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श्रंगार - प्रेम >> प्रेम पियाला जिन पिया

प्रेम पियाला जिन पिया

पुष्पा भारती

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 695
आईएसबीएन :81-263-0746-3

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प्रस्तुत है विश्वप्रसिद्ध लेखकों के प्रेम-प्रसंग...

Pream Piyala Jin Piya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


चेखव की मर्मभेदी कहानियाँ, डिकेन्स के मानवतावादी उपन्यास, वेल्स की रोमांचक वैज्ञानिक कथाएँ और रिल्के की अद्भुत कविताएँ-विश्व-साहित्य के इन अमर हस्ताक्षरों की प्रेरणा का उद्गम कहाँ है? इनके कृतित्व के पीछे, निजी जीवन की कौन-सी पीड़ाएँ थीं, कौन-से गोपन प्रणय या उजागर अनुराग-बन्धन थे? यह सब आप बहुत ही रोचक और कलात्मक रूप में जानेंगे 'प्रेम पियाला जिन पिया' में। प्रामाणिक तथ्यों और अन्तरंग आत्मीय विश्लेषणों के कारण पुष्पा भारती के ये कथा-निबन्ध ऐसे बन पड़े हैं जिन्हें एक बार पढ़कर आप कभी भूल नहीं पाएँगे और फिर-फिर पढ़ना चाहेंगे, जीवन की अनेक उद्धेलित, प्रगाढ़, तन्मय और उदासीन मनःस्थितियों में।

प्रेम पियाला जिन पिया

पुस्तक के विषय में जो कुछ कहना था वह तो पहले संस्करण की भूमिका में कह दिया है। तो भला दूसरे संस्करण की भूमिका में क्या लिखा जाए! सोचते-सोचते याद आयीं भारती जी की पंक्तियाँ जो उन्होंने ‘गुनाहों का देवता’ के नये संस्करण में लिखी थीं। उन्होंने लिखा था-‘‘मेरे लिए इस उपन्यास का लिखना वैसा ही रहा है जैसा पीड़ा के क्षणों में पूरी आस्था से प्रार्थना करना। और इस समय भी मुझे ऐसा लग रहा है जैसे मैं वह प्रार्थना मन-ही-मन दोहरा रहा हूँ, बस...’’
अब अपनी बात बताऊँ-सन् 60 के दशक में लिखी थीं मैंने ये कथाएँ। एक एक कथा लिखते समय मैंने सैकड़ों बार खुद से अन्तरंग साक्षात्कार किया था। औऱ अपने समर्पण और प्यार को और भी शिद्दत से जीने की राहें पायी थीं। ‘शुभागता’ लिखी तो खुद को बेनवेनुटा (मागदा) में पाया, रिल्के के खतों में भारती जी के दसियों खत दिखाई दिये। ‘जलपंखिनी’ लिखी तो लीडिया के बौराये प्यार और परेशानियों को मैंने अपने ऊपर ओढ़ लिया। चेखव का गम्भीर, थिराया हुआ लगाव बेहद जाना पहचाना लगा। ‘हजारहा परछाइयाँ: एक हकीकत’ लिखी तो जाने कितनी बार भारती जी की उँगलियों को अपने रूखे बालों में सरकते फिसलते महसूस किया और बराबर सोचती रही-कैथी के अडिग विश्वास और सम्पूर्ण समर्पण को मुझे भी अपने जीवन में रूपायित करना ही होगा। ‘फूली री यह डाल फलेगी क्या!’ लिखते समय दसियों बार आँखों से बह आये आँसू पोंछे और सोचती रही-काश कुछ ऐसा होता कि मैं मर्लिन मनरो को समझा पाती कि पगली जाने किन जन्मों के पुण्यों से तुझे एक इतने बड़े लेखक का प्यार मिला है, अनमोल खजाना है यह-इसे सहेज कर जी ले। ये लेखक होते ही असाधारण जीव हैं, सिर्फ़ बिना शर्त प्यार दे देकर इन्हें समझा जा सकता है-देना और सिर्फ देना सीख ले तो निर्व्याख्या आनन्द पा जाएगी री नादान छोकरी ! जनम जनम की भटकन मिट जाएगी। ‘नरक से लौटी आत्मा के प्यार !’ दॉस्तोवस्की ! हे परमात्मा, परकाया-प्रवेश यही तो होता होगा। जाने कितनी बार मैं खुद अन्ना के भीतर जा बैठी, जाने कितनी बार अन्ना मुझमें समा गयी, कभी वह मुझे अपनी प्रतिरूप लगे, कभी अपनी सगी !

कितना कुछ पाया और सीखा है मैंने ये कथाएँ लिखकर। खुद अपने भाग्य पर इतरायी भी हूँ कि इन सब स्वधर्मी चरित्रों की सारी खूबियाँ मिलाकर भी थोड़ी पड़ेंगी- मेरे प्रेमास्पद की बेशुमार खूबियों और अथाह प्यार के समक्ष !
अब इस पुस्तक के नये नाम-की बात। ये कथाएँ ‘शुभागता’ नाम से पुस्तक रूप में पहले छप चुकी हैं। जब नये संस्करण की बात आयी तो सोचा कि इसका नाम बदल देना चाहिए, क्योंकि इस नाम से अंदाज नहीं होता कि पुस्तक की कथावस्तु क्या है। तलाशने लगी नया नाम। कई नाम सूझे पर मन कहीं टिका नहीं। इसी तरह की मेरी दूसरी पुस्तक का नाम है ‘ढाई आखर प्रेम के’ ऐसा ही वजन चाहिए था मुझे-तो भटक गयी ढाई आखरों की गलियों में; भटकते भटकते जिस शायर की तमाम पंक्तियाँ बार-बार दिल और दिमाग से टकराती रहीं-वह हैं बेमिशाल शायर गुलजार ! गुलजार के बारे में आपको कुछ बताने के लिए उन्हीं की लिखी पंक्तियों को यहाँ-वहाँ से उठाकर अपनी बात कह रही हूँ।

