वास्तविक खतरा बन सके। भारतीय मस्तिष्क के लिए प्रजातंत्र का विचार नया नहीं है। यद्यपि प्राचीन भारत को प्रतिनिधि सरकार की वर्तमान व्यापक प्रणाली का कोई ज्ञान नहीं था, किंतु ग्रामीण स्तर पर आदिम प्रजातांत्रिक प्रणाली प्रचलित थी। अधिकतर लोग अशिक्षित हैं, किंतु व्यावहारिक ज्ञान तथा नागरिक भावना में पीछे नहीं हैं जो प्रजातंत्र को आधार देते हैं।
स्वतंत्र भारत के प्रथम चुनाव में, जो मानव इतिहास में सबसे बड़ा था, यह पर्यात्त रूप से प्रमाणित हो गया। जहां तक बाह्य प्रभावों का संबंध है, वे कुल मिलाकर प्रजातंत्र के लिए अनुकूल हैं। हमारे नये प्रजातंत्र को एक मात्र खतरा, जो देखने वाले को सामान्य लगता है

, किंतु बड़ा खतरा है, यह है कि भारतीय राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय संस्कृति से संतुलित बनाई गयी विविधता में एकता की पद्धतियां हैं और यदि यह संतुलन सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान में गलत व्यवहार से टूटता है तो भयानक विघटन की स्थिति आ सकती है, जिससे न केवल प्रजातांत्रिक पद्धति का बल्कि समस्त शांति और व्यवस्था का अंत हो जायेगा, तथा कठिनाई से प्राप्त की गई हमारी आजादी आंतरिक या बाह्य तानाशाही शक्तियों के द्वारा समाप्त कर दी जायेगी।

भारतीय राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय संस्कृति के पिछले विकास और वर्तमान स्थिति का अध्ययन करने तथा उनकी एकता को मजबूत बनाने तथा सुरक्षित करने के उपायों पर विचार करने के लिए, वास्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण समस्या की, जहां तक संभव हो, विवेचना करना इस पुस्तक का उद्देश्य है।

यहां इस बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि जब यह पुस्तक पहले उर्दू में लिखी गयी थी, तब भारत का दो स्वतंत्र राज्यों के रूप में विभाजन नहीं हुआ था। और मेरे द्वारा संपूर्ण अविभाजित भारत की स्थिति का पुस्तक में समावेश किया गया था। देश के विभाजन ने, जो मुख्यतः सांस्कृतिक विघटनकारी शक्तियों के कारण हुआ, प्रथमतः यह सिद्ध कर दिया कि मेरे द्वारा जो आशंकाएं व्यक्त की गयी थीं, वे वास्तविक थीं और दूसरी स्थिति में यह आवश्यक बना दिया कि विवेचना को मुख्य भारत तक सीमित रखा जाये,

जो अविभाजित भारत की सांस्कृतिक परंपराओं की मुख्य उत्तराधिकारी है। किंतु मेरे द्वारा इस बात पर जोर दिया जाना जरूरी है कि मैं संपूर्ण उपमहाद्वीप को एक सांस्कृतिक इकाई मानता हूं। (शब्द के व्यापक अर्थ में) जिसके दो भाग एक-दूसरे से केवल समान ऐतिहासिक एवं भौगोलिक कारणों में कुल अलगाव की स्थिति अधिक समय तक नहीं चलेगी और एक दिन ऐसा आयेगा कि, यदि कनाडा से समान विधिवत् संघ नहीं बनता, तो उन्हें कम से कम संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और कनाडा की तरह एक महासंघ बनाना पड़ेगा।

मैं राकफेलर फाउंडेशन के प्रति अत्यधिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूं, जिसकी सहायता ने मुझे निजी और सार्वजनिक चिंताओं से दूर, मोहक भौगोलिक तथा मानसिक उत्साहवर्द्धक आबोहवा के जर्मन के सुंदर छोटे ट्वीगेन नगर में यह पुस्तक लिखने में समर्थ बनया। डॉ. ताराचंद जी, जिन्होंने इस टाइप की हुई पांडुलिपि को देखा तथा गल्तियों को सुधारा और अधिक अच्छा बनाने के सुझाव दिए तथा डा. राधाकृष्णन जी जिन्होंने पुस्तक का प्राक्कथन लिखा, को मेरी ओर से धन्यवाद।

 

मई, 1956

 

एस.आबिद हुसैन

 

मूल अंग्रेजी के द्वितीय संस्करण की प्रस्तवाना

 

इस पुस्तक का प्रथम संस्करण 1946 में प्रकाशित तीन खंडों में मूल उर्दू पुस्तक का संक्षिप्त रूप था। अधिकांश अध्याओं को छोटा बनाया गया और संपूर्ण ग्रंथ पहले से आधे से भी छोटा हो गया।

किंतु यह पाया गया कि प्राचीनकाल का वर्णन करने वाला मध्यकाल और आधुनिककाल की तुलना में बहुत संक्षेप में है। इसलिए पुस्तक को द्वितीय संस्करण के लिए संशोधित करते समय, मैंने द्वितीय संस्करण के दूसरे अध्याय को पूरी तरह नया बना दिया गया, जिससे समाधान करना है, उनके संबंध में व्यापक दृष्टिकोण लिया जा सके जो राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता के प्रति आवश्वस्त करने के लिए आवश्यक है।

 

मूल अंग्रेजी की तृतीय संस्करण की प्रस्तावना

 

इस संस्करण के लिए जो नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया के द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है, मैंने पूर्व संस्करण को पूरी तरह संशोधित कर दिया है और तथ्यों तथा विगत 20 वर्षों में राजनैतिक, सामाजिक तथा शिक्षा के क्षेत्र में जो घटित हुआ, निकट से उनके अवलोकन द्वारा मेरे विचारों में जो परिवर्तन आया, उसका समावेश कर पुस्तक को अद्यतन बना दिया है।

 

एस. आबिद हुसैन


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