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आधुनिक कवि

विश्वम्भर मानव रामकिशोर शर्मा

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :360
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6906
आईएसबीएन :978-81-8031-276

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बीसवीं शताब्दी में खड़ी बोली का काव्य इतना सम्बद्ध हो गया कि उसे संसार के किसी भी सभ्य देश के काव्य की तुलना में रख जा सकता है...

Aadhunik Kavi - A Hindi Book - by Vishvambhar Manav,Ramkishor Sharma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बीसवीं शताब्दी में खड़ी बोली का काव्य इतना समृद्ध हो गया कि उसे संसार के किसी भी सभ्य देश के काव्य की तुलना में रखा जा सकता है। इस युग में विभिन्न साहित्यिक वादों और आंदोलनों का प्रचार हुआ, इय युग ने हमें प्रथम श्रेणी के अनेक महाकाव्य और खंड-काव्य दिए और इसी युग में एक ओर गीति-काव्य और दूसरी ओर मुक्त छंद का ऐसा प्रसार हुआ, जिसकी समता अतीत के सम्पूर्ण इतिहास में नहीं मिलती। अत: समय की माँग है कि आधुनिक काव्य के भाव-गत एवं कला-गत सौंदर्य का लेखा-जोखा अब लिया जाय।
औद्योगीकरण एवं उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव केवल निम्न वर्ग पर ही नहीं बल्कि उसके गिरफ्त में सम्पूर्ण मानवीय समाज है। धर्म की अमानवीय व्याख्या स्वार्थपरकता, अर्थलोलुपता, विज्ञान के द्वारा विकसित विनाश के विभिन्न साधन आदि के कारण सम्पूर्ण मनुष्यता के लिए ही संकट पैदा हुआ। मनुष्य का बचना बहुत प्राथमिक हैं। अभी भी मनुष्य जीवन और मृत्यु के अनेक प्रश्नों से टकरा रहा है। परिवर्तन की गति इतनी तेज है कि यह आशंका होने लगती है कि मनुष्य की पहचान वाले लक्षण ही न लुप्त हो जायें। अशोक बाजपेयी ऐसे रचनाकार हैं जो मनुष्यता के व्यापक प्रश्नों से टकराते हैं और नई परिस्थितियों में मानवीय सभ्यता को रचना के माध्यम से स्थापित करते हैं।
नयी कविता से जुड़े अनेक कवियों ने अपनी निजी अनुभूति और शिल्प के द्वारा रचनात्मक ऊँचाई हासिल की, उनकी रचनाधर्मिता को काव्य धारा के दायरे में पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता है बल्कि उनका अलग-अलग विवेचन अपेक्षित है।
इस ग्रन्थ में भारतेन्दु से लेकर अरुण कमल तक ऐसे चौवालिस प्रतिनिधि कवियों के काव्य का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है जिनका साहित्य के इतिहास में विशेष महत्त्व है और जिन्होंने अपनी साधना से अपने व्यक्तित्व की छाप इस युग पर किसी न किसी रूप में छोड़ी है।

आधुनिक कविता

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य भाग से कविता एक नया मोड़ लेती है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म सन् 1850 में हुआ। यह ऐसा वर्ष है जब रीति-काल समाप्त होता है और एक नया युग प्रारंभ। भारतेन्दु इसी युग से आधुनिक युग के जनक कहलाते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजनीति, धर्म, विज्ञान, शिक्षा, समाज सभी क्षेत्रों में आन्दोलन के लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं। इसी काल में सिपाही-विद्रोह हुआ, इंडियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना हुई, आर्य-समाज की नींव पड़ी, रेल, तार, डाक और सड़को का जाल बिछा, विश्वविद्यालय खुले, विधवा-विवाह, बाल-विवाह, और स्त्री-शिक्षा की समस्याओं पर गम्भीरता से विचार विमर्श हुआ। इन परिस्थितियों का प्रभाव उस युग के कवियों- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ और प्रतापनारायण मिश्र- की रचनाओं पर पड़ा। देश में नवीन चेतना की लहर व्याप्त हो गयी है, इसका आभास उस युग के  काव्य से स्पष्ट मिलता है। कविता की भाषा यद्यपि प्रमुख रूप से ब्रज ही रही पर उस युग के गद्य- उपन्यास, नाटक, आलोचना, निबंध- में खड़ी बोली को स्वीकार कर लिया गया। यह इस बात का संकेत था कि गद्य और पद्य दोनों की भाषा बहुत दिन तक भिन्न न रह सकेगी- किसी दिन एक हो जायेगी। आगे चलकर ऐसा ही हुआ।
पिछले सौ वर्ष से हिन्दु काव्य का काल-विभाजन हम इस प्रकार कर सकते हैं-