गुलजार ! जो कोरे कागज पर एक नाम लिख देते हैं और सोचते हैं नज्म तो मुकम्मल हो गयी ! क्योंकि इस नाम से बेहतर कोई गजल, कोई नज्म और क्या होगी भला !...कोई भिखारन उनके कटोरे में चाँद की कौड़ी डालकर उन्हें और भी भिखारी बनाकर चली जाती है। जो किसी से कहते हैं कि लबों से चूम लो, आँखों से थाम लो और सोचते यह हैं कि इसी की कोख से जनम लेने पर जो पनाह मिले तो सदियों की भटकन मिट जाए। कैसे हैं वह कि होठों पर हर पल प्रेमास्पद का नाम तो रहता है पर जिनकी आवाज में दरारें पड़ गयी हैं। और मजा यह कि जनाब ने खुद किसी की आवाज अपने कानों में पहन रखी है।
और तो और वे सुबकती हवाओं के बैन भी सुन लेते हैं, किसी की रूह को महसूस ही नहीं करते-देख भी लेते हैं। किसी का हाथ छू-कर उसकी हथेली पर अपना घर बना लेने की कुव्वत रखते हैं। पर उन्होंने इक बार बुना था एक रिश्ता-और नजर आने लगीं उसकी सारी की सारी गाँठें। रात भर सर्द हवा चलती रही..रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा किये और किसी बावले किसी पीर किसी औलिया की मानिंद कह उठे-

दिल हाकम दरबार लगावै-
दिल आपै दरबारी !
पंख न कोई, धुआँ न कोई-
उड़ति फिरै चिनगारी
दिल आपै दरबारी !

और बस, इसी चिनगारी की रोशनी में पहुँच ली मैं उस हाकिम के दरबार में अपनी फरियाद लेकर ! भाई, मेरी इस किताब के लिए नया नाम सुझाइए। जानती थी कि मेरे परिचय के दायरे में केवल यही शख्स है जो मेरी मुराद पूरी कर सकता है। मोतियों से भर दी उन्होंने मेरी पेबन्द लगी झोली-मेरी ‘शुभागता’ को नया नाम दे दिया-‘प्रेम पियाला जिन पिया’ !
और लो, यह नाम मिलते ही अब यह किताब मेरी रह कहाँ गयी ? इससे छलकती बूँदें तो हो गयीं आप सबके नाम और यह किताब हो ली भाई गुलजार के नाम।
कुबूल कीजिए भाई !
विश्व विख्यात लेखकों को हम बहुधा उनकी रचनाओं के माध्यम से ही जानते हैं। उन रचनाओं की साहित्यिक स्थिति को लेकर काफी वाद-विवाद भी होते रहते हैं। वह क्षेत्र समीक्षक का क्षेत्र है। इन कथात्मक लेखों में मैंने उस क्षेत्र में प्रवेश करने की चेष्टा नहीं की है। मैंने उन कृतियों को, उनके कृतिकारों को एक दूसरे दृष्टिकोण से देखना चाहा है। उनके निजी जीवन में वे कौन से रागात्मक सम्बन्ध या घटनाएँ थीं जो उन कृतियों के सृजन में सहायक हुईं या जिन्होंने कुल मिलाकर उस रचनाकार के समूचे व्यक्तित्व और दृष्टिकोण को प्रभावित किया।

समय-क्रम की दृष्टि से इनमें से सबसे पहले मैंने डिकेन्स की कहानी लिखी थी। उपन्यासकार के रूप में चार्ल्स डिकेन्स भारतीय पाठकों के लिए न केवल अत्यन्त पठनीय रहा है वरन् निम्न मध्यवर्ग का जीवन चित्रित करने में उससे हमारे अनेक प्रख्यात कथालेखकों ने प्रेरणा भी ग्रहण की है। अनुपलब्ध प्रेयसी के प्रति उसका अत्यन्त छायावादी लगाव और कल्पनाएँ ऐसी थीं जो शरद-चन्द्र के पाठकों को बहुत जानी-पहचानी लगेंगी। लेकिन वर्षों के बाद जीवन के कटु यथार्थ से उनकी टकराहट और उसका मनोरंजक परिणाम इतना रोचक लगा कि उसने पहली बार इस बात का उत्साह जगाया कि साहित्यिकों के नेपथ्य जीवन की कहानी लिखूँ।

दूसरी कथा अँग्रेजी कथाकार एच. जी. वेल्स की है। आज वेल्स की चर्चा उतनी नहीं रही। लेकिन एक जमाने में अपने विश्व इतिहास और विज्ञान-सम्बन्धी उपन्यासों के कारण एच. जी. वेल्स बहुत अधिक पढ़ा जाता था। अन्तरिक्ष में स्थित ग्रहों से पृथ्वी का यातायात सम्बन्ध स्थापित होगा, इसकी जितनी सजीव कल्पना उसने अपने उपन्यासों में की थी वह आज सत्य होती नजर आ रही है। उसके प्रकाण्ड पाण्डित्य और प्रखर बौद्धिकता के पीछे जो रचनाशील व्यक्तित्व था। वह हार्दिक और मानसिक आवेगों से कितना आक्रान्त था, इसकी जानकारी सचमुच ही बहुत रोचक है।

