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वैदिक गणित

श्री भारतीकृष्णतीर्थ

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :334
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7
आईएसबीएन :8120821742

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यह ग्रंथ आधुनिक पश्चिमी पद्धति से नितान्त भिन्न पद्धति का अनुसरण करता है, जो इस खोज पर आधारित है कि अन्तःप्रज्ञा से उच्चस्तरीय यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वैदिक गणित पर लिखित इस चमत्कारी एवं क्रांतिकारी ग्रंथ में एक नितान्त नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है। इसमें संख्याओं एवं राशियों के विषय में जिस सत्य का प्रतिपादन हुआ है वह सभी विज्ञान तथा कला-विषयों में समान रूप से लागू होता है।

यह ग्रंथ आधुनिक पश्चिमी पद्धति से नितान्त भिन्न पद्धति का अनुसरण करता है, जो इस खोज पर आधारित है कि अन्तःप्रज्ञा से उच्चस्तरीय यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसमें यह प्रदर्शित किया गया है कि प्राचीन भारतीय पद्धति एवं उसकी गुप्त प्रक्रियाएँ गणित की विभिन्न समस्याओं को हल करने की क्षमता रखती हैं। जिस ब्रह्माण्ड में हम रहते हैं उसकी रचना गणितमूलक है तथा गणितीय माप और संबंधों में व्यक्त नियमों का अनुसरण करती है। इस ग्रंथ के चालीस अध्यायों में गणित के सभी विषय--गुणन, भाग, खण्डीकरण, समीकरण, फलन इत्यादि--का समावेश हो गया है तथा उनसे संबंधित सभी प्रश्नों को स्पष्ट रूप से समझाकर अद्यावधि ज्ञात सरलतम प्रक्रिया से हल किया गया है। यह जगद्गुरु श्री भारतीकृष्णतीर्थ जी महाराज की वर्षों की अविरत साधना का फल है।

 

प्रधान संपादक की प्रस्तावना

 

 

गोवर्धन पुरी के परम पावन जगद्गुरु शंकराचार्य श्री भारतीकृष्णतीर्थ जी महाराज (1884-1960) ने वैदिक गणित या वेदों के सोलह सरल गणितीय सूत्र नाम का ग्रन्थ लिखा है।
लेखक की मन को केन्द्रित कर की गई कोर साधना के फलस्वरूप प्राप्त अंतः प्रेरणात्मक ज्ञानचक्षुओं द्वारा साक्षात्कार किए गए गणित के मूलभूत सत्यों के साकार रूप में यह ग्रन्थ आता है न कि अन्य वैज्ञानिक कृतियों की तरह उपयोगिता मूलक कृतियों की श्रेणी में। इसलिए मौखिक गणित इसका उपयुक्त नाम है। और जैसा कि लेखक ने अपने प्राक्कथन में स्वयं कहा है, यह मौखिक गणित वास्तव में नियम बद्ध विज्ञान न होकर चमत्कार अधिक है।

स्वामी शंकराचार्य जी विज्ञान तथा समाजशास्त्र आदि विषयों के प्रतिभाशाली विद्वान थे। इतना ही नहीं उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व इन सबसे कहीं ऊँचा था। वे एक ऋषि थे जिन्होंने वेदों में निहित उन प्राचीन ऋषियों के आदर्शों तथा उपलब्धियों को आगे बढ़ा रहे थे जिन्होंने वेदों में निहित ब्रह्माण्ड के नियमों की खोज की थी। स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ वेदों को उतनी ही श्रद्धा देते थे। यह प्रश्न तो स्वाभाविक है कि जिन सूत्रों पर यह ग्रंथ आधारित है, वे वेदों में, जैसे कि वे हमें मालूम हैं, कहीं आते भी हैं या नहीं। किन्तु यह प्रश्न स्वयं ही हल हो जाता है यदि हम स्वयं शंकराचार्य द्वारा दी गई वेदों की निम्नलिखित परिभाषा समझ लें :

‘‘वेद शब्द का व्युत्पत्तिक अर्थ है : संपूर्ण ज्ञान का स्रोत तथा अनंत संग्रह। इस व्युत्पत्ति से जो ध्वनि निकलती है, अर्थ निकलता है, उसका का तात्पर्य है कि वेदों में मानव समाज के लिए आवश्यक न केवल आध्यात्मिक (तथाकथित परलोक के लिए) वरन इहलौकिक, सांसारिक या व्यावहारिक संपूर्ण ज्ञान होना चाहिए। और भी, सारी मानव जाति के विकास की जितनी भी दशाएं संभव हैं उनमें सर्वांगीण, संपूर्ण तथा अधिकतम सफलता के विकास के लिये आवश्यक ज्ञान उनमें होना चाहिये। तथा उनमें निहित ज्ञान पर किसी भी विषय में किसी भी दशा में सीमा बांधने वाला विशेषण या बंधन भी नहीं हो सकता।

