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सांस्कृतिक आलोक से संवाद

पुष्पिता

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 693
आईएसबीएन :81-263-1190-8

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प्रस्तुत है पं. विद्यानिवास मिश्र से बातचीत...

Sanskratik Alok se Samvad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गंगा सुरधुनी होने के कारण इतनी बड़ी नदी नहीं है, जितनी कि भागीरथी बन कर कोटि-कोटि जनों की, लाख-लाख वर्षों में सन्तरण की नदी बनकर, तीर्थों का तीर्थ बनकर और एक विशाल संस्कृति की ऐसी वाहिका बनकर जिसमें छोटी उपधाराएँ बिना किसी संकोच के बहुत गौरव के साथ मिलती हैं और गंगा बन जाती हैं। भारतीय नारी भी भारतीय परिवेश में इसलिए महत्व पाती है कि वह तीसों रिश्तों के केन्द्र में होती है। भारतीय संस्कृति के सम्बन्धों के निर्वाह का एक लम्बा सिलसिला है जिसमें कोई पराया नहीं होता और ऐसा कोई औपचारिक रूप से अपना भी नहीं होता कि वह दो तीन कोटियों में बाँटा जा सके। भारतीय संस्कृति के साथ जो लोग जुड़े रहे हैं वे अलग-अलग कारणों से जुड़े रहे हैं-कुछ भाषा के कारण कुछ साहित्य के कारण, कुछ दार्शनिक ग्रन्थों के कारण, कुछ विभिन्न मतों के प्रसार के कारण कुछ व्यापार के कारण,कुछ आक्रामक बनकर, कुछ शरणागत बनकर। पर सभी परिवार के ताने-बाने में ऐसे रच-पच गये हैं कि भारत ने कोई उपनिवेश नहीं बनाया पर भारत का प्रसार अब तक होता रहा है, उससे कहीं अधिक होता रहेगा। भारतीय संस्कृति की उदारता का रहस्य इस सहज निरपेक्ष आत्मीयता के विस्तार से ही खुलता है।

सांस्कृतिक आलोक से संवाद


भारतीय मनीषा और भाव सम्पदा के अग्रणी व्यक्तित्व, हिन्दी और संस्कृत के अधिकृत विद्वान पं. विद्यानिवास मिश्र ने अपनी सृजनात्मक उपस्थिति से हिन्दी संसार को एक सांस्कृतिक दीप्ति दी है।
शब्द सम्पदा, भाषा शास्त्र, परम्परा और आधुनिकता के अन्तःसम्बन्धों पर उनका कार्य बहुत मूल्यवान है। शास्त्रों को लोक से जोड़ने वाले उनके व्यक्ति व्यंजक निबन्ध दार्शनिक विमर्श और लालित्य के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। सांस्कृतिक पाण्डित्य से परिपूर्ण मिश्र जी लोक के गहरे पारखी थे। उनके लेखन में दोनों का अद्भुत सामंजस्य था। वे कोरे विद्वान नहीं, जनमानस से जीवन्त संवाद करने वाले लेखक थे।
इस पुस्तक में पुष्पिता के दिए साक्षात्कार में पण्डित जी ने भारतीय इतिहास, संस्कृति साहित्य, राजनीति आदि विभिन्न मुद्दों पर बेबाक बातचीत की है-सिर्फ उन जिज्ञासु पाठकों के लिए नहीं जो कला साहित्य और संस्कृति में रुचि रखते हैं बल्कि विभिन्न विषयों के विद्वानों के लिए भी यह किताब निश्चित रूप से उनकी जरूरत बनेगी क्योंकि इस पुस्तक में पण्डित जी का जो चिन्तन व्यक्त हुआ है, वह उनके साहित्यिक और सांस्कृतिक जीवन का वैचारिक निचोड़ है।
इस दृष्टि से यह पुस्तक हिन्दी जगत की अनमोल निधि है। गूढ़ और गम्भीर विषयों पर भी जिस सहजता से पण्डित जी ने अपनी बात कही है उसे पढ़ना बिल्कुल उनको सुनने की तरह है।

ऐसे विरल विद्वान पं. विद्यानिवस मिश्र जी के साक्षात्कार पर सम्भवतः यह पहली सम्पूर्ण पुस्तक है जिसे प्रकाशित कर भारतीय ज्ञानपीठ प्रसन्नता का अनुभव कर रहा है।
गंगा सुरधुनी होने के कारण इतनी बड़ी नदी नहीं है, जितनी कि भागीरथी बन कर कोटि-कोटि जनों की, लाख-लाख वर्षों में सन्तरण की नदी बनकर, तीर्थों का तीर्थ बनकर और एक विशाल संस्कृति की ऐसी वाहिका बनकर जिसमें छोटी उपधाराएँ बिना किसी संकोच के बहुत गौरव के साथ मिलती हैं और गंगा बन जाती हैं। भारतीय नारी भी भारतीय परिवेश में इसलिए महत्त्व पाती है कि वह तीसों रिश्तों के केन्द्र में होती है। भारतीय संस्कृति के सम्बन्धों के निर्वाह का एक लम्बा सिलसिला है जिसमें कोई पराया नहीं होता और ऐसा कोई औपचारिक रूप से अपना भी नहीं होता कि वह दो-तीन कोटियों में बाँटा जा सके। भारतीय संस्कृति के साथ जो लोग जुड़े रहे हैं वे अलग-अलग कारणों से जुड़े रहे हैं-कुछ भाषा के कारण, कुछ साहित्य के कारण कुछ दार्शनिक ग्रन्थों के कारण, कुछ विभिन्न मतों के प्रसार के कारण, कुछ व्यापार के कारण, कुछ आक्रामक बनकर, कुछ शरणागत बनकर। पर सभी परिवार के ताने-बाने में ऐसे रच-पच गये कि भारत ने कोई उपनिवेश नहीं बनाया पर भारत का प्रसार अब तक होता रहा है उससे कहीं अधिक होता रहेगा। भारतीय संस्कृति की उदारता का रहस्य इस सहज निरपेक्ष आत्मीयता के विस्तार में ही खुलता है।
इसी पुस्तक से

