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उपन्यास >> किसी और सुबह

किसी और सुबह

लक्ष्मीधर मालवीय

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :241
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6924
आईएसबीएन :978-81-8031-190

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किसी और सुबह...

Kisi Aur Subah - A Hindi Book - by Laxmidhar Malviya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘एक बात पूछना चाहती हूँ, तुम ऐसा तो नहीं सोचते न, कि तुमने पाप किया ?’’
‘‘नहीं तो। क्या तुम अपने मन में ऐसा समझती हो ?’’
‘‘नहीं। पर मेरे बाद तुमने किसी दूसरी लड़की को भी प्यार नहीं किया ?’’
‘‘किया। क्या तुम बुरा मानोगी ? जिसे किया, उसे सारे तन-मन से किया। नहीं तो नहीं किया और कुछ रही किया।’’
वह सोचने लगी।
‘क्या मेरे आप अपने बारे में सोच रही हो ?’’
उसने सिर हिलाकर इनकार किया।
‘‘वफादारी के बारे में कि वह तन की है या मन की ?’’
‘‘मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।’’
लेकिन वह कुछ कहना चाहती थी।

‘‘देखों, अगर ऐसा है तो क्या तन की इच्छा से प्यार को साधन नहीं बनाया जा सकता है ?’’ उसने पूछा।
‘‘जा सकता होगा। लेकिन क्या प्यार के या दूसरे भी किसी सम्बन्ध को सदा बनाए रखा जा सकता है ?’’
पतझर की पीली-पीली दोपहर-इच्यों की पीली-पीली पत्तियों जैसी ! खुली खिड़की से आसमान के अलावा बगल वाले घर के आँगन का एक टुकड़ा दिखायी देता था-आँगन में हरी पत्तियों और लाल फूलों का मुरछल के पौधे। पौधे और आँगन और पड़ोस का घर भी अंदर से खामोश था। शायद वे दोनों बाहर चले गये होंगे। हों भी तो उनकी आवाज नहीं सुनायी देती-कई बार शक हुआ कि दोनों गूँगे तो नहीं हैं ! वे पति-पत्नी हो सकते हैं या शायद न हों। वह पता नहीं क्या काम करता है। साढ़े तीन साल पहले वे उस मकान में आये थे, उस समय भी वे रस्मी भेंट करने नहीं आये थे। इस बीच मैने उन्हें सिर्फ एक बार देखा था जब वे फाटक खोल कर बाहर जा रहे थे।
ठीक मालूम नहीं कि कहाँ लेकिन कहीं एक कुत्ता रो रहा था। शरद ऋतु की पीली शान्त दोपहरी में। पीं-पूँ पीं-पूँ, एम्बुलेन्स की दूर से आती आवाज सुनायी दे रही थी।

एक बार अँगड़ाई लेकर चौकी के दोनों ओर तातामि पर बिखेर इलस्ट्रेशनों पर नजर डाली-भोलेभाले चेहरे वाली एक स्कूली लड़की से लेकर उसी लड़की के दिखायी देने वाले दोनों गुठने और उसके ऊपर का हिस्सा, किसी वयस्क औरत जैसे ! कुल बाईसइलस्ट्रेशन। सुबह से लेकर देर दोपहर तक में। रात से पहले इन्हे कान्दा में एक साप्ताहिक पत्रिका को देना था।
प्याले में घूँट भर चाय बच रही थी। ठंडी।
दरवाज़ा बंद करके बाहर निकल रहा था तभी वह बिल्ली आकर पैरों के आसपास फुदकने लगी।
-बाहर से आ नहीं रहा हूँ रे, अब बाहर निकल रहा हूँ।–मैंने डाक बक्स की दीवार के पीछे कब्रिस्तान।
तभी बाँसुरी की धीमी आवाज सुनायी दी। लंबी निर्जन सड़क के किनारे-किनारे सात-आठ साल की एक लड़की बाँसुरी दोनों हथेलियों में पकड़ कर उसे होंठों से लगाये चली आ रही थी।
...शाम हुई लाल, डूब चला दिन, पहाड़ पर के मंदिर का घंटा बोल रहा; आओ, एक दूसरे की उँगलियाँ थाम घर लौट चले अब, पाखी भी हम भी लौट चलें अब....
-तुम बाँसुरी कितनी अच्छी बजाती हो !- वह पास आ गयी थी। वह ठिठकी और उसने अपना चेहरा उठा कर देखा। फिर वह आगे बढ़ गयी।

