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उपन्यास >> तुम मेरे हो

तुम मेरे हो

कमल दास

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6917
आईएसबीएन :978-81-8031-249

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मैं इतना समझता हूँ कि आप लोगों का साहचर्य मेरे जीवन को सुख और आनन्द प्रदान करता है...

Tum Mere Ho - A Hindi Book - by Komal Das

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक

उर्मिला नयी दिल्ली स्टेशन पर आ पहुँची। यह रेलवे स्टेशन उसे बडा़ अच्छा लगता है। मौका पाते ही वह कभी-कभार यहाँ आ कर बैठ जाती है।
हावड़ा या स्यालदा स्टेशन की बात याद आते ही उसके दिल की धड़कन बढ़ जाती है। उन स्टेशनों पर हमेशा ‘युद्धं देहिं’ जैसा वातावरण बना रहता है। बंगाली स्वभाव से विनम्र, सुशिक्षित और काफी हद तक शिष्ट होते हैं। लेकिन जहाँ तक रेलवे स्टेशन का सवाल है, दिल्ली और कलकत्ते में बड़ा अन्तर है। हालाँकि इसका बहुत बड़ा कारण है। यहाँ नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर सभी तरह के लोग हैं। इस लिए किसी एक खास प्रदेश के स्वभाव की प्रधानता देखने को नहीं मिलती।
नयी दिल्ली स्टेशन की विशेषता यह है कि यहाँ भीड़ कम रहती है। इस लिए यहाँ के शान्त वातावरण में व्यवधान नहीं पड़ता।

कई दिनों के लिए उर्मिला यहाँ एक कान्फरेन्स में भाग लेने आयी थी। उसने अपना जीवन भी एक अच्छे स्कूल से, यानी अध्यापन से शुरू किया था। फिर कुछ ही दिनों में मौका पा कर वह कालेज में लेक्चर हो गयी। वहीं पढ़ाते हुए थीसिस लिख कर उसने डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त कर ली।
इस लिए अब वह डॉ० उर्मिला राय है।

कलकत्ता जाने वाली ट्रेन के एक फर्स्ट क्लास डब्बे में जा कर उर्मिला बैठ गयी। कलकत्ते से वह कई दिनो के लिए आयी थी। जब तक यहाँ रहना पड़ा, कलकत्ते की याद उसे सताती रही। फिर अब न जाने कैसा यहीं का आकर्षण महसूस करने लगी।
उर्मिला कलकत्ते की रहने वाली है। वहीं रहना उसे पसन्द है। लेकिन काम के बहाने कई दिनों के लिए दिल्ली आ कर उसे अच्छा ही लगा।

नयी दिल्ली की सीधी चौड़ी सड़के, खुला-फैला माहौल, चारों तरफ फूलों की क्यारियाँ और सुन्दर-सुन्दर फौवारे बड़े अच्छे लगते हैं।
दरअसल नयी दिल्ली मरुभूमि का एक हिस्सा है। लेकिन अब वह मरुद्यान में परिणत हो गयी है। मात्र मनुष्य के प्रयास से, मनुष्य की आकांक्षा से ऐसा हुआ है।
लेकिन पश्चिम बंगाल, जिसे भगवान ने शस्यश्यामल और सुन्दर बनाया था, मरुभूमि बन चुका है। यह भी मनुष्य के प्रयास से, मनुष्य की आकांक्षा से हुआ है।
कभी-कभी विद्रोह करने की न जाने कैसी इच्छा होती है। हालाँकि इन दिनों चारों तरफ से एक आवाज उठने लगी है कि मनुष्य को बचाना होगा।

