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प्रेम कथा का अन्त न कोई

दूधनाथ सिंह

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6850
आईएसबीएन :9788180311345

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ये कहानियां ज्यादातर विफल प्रेम विफल दाम्पत्य पर आधारित हैं...

Prem Katha Ka Ant Na Koi - A Hindi Book - by Doodh Nath Singh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कुछ बातें

आज लगभग 30 वर्षों बाद इन कहानियों का किताब रुप में छपना महज एक संयोग है। ये कहानियाँ उसी दौर मे लिखी गयीं, जिस दौर में सपाट चेहरे वाला आदमी’ और ‘सुखान्त’ संग्रहो की कहानियाँ। यानी कि सन् 1960 से 1970 के बीच। और ये कहानियाँ मेरे पिछले, उपर्युक्त संग्रहों से किसी भी माने में कमतर नहीं है। मेरी किताबों के फ्लैप पर विभिन्न नामों से इस संग्रह की घोषणा भी हुई थी लेकिन मेरे धुर आलस के कारण इनका प्रकाशन सम्भव नहीं हो पाया। मेरे पहले संग्रह भी मेरे मित्रों की कृपा, उनकी जिम्मेदारी और उदारता के कारण छपे। यही हाल अब इस संग्रह के साथ भी है।
इन कहानियों का पुस्तक रूप में न छपने का एक कारण यह भी कि वे सभी, जो इनमें है, वे अपने होने के ‘सत्य’ से कहानीकार पर दुखी थे। दुखी ही नहीं, वे अपने होने के ‘सत्य’ को अपने साथ ही मिटा देना चाहते थे। और प्रकट हो जाने से उनकी नैतिक दुनिया का नकाब जैसे किसी ने खींचकर उतार दिया। ऐसी स्थिति में यह लेखक एक घृणित और तिरस्कृत व्यक्ति बन गया। मित्रताएँ खो देने का तब बहुत दुख हुआ था। लेकिन फिर एक सवाल यह भी उठता है कि एक लेखक कहाँ जाय ? सिर्फ काल्पनिक निर्मितियों में या अखबारी सूचनाओं में, या परिचित छूँछे यथार्थ में, जहाँ कला, कलम के साथ एक छल है ?

ये कहानियाँ ज्यादातर विफल प्रेम (और विफल दाम्पत्य) की कहानियाँ हैं। लेकिन उनमें पौरुप-प्रधान हिंसा नहीं है। इसकी जगह विफलता की नाजुक उदास, और सुसंस्कृत स्वीकृति है। इस रुप में ये कहानियाँ मध्यवर्गीय या सामन्ती समाज की हिंसक मनोवृत्तियों से मुक्त है। स्त्री के खिलाफ़ पिस्तौल, पेट्रोल किरासन, जहर या गला-काट, गला-दाब हथियारों को इस्तेमाल यहाँ नहीं है। कहा जा सकता है कि जो ‘यथार्थ’ को एक टोटका समझते हैं और मानवीय जीवन का जिनका परिचय महज अखबारी है, उनके लिए ये कहानियाँ अवास्तविक भी है। जबकि हम सभी और वे सभी लोग जानते हैं कि हमारे समाज में (उस दौर में नहीं, आज भी) विफल प्रेम और उससे भी अधिक विफल दाम्पत्य एक तथ्य है-एक ऐसा तथ्य जिसे कई कारणों से छिपाया-दुराया जाता है। मुँहबन्द फोड़े को मुँहबन्द रखना ज्यादा ख़तरनाक और ज्यादा अवैज्ञानिक होता है। सामाजिक वर्जनाएँ और संकीर्णधर्मी लोग यही करते हैं। इन कहानियों में वह छदम, वह छिपाव-दुराव और वह झूठी बचावधर्मिता नहीं है। प्रेम को पाने और उसके भीतर से जिन्दगी की बाँधे रखने के लिए जबदर्स्त इच्छाओं का संसार इन कहानियों से व्यक्त है। इच्छाओं का यह संसार दाम्पत्य के भीतर और बाहर दोनों जगहों पर है। इसीलिए पुराने और परिचित अर्थों में ये प्रेम-कथाएँ नहीं है। प्रेम को लेकर इसके पात्र अपने अधिकार-क्षेत्र से बार-बार बाहर जाते है। इसीलिए इनका सृजन हुआ है। लेकिन अगले वक्तों के लोग इनके बारे में कुछ भी कह सकते है।

जाहिर है कि इस भीतरी तोड़फोड़ से इन कहानियों के पात्र हताहत तो होते ही और कुछ हद तक ‘नार्मल’ भी नहीं रह जाते। लेकिन जहाँ विफलता होगी और स्त्री के प्रति एक हिसंक और असभ्य अहंकार नहीं होगा, वहाँ जीवन-क्रम और हरकतें अस्वाभाविक तो हो ही जायेगी। कहा जा सकता है कि ये कहानियाँ ज्यादा सुसंस्कृत और खुले हुए सादा-लौ लोगों की अपने समाज में ज्यादा खुली और सुसंस्कृत हरकतें हैं। ये हरकतें कभी शराब मे, कभी पागलपन में, कभी उत्सर्ग तो कभी प्रेम की उत्कट इच्छा में तब्दील होती हुई दिखाई देती हैं।

 

31 अगस्त. 1992
इलाहाबाद

 

दूधनाथ सिंह

 

वे इन्द्रधनुष

 