                                              भारतेन्दु-युग                1850-1900
                                              द्विवेदी-युग                1900-1915
                                               छायावाद-युग                1915-1935
                                               प्रगतिवाद-युग                1935-1943
                                               प्रयोगवाद-युग                1943-


बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेद्वी एक ऐसे साहित्यसेवी थे, जिन्होंने अपने युग के काव्य को गहराई से प्रभावित किया। सन् 1903 से ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक के रूप में द्विवेद्वी जी ने हिन्दी की अविस्मरणीय सेवा की। इसी से यह युग द्विवेद्वी-युग कहलाता है। इस युग की एक बहुत बड़ी विशेषता है- काव्य में खड़ी बोली का ग्रहण। राजनीति के क्षेत्र में इस युग में बंग-भंग के कारण स्वदेशी आन्दोलन ने जोर पकड़ा। इसी युग में प्रथम महायुद्ध आरंभ हुआ। धर्म में आर्य-समाज के अतिरिक्त थ्योसोफिकल सोसाइटी और रामकृष्ण मिशन आदि क्रियाशील रहे। कांग्रेस के सुधारवादी प्रयत्न चल रहे। राज-भक्ति के स्थान पर देश-भक्ति की भावना कुछ तीव्र हुई। अछूतों और किसानों की दीन दशा की ओर लोगों का ध्यान वेग से आकर्षित हुआ। इन परिस्थियियों से प्रभावित होकर इस युग के कवियों में मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय, गोपालशरण सिंह, गयाप्रसाद शुक्ल, ‘सनेही’ और नाथूराम शंकर शर्मा आदि ने खड़ी-बोली-काव्य के विकास में में महत्त्वपूर्ण योग दिया।

सन् 1915 से आधुनिक काव्य फिर एक नयी दिशा की ओर मुड़ता है और 1935 तक एक धारा में बँधकर चलता है। इस युग में भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र अथवा महावीर प्रसाद द्विवेदी की भाँति कोई एक ऐसा व्यक्ति नहीं है जो सब पर छा जाय और अन्य व्यक्ति उससे प्रेरणा ग्रहण करें। इसी से इस काल का नामकरण किसी व्यक्ति के नाम पर न होकर एक प्रमुख प्रवृत्ति के नाम पर हुआ है। बीस वर्ष के इस काल को छायावाद-काल कहते हैं। यह काल खड़ी-बोली कविता का स्वर्ग-युग है। राजनीति के क्षेत्र में महात्मा गांधी का इस युग की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण घटना है। इसी युग में असहयोग और सविनय आन्दोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलन चले, जिन्होंने आगे चलकर ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी। लेकिन जिन कवियों के कारण यह युग प्रसिद्ध हुआ उसकी दृष्टि राजनीतिक से अधिक दार्शनिक, सांस्कृतिक और मानवतावादी थी। गांधीवादी के समर्थक और पोषक तो अवश्य रहे, पर यह ‘वाद’ अपनी सीमा में उन्हें बाँधकर नहीं रख सका। छायावाद के ये चार आलोक स्तम्भ हैं- जयशंकर ‘प्रसाद’, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा।

