लोगों की राय

प्रवासी लेखक >> कितना बड़ा झूठ

कितना बड़ा झूठ

उषा प्रियंवदा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6669
आईएसबीएन :9788126714117

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

171 पाठक हैं

प्रस्तुत संग्रह की अधिकांश कहानियाँ अमेरिकी अथवा यूरोपीय परिवेश में लिखी गई हैं....

Kitna Bada Jhooth - An Hindi Book by Usha Priyamvada

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘विजी के सारे अत्याचार मैंने चुप होकर सहे। सोचती थी कि वह पागल है, और नादान है। मुझसे विवाह का प्रस्ताव करके भी तुम उससे चुपचाप मिलते रहे, तब भी मैंने कुछ नहीं कहा। सोचती थी कि एक बार जब मेरे निकट आकर पहचान लोगे, तो उसे भूल जाओगे। सोचा था कि तुम्हें इतना सुख दूँगी...’’ एक लम्बी सिसकी।
‘‘मुकी, मेरी बात भी तो सुनो।’’

‘‘न। अब कुछ नहीं सुनूँगी। मैं भी बहुत मानिनी हूँ, नटराजन। बहुत दर्प मेरे अन्दर भी है। और मैंने बहुत धीरज रखा, पर अब मैं और नहीं सह सकूँगी। गो अवे ! यह विवाह नहीं होगा। मैं किस प्रकार तुम्हें आदर और श्रद्धा से देख सकूँगी ! मुझे तुम्हारा धन नहीं चाहिए था। मेरे पिता के पास बहुत धन है। मैं समझती थी कि तुम छल-कपट से ऊपर, अत्यन्त विशाल हो, और इसीलिए, मन-ही-मन प्रारम्भ से ही तुम्हें चाहती आई थी।’’
पाँचवें दशक में हिन्दी के जिन कथाकारों ने पाठकों और समीक्षकों का ध्यान सबसे ज्यादा आकर्षित किया उनमें उषा प्रियम्वदा का नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पिछले लगभग तीन दशकों से ये निरन्तर सृजनरत हैं और इस अवधि में इन्होंने जो कुछ लिखा है वह परिमाण में कम होते हुए भी विशिष्ट है, जिसका प्रमाण है कितना बड़ा झूठ की ये कहानियाँ।

प्रस्तुत संग्रह की अधिकांश कहानियाँ अमेरिकी अथवा यूरोपीय परिवेश में लिखी गई हैं। और जिन कहानियों का परिवेश भारतीय है उनमें भी प्रमुख पात्र, जो प्रायः नारी है, का सम्बन्ध किसी-न-किसी रूप में यूरोप अथवा अमेरिका से रहता है। इस एक तथ्य के कारण ही इन कहानियों को, बहुचर्चित मुहावरे की भाषा में, भोगे हुए यथार्थ की संज्ञा भी दी जा सकती है और इसी तथ्य के कारण इन काहानियों में आधुनिकता का स्वर भी अधिक प्रबल है।

डॉ. इन्द्रनाथ मदान के शब्दों में : ‘उषा प्रियम्वदा की कहानी-कला से रूढ़ियों, मृत परम्पराओं, जड़ मान्यताओं पर मीठी-मीठी चोटों की ध्वनि निकलती है, घिरे हुए जीवन की उबासी एवं उदासी उभरती है, आत्मीयता और करूणा के स्वर फूटते हैं। सूक्ष्म व्यंग्य कहानीकार के बौद्धिक विकास और कलात्मक संयम का परिचय देता है, जो तटस्थ दृष्टि और गहन चिन्तन का परिणाम है।’
अपने पहले संग्रह ज़िन्दगी और गुलाब के फूल से लेकर अब तक विषय-वस्तु और शिल्प की दृष्टि से लेखिका ने विकास की जो मंज़िलें तय की हैं, उनका जीवन्त परिचय पाठकों को कितना बड़ा झूठ की कहानियों से मिलेगा।