इसका अहसास मुझे इस तरह अचानक होगा, यह मालूम नहीं था। पहली दफ़ा जब सीमा ने यह बात कही तो मैं सहसा चौंक-सा गया। एक पल को मैं उसका चेहरा देखता रहा। वहाँ कुछ-कुछ व्यंग्य और खीझ-भरी मुस्कान उभर आई थी। क्षण-भर बाद मैंने जोर का ठहाका लगाया और बात को उड़ा देने की कोशिश की।
‘‘देख लेना, मेरी बात एक दिन सच होके रहेगी।’’ उसने कहा।
‘‘अरे नहीं।’’

‘‘नहीं की दुम, घाघ हो तुम ! मैं सब पहचानती हूँ।’’ वह उठकर अंदर चाय लाने चली गई।
वह अन्दर चली गयी तो जैसे मैं आश्वस्त होकर उसकी बातों पर गौर करने लगा। मैंने एक बार सारी देह को झटक लिया और कुछ सिकुड़कर कुर्सी में बैठ गया। फिर दरवाजे की ओर देखकर मैंने अपने को दुबारा आश्वस्त कर लिया, मानों मुझे इस तरह सोचते हुए अभी सीमा पकड़ लेगी।

क्या सचमुच उसकी बात में कुछ सच्चाई का अंश हैं ? मैं सोचने लगा कि इस सच्चाई के प्रति अगर मुझे लेश-मात्र भी शंका न हो, तो मैं कितना खुश होऊँगा। मुझे आश्चर्य हुआ कि अभी तक कैसे मैं इस बात की तरफ से निश्चिन्त था और कभी सोचता भी नहीं था। अब सोचने ही से एक परिचित-अपरिचित खुशी की लहर मेरे सारे बदन में दौड़ गई।
‘‘क्या सोचने लगे ?’’ तभी सीमा आ गई। वह खुलकर हँस रही थी।

मैंने सोचा, उसे कोई डर नहीं। मैं यह सोचते हुए हँसने लगा कि चलो देखा जाएगा। उसे कोई डर नहीं है।
उस रात बाहर आकर काफ़ी देर तक मै एल्गिन रोड के सुनसान में भटकता है। मेरा सारा बदन ठण्ड से ऐंठ-सा गया था। हवा बहुत तेज थी और उस सरसराहट में कितनी उकताहट मेरे मन मे भर गई थी ! जब मैं सीमा के यहाँ से निकला था, तो वहाँ जाने की बड़ी तीव्र इच्छा एक बार मन में जगी थी। फिर मुझे एक सन्देह ने जकड़ लिया था और फिर एक अनुभवी खिन्नता ने मेरे पाँव दूसरी ओर मोड़ दिए थे। मुझे लगता था, कल वहाँ पहुँचते ही पहली नजर में मुझे वह...सब-कुछ दीख जाएगा, जिसे मैंने अब तक नहीं देखा था। एकाएक मुझे लगा कि मैं उसे सीढ़ियों से उतरते हुए देख रहा हूँ और मुझे वह सब कुछ दीख गया है, जिसकी ओर सीमा ने सहसा मेरा ध्यान खींचकर मुझे चौंका दिया था।
हालाँकि इसमें कुछ भी नहीं है-मेरे मन में आया-सिवा इसके कि लड़की दूसरी है।...सामने हेस्टिग्ज रोड पर एक छोटा-सा बॉर था। मैं चुपके-से भीतर हो लिया। यह बात और है कि उस रात ज्यादा पी लेने की वजह से मुझ पर अपनी पिछली जिन्दगी घिर आई थी और जब मैं बाहर निकला तो मेरे पाँव लड़खड़ा रहे थे और मैं वह बात भूल गया था।

ऐसा अक्सर होता था। मैं अपनी पिछली जिन्दगी को लेकर इतना क्लान्त और दुखी हो जाता कि कुछ भी करने का मन न होता। तब मैं कहीं नहीं जाता। जैसे सीमा के यहाँ वैसे ही वहाँ जाना भी छोड़ देता। लेकिन यह अहसास हर वक्त मन में बना रहता कि वहाँ नही जा रहा हूँ। इससे एक अजब-सी उदासी मन को घेर लेती। मैं चुपचाप दिन-भर सोता रहता था लेटे-लेटे कुछ पढ़ता रहता। तब बहुधा मुझे दूसरी कथाएँ छा लेती और मेरा मानसिक और शारीरिक तनाव धीरे-धीरे अपने-आप उतरने लगता.... लेकिन यह बहुत देर तक नहीं चलता। जैसे-जैसे शाम घिरती आती, मेरा वर्तमान चारों ओर साँय-साँय करने लगता और मैं अँधेरे की प्रतीक्षा में अक्सर खिड़की में आ खड़ा होता। मुझे फिर सहसा यह अहसास जकड़ लेता कि आज वहाँ नहीं गया।...वैसे वहाँ जाना रोज़-रोज़ नहीं होता था। चाहता तो ऐसी स्थिति निकल आ सकती थी। लेकिन यह सोचकर कि बीच-बीच में अन्तराल देकर जाना ठीक रहेगा, मैं रोज़ न जाता। ऐसा, अब सोचता हूँ तो लगता है। तब शायद यह अनायास ही होता चलता था। इस तरह का घृणित चातुर्य न जाने कब, जवानी में आदमी अपने-आप सीख लेता है।

अक्सर शाम या रात की ड्यूटी लगती। आँफिस पहुँचने पर या तो कोई सहकारी फ़ोन आने की ख़बर देता या थोड़ी देर बाद फ़ोन की घण्टी बजती। इन्चार्ज के फ़ोन उठाते-न-उठाते मैं बोल पड़ता-‘मेरा होगा’ और कुरसी से उठकर फ़ोन के पास पहुँच जाता।

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