सन् 1935 के आगे के कुछ वर्ष प्रगतिवाद-युग के वर्ष हैं। प्रगतिवाद मार्क्सवादी दर्शन के आधार पर चलता है। ऐसा समझना चाहिये कि राजनीति में जो मार्क्सवाद है, काव्य में वही प्रगतिवाद। प्रगतिवाद मार्क्सवाद का साहित्यिक संस्करण है। यों इस वाद ने छायावाद और उत्तर-छायावाद-काल के कुछ कवियों को भी प्रभावित किया जैसे पंत, निराला, नरेन्द्र शर्मा और अंचल को, पर ये मूलत: कम्यूनिस्ट लेखक नहीं हैं। शुद्ध प्रगतिवाद कवियों के ही नाम हमें लेने हों तो हम नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ और गजानन माधव मुक्तिबोध आदि के नाम लेंगे। खेद की बात है कि काव्य का विकास जैसा होना चाहिए था, विशेष कारणों से, वैसा नहीं हो पाया।

प्रयोगवागी काव्य का इतिहास ‘तार सप्तक’ (1943) के प्रकाशन के साथ प्रारम्भ होता था। इस नये आन्दोलन का नेतृत्व श्री सच्चिदानन्द ‘अज्ञेय’ ने किया। तार सप्तक की परम्परा में उन्होंने दूसरी सप्तक (1951) और तीसरा सप्तक (1959) का संपादन कर इस प्रवृत्ति को बल प्रदान किया। प्रगतिवाद कविता पर जैसे मार्क्स का प्रभाव है, वैसे ही प्रयोगवादी कविता पर फ्रायड का। प्रयोगवादी कविता में भावना की अपेक्षा बौद्धिकता का प्राधान्य है। कहीं-कहीं तो यह काव्य आवश्यकता से अधिक बौद्धिक और शुष्क हो उठा है। जटिल भी यह कम नहीं। इस कविता के दुर्बोध होने का मुख्य कारण यह है कि कवि सामान्य भाव-बोध से संतुष्ट न होकर अवचेतन और अचेतन की गहरी अंधेरी घाटियों में उतरता है। कला की दृष्टि से प्रयोगवादी रचनाएँ अब गद्य और बातचीत के स्तर पर उतर आयी है। अज्ञेय के अतिरिक्त इसके अन्य कवियों में कुँवरनायाराण, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, लक्ष्मीकांत वर्मा, गिरिजाकुमार माथुर, वीरेन्द्रकुमार जैन और केदारनाथ सिंह आदि को समझना चाहिए।

प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के समानान्तर बहने वाली उत्तर-छायावाद-काल की एक और प्रवृत्ति है जिसे नया गीति-काव्य कह सकते हैं। इस धारा का आरंभ हरिवंशयराय ‘बच्चन’ से समझना चाहिए। छायावाद की अलौकिकता और सूक्ष्मता के प्रति विद्रोह करने वालों में ‘बच्चन’ प्रमुख है। छायावादी की अति भावुकता, अशरीरी कल्पना और स्वप्नमय विचारों का अंत अकेले ‘बच्चन’ की मांसल भावना, ठोस कल्पना और व्यावहारिक विचार पद्धति ने किया। इस धारा के कवियों को नए रीतिकाल इसलिए कहते हैं कि प्रगतिवादियों और प्रयोगवादियों की भाँति इन्होंने भी नए युग की नयी चेतना को अकस्मात् किया। अपने क्षेत्र में इन्होंने नए विषय, नयी भावनाएँ, नए विचार और नयी अभिव्यंजनाएँ दीं। ‘बच्चन’ के अतिरिक्त नए गीतिकारों में नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, शंभूनाथ सिंह, सुमित्राकुमारी सिन्हा और गिरिधर गोपाल आदि ने बड़ी प्रसिद्ध प्राप्त की।

बीसवीं शताब्दी पिछले नौ वर्ष की तुलना में इसलिए भिन्न दिखाई देती है कि इसमें काव्य के विषय और टेकनीक दोनों में आमूल परिवर्तन हो गया। आधुनिक कविता में भाव और कला संबंधी इतने मौलिक परिवर्तन हुए कि सबका ठीक-से लेखा-जोखा लेना कठिन काम हो गया है।

