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हास्य-व्यंग्य >> जादू की सरकार

जादू की सरकार

शरद जोशी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6758
आईएसबीएन :9788170282273

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एक सज्जन बनारस पहुँचे। स्टेशन पर उतरे ही थे कि एक लड़का दौड़ता आता। ‘‘मामाजी ! मामाजी !’’—लड़के ने लपक कर चरण छूए। वे पहताने नहीं। बोले—‘‘तुम कौन ?’’

Jadoo Ki Sarkar - A Hindi Book - by Sharad Joshi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

है भी, मगर नहीं है

लोग एक छोटी सी शिकायत दर्ज कराते हैं कि नल है, मगर उसमें पानी नहीं आता। वे बिचारे नहीं जानते कि इस देश में चीजें होती ही इसलिए हैं कि उसमें वह न हो जिसके लिए वे होती हैं।

नल हैं, मगर पानी नहीं आता। हैंडपंप हैं, मगर चल नहीं रहे। विभाग हैं, काम नहीं करते। टेलिफोन लगाया, लगा नहीं अफसर हैं, मगर छुट्टी पर हैं। बाबू हैं मगर उसे पता नहीं। आवेदन किया था, मंजूर नहीं हुआ। रिपोर्ट लिखायी थी, कुछ हुआ नहीं। जांच हुई थी, रिपोर्ट नहीं आयी। योजना स्वीकृत है, पर बजट मंजूर नहीं है। बजट स्वीकृत है, रुपया नहीं आया। पद है, पर आजकल खाली है। आदमी योग्य था, तबादला हो गया। आफीसर ठीक है, मगर उसके मातहत ठीक नहीं। भई, मातहत तो काम करना चाहते हैं, ऊपर से ऑर्डर नहीं आता। मशीन आ गयी, बिगड़ी पड़ी है। कारखाना है, बिजली नहीं है। करंट है, तार खराब है। उत्पादन हो रहा है, बिक्री नहीं है। मांग है तो पूर्ति नहीं है। पूर्ति कर सकते हैं, कोई डिमांड तो करे !

यात्री खड़े हैं, टिकिट नहीं मिल रहा। टिकिट मिल गया, ट्रेन लेट है। गाड़ी आयी, जगह न थी; जगह मिली, सामान रखा था। एअर का टिकिट लिया वेटिंग लिस्ट में हैं। सीट कन्फर्म हुई, फ्लाइट कैंसल हो गयी। घर पहुँचे तो मिले नहीं। मिले, मगर जल्दी में थे। तार भेजा, देर से पहुँचा। चिट्ठी भेजी, जवाब नहीं आया।

आये, पर आते ही बीमार पड़ गये। इंजेक्शन दिया, पर कुछ फरक न पड़ा। अस्पताल गये, बेड खाली नहीं था। बेड पर पड़े हैं, कोई पूछनेवाला नहीं है। शिकायत करें, मगर कोई सुननेवाला नहीं है। नेता हैं, मिल नहीं सके। सुन तो लिया, कुछ किया नहीं। शिलान्यास हुआ, इमारत नहीं बनी। बिल्डिंग है, मगर दूसरे काम में आ रही। हां, काम चल रहा है, मगर हमें क्या फायदा ! स्कूल है, पर हमारे बच्चे को ऐडमीशन नहीं मिली। पढ़ने गये थे, बिगड़ गये। टीम भेजी थी, हार गयी। प्रोग्राम हुआ था, मगर जमा नहीं। हास्य का था, मगर हंसी नहीं आयी।

पूछा था, बोले नहीं। खबर थी, अफवाह निकली। अपराध हुआ, गिरफ्तारी न हुई। संपादक के नाम पत्र भेजा था, छापा नहीं। कविता लिखी, कोई सुननेवाला नहीं है। नाटक हुआ, भीड़ न थी। पिक्चर लगी, चली नहीं। किताब छपी थी, बिकी नहीं। बहुत ढूँढ़ी मिली नहीं। आयी थी, खतम हो गयी।

क्या करें, कुछ होता नहीं है। कुर्सी पर बैठा, मगर ऊंघ रहा है। फाइल पड़ी है, दस्तखत नहीं हो रहे। फार्म भरा था, गलती हो गयी। क्या बोलें, कुछ समझ में नहीं आता। आवाज लगायी, किसी ने सुना नहीं। वादा किया था, भूल गये। याद दिलायी, तब तक उनका डिपार्टमेन्ट चेंज हो गया था।

फोन किया, मगर साहब बाथरूम में थे। दफ्तर किया, मीटिंग में थे। डिग्री मिल गयी तो नौकरी नहीं मिली। अनुभवी हुए तो रिटायर हो गये।
पैसा बहुत है, मगर ब्लैक का है। पूँजी जुटायी, मगर तब तक मशीन के भाव बढ़ गये। फ्लैट खाली है, किराये से दे नहीं रहे। बेचना है, कोई खरीदार नहीं मिल रहा। लेना चाहते हैं, मगर बहुत महंगा है।

क्या है, क्या नहीं है। कर्फ्यू हटा तो फिर झगड़े हो गये। स्थिति नियंत्रण में है, मगर ख़तरा बना हुआ है। आदमी हैं, मगर मनुष्यता नहीं रही। दिल हैं, मगर मिलते नहीं। देश अपना हुआ, मगर लोग पराये हो गये। आप नल में पानी न होने का कह रहे हैं। साहब, बहुत कुछ है, मगर फिर भी वह नहीं है जिसके लिए वह है।

जिसके हम मामा हैं


एक सज्जन बनारस पहुँचे। स्टेशन पर उतरे ही थे कि एक लड़का दौड़ता आता।
‘‘मामाजी ! मामाजी !’’—लड़के ने लपक कर चरण छूए।
वे पहताने नहीं। बोले—‘‘तुम कौन ?’’
‘‘मैं मुन्ना। आप पहचाने नहीं मुझे ?’’