इन दो कथाओं को लिख लेने के बाद मुझे एक पुस्तक याद आयी जिसे मैंने बहुत पहले न केवल पढ़ा था वरन् उससे इतनी प्रभावित हुई थी कि उसका एक टूटा-फूटा अनुवाद भी कर डाला था। रूस में एक सम्भ्रान्त वृद्धा ने अपने संस्मरण लिखे ‘चेखव-मेरे जीवन में’। चेखव की मृत्यु के बहुत-बहुत वर्षों बाद यह पुस्तक प्रकाशित हुई। लेखिका लीडिया एवीलव विवाहिता थी, दो नन्हे प्यारे बच्चों की माँ थी, जब अपनी बहन के यहाँ चेखव से उसकी भेंट हुई थी। अपने प्रिय लेखक के प्रति प्रशंसापूर्ण श्रद्धा कब और कैसे अत्यन्त सूक्ष्म सुकुमार प्रेम में बदलती चली गयी, इसका बहुत भावात्मक विवरण लीडिया ने अपने संस्मरणों में दिया है। उन संस्मरणों में न केवल लीडिया के अकलुष प्रेम वरन् चेखव के अत्यन्त सन्तुलित मर्यादित और विवेक से अनुशासित हृदय की मार्मिक झलक मिलती है।

चेखव के सम्बन्ध में लीडिया एवीलव की कहानी ने ही वह मनोभूमि तैयार की जिसमें मैं रिल्के और बेनवेनुटा की कहानी लिख सकी। दो महायुद्धों के बीच जिन पाश्चात्य कवियों का काव्यसृजन विश्वभर में चर्चित रहा उनमें रेनर मारिया रिल्के का नाम अग्रणी है। उसकी कविता जितनी सुकुमार है उतनी ही सूक्ष्म। वे कविताएँ इतनी वैयक्तिक हैं कि रिल्के का अध्ययन करने वालों के लिए यह अत्यन्त आवश्यक रहा कि उसके जीवन के उतार-चढ़ाव से सम्बद्ध कर उन कविताओं को समझने की कोशिश करें। उन जीवन अध्ययनों में अनेक नाम थे लेकिन कहीं भी उस अज्ञात पियानो वादिका मागदा वॉन हैटिनबर्ग का नाम नहीं था जिसने एक आत्मकथात्मक पुस्तक प्रकाशित की। उस पुस्तक में रिल्के के जीवन का एक बिलकुल नया अध्याय उद्घाटित हुआ। अब तो मागदा हैटिनबर्ग के नाम रिल्के के लिखे हुए पत्रों का संकलन भी अलग से छप गया है। वे तमाम कविताएँ, जो रिल्के ने बेनवेनुटा के लिए लिखीं, वे भी उसके विभिन्न संग्रहों में संकलित हैं।

मेरी रुचि इस तरह के लेखन में पूरी तरह रम चुकी थी कि इसी बीच एक ऐसी घटना घटित हुई जो सारी दुनिया में चर्चा का विषय बन गयी। वह थी विश्वसुन्दरी मर्लिन मनरो की दुःखद आत्महत्या। मर्लिन मनरो ने प्रख्यात अमरीकी नाटककार आर्थर मिलर से विवाह किया था। मृत्यु के बाद मर्लिन मनरो का पूरा जीवन व्यापक चर्चा का विषय बना और उसी चर्चा में आर्थर मिलर से उसके विवाह और बाद में विच्छेद का विवरण भी बार-बार आता रहा। कुछ ही दिनों बाद आर्थर मिलर का नया नाटक ‘आफ्टर द फॉल’ रंगमंच पर प्रस्तुत हुआ जिसमें उनके सम्बन्धों के आन्तरिक तनावों की गहरी छाया थी। मर्लिन मनरो केवल एक विश्वविख्यात रूपांगना ही नहीं थीं, एक प्रकार से वह बीसवीं शताब्दी के समकालीन जनमानस में व्याप्त सैक्स-सिम्बल भी बन चुकी थी। समाचारपत्र, सिनेमा, टेलीविजन जैसे इतने व्यापक और त्वरित सम्प्रेषण के माध्यम विश्व-सभ्यता के इतिहास में कभी नहीं रहे। इसलिए अपने ही जीवनकाल में समस्त संसार की इतनी बड़ी जनसंख्या में रूप वैभव की जीवित प्रतिमा बन जाना शायद किसी अन्य सुन्दरी को नसीब न हुआ होगा। लेकिन एक ओर प्रेस, सिनेमा और टेलीविजन के दृश्य माध्यमों द्वारा करोड़-करोड़ लोगों से अत्यन्त अंतरंग रूप में जुड़ जाना और दूसरी ओर निजी जीवन में अकेले-अकेले और बहुत अकेले छूटते जाना यह एक विचित्र नाटकीय स्थिति थी जिसका जीवन्त साक्षी आर्थर मिलर जैसा महान नाटककार रहा। इसीलिए यह कथा एक अतिरिक्त महत्त्व रखती है।