नेपथ्य से


विश्व-संस्कृतियों के ज्ञाता लेकिन भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक और व्याख्याता, कई भाषाओं और साहित्य के मर्मज्ञ, प्रसिद्ध प्राध्यापक और सिद्ध प्रशासक, उपकुलपति बनने होने पर भी गुरु के बाने में ही जीने रहने वाले पण्डित विद्यानिवास जी अपने जीवन के अधिकांश में प्रोफेसर रहे लेकिन पण्डितजी के रूप में ही जाने-पहचाने और सम्बोधित किये जाते रहे। भेदों से परे मतभेदों के उबरे हुए पण्डितजी सारे विवादों को परिसंवाद के नजरिये से देखते हैं। अब तक प्रकाशित हुए एक सौ पच्चीस ग्रन्थों में साहित्य, संस्कृति, धर्म ईश्वर को लेकर न जाने कितनी गुत्थियों की सुलझाहट छिपी है।
पं. विद्यानिवासजी एक ऐसा व्यक्तित्व हैं जो उन्हें जहाँ से, जितना और जिस तरह देखता है, उसे वे उतना वैसे ही दिव्य पुरुष नजर आते हैं। जो व्यक्ति भारत की जमीन पर खड़ा होकर हिमालय को देखता है उसे हिमालय वैसा ही नजर आता है, जो हिमालय को चीन, पाकिस्तान, नेपाल या तिब्बत की ओर से खड़ा होकर देखता है उसे हिमालय दूसरी तरह से नज़र आता है। लेकिन जो हिमालय को समग्रता में देखता है वह उसे सम्पूर्णता में समझ पाता है। उसके लिए हिमालय सिर्फ हिमालय होता है; बँटा हुआ विभाजित, आत्मनिष्ठ किसी का अपना और किसी के लिए पराया नहीं होता। उसका शिखर सबके लिए शिखर है। सिर्फ चढ़ाई करने का, वहाँ तक पहुँचने का सामर्थ्य होने की आवश्यकता है। पण्डितजी अपने समय के एक ऐसे साहित्य, संस्कृति और भाषावेत्ता पुरुष हैं। शताब्दियाँ जिन्हें आश्चर्य के रुप में स्मरण रखेंगी।

पं. विद्यानिवास जी एक ऐसे अनुपम वृक्ष सदृश्य हैं, जिसकी हर शाखा में किसी दूसरी शाखा के गुण-धर्म और पहचान समाहित है। एक मनुष्य के रूप में वे महामानव ही नहीं महावृक्ष हैं जिसकी हजार शाखाओं में सैकड़ों विषयों का महात्मय है। धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य, ज्योतिष, कला, इतिहास, लोक, संगीत, नृत्य, न जाने कितनी भाषाएँ और उनका साहित्य, सबका सार और रस तत्त्व इस महावृक्ष की मेधा में समाहित है। जिसके विविधवर्णी फूल और फल न तो गिने जा सकते हैं और न ही गिनाये जा सकते हैं। सिर्फ संवेदन तन्त्र से रूप, रस, गन्ध के रूप में अनुभव किये जा सकते हैं। पं. विद्यानिवासजी से साक्षात्कार लेना एक ‘मुश्किल समय’ को साधना है। वे समय के साथ चलते हैं समय की तरह तेज रफ़्तार में....दो वय की मुट्ठी में भी नहीं समाते हैं...जिन्हें घर की अर्गला भी नहीं रोक पाती है। जिनका ज्ञान-पिपासु चित्त यायावरी करता हुआ नहीं थकता, अघाता। जो काशी बसे अपने घर, बाबा विश्वनाथ के दर्शनार्थ और माँ विन्ध्यवासिनी का आशीष ग्रहण करने निमित्त भर, बादशाह बाग आवास में ठहरते हैं शायद, उसी ठहरे हुए समय में बड़ी मुश्किल से मुझे उनका समय मिल पाता है। सच पूछिए तो पण्डितजी से साक्षात्कार लेना वस्तुतः अपना साक्षात्कार देना है। ज्ञान-पुरुष के समक्ष अपनी जिज्ञासाओं की झोली खोलना अपने अल्पज्ञान और अज्ञान से कई मायनों में रू-ब-रू होना है। उनके प्रज्ञा-दर्पण में स्वयं की मेधा का अवलोकन वस्तुतः आत्मसाक्षात्कार की सहज और सरलतम प्रक्रिया है। ऐसे में विश्व-दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति के आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया का स्मरण आता है। लोक और शास्त्र जिनकी चेतना-मंजूषा में संरक्षित और सुरक्षित है। लोक में शास्त्र का और शास्त्र में लोक का जिसने सघन अन्वीक्षण किया है। शास्त्र को लोक के भीतर मथकर नवनीत की तरह ग्रहणीय बनाकर श्रोता और पाठकों के समक्ष अब तक परोसा है। कृष्ण भक्ति-आसक्ति में सूर डूबते हैं और पण्डित विद्यानिवासजी सूर के सूर-सागर में खो जाते हैं, वह पण्डितजी के लिए आत्मीय भावनाओं का रस-सागर है। ‘हौं, तो धाय तिहारे सुत की’ जैसी पंक्तियों में समता और वात्सल्य की पीड़ा से द्रवित हुए पण्डितजी के कण्ठ को सुनने का अवसर मिला है और आँखें उनकी आँखों में छलक आए आँसुओं से कई बार इसी तरह की पंक्तियों से भीग-भीगकर भर उठी हैं।