सम्बन्ध

श्यामला ने बिना उससे पूछे ही जान लिया कि वह लड़की मर गई है। सर्जन ने बहुत ही क्लान्त भाव से फ़ोन का रिसीवर रख दिया, और अब पलंग पर आधा झुका बैठा था, इस सोच में कि दूसरा जूता पहने या न पहने। फिर जैसे कुछ निर्णय न कर पाकर वह पलंग पर आड़ा लेट गया, टाँगे नीचे ही लटकाए हुए। श्यामला अभी-अभी नहाकर आई थी। सामने के बाल भीगकर अपने-आप दो-तीन लटों में घुँघरा गए थे। सर्जन ने बाँह बढा़कर उसे खींच लिया और वह नम तौलिया पकड़े ही पास आकर बैठ गई।
‘‘कब ?’’ उसने पूछा।

‘‘अभी-अभी कुछ मिनट पहले।’’ सर्जन ने कहा। आँखें अपने-आप मुँद गईं। और श्यामला ठंडी, सुगन्धित हथेली से धीरे-धीरे, अन्यमनस्क भाव से उसके गाल सहलाने लगी।
हर बार, लम्बी कशिश के बाद भी, जब कोई मरता है तो सर्जन ऐसे ही चुप हो आता है, बाहर का यह संसार छोड़कर अपने अन्दर, कहीं बहुत गहराई में डूब जाता है। श्यामला उसे डिस्टर्ब नहीं करती, थोड़ी देर बाद वह कॉफ़ी लाएगी और सर्जन कॉफ़ी पीकर अपना कोट उठाकर चला जाएगा। उसके बाद, अगली मीटिंग तक उसकी दुनिया अस्पताल, सर्जरी ट्रांसप्लाट, पीड़ा और मृत्यु रहेगी। और श्यामला के लिए, यह कॉटेज़, जहाँ वह अकेली, सबसे अलग, सबसे कटी हुई रह रही है।

कमरे के बाहर सुबह हो रही है, उजली, धूपभरी और बेहद ठंडी। खिड़कियों के शीशों पर बर्फ़ की एक सफ़ेद परत है, जो धीरे-धीरे पिघलेगी। चौराहे पर बस एक क्षण को रूकी और फिर घर्र-घर्र करती निकल गई, पहले हर पन्द्रह मिनट पर ख़ाली बस को जाते देख ताज्जुब-सा होता था, अब आदत पड़ गई है, वैसे ही जैसे हर पन्द्रह मिनट पर बजनेवाली घड़ी की चाइम्स की आदत पड़ जाती है।
खिड़की के शीशे के पार पंख फड़फड़ाने की आवाज़ से वह चौंक पड़ती है, एक त्वरित दृष्टि सर्जन की ओर चली जाती है, वह वैसे ही निश्चल लेटा हुआ है। पक्षी दिखाई नहीं देता, पर श्यामला जानती है कि यह वही जंगली कबूतर है जो महज आदतन दाने की तलाश में आ जाता है। पहलेवाले लोग पक्षियों का दाना डालते होंगे, अब भी ट्रे बाहर लगी है। शुरू-शुरू में तमाम चिड़ियाँ आती थीं, शोर मचाती हुई गौरैया, मैना, कबूतर; पर लगातार निराश होते रहने पर वे आगत कम होते गए, और अब कोई भी नहीं आता, सिर्फ़, यह कबूतर ही भूला-भटका या बहुत भूखा होने पर आता है।