इस संकलन का समापन दॉस्तोवस्की के जीवन की विचित्र कथा से किया गया है। केवल इसलिए नहीं कि कथा-साहित्य में दॉस्तोवस्की संसार का सबसे गहरा और शायद सबसे बड़ा लेखक है बल्कि इसलिए भी कि आधुनिक मानस में जितने संकटपूर्ण तनाव विविध क्षेत्रों में आज उभरकर आये हैं उन सबको उस मनीषी दृष्टा ने इस शताब्दी के आरम्भ होने के पहले ही न सिर्फ भोग लिया था बल्कि अन्तर्मन की गहनतम गुफाओं में धँसकर उनका भरपूर विश्लेषण करने की कोशिश की थी। मनुष्य में आदिम मानस और आधुनिकतम मानस कितने विचित्र ढंग से एक-दूसरे में गुथे हुए रहते हैं। देवत्व के क्षण में भी पशुता और पशुत्व के क्षण में भी देवत्व कहाँ जीवित रहता है, इसकी मार्मिक अनुभूति दॉस्तोवस्की के कथासाहित्य में ही मिलती है।
ऐसी विलक्षण कथा प्रतिभावाला मनीषी साहित्यकार अपने वास्तविक जीवन में कैसा था। क्या उसने स्वयं उन क्षणों को जिया था। क्या वह अमानुषिक पापों से लिप्त नारकीय पशु था या सुख-दुःख में अनासक्त समदर्शी ! या इन दोनों से पृथक कुछ और ! इसके पूरे विवेचन के लिए बहुत बड़े अध्ययन की जरूरत है। लेकिन इस कथा में उसके जीवन के तीन प्रणय-प्रसंगों के संदर्भ में ही इस अनोखे रहस्यमय विलक्षण प्रतिभा व्यक्तित्व की झलक देने का प्रयास किया है।
इस संकलन को प्रकाशित कराने में मुझे आदरणीय भाई (श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन) से जो प्रेरणा और प्रोत्साहन मिला है उसके लिए मैं उनकी अत्यन्त आभारी हूँ।

शुभागता


(रेनर मारिया रिल्के)

[शाम की सुनहली धूप में घुलता छाया नगर, उजले गुलाब, देवदूत, नींद से भारी पलकें और प्यार की ऊष्मा ! ऐसे अनेक बारीक और मुलायम रेशों से बुनी रिल्के की कविता आधुनिक विश्व-साहित्य को अद्वितीय उपलब्धि है। रिल्के ने दोनों महायुद्धों के बीच की अवधि में विकसित होनेवाले अनेकानेक विश्व-प्रसिद्ध लेखकों को प्रभावित किया। जिनमें से एक बोरिस पास्तरनक भी थे।
आस्ट्रिया में उत्पन्न जर्मन भाषा में लिखने वाला महान कवि रेनर मारिया रिल्के अनेकानेक किंवदन्तियों का आधार रहा है। उसका प्रौढ़ जीवन एक गहरे अवसाद से घिरा हुआ था। पत्नी से पृथक पुत्री से विच्छिन्न उसके एकाकी जीवन में अनेक मधुर स्नेह आये। लेकिन इस कथा की नायिका बेनवेनुटा का जिक्र उसके जीवनी-लेखकों या समीक्षकों ने कहीं नहीं किया। केवल रिल्के की ही दो-एक कविताओं के समर्पण और सम्बोधन में उसका नाम मिलता है।

लेकिन पिछले दिनों एक प्रख्यात पियानोवादिका मेकडोगन हैटिनबर्ग ने अपनी आत्मकथा का एक अंश प्रकाशित किया। जिससे ज्ञात हुआ कि रिल्के के अत्यन्त सुकुमार काव्यसृजन की आन्तरिक प्रेरणा वही थी। बेनवेनुटा उसका वह अन्तरंग नाम था जो रिल्के ने उसे प्यार के क्षणों में दिया था। बाद में रिल्के के अनेक पत्र भी बेनवेनुटा के नाम मिले। उन खतों का महत्त्वपूर्ण संकलन भी प्रकाशित हो चुका है।]
चमचमाती पन्नियों की लतरों और गोटे के फूलों से सजे क्रिसमस ट्री, चमकीली अबरक जड़े रुपहले सितारे, पवित्र घण्टियाँ, जगमग-जगमग रंग-बिरंगी रोशनी। चारों ओर रौनक ही रौनक। कोई खिलौने खरीद रहा था, कोई चाँदी या चमड़े के बैग तो कोई सिल्क की पोशाकें, कोई प्रसाधन की सामग्रियाँ। पर मेरा मन विकल था किसी ऐसी किताब के लिए जो मेरे लिए एकदम नयी तरह की हो, जैसी चीज मैंने पहले कभी न पढ़ी हो और जो मेरी उदास ज़िन्दगी को नयी ताज़गी, नयी खुशबू दे सके। मैंने कई दूकानों पर सैकड़ों किताबें उलट-पुलटकर देखीं पर कोई जँची ही नहीं। न जाने कैसी किताब के लिए मन में प्यास जगी थी।