‘कालिदास से साक्षात्कार’ पुस्तक में पण्डितजी ने लिखा है-‘‘कालिदास जब स्मृति में चढ़ते हो तो कोई प्रश्न नहीं उठता, एक रमणीयता का प्रवाह उमड़ा चला आता है, मैं कभी-कभी उनसे पूछना चाहता हूँ कि कालिदास, तुम कैसे कवि हो कि आदमी की चेतना पर छा जाते हो। तुम्हें समझना मुश्किल नहीं लगता, पर तुम पकड़ में नहीं आते। वन के कवि हो कि उपवन के कवि हो, गाँव के हो कि नगर के हो, हिमालय के हो कि सागर के हो, सुख के हो कि दुख के हो, तुम किस कोटि के कवि हो, राजसी ठाठबाट के हो कि फक्कड़ फकीरी के हो, तप के हो कि विलास के हो, सुख के हो कि दुख के हो, तुम किस कोटि के कवि हो ? पर विद्यानिवासजी, प्रो. विद्यानिवासजी, उपकुलपति विद्यानिवासजी, निबन्धकार, साहित्यवेत्ता, सम्पादक, संस्कृति ज्ञाता विद्यानिवासजी से रही है। बहुत प्रश्नों के बावजूद बहुत से प्रश्न बचे रह गये हैं। जानने के बावजूद जानना शेष रह गया है। वे भारतीय संस्कृति के पुनरान्वेषक व्याख्याता और प्रस्तुतकर्ता हैं। भारतीयता की पहचान, नदी और संस्कृति, इतिहास का पुनरावलोकन जैसी किताबों में निबन्ध लिखते हैं; धर्म की सच्ची व्याख्या करते हैं व्याख्याता के रूप में। जो मेधावी पुरुष शास्त्र में निष्णात हैं वे पण्डितजी को अपना शास्त्र-गुरु स्वीकार करते हैं। जो साहित्य के रसज्ञ हैं वे पण्डितजी के लेखन के समक्ष नतशिर समर्पित हैं। जिन्होंने पण्डितजी के संभाषणों को सुना है वे उन्हें फिर-फिर सुनने के लिए अकुलाये रहते हैं। जो भी उनका शिष्य हो सका है या पण्डितजी ने जिसे अपना शिष्य मान लिया है वह सच सौभाग्यशाली है। उसे पण्डितजी की प्रज्ञा-परछाईं के स्पर्श का सुख तो हासिल है।

पं. विद्यानिवासजी साहित्य और संस्कृति के प्रामाणिक सन्दर्भ ग्रन्थ हैं। भेद और भेद से परे मनुष्य और मनुष्यता के प्रबल समर्थक हैं, मनुष्यता की रक्षा के लिए जिन्हें हर तरह का समर्पण स्वीकार है। एक ओर संस्कृत इनकी मातृभाषा है तो दूसरी ओर हिन्दी भी। एक ओर यदि हिन्दी को संस्कृत की सुगन्ध से सुरभित किया तो दूसरी ओर संस्कृत को हिन्दी जगत की सरलता प्रदान की। शास्त्रों को साहित्यिक व्याख्याओं से सरल और बोधगम्य बनाया। साहित्य को शास्त्र सफल बनाकर उसे उच्चस्तरीय अविस्मरणीय गरिमा प्रदान की।
कालिदास का साहित्य जिस तरह से मानव चित्त की अभिव्यक्ति के साथ-साथ पर्यावरण-प्रकृति की सुन्दरतम अभिव्यक्ति है। पण्डित विद्यानिवासजी के निबन्धों में बगैर किसी प्रचारित सैद्धान्तिक पूर्वाग्रह के मनुष्य, उसका समाज, प्रकृति, पक्षी प्राणी जगत और ऋतुओं का नादात्मक रसात्मक सौन्दर्य वर्णित और प्रतिध्वनित है। प्रगतिवादियों की तरह बिना किसी फतवे के शोषण का विरोध या हर उस विचारधारा का विरोध जो भारतीयता के विपक्ष में या शोषण में संलग्न है-पण्डितजी उसका विरोध करते हैं मुखर रूप में। प्रकृति की सृष्टि की हित चिन्ता में संलग्न पण्डितजी मानव-संस्कृति, विश्व-संस्कृति की बात करते हैं और आजकल इसी दिशा में संलग्र हैं, पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रकृति उन्मुखी संस्कृति के मानवीय संस्कार अपेक्षित हैं जिसकी घोषणा निबन्धों में ध्वनित है।