श्यामला के मन में कई बार उठा कि कुछ चारा डाल दिया करें, पर एक बार शुरूआत करने से वे पक्षी रोज़-रोज़ आएँगे, और यह ख़याल रखना पड़ेगा कि वे भूखे न लौटें, ज़मीन पर अभी भी सत्रह इंच बर्फ़ और कई महीने रहेगी, सर्जन एक बार पाँच पाउंड का बैग ले आया था, दाने का, पर श्यामला ने खोला भी नहीं, कौन ले यह जिम्मेदारी, अपनी ही नहीं निभती।
कबूतर उड़कर दूसरी खिड़की पर आ बैठा, और चोंच से शीशा खुटखुटाने लगा।
सर्जन ने कहा-‘‘इसे खाने को दे दो कुछ।’’
‘‘फिर रोज़-रोज़ आएगा।’’ श्यामला ने उत्तर दे दिया और बड़े ठंडे भाव से कबूतर को देखती रही।
‘‘इतना बड़ा काम तो नहीं श्यामला !’’
‘‘पर जिम्मेदारी तो है।’’
‘‘मुझे क्यों आने देती हो ? मैं जिम्मेदारी नहीं हूँ ?’’ सर्जन ने पूरी तौर से जागकर कहा।
‘‘तुम्हारी बात दूसरी है !’’ एकाएक उसे कोई उत्तर न सूझा। सर्जन ने कुछ कहना चाहा, पर बिना कहे ही चुप रह गया।
इस बात को लेकर बहुत बार बहस हो चुकी है, पर श्यामला जिद्दी है, सुनती रही। सर्जन हमेशा चाहता आया है कि उसके अस्पताल के पास ही एक छोटे-से, आधुनिक फ़्लैट में श्यामला रहे, श्यामला बाहर आए-जाए, घूमे-फिरे, लोगों से मिले-जुले, पर वह कुछ नहीं चाहती है। अकेली रहती है और बाहरी दुनिया से बहुत कम मिलती-जुलती है।

‘‘क्यों श्यामला ?’’
‘‘मन ही नहीं करता। छोटा-सा सपाट उत्तर था।’’
वह लेटा-लेटा श्यामला को देखता है दुबली-पतली साँवली श्यामला, अविवाहित शरीर अभी भी गठा हुआ है, उसमें युवावस्था की लचक है, चेहरे पर लावण्य आकर थम गया है, कभी-कभी नींद से उसकी बाँहें सर्जन को ऐसे कस लेती हैं, जैसे कभी अलग न होने देंगी और वह कहती है कि मन में कुछ नहीं बचा। कभी-कभी वह उसके कन्धे झिंझोड़कर कहना चाहता, जागो श्यामला, यह वैरागीपन तुम्हारा सहज स्वभाव नहीं है। हँसों, बोलो, आकंठ डूबकर प्यार करो; पर वह अब कहता नहीं। सिर्फ़ उस दिन की आशा में है जब श्यामला अपने आप जागेगी। अपने को काटकर रखने की बजाय जुड़ना चाहेगी। पर कभी ऐसा होगा भी ?
‘‘क्या देख रहे हो ? कॉफ़ी लाऊँ ?’’ श्यामला ने पूछा।
खुले शब्दों से श्यामला सकुचा जाती है, इसलिए सर्जन ने कुछ प्रिय कहने की बजाय कहा-‘‘नहीं मैं खुद ले लूँगा।’’ वह उठा और गुसलख़ाने में चला गया। जब लौटा तो मेज़ पर पर्कोलेटर था और श्यामला सामने दो प्याले रखे बैठी हुई थी।
वह पास आकर बैठ गया, श्यामला ने उसे कॉफी दी, ब्लैक पीता है, और अपने प्याले में दो शक्कर के क्यूब अनमने भाव से डालकर पूछा-कौन थी वह लड़की ?
‘‘एक लड़की। कोई भी एक लड़की। हम तीन दिन तक लड़ते रहे और बचा न सके।’’
‘‘मगर कोशिश तो की।’’ श्यामला ने कहा।
‘‘हाँ।’’ पर उसके स्वर की तल्खी को सुन श्यामला ने आश्चर्य-भरी आँखें उठाईं, फिर कहा, ‘‘जानती हूँ मुझ पर गुस्सा हो रहे हो क्योंकि...’’