मनुष्य को हर प्रकार की सुविधा देनी पड़ेगी।
लेकिन मातृभूमि को बचाना होगा-ऐसी बात अब भी कोई खास सुनाई नहीं पड़ती। सन्तान से पहले माँ है। यह भावना कब हमारे इस अभागे देश में आयेगी, कहा नहीं जा सकता।
सामान सहेज कर रखने के बाद उर्मिला ने होल्डाल खोल कर रिजर्व्ड बर्थ पर बिस्तर लगाया और उसे बेडकवर से ढक दिया। चार यात्रियों के लायक डब्बा। अन्य तीनों नाम उर्मिला ने देख लिये। उसके ऊपर के बर्थ पर एक बंगाली सज्जन है। अन्य दो के नाम देख कर लगा कि वे राजस्थानी पति-पत्नी हैं।
उर्मिला कुछ जल्दी आ गयी थी। ट्रेन ‘इन’ करने के पहले ही आ जाने से वह थोड़ी देर एक बेंच पर बैठ सकी थी। हमेशा समय से काफी पहले स्टेशन पर आ जाना वह पसन्द करती है।
जो सहज लभ्य नहीं है, वह तो इच्छा करते ही प्राप्त नहीं हो जाता। स्टेशन पर आने का सुयोग, एक जगह से दूसरी जगह जाना, यह तो हमेशा हो नहीं पाता।
इसीलिए इस अकस्मात प्रात्ति या स्वल्प प्राप्ति का उर्मिला कुछ समय दे कर सुख पूर्वक उपभोग करना चाहती है।
उर्मिला के सहयात्री या सहयात्रिनी कोई भी उस समय तक नहीं आया था। इस लिए अपने बिधौने पर पाँव उठा कर आराम से बैठी वह खिड़की से बाहर देखने लगी थी।

अधिकांश लोग भागते-दौड़ते आ कर ट्रेन में सवार होते हैं। उनमें बड़ी बेसब्री और हड़बड़ी होती है। लगता है, कोई यह भी नहीं सोचता कि कितना कुछ देखना-जानना छूटा जा रहा है।
लेकिन यह भी सही है कि उर्मिला भावुक है। उसे सोचते रहना अच्छा लगता है। उसकी दो-बड़ी-बड़ी आँखें हमेशा सजग रहती हैं। लगता है, उसकी आँखों के आगे से कुछ गुजर गया जिसे वह नहीं देख सकी।
फिर भी उर्मिला इतना समझती है कि उसकी तरह यदि अधिकांश लोग होते तो उसका कितना कुछ समझना बाकी रह जाता। विचित्र मनुष्य भिन्न-भिन्न प्रकृति लिये पैदा हुए हैं, इसीलिए उन्हें देखना उसे इतना प्रिय हैं।
उर्मिला जब भी दिल्ली आती है, उसके रहने की बँधी-बँधायी जगह है दीदीभाई का घर। दीदीभाई उर्मिला की प्रिय सखी मल्लिका की दीदी तन्नी हैं। तन्नी का विवाह डॉ० सुहास गुप्त के साथ हुआ हैं। सुहास सरकारी डाक्टर हैं। नयी दिल्ली में रहते हैं। विलिंगडन अस्पताल से जुड़े हुए हैं।

सुहास सचमुच डाक्टर हैं। यानी, रोग दूर करने के डाक्टर। सोचने पर उर्मिला को बड़ा आश्चर्य लगता है कि शायद वह मल्लि को अपने भाई अनूप से ज्यादा प्यार करती है। सम्भवतः इसी लिए दीदीभाई की बात याद आते ही उसके मन में पहला विचार यही आता है कि मल्लि की दीदी हैं।
उर्मिला के मन में यह तो नहीं आता कि तन्नी की ननद से उसके भाई ने शादी की है। मन में यह भी नहीं आता कि उसके भाई की पत्नी के बड़े भाई हैं सुहास दा। सुहास दा दीदीभाई के पति हैं। इसी रिश्ते से वह उर्मिला को अधिक अपने लगते हैं।