पं. विद्यानिवासजी मिश्रजी का लिखा हुआ वह ‘रामायण का काव्यमर्म’ हो या ‘कालिदास से साक्षात्कार’ या ‘जसुदा के नन्दन’ या ‘राधा माधव रंग रंगी’ यह सब मानस के तीर्थ-स्थल हैं। अयोध्या, वृन्दावन, पुरी काशी, वैष्णो देवी पहुँचकर जो तोष मिलता है वही पावन-आह्लाद इनके ग्रन्थों की भूमि-स्पर्श से अर्जित होता है। पण्डितजी का रचा साहित्य भक्ति का वृन्दावन है, चन्दनवन है। चन्दन की शीतलता जो घिसने से ही हाथ लगती है। चन्दनवन में रमकर ही चन्दनवन को महसूस किया जा सकता है। विषैले नाग लगे भी रहें तो चन्दन का कुछ नहीं बिगड़ता है। ‘मुक्तिबोध’ की कविता के शब्द को लेकर कहें तो विद्यानिवासजी के व्यक्तिव्यंजक निबन्ध ‘सजल-उर’ प्रसूता हैं। एक शिल्पी अपनी मूर्तियों में गढ़ता है-अपना ईश्वर कला का प्रतीक, कला तीर्थ रचता है इस बहाने से। एक चित्रकार रंग और रेखाओं से रचता है-ईश्वर। पण्डितजी ने शब्दों में पता है-ईश्वर और प्राण प्रतिष्ठा की अपने ईश्वर में। शब्द इनके साहित्य में सचमुच ‘ब्रह्म’ है। सिर्फ उस ब्रह्मानन्द की अनुभूति की आवश्यकता है।
पं. विद्यानिवासजी हर एक के लिए सहज हैं, सरल हैं। समय अगर उनकी मुट्ठी में होता है तो वे सहयोग करने में अपने शरीर सामर्थ्य की सीमा तक की परवाह नहीं करते हैं...। उच्च रक्तचाप, और साइटिका जो पण्डितजी की देह का स्थायी कष्ट हो गया है उसे भी ऐसे भूले हुए हाशिये पर पटके हुए काम करते रहते हैं कि आश्चर्य होता है। साक्षात्कार की प्रायः बैठकों में पण्डितजी अस्वस्थ रहे हैं और अपने मिलने वालों से बैठक में घिरे बैठे रहे हैं। इसी बीच किसी तरह से अन्तराल का उपयोग करके यह साक्षात्कार सोलह माह में पूरा हो सका है। एक बार फोन करने पर आपने कहा-बिछौने की कैद में हूँ फिर भी आ जाना, कुछ तो काम आगे बढ़ेगा। घर पहुँची तो चार-पाँच लोग बैठे थे अपने मुँह में चिकित्सा की घरेलू सलाह तिनके की तरह दबाये हुए। पण्डितजी ने ऐसे सलाहकारों के लिए एक कॉपी-कलम खोलवा कर रखवा दी थी जिससे बातचीत के मुद्दे साहित्यिक और सार्थक हों।

दूसरों की चिन्ता, दूसरों के कितने उपयोग में आ सके, सबके लिए कितने सार्थक हो सके इस कर्तव्य-निष्ठा में पूरा दिन बीत जाता है। उनका बैठकघर ही उनका अध्ययन-कक्ष है। सुबह पाँच बजे से रात दस बजे तक पण्डितजी की आँखों की रोशनी से जागता रहता है उनका अपना कक्ष, अपनेपन से भरपूर। प्रातः जागरण, ध्यान-उपासना के बाद पण्डितजी दस बजे के आसपास आये पत्रों के उत्तर के लिए अपने टाइपिस्ट बैनर्जी के सामने होते हैं। उन्हें पत्र लिखनेवाले जानते हैं पण्डितजी की पत्र नियमितता। बारह के आसपास रसोई में भोग भर का अन्न ग्रहण करके, घर वालों के बहुत दबाव पर बमुश्किल आधा से एक घण्टे तक विश्राम...जिसमें देह तो चौकी पर कुछ क्षण के लिए आराम भी करती है लेकिन सोने पर भी जागनेवाला मन-मानस और देश-विदेश से आनेवाले फोन-काल्स चैन नहीं लेने देते हैं। इसके बाद दो-तीन बजे के आसपास से पाँच-छः बजे तक पुनः लिखने-लिखाने में लगना...शाम, किसी भी गोष्ठी में पहुँच जाना...पण्डितजी छोटे-से-छोटे सम्बन्ध का आदर और निर्वाह करते हैं। किसी की निन्दा न करना और न ही किसी की निन्दा सुनने में रस लेने की आदत होने के कारण पण्डितजी के निकट इस तरह के तत्त्वों को जगह नहीं मिल पाती है। स्वास्थ्य पर बन आने के कारण एक बार हिम्मत करके मेरे विश्राम करने के आग्रह पर पण्डितजी ने कहा था-‘‘मुझे सिर्फ शील की चिन्ता रहती है उसकी रक्षा में यदि जान भी चली जाए। मुझे परवाह नहीं।’’ पण्डितजी से मिलने आनेवाले लोगों का ताँता लगा रहता है और कोई बिना चाय-पानी अन्न ग्रहण किये हुए नहीं जाता है।

