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नौकर की कमीज

विनोद कुमार शुक्ल

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :252
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6910
आईएसबीएन :81-267-0689-9

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भारतीय जीवन के यथार्थ और आदमी की कशमकश को प्रस्तुत करता एक उपन्यास...

Naukar Ki Kameej - A Hindi Book - by Vinod Kumar Shukla

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नौकर की कमीज भारतीय जीवन के यथार्थ और आदमी की कशमकश को प्रस्तुत करने वाला उपन्यास है, इस उपन्यास की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसके पात्र मायावी नहीं बल्कि दुनियावी हैं, जिनमें कल्पना और यथार्थ के स्वर एकाएक पिरोए हुए हैं। कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि किसी पात्र को अनावश्यक रूप से महत्त्व दिया गया हो। हर पौधे और हर पात्र की अपनी महत्ता है।
केन्द्रीय पात्र संतू बाबू एक ऐसा दुनियावी पात्र है जो घटनाओं को रचता नहीं बल्कि उनसे जूझने के लिए विवश है और साथ ही इस सोसाइटी के हाथों इस्तेमाल होने के लिए भी। आज भी ‘ब्यूरोक्रेसी’ और अहंसानफ़रामोश लोगों पर यह उपन्यास सीधा प्रहार ही नहीं करता बल्कि छोटे-छोटे वाक्यों के सहारे व्यंग्यात्मक शैली में एक सीधा माहौल तैयार करता चलता है।

विनोद कुमार शुक्ल की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का ही कमाल है कि पूरे उपन्यास को पढ़ने के बाद जिन्दगी के अनगिनत मार्मिक तथ्य दिमाग में तारीखवार दर्ज होते चले जाते हैं। उनके छोटे-छोटे वाक्यों में अनुभव और यथार्थ का पैनापन है, जिसकी मारक शक्ति केवल तिलमिलाहट ही पैदा नहीं करती बहुत अन्दर तक भेदती चली जाती है।
नौकर की कमीज

कितना सुख था कि हर बार घर लौटकर आने
के लिए मैं बार-बार घर से बाहर निकलूँगा।

यदि मैं किसी काम से बाहर जाऊँ, जैसे पान खाने, तो यह घर से खास बाहर निकलना नहीं था, क्योंकि मुझे वापस लौटकर आना था। और इस बात की पूरी कोशिश करके कि काम पूरा हो, यानी पान खाकर। घर बाहर जाने के लिए उतना नहीं होता जितना लौटने के लिए होता है। बाहर जाने के लिए दूसरों के डर होते हैं, दूसरे यानी परिचित, या जिनसे काम हो। जिनके यहाँ उठना-बैठना होगा, या बाज़ार-बगीचा, दफ्तर-कारखाना होगा। लौटने के लिए खुद का घर ज़रूरी होता है, चाहे किराये का एक कमरा हो या एक कमरे में कई किरायेदार हों।

मेरी पत्नी के लिए घर, बाहर निकलने के लिए बहुत कम था, इसलिए घर लौटने के लिए भी कम था। जब भी वह बाहर गई, जल्दी लौटकर आ गई। अकेले रहने से जाते समय घर में ताला बंद करना होता है, जो पत्नी, बाप-माँ, भाई-बहिन या इनमें से किसी एक के रहने से नहीं करना पड़ता। नौकर को घर की चाबी का गुच्छा नहीं दिया जाता। अगर घर छोटा है तो एक चाबी भी नहीं दी जा सकती है।

घर में परिवार के रहने से बड़ा ही सुख था धड़धड़ाते हुए अंदर जाकर चारपाई में लेट गए। या जोर की पोशाब लगी हो और बाहर आड़वाली साफ जगह नहीं मिली, तो घर के अंदर आते ही सीधे पेशाब करने के बाद फुरसत होती है। नौकरी में होने से घर लौटने का समय शाम को दफ्तर बंद होने के बाद होता था। जब बेकार था तब कभी भी आना-जाना होता था। कोई निश्चित समय नहीं था। छुट्टी के दिन मुझे बार-बार घर से बाहर निकलना पड़ता था। बिना किसी वजह के।
सुबह से ही मैंने तय कर लिया था कि बाहर जाकर बहुत देर बाद लौटूँगा। जब मैंने खखारकर थूका तो कफ में खून के रेशे थे। सर्दी पक गई थी। पास में अम्मा खड़ी थी। नाटे कद की, ‘दुबली-पतली, मुँह में एक भी दाँत नहीं, सफेद बाल बिखरे हुए, बिल्कुल माँ की तरह। बाहर जाते-जाते धीरे से मैंने अम्मा से कहा, ‘‘अम्मा, मेरे मुँह से खून निकला है।’’ यह कहते समय मेरी आवाज में बहुत कमजोरी थी। उदाहरण के लिए एक ऐसे बीमार आदमी की कमजोरी, जिसे बिस्तर से सहारा देकर उठाया जाता है। कई दिनों से उसे भूख नहीं लगी। चटपटी सब्जी जाने की उसकी बहुत इच्छा होती है। पर सब्जी कोई बनाता नहीं। जो भी वह खाता है, उल्टी हो जाती है।