मुझे लगा कि मुझे भ्रम हुआ था कि वह बाँसुरी बजा रही थी।
....छोटी-छोटी चिड़ियाँ जब सपने देख रही होंगी, आकाश में गोल बड़ा-सा चंद्रमा, चाँदी के तारे चमकेंगे दिप-दिप....
घूम कर देखा। वह जा रही थी और उसकी पीठ पर लाल चमड़े का स्कूली थैला लदा था।
शरद की उद्धस पीली दोपहरी में वह आवाज हल्की और हल्की होती हुई, दूरी में घूल-मिल गयी।
दीवार में एक छोटा-सा फाटक था। उससे होकर कब्रिस्तान पार करके स्टेशन तक का पास का रास्ता था। कब्रिस्तान से निकलते हुए चीड़ के ऊँचे-ऊँचे पेड़ों वाले गोल दायरे के किनारे पड़ी बेचों पर निगाह गयी। उस दिन भी उस बेन्स पर कोई नहीं बैठा था।

एक बार वह बहुत सुबह आ गयी थी और सारे दिन घर के अंदर रहने के बाद खुली हवा में निकलने के इरादे से हम इस पार्क कब्रिस्तान में आकर उस बेन्च पर बैठ गये थे। उसके आसपास की जमीन नीची होने के कारण दोपहर को हुई कुछ देर की तेज वर्षा का जल वहाँ जमा हो गया था और उसमें सामने के मोमिजि की लाल पत्तियों वाली डालें और शाम की नीली रोशनी तक उसने विवाह नहीं किया था।
-मैं किसी ऐसे व्यक्ति से शादी करूँगी जिसके पास खूब धन हो।– वह अचानक बोली।
मुझे मालूम था कि वह उन दिनों कठिन आर्थिक अवस्था के बीच थी।
-मैं कुछ दिन, कुछ दिन भी सही, ऐसे बिताना चाहती हूँ, जिनमें मुझे रोज अगले दिन की चिन्ता न करनी हो।
मुझे आश्चर्य है कि उस दिन के बाद मैंने उस बेन्च पर बैठे किसी को नहीं देखा। यह महज अंधविश्वास हो सकता है क्योंकि कोई भी उस बेन्च पर जब मैं वहाँ नहीं हुआ करता थी जाकर बैठता रहा होगा।

वह पाँच-छः स्टेशनों के बीच की सेइबु लाइन थी और उस पर केवल दो डिब्बों की ट्रेनें आती-जाती थीं। सुबह-शाम के समय ही उनमें भीड़ हो जाती थी-सुबह के समय तोक्यो की ओर से लौटने वालों की। और वक्त उन पर बूढ़े मर्द-औरत और स्कूल से वापस आने वाले अमरीकी बच्चे हुआ करते थे। वे पास के अमरीकी सैनिक अड्डे पर तैनात फौजियों के बच्चो थे और व्लास्टिक की लम्बी थैली में से चिचोड़ कर कैन्डी चाटते रेलगाड़ी के अंदर-अंदर एक छोर से दूसरे छोर तक एक-दूसरे का पीछा करते हुए दौड़ते और जूस या कोकाकोला के खाली डिब्बे खिड़की के बाहर फेंकते थे।
प्लेटफार्म के सिरे पर एक नौजवान चुपचाप खड़ा ट्रेन के आने का इंतजार, आँख की सीध में अपलक देखते हुए कर रहा था। छाजन के नीचे दीवार से लगी काठ की लंबी बेन्च पर काली स्कर्ट सफेद ब्लाउज पहने एक स्कूली लड़की किमोंनो पहने शान्त चेहरे वाली एक अघेड़  स्त्री से हँस-हँस कर बातें कर रही थी। माँ-बेटी या दादी-पोटी। बेन्च के छोर पर अठारह बीस साल की एक अमरीकी लड़की, आधी आँख ढकने वाला धूप का चश्मा लगाए।