आनेवाले लोग तो अपने घर जाकर विश्राम भी कर लेते हैं लेकिन पण्डितजी तो बारह-चौदह घण्टे साइटिका का दर्द लिए...बगैर उफ् किये....हँसते-बोलते और चर्चा करने में लगे रहते हैं। न वे अपने को आराम करने देते हैं और न हम लोग उन्हें। पण्डितजी की व्यस्तता और सधी हुई दिनचर्या का यह आलम है कि अम्मा का काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अस्पताल में अँगूठे का आपरेशन था लेकिन वहाँ भी वह स्पेशल वार्ड में टाइपिस्ट को पत्रोत्तर लिखवाने से नहीं चूकते थे। सम्बन्धों के निर्वाह में कोई जवाब नहीं-काशी के ठाकुर प्रसाद सिंह जब दिल्ली अस्पताल में अपने जीवन के अन्तिम समय में मौत से जूझ रहे थे तो बनारस और दिल्ली के बहुत-से लेखक नहीं पहुँचे। पर पण्डितजी अपनी व्यस्तताओं के बावजूद पहुँचे और अपेक्षित सहयोग किया। ऐसे ही एक दिन अशोक वाजपेयी पण्डितजी की चर्चा करते हुए कहने लगे-जब विभा-कारंत काण्ड में हम लोग उलझे हुए थे। भारत भवन का उपयोग करनेवाले भी बहुत से लोग जब इधर उधर हो गये थे कि एक दिन सुबह दस बजे के आसपास पण्डितजी आये और उन्होंने कहा-‘‘मैं तुम लोगों के साथ हूँ।’’ जिस समय मीडिया भी हम लोगों का साथ नहीं दे रहा था।
कई माह चलनेवाली पूरी बातचीत के दौरान पण्डितजी यायावर बने रहे अपने पिछले वर्षों की तरह। देश-विदेश की न जाने कितनी यात्राएँ, एक कोने से दूसरे कोने तक। कश्मीर से कन्याकुमारी तक; पूर्वांचल से पश्चिमांचल तक। थकान और श्रम को चुनौती देते हुए बिना रुके यात्राएँ करते रहे और दूसरी ओर व्याधियाँ उनके भीतर यात्राएँ करती रहीं। पाँव का दर्द उनके पाँव पकड़े हुए था। पण्डितजी ने एक हाथ में छड़ी ले ली। छड़ी लेकर यात्राएँ करते रहे। रुके नहीं। दो माह दर्द के कुछ थमने पर छड़ी दीवार से टिका दी।

पण्डितजी ने पाँव-दर्द के बावजूद कभी पाँव में तेल नहीं मलवाया-लगवाया। कभी अपने शरीर की सेवा नहीं करवाई बल्कि देह से सेवा ली-लोक के लिए। लोक की संस्कृति के लिए, संस्कृति के साहित्य के लिए, साहित्य के इतिहास के लिए, इतिहास में भारत की पहचान के लिए। लेकिन 2000 माघ मेला में भागवत कथा सुनने के लिए, घुटनों में चढ़ आये साइटिका दर्द के विष को उतारने के लिए अपने रामदयाल सेवक से मात्र एक सप्ताह पाँच मिनट की हल्के हाथों धूप में मालिश करवाई और गंगा-यमुना के संगम-तट पर डटकर भागवत कथा सुनी। माह भर संगम तट पर ठिठुरती शीत में स्नान किया। पुनः 2001 में महाकुम्भ में संगम तट पर लगभग एक माह प्रवास किया। 1942 से कल्पवास की साधना का अभ्यासी मन ‘चल मन गंगा तीरे’ कहता हुआ निकल पड़ता है। कई तरह की दायित्वपूर्ण यात्राओं को स्थगित कर, सारी सांसारिकता को दरकिनार कर पण्डितजी महादायित्व के निर्वाह निमित्त कल्पवास में लीन रहते हैं। जिसे अभी तक नहीं छोड़ा किसी वर्ष। कहते हैं-अब तो चला-चली की बेला है ऐसे में कल्पवास से नाता क्यों तोड़ें। इसी समय पण्डित जी की देह को मिलता है विश्राम और तने हुए तम्बू-घर के भीतर मन को एकान्त। जहाँ पण्डितजी क्लासिक साहित्य का रसास्वादन करते हैं। फिर-फिर करते हैं और फिर-फिर करना चाहते हैं। आपके प्रिय क्लासिक्स हैं-रामायण, महाभारत और कालिदास ग्रन्थावली।