मनुष्य का मन सचमुच इतने सूक्ष्म तार से बँधा हुआ है कि वह बँधे-बँधाये ढर्रे पर चलना नहीं चाहता। सम्भवतः इसी लिए समाज ने कड़ियों में कड़ियाँ जोड़ कर सबको बाँधने की कोशिश की है। इसके पीछे अवश्य शुभ इच्छा रही हैं। धीरे-धीरे कब वह शुभ इच्छा अधिकार-लिप्सा में परिणत हो गयी, शायद समाज के नेतागण भी नहीं समझ सके।
इसी लिए तो अब वह बन्धन, सचमुच प्राणहीन, चेतनाहीन और अनुभूतिहीन बन गया है। यही होता है। एकमात्र यही करना पड़ता है। इससे जरा भी दूर हटने पर पता नहीं लोग क्या कहते हैं !
चिन्ता का तार टूटा। खूब सजी-सँवरी एक राजस्थानी बाला डब्बे में आयी। उसके साथ एक युवक है। समझ में आया कि वे पति-पत्नी हैं। वेशभूषा में राजस्थान का विशेष प्रभाव नहीं है। वह आजकल की जैसी सर्वभारतीय है।
युवक सूट पहने हुए हैं और युवती छापे की सिल्क साड़ी में। युवती के कानों मे मोती के झुमके, गले में मोतियों का हार और हाथों में मोती जड़े कंगनों के साथ काँच की चूड़ियाँ हैं।
पता नहीं क्यों उर्मिला के मन में आया कि इतने गहने पहन कर ट्रेन में सफर करना शायद ठीक नहीं है। आजकल समय भी तो अच्छा नहीं है।

एक क्षण के लिए यह बात मन में आयी और बिला गयी।
फिर न जाने क्यों अचानक उर्मिला के मन में आया कि उसका यह एकाकी जीवन तो अभी तक मजे में बीतता जा रहा है। माँ-बाप हैं। शम्भुनाथ भी लगता हैं, उससे प्यार करता है। इसके अलावा अपना कामकाज हैं। इस सबके बावजूद हैं मल्लि और इन्द्रजित। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि कहीं कोई कमी है।
आँधी की तरह समय चला जा रहा है। इस आँधी में झोंका-झकोरा नहीं है। लेकिन चंचलता, यानी व्यस्तता पूरी मात्रा में है।

बहुत दिनों बाद ट्रेन में बैठ कर लग रहा है कि अपने पास बहुत अधिक समय है। दरवाजा खोलने की आवाज होते ही उर्मिला ने मुड़ कर देखा कि धोती पहने, आखों पर चश्मा लगाये उस डब्बे के अन्तिम यात्री अन्दर आये। घुँघराले बालों पर हाथ फेरते हुए उन्होंने पूरे डब्बे के अन्तिम यात्री अन्दर आये।
घुँघराले बालों पर हाथ फेरते हुए उन्होंने पूरे डब्बे को एक बार अच्छी तरह देख लेने के बाद कहा, ‘‘अरे ! डॉ० राय ? क्या सौभाग्य है !’’

इतना कह कर आगन्तुक उर्मिला के पास बैठ गये।
उर्मिला को भी परिचित चेहरा देख कर अच्छा लगा। बहुत दूर जाना है।
फिर उर्मिला हँस कर बोली, ‘‘डॉ० गांगुली ! बड़ा अच्छा हुआ कि इतना लम्बा रास्ता मुँह बन्द किये तय नहीं करना पड़ेगा। लेकिन आप भी दो दिन पहले ही कलकत्ता रवाना हो गये। घर का आकर्षण बड़ा जोरदार लग रहा है ?’’
डॉ० उज्ज्वल गांगुली प्रेसिडेन्सी कालेज के प्रोफेसर हैं। इसी कान्फरेन्स में उर्माला से परिचय हुआ है।
नाम सुन कर उर्मिला ने अच्छी तरह देखा था। उसे लगा था कि माँ-बाप ने बेटे की आँखें देख कर ही उज्ज्वल नाम रखा था। दृष्टि आकृष्ट करने वाली उज्ज्वल दोनो आँखे। उन आँखों के अलावा चेहरे पर और कहीं उज्ज्वलता दिखाई नहीं पड़ती। बदन का रंग जैसा सामान्य, वैसा चेहरा-मुहरा भी। लेकिन दोनों आँखें सचमुच पास खींचती है। एक बार देख लेने पर फिर देखने की इच्छा होती है।




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