‘‘मुन्ना ?’’ वे सोचने लगे।
‘‘हाँ, मुन्ना। भूल गये आप मामाजी ! खैर, कोई बात नहीं, इतने साल भी तो हो गये।’’
‘‘तुम यहां कैसे ?’’

‘‘मैं आजकल यहीं हूँ।’’
‘‘अच्छा।’’
‘‘हां।’’
मामाजी अपने भानजे के साथ बनारस घूमने लगे। चलो, कोई साथ तो मिला। कभी इस मंदिर, कभी उस मंदिर। फिर पहुँचे गंगाघाट। सोचा, नहा लें।

‘‘मुन्ना, नहा लें ?’’
‘‘जरूर नहाइए मामाजी ! बनारस आये हैं और नहाएंगे नहीं, यह कैसे हो सकता है ?’’
मामाजी ने गंगा में डुबकी लगाई। हर-हर गंगे।

बाहर निकले तो सामान गायब, कपड़े गायब ! लड़का...मुन्ना भी गायब !
‘‘मुन्ना...ए मुन्ना !’’
मगर मुन्ना वहां हो तो मिले। वे तौलिया लपेट कर खड़े हैं।
‘‘क्यों भाई साहब, आपने मुन्ना को देखा है ?’’

‘‘कौन मुन्ना ?’’
‘‘वही जिसके हम मामा हैं।’’
‘‘मैं समझा नहीं।’’
‘‘अरे, हम जिसके मामा हैं वो मुन्ना।’’
वे तौलिया लपेटे यहां से वहां दौड़ते रहे। मुन्ना नहीं मिला।

भारतीय नागरिक और भारतीय वोटर के नाते हमारी यही स्थिति है मित्रो ! चुनाव के मौसम में कोई आता है और हमारे चरणों में गिर जाता है। मुझे नहीं पहचाना मैं चुनाव का उम्मीदवार। होनेवाला एम.पी.। मुझे नहीं पहचाना ? आप प्रजातंत्र की गंगा में डुबकी लगाते हैं। बाहर निकलने पर आप देखते हैं कि वह शख्स जो कल आपके चरण छूता था, आपका वोट लेकर गायब हो गया। वोटों की पूरी पेटी लेकर भाग गया।

समस्याओं के घाट पर हम तौलिया लपेटे खड़े हैं। सबसे पूछ रहे हैं—क्यों साहब, वह कहीं आपको नज़र आया ? अरे वही, जिसके हम वोटर हैं। वही, जिसके हम मामा हैं।
पांच साल इसी तरह तौलिया लपेटे, घाट पर खड़े बीत जाते हैं।

आम आदमी की पहचान


मैं उसके सामने खड़ा था। ज़िंदा खड़ा था। मगर उसने मेरे अस्तित्व से साफ इन्कार कर दिया। वह यह मानने को तैयार नहीं था कि मैं ‘मैं’ हूँ। और जब तक वह मानता नहीं, मुझे गवर्मेन्ट डिपार्टमेंट से रुपए नहीं मिल सकते हैं।
‘‘मैं आपके सामने साक्षात खड़ा हूँ। मैं’’

‘‘प्रमाण क्या है ?’’—उसने पूछा।
‘‘मेरे खड़े होने का ?’’
‘‘अजी आप आप हैं, यह मैं कैसे जानूं ? मुझे सबूत चाहिए।’’

‘‘यार, मैं ज़िंदा हूँ, यह बात कोई अफवाह तो नहीं है।’’
‘‘यह मैं कुछ नहीं जानता, मुझे सबूत चाहिए।’’
‘‘आप भारतीय संस्कृति पर भरोसा करते हैं ?’’ मैंने पूछा।
‘‘कर सकता हूँ, बशर्ते उससे दफ्तर के काम में बाधा नहीं आए।’’

‘‘तो ठीक है, मैं घर जाकर अपनी पत्नी को ले आता हूँ।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘आप उसके माथे पर बिंदी देखिए। मांग में सिंदूर लगा है। मेरे पास मेरे ज़िंदा होने का इससे बढ़कर कोई प्रमाण नहीं।’’
‘‘कमाल है !’’

‘‘किस बात का ?’’
‘‘आप भी पढ़े-लिखे होकर ऐसी बातें कर रहे हैं।’’
‘‘भैया, भारतीय संस्कृति में यही प्रमाण होता है।’’
वह कुछ देर चुप रहा, फिर बोला—
‘‘आप पति हैं ?’’

‘‘जी हां।’’
‘‘वो आपकी पत्नी हैं ?’’
‘‘और क्या ?’’

‘‘क्या सबूत इस बात का ?’’
‘‘वह मेरी एकमात्र पत्नी है और मैं उसका एकमात्र पति हूँ, हम शरीफ लोग हैं यार !’’
‘‘ऐसा...तो जाओ, अपने एरिया के सब इंस्पेक्टर पुलिस से लिखवा लाओ कि हम शरीफ हैं।’’

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