एकाएक चर्च की घण्टियाँ मधुर सम्मोहक आवाज में बजने लगीं। उनकी मीठी आवाज सारे बाजार में तैर-सी गयी। जैसे झरती हुई बरफ जमीन पर तह पर तह जमती जाए, उसी तरह बाजार, दूकानों और वहाँ के हर व्यक्तियों के कानों से टकरा-टकराकर वह आवाज. सबके प्राणों में जमती, बिधती जा रही थी। लगता था घण्टियों की आवाज़ एक पालना है जिसमें सारी दुनिया शिशु की तरह हौले-हौले झूल रही हो। और ऐसे में अच्छी पुस्तक के लिए प्यास मेरे मन में और भी तीखी हो आयी।
एक छोटी-सी दूकान का बूढ़ा मालिक हमारा पुराना जान-पहचानी था। मैंने उससे कहा, ‘‘अंकल, आज कोई बहुत बढ़िया-बहुत ही बढ़िया-किताब दो।’’

उसने मुझे एक किताब लाकर दी–एक छोटी-सी किताब। मैंने उसे खोला-‘टेल्स ऑफ़ द आलमाइटी’। लेखक का नाम देखा-‘रेनर मारिया रिल्के’। मैंने पूछा, ‘‘यह रिल्के कौन है, अंकल ?’’
दूकानदार की आँखों में एक चमक-सी तैर गयी। उसने बड़ी ममता से किताब पर मृदुल हाथ फेरा और बोला, ‘‘रिल्के ! एक कवि। एक सच्चा कवि। एक अद्वितीय व्यक्तित्व। इस किताब में तुम्हें बहुत कुछ मिलेगा, बिटिया!’’
और उसने बिना मेरी स्वीकृति लिए ही किताब रंगीन कागज में लपेटकर मुझे थमा दी। उसके देने का ढंग कुछ ऐसा था कि पुस्तक मुझे लेनी पड़ी।

लेकिन ऐसा क्यों हुआ कि किताब मैंने अभी खोली भी नहीं, केवल उसे पाकर ही अन्तर्मन सन्तोष से भर उठा !
घर आयी; किताब का पहला पृष्ठ खोला, पढ़ना शुरू किया। और लो, मैं सारी रात पढ़ती ही रही। नहीं, पढ़ती नहीं, पूजा करती रही। वह रिल्के-कुछ घण्टे पहले तक मैं जिसका नाम भी नहीं जानती थी-मेरे अन्तर्मन के फूल में सुगन्ध-सा बस गया। मुझे लगा जैसे इस पुस्तक ने मुझे जिंदगी जीने के लिए खुद को समझने के लिए एक दृष्टि दी है नयी दिशा दी है।
दूसरे दिन, सारे दिन, किसी काम में मेरा जी ही नहीं लगा। वह किताब मेरे हाथ में बनी रही। दिन उसी में खोये-खोये गुजरा। रात भी किताब में पढ़ी कहानियों के विभिन्न पात्रों के बारे में सोचते हुए ही बीती। मेरा माथा हल्का-हल्का गरम-सा हो गया था, पलकें भारी होकर कड़ुवाने लगी थीं, कनपटियों में कुछ तड़क-सा रहा था। पर मेरा मन बहुत धुला-धुला, बहुत निखरा हुआ-सा हो गया था।

सुबह घर के अन्य सब लोग चाय की मेज पर हँस-बोल रहे थे। पर उन सबके बीच जाने को मेरा मन नहीं हुआ, मैंने अपनी चाय कमरे में ही मँगा ली; और कागज-कलम लेकर बैठ गयी। जी हुआ, इतनी सुन्दर कृति के लिए रिल्के को धन्यवाद देना चाहिए। हाँ, मेरे मन में किसी भी सामान्य पाठक की तरह लेखक को मात्र धन्यवाद भेजने की ही भावना थी। उससे अधिक कुछ भी नहीं। मैंने लिखा:
‘‘प्रिय महोदय,

...आपकी ‘टेल्स ऑफ़ द आलमाइटी’ ऐलेन के. को समर्पित है। उस मधुर समर्पण में आपने लिखा है कि क्योंकि जितना ऐलेन के. ने इन कहानियों को पसन्द किया है उतना और किसी ने नहीं, इसलिए यह पुस्तक उसके लिए है। यों तो जो कुछ भी मैं हूँ उसके अलावा मैंने और कुछ कभी नहीं होना चाहा। पर अब मुझे लग रहा है जैसे मानों मेरा कायाकल्प हो गया हो और मैं ही ऐलेन के. हूँ। और यह समर्पण मेरे ही नाम है। क्योंकि मुझे अडिग विश्वास है कि इन कहानियों को दुनिया का कोई भी व्यक्ति मुझसे अधिक प्यार कर ही नहीं सकता।
इस पुस्तक से मुझे कितना सुकून, कितनी दिलासा और कितनी आन्तरिक शक्ति मिली है, बता नहीं सकूँगी। मैं कवि नहीं हूँ, शब्दों पर मेरा अधिकार नहीं। मेरी हर अनुभूति पियानो की झंकार में ही व्यक्त हो पाती है। काश, इसका हर पृष्ठ एक झंकार बनकर गूँजता रहता, गूँजता रहता और उसमें मैं धुएँ की तरह घुल जाती ।...
इस अद्भुत कृति के सृजन के लिए मेरे धन्यवाद लें।’’