पं. विद्यानिवासजी बनारस के लिए ही नहीं आते हैं बनारस-अपने घर के लिए भी आते हैं...गंगा माँ और भगवती की गोद में विश्राम कर अपनी थकान मिटाने के लिए आते हैं बनारस। कुरतिया (बनियाइन का विकल्प) में पेन खोंसे और आँखों को नयी किताबों में दौड़ाते हुए पढ़ने में लगे रहते हैं। प्रकाशित होनेवाली पुस्तकों के अन्तिम प्रूफ पण्डितजी स्वयं जाँचते हैं इस उम्र में भी। कई बार ऐसा मौका आया कि मेरे एक-दो सवालों का जवाब देने के बाद ही पण्डितजी को किसी गोष्ठी की अध्यक्षता के लिए लेने आ गये। लोगों के सामने ही पण्डितजी बैठक से आवाज लगाते हैं। घर का जो भी सुन लेता और जैसा भी कुर्ता ले आता पण्डितजी उसे अपने कन्धे से नीचे उतार लेते हैं, धारण कर लेते हैं और चल देते हैं। पण्डितजी को तैयार होने में सिर्फ वस्त्रान्तरण भर का ही समय लगता है। वे कभी कंघी नहीं करते। प्रातः के स्नान के बाद पूजा-अर्चन के बाद माथे पर लगे हुए भक्ति के तिलक-चन्दन के बाद अब कैसी तैयारी और क्यों....?
कर्तव्यनिष्ठा के संस्कार पण्डितजी के व्यक्तित्व की प्रधान विशिष्टता है। इसी वर्ष 2001 में 14 जनवरी को पण्डितजी के पचहत्तर वर्ष पूर्ण हुए। इस अवसर पर काशी में...दिल्ली में कई अनुष्ठानों के आयोजन की योजना थी। लेकिन उसी समय दुर्भाग्य से पण्डितजी के दोहरे रिश्ते में लगने वाली भाभी और सम्भवतः चाची का पच्चीस वर्ष की उम्र में निधन हो गया। पण्डितजी ने उन्हें मुखाग्नि दी। शीत के उन भयानक दिनों में पण्डित जी ने काशी की मणिकर्णिका घाट में मुखाग्नि ही नहीं दी वरन पचासों सीढ़ियाँ उतर बर्फ-सी ठण्डी गंगाधारा में स्नान किया। और एक पखवारे तक किसी आयोजन में न हिस्सा लिया और न ही कहीं गये। अपने जन्मदिवस के उत्सवी आयोजन तक का तिरस्कार किया।

पण्डितजी विद्यानिवासजी अपनी यात्राओं के चक्रवाती प्रकोप से बचकर जब-जब काशी लौटते मैं उनसे ही उनका समय छीनने की कोशिश करती रही। इन्हीं दिनों कनाडा के एक दार्शनिक दुभाषिये आस्कर पुजोल के साथ भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति पर लम्बी गम्भीर बातचीत चल रही थी। वाराणसी आने पर कभी उन्हें प्राथमिकतापूर्वक समय प्राप्त होता कभी मुझे। 2000 दिसम्बर में दिल्ली के हैबिटाट हॉल में दार्शनिक के साथ बातचीत की अन्तिम कड़ी पूर्ण हुई। लेकिन मेरी जिज्ञासाओं का तो कोई अन्त नहीं है। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता रहा है-उनके ग्रन्थों से गुजरने के बाद कि मेरी सभी जिज्ञासाओं के उत्तर पण्डितजी के पास बहुत सरल और सरस अवस्था में हैं। पण्डितजी के उत्तर वर्तमान को अतीत से जोड़ते हैं या यूँ कहें अतीत से जुड़कर वर्तमान को देखते हैं और भविष्य के लिए दृष्टि थमाते हैं और यह दृष्टि भारतीय संस्कृति और साहित्य की है। मेरी जिज्ञासाएँ, मेरे प्रश्न मुँह उठाए उन तक पहुँचते हैं। पं. विद्यानिवासजी के पास जीवन और जगत के सवालों के ऐसे संक्षिप्त और सार्थक उत्तर मौजूद हैं कि जिन पर विद्वान व्याख्यान-दर-व्याख्यान देते रहते हैं पण्डितजी उसके लिए सिर्फ एक वाक्य-भर का समय लेते हैं। मार्च माह में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग में ‘फिलॉसफी ऑफ दी टॉलरेन्स’ पर अमेरिकन विदुषी प्रो. कुकरडी का डेढ़ घण्टे प्रभावशाली व्याख्यान हुआ इसके बाद पण्डितजी ने दो तीन वाक्यों की औपचारिकता के बाद कहा-यदि सम्बन्धों में आपसी और मानसिक समझदारी और गहरा विश्वास होता है तो कहीं बर्दाश्त करने या सहन करनेवाली स्थितियाँ नहीं पैदा होती हैं। प्रो. कुकरडी के लम्बे व्याख्यान के दौरान अध्यक्ष पद के अकेलेपन से क्रीड़ा करते हुए पण्डितजी ने कागज की नाव बनायी और व्याख्यान समाप्त होने के बाद उसे हाथ में लेकर वहाँ से चले जिसके बाद में कृपापूर्वक मुझे प्राप्त होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। (आज भी वह कागज की नाव मेरे पास है।)