‘‘दूसरे शब्दों में हमारा प्राचीन वैदिक ज्ञान सर्वांगीण, संपूर्ण तथा परिपूर्ण होना चाहिए तथा उसमें ज्ञान के किसी भी साधक की किसी भी विषय पर संभाव्य जिज्ञासा पर आवश्यक प्रकाश डालने का सामर्थ्य होना चाहिए।’’ उनके वैदिक परम्पराओं के मूल्यांकन का सार यही है कि उसे तथ्यों की दृष्टि से न देखकर, उसे आदर्श दृष्टिकोण से देखना चाहिए, नाम्ना, भारत में वेदों के, परम्परागत अर्थ में, संपूर्ण ज्ञान के संग्रह के रूप में लेना चाहिए और जो हमारे पास बचे हैं उनके सीमित अर्थ में नहीं लेना चाहिए। इस अभिगम से आलोचकों के तर्क अर्थहीन हो जाते हैं तथा प्राचीन काल से संरक्षित सामग्री में वैदिक गणित के लेखक के सूत्रों की खोज करने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। चार वेद ऋक्, यजु:, साम तथा अथर्व तो भली भांति ज्ञात हैं, किन्तु उनके चार उपवेद तथा छह वेदांग भी हैं। ये सभी मिलकर उस दिव्य ज्ञान का अभाज्य संग्रह बनाते हैं जैसा कि पहले था तथा जैसा कि उसके प्रकाश में लाना चाहिए। चार उपवेद इस प्रकार हैं :

वेद - उपवेद
ऋग्वेद - आयुर्वेद
सामवेद - गांधर्ववेद
यजुर्वेद - धनुर्वेद
अथर्ववेद - स्थापत्यवेद

स्थापत्य उपवेद अर्थात् इंजीनियरी के अन्तर्गत सारा वास्तुशिल्प तथा संरचनात्मक संबंधी सारे मानवीय उद्यम और चाक्षुष कलाएं आती हैं। स्वामी जी ने स्वाभाविक रूप से गणित या गणना विज्ञान को इसी विभाग में माना।
लेखक का यह कथन कि, सोलह सूत्र जिन पर यह कृति आधारित है, अथर्ववेद के परिशिष्ट में आते हैं, उपरोक्त परिभाषा तथा अभिगम के प्रकाश में ही समझना चाहिए। हमें यह मालूम है कि प्रत्येक वेद में कुछ संदिग्ध स्रोत की सहायता सामग्री रही है जिसमें कि कुछ पाण्डुलिपि में ही रह जाती है, तथा कुछ मुद्रित हो चुकी हैं किन्तु यह प्रक्रिया समाप्त नहीं हुई है। उदाहर्णार्थ, 1909-10 में जी.एम. बॉलिंग तथा जे वॉन नेजेलीन, लीपज़िंग ने अथर्ववेद के कुछ परिशिष्ट संपादित किए थे। किन्तु शंकराचार्य जी की यह कृति तो स्वयं में एक नवीन परिशिष्ट है तथा इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इसमें वर्णित सूत्र अभी तक के ज्ञात परिशिष्टों में नहीं मिलते।

इन मुख्य 16 सूत्रों तथा उनके उपसूत्रों अथवा उपप्रमेयों की सूची कृति के प्रारम्भ में ही दी गई है, तथा भाषा की शैली यह इंगित करती है कि उनकी रचना स्वामी जी ने की है। स्रोत के प्रश्न पर अधिक विचारने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इन सूत्रों के विपुल गुणों की खोज बुद्धिमान पाठक के अनुभूति की वस्तु है। लेखक ने इस कृति में जो कुछ भी लिखा है वह अपने गुणों की सामर्थ्य से है तथा अपने गुणों के ही बल पर ही वह संसार के सामने प्रस्तुत किया गया है। स्वामीजी अनोखे गुणों वाले एक अलौकिक व्यक्ति, प्रतिभाशाली लेखक तथा प्रभावशाली वक्ता थे। कई बार जब भी वे लखनऊ आए मुझे उनके प्रवचनों को सुनने का सौभाग्य मिला, और वे बहुत ही लोकप्रिय सिद्ध हुए। वे लगातार कई घंटों तक अपनी मधुर आवाज में धाराप्रवाह अंग्रेजी तथा संस्कृत में भाषण दे सकते थे तथा उनकी मधुर आवाज श्रोताओं के हृदय पर गहरा प्रभाव छोड़ जाती थी। वे भारतीय इतिहास के स्वर्णयुग के वैज्ञानिक विचार भर्तृहरि के एक अन्य क्षेत्र में अर्थात् ‘व्याकरण दर्शन’’ के रचयिता के रूप में उत्साही प्रशंसक थे।