मुझे उनसे उत्तर की कोई आशा थी नहीं, इसलिए नीचे बिना अपना पूरा पता लिखे सिर्फ नाम लिख दिया था। पर समस्या तो यह थी कि पत्र भेजा कैसे जाए ?
मुझे रिल्के का पता तो मालूम ही नहीं था। बहुत सोचकर; मैंने उसी बूढ़े दूकानदार के द्वारा उस पुस्तक के प्रकाशक को वह पत्र भेज दिया कि वह रिल्के के पास भेज दें।
...एक सप्ताह बाद। सर्दी के मौसम की गुनगुनी धूप का सेंक लेती हुई मैं बाहर लॉन में बैठी पियानो की एक नयी धुन के बारे में सोच रही थी कि एक एक्सप्रेस खत मेरे नाम आया। पते पर की लिखावट एकदम अन-पहचानी, भेजने वाले का नाम भी नहीं लिखा था। बस, लिफाफे पर हरे रंग की एक अण्डाकार मोहर लगी थी जिसमें लिखा था ‘पेरिस’। मुझे जाने क्या हुआ कि गालों पर सुरसुरी-सी महसूस होने लगी, कान की कोर गरम हो आयी, ऐसा लगने लगा जैसे चारों ओर फुलझड़ियाँ छूट रही हैं, झण्डे फहरा रहे हैं।

ऐसा मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। बौरायी-सी मैं घड़ियों वह खत खोल ही नहीं सकी। काफी देर बाद उसे खोला। अन्दर छोटे-छोटे घनेरे अक्षरों और बेगरी पाँतियों में लिखे कई पृष्ठ थे। अन्त में नाम लिखा था-‘रिल्के’। मुझे सहज ही विश्वस नहीं हो पा रहा था कि यह रिल्के का पत्र होगा। फिर-फिर नाम के उन्हीं अक्षरों को बड़ी देर तक पढ़ती रही। आँखें मूँदे-मूँदे मैं बिना पढ़े ही उस खत को हथेलियों में पुष्प-पँखुरी की तरह दबाये रही। थोड़ी देर बाद, काँपती उँगलियों में लेकर, सीली आँखों से उसे पढ़ाः
‘‘भली मित्र,

तुम्हारा खत मेरे लिए जैसे मेरा ही एक अंश बन गया है। कितना सुकुमार, कितना मधुर है तुम्हारा यह सोचना कि ऐलेन के. के रूप में तुम्हारा कायाकल्प हो गया है।
यों तुम्हें बताऊँ मित्र, जिसने यह कहानियाँ लिखी थीं और ऐलेन के. को समर्पित की थीं। वह युवक तो अब मुझमें शेष नहीं है। तुमने उसे जितनी प्रशंसा दे डाली है शायद वह उतने का अधिकारी भी नहीं। पर एक बात है, तुम्हारा संगीत वह तो कभी सुन नहीं सकेगा। हाँ, मैं जरूर सुन सकता हूँ। क्या इसकी उम्मीद करूँ ? लगता है, संगीत में ही तुम्हारे प्राण बसते हैं।’’
मैं खत पढ़ती रही और बीच-बीच में सोचती रही-कहीं सपना तो नहीं देख रही हूँ। आगे लिखा थाः
‘‘तुम कभी इधर घूमने आओ तो मुझे पूर्व-सूचना भेजना। तुम्हारा आना मेरे लिए बहुत सुख और श्री लेकर आएगा। तुम्हारे स्वागत के लिए मैं द्वार खोलूँगा तो लगेगा, मेरे हृदय की गहराइयों का एक पट खुल गया है।’’

मीलों दूर से एक अपरिचित व्यक्ति इतना प्यारा, इतना आत्मीय खत लिखेगा, इसकी मैं पहले कभी कल्पना भी नहीं कर सकी थी। मैं पढ़ती गयीः
‘‘एक बार की बात मुझे याद है। मैं एक होटल में ठहरा था। मेरे कमरे के बगलवाले कमरे में कोई पियानो बजा रहा था। वादक मुझे दीख नहीं रहा था, पर संगीत ने मेरा सारा ध्यान अपनी ओर खींच लिया था। लग रहा था, जैसे सारी दुनिया थककर, अलसाकर, वहाँ बैठकर, दो क्षण को सुस्ता रही है। फिर मुझे ऐसा लगने लगा था जैसे मानों सारी दुनिया की अनुभूतियाँ मुझमें से होकर गुजर रही हैं, मेरे अन्दर जी रही हैं..मर रही हैं।
अब मैं यहाँ हूँ, संगीत से बहुत दूर, पर अब एक उम्मीद भी बँधती जा रही है मन में। शायद कभी तुम्हारे संगीत के जादू में डूबने का दिन आए...’’
मुझसे इतनी प्यारी, इतनी अपनायत भरी बातें पहले कभी किसी ने नहीं कीं। पर इस सबको सपना भी कैसे मान लूँ, जब ये कागज मेरे हाथ में हैं...मन्त्रमुग्ध-सी मैं पढ़ती रही। अन्त में उन्होंने लिखा थाः
‘‘तुम्हारे मन में जो दुर्लभ चिनगारी जाग गयी है, उस स्फुलिंग को बुझने मत देना।’’ और सबसे अन्त में लिखा थाः
‘‘तुम्हारे प्रति मैं कृतज्ञ हूँ, विनत हूँ।
-रेनर मारिया रिल्के।’’