गम्भीर प्रश्नों के बीच में पण्डितजी से कभी-कभी उनके जीवन से जुड़ी सरल जिज्ञासाएँ कीं तो पता चला पण्डितजी का प्रिय खेल हॉकी था जिसे वह इन्टर तक खेलते रहे। बड़े होने और नौकरी में आने के बाद ताश खेलने में रुचि थी। विदेश में अज्ञेय और वहाँ से मित्रों के साथ ताश बहुत खेलते थे। लेकिन जैसे-जैसे साथ खेलने वाले मित्र छूटते गये वैसे-वैसे जीवन से खेल छूटता गया। नया-से-नया साहित्य पढ़ने की रुचि से सम्पन्न पण्डितजी अपना अधिकांश समय पढ़ने...यात्राएँ करने और बचे हुए समय को लिखने में व्यतीत करते हैं। गहरी रचनाओं के पाठ से विभोर हो उठते हैं और सतही रचनाओं के पाठ के उचाट अनुभव करने लगते हैं। पिछले वर्ष ही साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त पुस्तक को अपनी दिल्ली-वाराणसी विमान यात्रा में पूर्ण तो किया लेकिन घर पहुँचते ही फोन करते हुए कहा-‘‘आपको वह पुस्तक कैसे अच्छी लगी ? मेरा तो समय नष्ट हो गया और मन खीज से भर उठा है।’’ बढ़ती-पसरती हुई अपठनीयता के प्रति पण्डितजी को गहरी शिकायत है।
साक्षात्कार के क्रम में पण्डितजी की घर-देहरी में जो पारिवारिक अपनापन मिला उससे यह भी जाना कि एक घर कैसे सबके लिए ‘एक अपना घर’ बन जाता है। जहाँ सबके लिए जगह है और सबके लिए मीठा अपनापन है-छलावे से दूर आत्मीयता से भरपूर लोक के आलोक में पं. विद्यानिवासजी ने शास्त्र की शास्त्रीयता लिखी। और शास्त्र की शास्त्रीयता में लोक की मृदुल निर्झरिणी का प्रवाह देखा। संस्कृत घराने के होकर भी हिन्दी साहित्य की जितनी सेवा पण्डितजी ने की है वह किसी भी हिन्दी साहित्य-सेवी से किसी मायने में कम नहीं है-दिल्ली के नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक रहे और आज भी ‘साहित्य अमृत’ पत्रिका का सम्पादन कार्य कर रहे हैं। तुलसी मंजरी, शासन शब्दकोश, भारतेन्दु मुकुट, हिन्दी सेवा की संकल्पना, रहीम रचनावली, रसखान ग्रन्थावली प्रौढ़ों का शब्द संसार, साहित्यिक ब्रजभाषा कोश (तीन भाग), श्यामसुन्दर दास निबन्धावली, सत्यनारायण कविरत्न ग्रन्थावली, सूर वाङ्मय सूची, आज के लोकप्रिय कवि अज्ञेय गति और रेखा, भारतीय भाषा शास्त्रीय चिन्तन की पीठिका, वैयाकरण भूषणम,कबीर वचनामृत, वेदाख्यान कल्पद्रुम,आलम ग्रन्थावली, संस्कृत साधना, हिन्दीमय जीवन, देवेन्द्रनाथ शर्मा अभिनन्दन ग्रन्थ चन्द्रबली त्रिपाठी स्मृति ग्रन्थ और राहुल चयनिका जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का सम्पादन किया जिसमें Studies in Vedic and Iraniyan Literature और Follow notes of the flute भी शामिल हैं। भाषा के क्षेत्र में पण्डितजी ने भारतीय भाषा दर्शन की पीठिका, भाषा और सम्प्रेषण, रीति विज्ञान, हिन्दी की शब्द सम्पदा और भोजपुरी हिन्दी शब्दकोश की तरह न जाने कितनी पुस्तकें लिखी हैं। धर्म, संस्कृति और दर्शन की कई विश्लेषणात्मक पुस्तकें हैं-साहित्य की चेतना, साहित्य का प्रयोजन, भारतीयता की पहचान, नैरन्तर्य और चुनौती, भारतीय परम्परा, देश, धर्म और साहित्य, हिन्दू धर्म : जीवन में सनातन की खोज, नदी, नारी और संस्कृति, हिन्दी साहित्य का पुनरावलोकन, अध्यायन भारतीय दृष्टि, हिन्दू धर्म दीपिका।