आधुनिक कविता में सबसे क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ प्रकृति-वर्णन के क्षेत्र में। वीरगाथा-काल में प्रकृति प्राय: उपेक्षा का विषय रही। संतों और सूफियों ने उसे आध्यात्मिक संकेतों के लिए ग्रहण किया। भक्तों ने उसे उपदेश और व्यंग्य का माध्यम बनाया। रीति-काल में उद्दीपन और अलंकरण के लिए उसे स्वीकार किया गया। आश्चर्य का विषय है कि जिस देश में प्रकृति का वैभव कण-कण में बिखरा पड़ा हो, वहाँ के कवि स्वतंत्र रूप से उसके सौंदर्य का वर्णन नहीं कर पाए। आधुनिक युग की विशेषता यह है कि इसमें ‘प्रकृति वर्णन’ का एक स्वतंत्र विषय ही बन बैठा। मनुष्य से भिन्न उसकी स्वतन्त्र सत्ता घोषित हुई। आकाश, समुद्र, पर्वत, पृथ्वी, पक्षी, फूल, सरोवर, झरने, वर्षा, बसंत, पतझर, ग्रीष्म छाया, चाँदनी, उषा, संध्या आदि पर सैकड़ों कविताएँ लिखी गयीं। इय युग में प्रकृति को इतने रूपों में देखा गया, जितने रूपों में एक हजार वर्षों में कुल मिलाकर भी नहीं देखा गया, सभी कवि प्रकृति-वर्णन की अपनी-अपनी विशेषताएँ लेकर आए। इनमें प्रकृति के रम्य दृश्यों के वर्णन के लिए पंत और उसके उपेक्षित सामान्य वर्णनों के लिए गुरुभक्तिसिंह ने अपने-अपने क्षेत्र चुने। उपाध्याय चित्रों के लिए प्रसिद्ध रहे। प्रसाद और महादेवी की दृष्टि प्रकृति के वैभवशाली पक्ष पर अधिक रही। निराला ने प्रकृति के श्रृंगारी और विद्रोही रूप को चुना। यों इस युग के प्राय: सभी कवियों ने प्रकृति के चेतना से युक्त देखा है।

दूसरा परिवर्तन प्रणय की भावना में दृष्टिगोचर हुआ। प्रेम में व्यक्तिवादी स्वर इतना तीव्र कभी नहीं हुआ था। वीरगाथा-काल में कवियों ने आश्रयदाताओं के प्रेम का वर्णन तो किया, पर अपने हृदय की चिन्ता करते वे नहीं दिखाई देते। भक्ति-काल में जीवन केवल पूजा का फूल बनकर रह गया। रीति-युग में भी अपने हृदय की बात कम कही गयी है- कही भी गयी है तो राधा-कृष्ण के प्रेम की ओट में, जिसका कहना न कहना बराबर है। व्यक्तिगत प्रेम की चर्चा भारतेन्दु और द्विवेद्वी-युग में भी नहीं के बराबर हुई। लेकिन छायावादी-युग के प्रारंभ होते ही व्यक्तिपरक रचनाओं की भरमार हो उठी। ‘प्रसाद’ के आँसू और पंत की ‘ग्रंथि’ प्रेम की पीड़ा की बड़ी तीखी की पुकारे हैं। अपनी प्रिया को संबोधित ‘निराला’ की  स्फु़ट रचनाएँ भी कम मार्मिक नहीं। ऐसी ही करुण मधुर कृतियाँ ‘बच्चन’ की ‘निशा निमंत्रण’ ‘सतरंगिनी’ और ‘मिलन-यामिनी’ है। इनके अतिरिक्त भगवतीशरण वर्मा, राजकुमार वर्मा, नवीन, नरेन्द्र शर्मा, तारा पांडेय, अंचल, चन्द्रमुखी ओझा ‘सुधा’ और ‘नीरज’ आदि की रचनाओं में प्रेम की पुकार कभी मंद नहीं पड़ी। पत्र-पत्रिकाओं में प्रेम-संबंधी ऐसी मार्मिक रचनाएँ पढ़ने को मिल जाती हैं कि कभी तो हृदय-कमल की पंखुड़ियाँ एकदम खिल उठती है और कभी मन सहसा उदासी में डूब जाता है। रूप और प्रतिभा के सम्पर्क से इन नवयुवक कवियों ने प्रेरणा ग्रहण कर काव्य का जो दान दिया, आगे आने वाले युग में ही उसका उचित मूल्यांकन हो सकेगा।