स्वामीजी ने गणित की सभी शाखाओं तथा पहलुओं के प्रश्नों तथा प्रक्रियाओं पर 16 ग्रन्थ लिखने की योजना बनाई थी तथा इसमें कतई सन्देह नहीं है कि उनकी प्रखर प्रतिभा इस योग्य थी। किन्तु हमें केवल यह प्रस्तावनात्मक ग्रन्थ मिला है, जिसमें कि सारे संसार में प्रचलित विधियों से भिन्न एक सर्वथा मौलिक अभिगम दिया गया है जिसे लेखक ने मौखिक गणित कहा है, तथा जिसकी उपादेयता के कारण ही इस कृति को विशेष आदर मिलना चाहिए। साधारण भिन्न जैसे 1/19, 1/29, 1/49 को 18, 28 या 42 पैडी वाले प्रचलित हलों के स्थान पर कृति में एक पंक्ति में हल किया गया है तथा वे विधियाँ इतनी सरल हैं कि किशोर बालक भी उन्हें हल कर सकते हैं। इन प्रक्रियाओं की सत्यता का प्रमाण इस ऋषि तुल्य शिक्षक ने भारत तथा अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में प्रदर्शित की तथा विद्वान प्रोफेसरों सहित सारे श्रोतागण उनकी मौलिकता तथा सरलता से एकदम प्रभावित हुए थे।

स्वामी शंकराचार्य अपने प्राक्कथन में कहते हैं कि उनका विचार इन मूलभूत सूत्रों द्वारा गणित की सभी शाखाओं जैसे अंक गणित, बीजगणित, रेखागणित, ज्यामिति (समतल तथा घन), त्रिकोणमिति (समतल तथा गोलीय), ज्यामितीय तथा वैश्लेषिक शांकव गणित, ज्योतिषविज्ञान, अवकलन तथा समाकलन सहित कलन आदि को सरल करने का था। सूत्रों का यह व्यापक, अनुप्रयोग, वे लिखित तो नहीं छोड़ पाए किन्तु यदि किसी में इतना धैर्य तथा प्रतिभा है कि वह इन विधियों पर कार्य करे तथा सूत्रों का गूढ़ार्थ समझ सके तो संभवतः वह इन विभिन्न शाखाओं को इन सूत्रों के क्षेत्र में ला सकता है। 1952 में नागपुर विश्वविद्यालय में उनके अध्यापन-निरूपण का पूरा पाठ्यक्रम चलाया गया था तथा 1949 में स्वामीजी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में कुछ प्रवचन दिए थे। अतएव यह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए हर्ष का विषय है, तथा उचित भी कि श्री स्वामीजी की शिष्या श्रीमती मंजुला त्रिवेदी के सौजन्य से (जिन्होंने कि डॉ. पं. ओंकार नाथ ठाकुर के प्रयास के फलस्वरूप मूललिपि हम लोगों को दे दी) बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत तथा ललित कला संकाय की अध्यक्ष डॉ. प्रेमलता शर्मा ने इस ग्रन्थ की प्रेस से संबंधित कार्य की देखभाल की है। विश्वविद्यालय के गणित विभाग के अध्यक्ष डॉ. ब्रिजमोहन ने मेरा निवेदन मानकर पाण्डुलिपि की गणनाओं की जांच की। इसके लिए मैं उन्हें हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। विश्वविद्यालय मुद्रणालय के व्यवस्थापक श्री लक्ष्मीदास ने इस कठिन सामग्री के मुद्राणार्थ जो कष्ट उठाया है, उसके लिए मैं कृतज्ञ हूँ।

इस कृति के लिए श्री स्वामी प्रत्यगात्मानंद सरस्वती ने जो मूल्यवान प्रस्तावना लिखी है उसके लिए मैं हर्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ वे आज के तांत्रिक विद्वानों के प्रेरणादायक शब्द प्राचीन वैदिक ऋषियों के चरणों में अर्पित सुगंधित पुष्पों के समान हैं। शंकराचार्य श्री भारतीकृष्ण तीर्थ जी उन्हीं ऋषियों की आध्यात्मिक परंपरा की एक कड़ी हैं। स्वामी श्री प्रत्यगात्मानन्द जी ने न केवल श्री शंकराचार्य जी को श्रद्धांजलि अर्पित की वरन् उनके अमृतमय शब्दों ने, अध्यात्मज्ञान तथा भौतिकी के क्षेत्र में अन्तर्प्रज्ञ अनुभवों के प्रेमियों पर आशीर्वाद की वर्षा की है। सौभाग्य की बात है कि स्वामीजी कलकत्ता से वाराणसी, 8 से 11 मार्च 1965 में हो रहे, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के तांत्रिक सम्मेलन का सभापतित्व करने आए थे। यद्यपि उनकी आयु अब 85 वर्ष की है तब भी उनके दयालु स्वभाव ने प्रस्तावना देने की हमारी प्रार्थना स्वीकार कर ली।

मुझे इस बात का विशेष हर्ष है कि इस कृति को मैं नेपाल संदान हिन्दू विश्वविद्यालय प्रकाशन क्रम में प्रकाशित कर सका क्योंकि भारत गणतंत्र के राष्ट्रपति स्वर्गीय डा. राजेन्द्र प्रसाद जी ने श्री स्वामी जी के जीवन काल में ही मुझसे इसके अस्तित्व की चर्चा की थी जिसके फलस्वरूप मेरे हृदय में ऐसा करने की तीव्र इच्छा हो गई थी।

 

वासुदेव शरण अग्रवाल



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