देश के हर कोने की तनमाटी...मनमाटी की सुगन्ध और प्रकृति के सौन्दर्य से जुड़ने और जनमानस से जुड़ाव के लिए पाँच सौ से अधिक व्यक्ति व्यंजक निबन्ध लिखकर भी पं. विद्यानिवासजी आत्मतुष्ट नहीं हुए हैं-कुछ निबन्ध संग्रह यदि कृष्ण भक्ति से पगे हुए हैं तो कुछ राम भक्ति से भरे हुए हैं। प्रायः निबन्ध संग्रहों का आधार सुकृति और उसका सौन्दर्य है या मानव मन और मानव रचित कलाएँ हैं-जैसे-छितवन की छाँह, कदम की फूली डाल, आँगन का पंछी और बनजारा मन, कौन तू फुलवा बीन निहारी, गाँव का मन, तुम चन्दन हम पानी, मैंने सिल पहुँचायी, वसन्त आ गया पर कोई उत्कण्ठा नहीं, शेफाली झर रही है, फागुन दुई से दिना, शिरीष की याद आयी, बूँद मिली सागर में संग्रह हैं, तो उत्तर गीत गोविन्द, और पानी की धार शीर्षक से विद्यानिवासजी के कविता संग्रह भी हैं। एक ओर यदि कवि चित्त निबन्ध के साँचे से ढलकर प्रकट हुआ है तो दूसरी ओर काव्य की धारा बनकर भी प्रवाहित हुआ है।
पं. विद्यानिवासजी के कृतित्व और व्यक्तित्व में साहित्य, संस्कृति, भाषा और लोक की समस्त दिशाएँ और दिशा-दृष्टि समाहित है। जिस दिशा में क्षेत्र से जोड़कर उन्हें और उनके कृतित्व को देखें उनमें वही दिखता है। सिर्फ देखनेवाली आँखें चाहिए-तटस्थ, निर्मल और निश्छल।
अनन्त संवाद के अनवरत प्रकाशन के लिए मैं कला-प्रयोजन और उसके सुधी-समीक्षक श्री हेमन्त शेषजी की विशेष आभारी हूँ जिनकी कृपा से उनके कुछ पत्र द्वारा प्रेरित आरम्भिक प्रश्नों के साथ साहित्य संस्कृति और भाषा से सम्बन्धित जिज्ञासाओं का महायज्ञ हो सका। पुनः आभार सहित।
पुष्पिता

साहित्य अप्रतिहत है
साहित्य क्यों ‘निर्विकल्प’ है ?

इसलिए कि संवाद का कोई विकल्प नहीं है। संवाद स्थापित करनेवाली भाषा का विकल्प नहीं है। परिणामस्वरूप संवाद की उत्सुकता और उत्कण्ठा का कोई विकल्प नहीं है। यदि विकल्प नहीं है तो साहित्य का भी विकल्प नहीं है। यह नहीं कि साहित्य के अलावा संस्कृति के अनेक उपादन व्यर्थ हैं। यह भी नहीं कि साहित्य आप में उन सबसे निरपेक्ष है, उन सबको लेकर ही साहित्य होता है। उनके न होने पर साहित्य उखड़ा-उखड़ा सा लगता है। इसलिए साहित्य निर्विकल्प है। उसका यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि निरपेक्ष है। साहित्य मनुष्य की संवेदना की अपेक्षा रखेगा। उसकी विभिन्न प्रतीतियों की अपेक्षा रखेगा और सबके अधिक न कह पाने की अकुलाहट की अपेक्षा रखेगा। बिना इस छटपटाहगट से जो साहित्य लिखा जाता है वह कितना भी आत्मसन्तुष्टिकारक क्यों न बन जाए, साहित्य नहीं होता।

भारतीय परम्परागत-चित्रांकन, नृत्य-शैलियों, लोक नाट्यों, संगीत की बात करें तो साहित्य और अन्य कला-रूप एक दौर में, गहरे जुड़े हुए थे। यह कहा जाता है कि इधर, इनमें आवाजाही-आदान प्रदान सीमित है, या प्रायः नहीं है। आपके अभिमत में, साहित्य और अन्य कला-रूपों में अधिक आत्मीय-अतःक्रिया की क्या सम्भावनाएं हो सकती हैं ?
यह बात सही है कि इधर रंगमंच, संगीत, नृत्य वास्तु या चित्रकला से साहित्य का सम्बन्ध कुछ हम हो गया है। साहित्य इन सबको आधारपीठिका भी देता था। भारत में प्राचीन चित्र, शिल्प किसी-न-किसी साहित्य में बार-बार आये मिथक के ही आकार होते हैं। संगीत के बोल भी साहित्य से आते रहे हैं और उन बोलों की सामाजिक या रंगीय-प्रस्तुति में कुछ नये अर्थ भी खुलते हैं। पर हाथ ही साथ यह भी सही है कि किसी दूसरे का काम कोई स्थान नहीं लेता है। साहित्य, संगीत बनना चाहे तो नहीं बनेगा। कविता बनने के स्थान पर यदि साहित्य, ज्योमितीय-कला बने तो बात नहीं बनेगी।

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