जरूर ही नियति हमारे लिए बहुत-कुछ ऐसा तय कर रखती है जिसका ज्ञान अक्सर हमें स्वयं नहीं होता, पर अनजाने में ही हमारी प्रतिक्रियाएँ उसके अनुकूल होती चलती हैं। रिल्के से मेरी कोई प्रत्यक्ष जान-पहचान नहीं थी, पर पत्रों का यह क्रम ऐसा शुरू हुआ कि फिर मुझे प्रतिदिन उनका एक पत्र मिलने लगा। कितने मधुर, कितने पवित्र और सुकुमार, कितने गहरे होते थे वे पत्र ! मैं बराबर सोचती, इन्हें लिखने वाला कितना निष्कलुष और कैसा निर्विकार होगा वह कवि-हृदय !
रिल्के के पत्रों से मैंने उनकी जिन्दगी की बचपन से लेकर अब तक की तमाम-तमाम बातें जान ली थीं। और बड़ी बारीकी से पढ़ लिया था उन अक्षरों को भी जो लिखे तो नहीं गये थे, पर हर पंक्ति में समाये थे। वह यह कि बचपन से लेकर आज तक सब कुछ प्राप्त होते हुए भी सारी सुख-सुविधाओं के बीच, वह बहुत अकेले हैं।

उनके पिता जोसेफ रिल्के नोबुल घराने के थे। वे सेना के एक बड़े पदाधिकारी बनने वाले थे, पर किसी अस्वस्थता के कारण न बन सके। उनका वह सपना टूट गया। मगर जैसाकि स्वाभाविक ही था उस स्वप्न को उन्होंने अपने बेटे को सेना का बड़ा अफ़सर बनाकर पूरा करना चाहा। मिलिट्री का बड़ा अफसर बनने का शौक़ जोसेफ़ रिल्के को जितना अपने लिए नहीं था उतना रिल्के की माँ के लिए था। वह बड़ी पदवी, बड़े नाम और शान-शौकत की बहुत प्यासी थीं। रिल्के को अपनी माँ का झूठा दिखावा बहुत बुरा लगा करता था। बचपन में अपने पिता के लिए उनके मन में बड़ी इज़्ज़त थी।
4 दिसम्बर 1875 को रिल्के का जन्म हुआ था। बचपन का अधिकतर समय घर की चारदीवारी में तमाम तरह की वर्जनाओं के बीच गुजरा। वर्जनाएँ इसलिए कि उनके स्वास्थ्य का जरूरत से ज्यादा ध्यान रखा जाता था। परिणाम यह हुआ कि वह बहुत प्रारम्भ से ही ज़रा ज़्यादा ही बीमार रहने लगे और बेहद अन्तर्मुखी हो गये। रिल्के ने एक बार मुझे लिखाः

‘‘आज रविवार है। आज के दिन को मैं पूजा के दिन की तरह पवित्र बनाकर रखना चाहता हूँ ताकि तुम्हें खत लिखूँ। तुम्हें, जिसकी मुट्ठियों में मेरे लिए एक सुनहला भविष्य आकुल है। मेरी मित्र ! मैं यह नहीं पूछता कि वह दिन कब आएगा ? पर जानता हूँ कि आएगा ज़रूर वह दिन जब यह सारा अँधेरा हट जाएगा और प्रकाश की किरण फूटेगी। जब बचपन में ही मैं मिलिट्री ऐकेडमी में भेज दिया गया था तब भी मैंने किसी से यह नहीं पूछा था कि मेरी मुक्ति का दिन कब आएगा ? मैं हर अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को जीता चला गया हूँ पर कभी मैंने अपनी नियति के प्रति प्रश्न नहीं किया। तुम्हें एक मजे की बात बताऊँ।

बचपन में मेरी माँ मुझे लड़कियों के कपड़े पहनाती थीं। मेरे लम्बे-लम्बे सुनहरे बाल थे। माँ बड़े शौक से मेरी चोटियाँ गूँथती थीं। रसोई के बर्तनों के जो खिलौने होते हैं वह और तरह-तरह की गुड़ियाँ मुझे खेलने के लिए देती थीं। जैसे मानों मैं माँ के लिए अपनी मृत बहन की कमी पूरी करता था। माँ मुझे सोफी कहकर पुकारती थीं; मैं भी लड़कियों की तरह महीन आवाज़ बनाकर नाज़ से बोला करता था। आवाज़ बनाने में, गुड़ियों से खेलने में शायद तकलीफ होती थी, पर मैंने कभी किसी से कोई प्रतिवाद नहीं किया। मैंने कभी नहीं पूछा, असली व्यक्तित्व मुझे कब मिलेगा ? इसी तरह यह नहीं पूछता कि वह दिन कब आएगा ? पर जानता हूँ आएगा ज़रूर !’’

उन्होंने अपनी बेशुमार यादों को पत्रों के माध्यम से मेरे साथ दुबारा जिया। उनके हर पत्र का जवाब मैंने बड़ी कृतज्ञता और विनम्रता के साथ दिया। पर मुझे इतना-इतना विश्वास और स्नेह देनेवाले रिल्के जब यह लिखते कि मैं उन्हें अपने खतों के माध्यम से अछूती खुशी, अपरिमित ताजगी देती हूँ और जब वह मेरे प्रति कृतज्ञता प्रकट करते तो मुझसे अपना सौभाग्य, अपना वह सुख सहज ही सहते भी न बनता। दिन पर दिन मैं उनसे और-और बँधती गयी...बँधती गयी...
एक बार उन्होंने लिखाः
‘‘प्रिय, मेरी आत्मीय, मेरी बहन, मेरी मित्र !