पानी पीता है। कराहता रहता है। डाक्टर को पूरी उम्मीद है कि वह बच जाएगा। इसलिए घर के लोग खुश हैं। और जितनी तकलीफ बीमार को है, उतना दुख उन लोगों को नहीं है, ऐसा बीमार सोचता है। जब वह तकलीफ की बात करता है तो उसकी पत्नी उसकी तकलीफ को यह कहकर कम कर देती है कि डाक्टर ने कहा है उसे कुछ नहीं होगा। जब वह कहता है कि अब मर जायेगा, तब उसकी माँ उसका माथा सहलाती हुई कहती है कि घबराओ नहीं, डाक्टर ने कहा है सब ठीक हो जाएगा। उसे प्यास लगती है, तो पत्नी कटोरी में दूध लेकर आती है। उससे मिलने के लिए उसके दफ्तर के लोग आते हैं। कमजोरी में वह किसी से बात नहीं कर सकता। गले तक चादर ओढ़े वह पड़ा रहता है। उसके बदले उसकी माँ या पत्नी मिलने वालों से बात करती है। लोगों के पूछने के पहले कि कैसी तबियत है, दोनों में से कोई कहेगा कि डाक्टर ने कहा कि सब ठीक हो जाएगा। गुस्से में वह पत्नी को गोली देना चाहता है। माँ से बात करना नहीं चाहता। पर कमजोरी के कारण वह शांत रहता है। मरता नहीं, थककर सो जाता है।

हकीकत में मैं बीमार नहीं था। और न मेरा मकान नर्सिंग होम था। पर जिस मकान में मैं रहने आया था उसका मालिक शहर का एक बड़ा डाक्टर था। मैं पचास रुपया महीना मकान का किराया देता था जो मकान को देखते हुए अधिक था। परंतु डाक्टर की सहूलियत मुफ्त मिलेगी, यह मेरे मन में नहीं था।
अम्मा ने थोड़ा झुककर देखा, ‘‘मुझे तो समझ में आता नहीं है। लगता है पान खाया था। बहू, तू देख ! खून है क्या ?’’ पानी की बाल्टी ले जाते हुए पत्नी वहीं बाल्टी, छोड़ माँ के पास आई। मुस्कराते हुए माँ से कहा, ‘‘रात को दो पान लाए थे, सुबह पुड़िया में बँधा एक पान बचा था। कफ में सुपारी के टुकड़े हैं।’’
‘‘उसको सर्दी तो है। खखारकर जब-तब थूकता रहता है।’’

अम्मा एक लोटे में पानी लेकर कफ को बहाने लगीं। तभी पत्नी ने भरी बाल्टी लेकर उड़ेल दी।
पाँच मिनट में, बाहर से होकर मैं घर लौट आया था। इतनी थोड़ी देर मैं आना-जाना ही हुआ था। दृश्य बदलने के लिए पलक का झपक जाना ही बहुत होता है। पाँच मिनट के लिए बाहर जाना, मतलब पाँच मिनट तक घर के दृश्य पर पर्दा पड़ा रहना। मेरी गैहहाजिरी में पत्नी और माँ का कोई     और ही दृश्य पर पर्दा पड़ा रहना। मेरी गैरहाजिरी में पत्नी और माँ का कोई और ही दृश्य रहता होगा कि फुरसत मिली, या मेरी उपस्थिति में उनको काम करने में अड़चन हो रही थी।
जब मैं अंदर आया तब अम्मा कुछ चुपचाप लगीं। पत्नी के हाथ में एक खाली बाल्टी थी। अम्मा ने मुझे सबसे पहले लौटा हुआ देखा था। इस तरह देखा था कि मैं इतनी जल्दी कैसे आ गया, या मुझे कोई सामान लेने लौटना पड़ा है, या मेरी आदत ही है कि घर के अंदर और सड़क के बीच मैं केवल चहलकदमी करता हूँ। नौकरी के बाद पहली बार अम्मा मेरे पास रहने आई थीं।