राष्ट्रीय-भावना का विकास जैसा इस युग में हुआ, वैसा पहले कभी नहीं हुआ था। सिपाही-विद्रोह के शान्त होने पर देश में कुछ शांति छा गयी थी, पर यह शांति ऊपरी थी। किसी भी देश के स्वतंत्र-चेता कवि विदेशी शासन का समर्थन हृदय से नहीं कर सकते। हरिश्चन्द्र-युग में इसी से राजभक्ति और देश-भक्ति साथ-साथ चलती है। धीरे-धीरे अंग्रेजी शासन के प्रति असंतोष का स्वर तीव्र होता चला जाता है। द्विवदी-युग में मातृभूमि के प्रति अनुराग स्पष्ट रूप से उमड़ता दिखाई देता है। श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, मैथिलीशरण गुप्त आदि ने स्वदेश-वंदन में रचनाएँ लिखीं। सन् 1921 में महात्मा गाँधी के देश की बागडोर सँभालते ही देश प्रेम को एक दिशा मिली। देश में राष्ट्र-प्रेम की एक लहर उठी जिसमें पं० माखनलाल चतुर्वेदी, पं० बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, सुभद्राकुमारी चौहान और सोहनलाल द्विवेदी ने अपनी साहस-वाणी सुनायी। इनमें गुप्त जी चतुर्वेदी जी, नवीन जी तथा श्रीमती चौहान को जेल की यात्राएँ भी करनी पड़ीं।

आधुनिक युग एक प्रकार से ‘वादों’ का युग है। बीसवीं शताब्दी में जिन साहित्यिक वादों का प्रचार हुआ, उनमें, छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद मुख्य है।

छायावाद बीसवीं शताब्दी का सबसे विवादग्रस्त वाद हैं प्रारंभ में आधुनिक कविता का मजाक उड़ाने के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया। पर यह शब्द कुछ ऐसा प्रचार पा गया कि विशेष अर्थ का द्योतक बन बैठा। यही कारण है कि प्रारंभ में इसकी जो व्याख्याएँ की गयीं, वे बहुत अनिश्चित ढंग की थीं। सबसे पहले इस शब्द से यह आशय ग्रहण किया कि जो समझ में न आये, उसे छायावाद कहते हैं। लेखकों का एक वर्ग ऐसा भी था दो मनोविकारों पर लिखी गयी रचनाओं को छायावाद के अंतर्गत मानता था। मनोविकारों पर लिखी गयी रचनाओं को छायावाद के अंतर्गत मानता था। मनोविकार एक तो वैसे ही सूक्ष्म होते हैं और जब उनकी अभिव्यक्ति व्यंजनात्मक शैली में की गयी, तो वे और भी दुर्बोध हो उठे। दुर्भाग्य से इस दुरूहता को छायावाद का लक्षण माना जाने लगा। कुछ आलोचकों ने सूक्ष्म भावनाओं से युक्त समस्त आधुनिक-काव्य को छायावादी की संज्ञा मिलनी चाहिए जिसमें अमूर्त उपमानों, लाक्षणिक प्रयोगों, चित्रमयी भाषा, अप्रस्तुत विधान और प्रतीक शैली का आधिक्य हो। इन सारी व्याख्याओं को आगे चलकर अस्वीकार कर दिया गया।


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