कभी-कभी विश्वास ही नहीं होता कि तुम वास्तविक व्यक्ति हो। कितना दयालु है वह भगवान, जिसने मेरे इन चरम यन्त्रणा के क्षणों में तुम्हें मुझ तक भेज दिया है। तुम्हारे परिचय ने मुझे बड़ा नैतिक सहारा दिया है, नयी जिन्दगी बख्शी है। मुझे इस दुनिया को महसूस करते अब अच्छा लगता है, इस दुनिया की हवा में साँसें लेते अब अच्छा लगता है, क्योंकि इस दुनिया में तुम हो। और तुम हो तो यह भरोसा होता है कि इस दुनिया में ईश्वर भी है। वह ईश्वर जिसे मैंने अपने सृजन के क्षणों में वैसे ही महसूस किया है जैसे तुम अपने संगीत के स्वरों में उसे पाती हो।’’

उन्होंने अपना प्यार, दुलार, ममता और चरम विश्वास सब-कुछ मुझे दे दिया था। अपने खतों में उन्होंने अपने बारे में भली-बुरी एक-एक बात मुझे बतायी। कभी-कभी तो मुझे लगता कि वह खत नहीं लिख रहे हैं वरन लिख-लिखकर कुछ सोच रहे हैं, खुद से बातें कर रहे हैं। अपने खतों में उन्होंने मुझे बताया कि 1886 में वह मिलिट्री ऐकेडमी भेज दिये गये थे। उसी के दो साल बाद उनके माता-पिता में सम्बन्ध-विच्छेद हो गया था। वह माँ के साथ थे, पर मन उनका हमेशा अपने पिता के आदर्शों पर ही चलता था। मिलिट्री स्कूल की कड़ी कसरतों और परिश्रमसाध्य अभ्यासों के कारण उनकी तबीयत बहुत जल्दी खराब हो जाया करती, पर पिता का सपना पूरा करने की बात सोचकर वह पुनः कड़ा परिश्रम करते, फिर बीमार पड़ते, और अपनी वर्तमान जिन्दगी से ऊबकर वह अकेले में अपने सपनों की दुनिया बनाते और खुद हीरो बनते; घण्टों दिवास्वप्न देखते-देखते बीत जाते। साथ के लड़के उन्हें हमेशा छेड़ा करते, पर वह निज में ही खोये रहते।

आखिर सन् 1891 में उन्हें उस स्कूल से नजात तो मिली, लेकिन एक असफल मिलिट्री जवान की तरह ही। वह कोई बड़े पदाधिकारी न बन सके। हारकर फिर उन्हें लिंज के कॉमर्स कॉलेज में पढ़ने के लिए भेजा गया। वहाँ उन्हें अपनी प्रतिभा के अनुकूल वातावरण मिला और उनकी गिनती कॉलेज के रत्नों में होने लगी। उन दिनों उन्होंने साहित्य का खूब अध्ययन किया और स्वयं भी लिखा। लेकिन बचपन से ही तमाम प्रकार की वर्जनाओं के आदी रिल्के के जीवन में अब प्रतिक्रियाएँ आनी शुरू हुईं और वह फिजूलखर्च आवारा लड़को की तरह रहने लगे। तीन साल बाद ही, एक प्रेम-प्रसंग के कारण उन्हें वह कॉलेज भी छोड़ देना पड़ा। यहाँ से उनके जीवन में संघर्ष का प्रारम्भ हो गया था, पर साहित्य-सृजन की पुकार उन्हें अपनी ओर खींचने लगी थी और उसके प्रति वह सजग भी हो गये थे।

एक बार रिल्के ने मुझे लिखा था कि जब वह तमाम प्रकार के साहित्यिक प्रतिवादों में उलझे हुए थे तब बहुत अकेला-अकेला अनुभव करते थे। कुछ दिन बाद, दो लड़कियों से उन्हें बहुत मानसिक सान्त्वना मिलने लगी थी। एक तो थी चित्रकार पाउला बैकर, दूसरी थी मूर्तिकार क्लारा वैस्थोफ। उन्होंने स्वीकारा था कि वह उन दोनों के बीच चुनाव नहीं कर पा रहे थे कि कौन उनके लिए उपयुक्त है। बाद में जब पाउला ने किसी और से विवाह कर लिया तब रिल्के को निर्णय लेना सहज हो गया और उन्होंने भी सन् 1901 में क्लारा से विवाह कर लिया। पहले वर्ष वह दोनों काफी खुश रहे। दिसम्बर में उनकी बेटी रूथ का जन्म हुआ। पर धीरे-धीरे रिल्के का मन उखड़ता गया। विवाह के साथी को वह एकाकी क्षणों के अभिभावक के रूप में पाना चाहते थे, पर उनका एकान्त धीरे-धीरे बढ़ता ही गया, और वह क्लारा से अलग हो गये।

वह जितना-जितना अपने निजी जीवन के बारे में लिखते उतना ही उनके लिए मेरा मन औऱ-और कोमल होता जाता। क्यों ऐसा होता है कि ऐसा आदमी जो सबके प्रति इतनी सहज आत्मीय भावना रखता है, हर एक को क्षमा कर देता है, वह इस दुनिया में बहुत गलत चश्मों से देखा जाता है। जितना ईमानदार आदमी होता है। उतना ही अकेला क्यों पड़ता जाता है ? पर साथ ही, मुझे बड़ा सुखद सन्तोष होता यह जानकर कि कम-से-कम मेरे पत्र उन्हें कुछ-न-कुछ सुख और सहारा देते हैं। एक बार उन्हो

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