दूसरी बार घर से बाहर निकलते ही ठाकुर की पान की दुकान के सामने मुझे संपत दिखा। संपत, मेरे बचपन का दोस्त। चेचक के गहरे दाग, साँवला रंग और गोल-गोल नाकवाले चेहरे की मुझे आदत पड़ गई थी। इस तरह की लत पड़ जाना ही क्या दोस्ती थी। बचपन में जब मैं अपनी बेडोल नाक की चर्चा सुनता था तो दु:खी हो जाता था। अपनी नाक की आदत तो अपने-आप पड़ जाती है। दो हाथ होते हैं, पर ऐसे कहाँ कि लटके हुए हैं। हाथ में एक खाली माचिस की डिब्बी भी हो तो उसका भी वजन होता है, लेकिन हाथ का कोई वजन नहीं होता। वजन तब होगा जब बाएँ कटे हाथ को दाहिने हाथ से उठाया जाए। चेहरे में दो कान हैं इसकी याद बहुत दिनों तक नहीं रहती। कान चेहरे से कहाँ जाएँगे ? इस तरह की लापरवाही सामाजिक सुरक्षा को बतलाती है। यह जगह अमन-चैन है, यह मालूम होता है।
संपत मेरे नगर का था। चौथी हिंदी तक हम साथ-साथ पढ़ते थे। इसके बाद वह फेल हो गया था। जब मैंने बी०ए० पास किया तब उसने दसवीं पास किया था। इसके बाद हम दोनों की नौकरी इसी शहर में लग गई। वह महाविद्यालय की रसायनशास्त्र की प्रयोगशाला में काम करता था। मेरे घर के पास उसका घर था।
मुझे देखते ही संपत खुश हो गया, ‘‘पान खाओगे ?’’

‘‘पान की आदत मुझे नहीं है। बिना आदत के पान खाओ तो थूकने से लगता है बीमार हूँ, खून निकला है।’’ मैंने कहा।
‘सब्जी खरीदने जा रहा हूँ, चलोगे ?’’ झोला दिखलाते हुए उसने कहा। मैं खुश हुआ। सब्जी लाना जरूरी था। हफ्ते-भर से बाजार जाने का मन नहीं हुआ था।
‘‘रुकना। घर से झोला लेकर आता हूँ।’’ कहता हुआ मैं घर की तरफ पलटा।
जब मैं घर आया तो मुझे पत्नी के हाथ में भरी बाल्टी फिर दिखी। अलबत्ता माँ चावल पछोर रही थीं। मैंने पत्नी से कहा, ‘‘आज मैं जब भी घर लौटकर आऊँगा, तुम पानी की बाल्टी लिए हुए ही दिखोगी ?’’
मैंने माँ से कहा, ‘‘माँ ! तुम कल शाम को भी चावल पछोर रही थीं। आज भी पछोर रही हो। अपने घर में क्या बोरों चावल है ? और जो पानी भरने के लिए पीतल का ड्रम है, वह ड्रम नहीं है पीतल का कुँआ है’’ फिर पत्नी के पास जाकर धीरे से कहा, ‘‘पातल का ड्रम तुम्हारे मैके का है, इसलिए तुम्हें इसे भरने का शौक है ?’’
पत्नी ने कहा, ‘‘बाल्टी तो ससुराल की है।’’

मैं चिढ़ गया। बाल्टी उससे छीनकर मैंने नीचे रख दी तो बहुत-सा पानी छलककर नीचे बह गया।
‘‘सबका दिमाग खराब है।’’ माँ बड़बड़ाई।
‘‘अम्मा ! रोज मुझसे सब्जी लाने के लिए कहा जाता था। आज छुट्टी का दिन है तो कोई नहीं कह रहा है।’’ मैंने कहा।
‘‘आधे घंटे में तू दो बार घर आ गया होगा। डेढ़ घंटे तक धीरे-धीरे नल चलता है। बोरिंग कब की खराब हो गई है। नल में लाइन से बाल्टी रखो, पारी लगाओ, तब पानी मिलता है। नल बंद होने में अभी समय है, दो बाल्टी पानी और मिल जाएगा। बाहर जाकर पंद्रह मिनट बाद फिर आओगे तब भी तुमको बहू के हाथ में बाल्टी दिखेगी। पर इससे क्या होता है। एक-एक काम पूरा निपटाना पड़ता है। तब मैं भी चावल पछोरते हुए दिखूँगी। अभी जितना चावल पछोरा गया है, दो जून में खत्म हो जाएगा। तेरी छुट्टी रहती है तो कोई काम ठीक से नहीं सहिलाता। तेरा व्यवहार बहू के साथ अच्छा नहीं है।’’ माँ बोलीं।

‘‘सब्जी लानी है या नहीं, अकेले मैं ही सब्जी खाता हूँ ?’’ उदास होते हुए मैंने कहा।
‘‘लानी तो है। मैं सब्जी नहीं खाती। बहू तेरा जूठा खाती है। तुझसे बच जायेगी तो खाएगी। कितनी महँगी सब्जी है। तुमको सब्जी अच्छी लगती है इसलिए बनाने का मन होता है। नहीं तो कभी न बने।’’
पत्नी झोला लेकर आई तो उससे झोला मैंने झपट लिया। जब मैंने पत्नी से झोला छीना था तब वह मुस्कराई थी। उसे मालूम था कि मैं उससे झोला झपटकर ही लूँगा।
‘‘क्या लाना है ?’’ मैंने पत्नी से शांति से पूछा।


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