स्टेशन की रेलिंग के बाहर लगे साकुरा की डालें प्लेटफार्म के एक हिस्से पर झुकीं थीं। साकुरा की पत्तियाँ पीली हो गयी थीं लेकिन अभी गिरने नहीं लगी थीं।
सुबह और शाम के अलावा ट्रेनें बड़ी देर-देर पर आती थीं।
दो स्टेशन आगे ट्रेन बदल कर कान्दा में वे इलस्ट्रेशन देने के बाद मैं एकदम खाली था- संसार की सबसे अधिक आबादी वाले शहर तोक्यों में, जहाँ देश का हर दस में से एक आदमी आकर रहता है।
पुरानी किताबों की दूकानों के बाजार में स्कूल-कालेज-यूनिवर्सिटी के लड़के-लड़कियों की भीड़ शाम के समय अधिक हो गयी थी।
अब मैं क्या करूँ, मैं सोचने लगा। यह हर वैसी शाम की समस्या थी जिसमें धन कमाने के लिये काम नहीं करना होता था। दो दोस्तों के नाम याद आये जिनके साथ कहीं शाम गुजारी जा सकती थी लेकिन तब साढ़े पाँच बजे थे- उस समय वे अपने-अपने दफ्तर से निकल गये होंगे और सड़क के फुटपाथ पर या किसी भीड़ भरी ट्रेन में होंगे।
शिजुकू स्टेशन के पूर्वी द्वार से बाहर निकल कर कुछ ही दूर गया था कि अचानक तेज वर्षा होने लगी। अकस्मात बदलने वाली औरत की तरह शब्द का मौसम !
सड़क के दोनों ओर खड़े यानागि, जिनकी लंबी-लंबी बारीक डालियाँ जरा सी दवा के चलते ही झूलने लगती थीं, ढोरीं की तरह सिर झुकाए खड़े थे।

फ़ूगेत्सुदो का पीला साइनबोर्ज वहाँ से दिखायी दे रहा था। कोई पचास कदम की दूरी पर। वैसे ही दिनों वहाँ जाकर बैठता था। वहाँ जाकर बैठने वाला हर कोई।
मैली लाल दीवारें, लाल कपड़े से मढ़ी मैली कुर्सियाँ, गंदे टेबूल, काली शहतीरों वाली मैली छत और सिगरेट के घुएँ में घूरती आँखों जैसे नंगे बल्ब। वहाँ हमेशा टेबुलों पर बुझे हुए सिगरेट और दियासलाई की तोलियाँ बिखरी रहती थीं।
खिड़की के आगे दोहरी कुर्सियों पर बाल लाल रँगे, मेकअप किये एक जवान लड़का नींद से सो रहा था। बीच के टेबुल के दो और चार विदेशी हिप्पी बैठे थे और फ्रांसिसी या इतालवी में लगातार बातें कर रहे थे। उनके पीछे पत्थर के गोल टेबूल की दूसरी ओर दीवार से पीठ टिकाये एक मोटी लड़की अकेली बैठी थी। उसके नकली छल्लों वाले बाल कंधों पर से आगे की ओर लटके थे और वैसे ही काले रोयेंदार कोट की निचली घेर से निकले उसके पैर, मोटी जाँघों तक दिखायी देते थे। छोटे कद की और मोटी, गोगाँ की औरतों की तरह। जब भी दरवाजा खुलता, वह नये आये ग्राहक को देखने लगती और किसी खाली टेबुल पर उसके जाकर बैठने तक उसे देखती रहती।
वेटर आकर आर्डर ले गया।
मैं क्यों यहाँ बैठा हूँ।

नहीं। मैं यह बात नहीं करूँगा। वह कोई बात नहीं जिसमें मैं शामिल हूँ।
तो फिर मुझे कौन-सी बातें करनी चाहिये।
उन प्लेटफार्मों के बारे में जो आज पीछे छूट गये। या घड़ी के वक्त के बारे मे। या उन खतों के बारे में जिन्हें मैं लिखता, अगर मेरा कोई परिचित मित्र बच रहा होता। या जिंदगी के बारे में। या किसी ऐसी दुर्घटना के बारे में जो अब तक नहीं हुई है। या ऐसे बेचारे व्यक्ति के बारे में जो शीशे की दीवार के दूसरी ओऱ होने के कारण कोई भी गंध नहीं सूँध सकता है। या कि उन दो अपरिचित व्यक्तियों के बारे में जो मिलते ही यह निरर्थक बहस छेड़ देते हैं कि उनमें से कौन पहले मरेगा। या इस समय वर्षा हो रही है इसिलये खिली धूप के बारे में। या उस आदमी के बारे में जिसने जाली कपड़े की टोपी पहन रखी है। या उन लंबी यात्राओं के बारे में जो क्षणिक होती है....


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