‘‘नहीं श्यामला, तुम पर नहीं। ह्यूमन वेस्ट मुझसे बर्दाश्त नहीं होता, यदि तुम रोगियों को देखो तो जानों कि किस तरह आखिरी साँस तक जीने के लिए लड़ते रहते हैं और....
श्यामला जान रही है कि यह आक्रोश उसे झेलना है, क्योंकि एक अनाम, युवा लड़की मर गई है, शायद वह जीना चाहती थी, और सर्जन के अनुसार वह- श्यामला-जीती नहीं।
उसने कहा-‘‘सभी मरे लोगों की साँस बन्द नहीं हो जाती।’’ कहा और अपने आप ग्लानि से भर उठी। सर्जन गुस्सा हो आता है क्योंकि श्यामला उसे प्रिय है, और वह चाहता है कि नॉर्मल तरीके से रहे ऐसे क्षणों में वह बहुत असहाय महसूस करती है वह सर्जन को कभी भी न समझा पाएगी कि इस तरह, स्वतन्त्र, असम्पृक्त रूप से एक सुख है, स्वार्थ-भरा, पर है सुख।
उठकर उसने अपना गाल उसके माथे पर क्षण-भर को टिका दिया, फिर पूछा, ‘‘क्या अब अस्पताल जाओगे ?’’
‘‘हाँ, दो गुर्दों की जाँच हो रही है, शायद शाम तक ट्रांसप्लांट करना पड़े।
‘‘बिज़ी, बिज़ी, बिज़ी !’’ श्यामला ने हल्केपन से कहा।
‘‘तुम्हारी तरह सब किस्मतवाले नहीं होते, ’’सर्जन ने कहा, पर शिकायत के स्वर में नहीं-‘‘जो दिन-भर सोएँ, और जब चाहें, तब काम करें।’’
कॉफ़ी ख़तम हो जाने पर वह उठा, पर दरवाज़े की ओर न जाकर वापस बिस्तर पर लेट गया।

‘‘आज पूरे दिन यों ही लेटे रहने का मन हो रहा है।’’ उसने कहा। श्यामला ने जूठे प्याले ले जाकर सिंक में रख दिए। फिर उन्हें धोया-पोंछा और अलमारी में रख दिया। कॉटेज़ में एक ही बड़ा कमरा है, बैठक, शयनकक्ष, रसोई, सभी कुछ उसी में-पल्ले बन्द करती-करती वह देखने लगी कि सर्जन दाईं करवट ले सो गया है। एकाएक वह भीग उठी और जाकर पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गई, न जाने कब वह आ पाएगा- कई-कई सप्ताह बीत जाते हैं और उसकी ख़बर नहीं मिलती। फिर एकाएक ही फ़ोन बज उठता है, और सर्जन कहता है- ‘‘क्या कर रही हो ? मेरे पास कुछ समय है, आऊँ ?’’

वह अधिकतर रात में आता है, कोई समय निश्चित नहीं है, ग्यारह से लेकर ढाई बजे के बीच कभी भी। वह जानता है कि श्यामला को रात में नींद आसानी से नहीं आती, इसलिए रात को ही काम करने बैठती है, बँधी नौकरी से अरूचि हो गई है, इसलिए फ्रीलांस काम करती है। वह भी मूड़ आने पर। अस्पताल से उसकी कॉटेज़ तक आने में करीब़-करीब़ आधा घंटा लगेगा, तब तक वह नहा लेती है, बाल सँवार लेती है और धुले, साफ़ कपड़े पहनकर मोमबत्तियाँ जलाने लगती है। कभी-कभी किसी मरीज को बचा लेने की छोटी-सी विजय के उपलक्ष में सर्जन कुछ पीने को ले आता है, मोमबत्तियों के प्रकाश में चमकते ट्यूलिप आकार के गिलासों में वह लाल शराब पीते हैं, जब लौटकर वापस अस्पताल जाना होता है, तब वह रसोई में आकर दस कप कॉफ़ी का पर्कोलेटर लगा देता है। तब वह पास-पास बैठे रहते हैं, अक्सर मौन कभी आमने-सामने, गुँथी हुई हथेलियों में ही एक-दूसरे की गरमी महसूस करते हुए। कभी-कभी वह जूते उतारकर पलंग पर औंधा होकर लेट जाता है और वह उसके कन्धों और पीठ पर धीरे-धीरे मालिश करती रहती है, और उस  क्षण के इन्तज़ार में बैठी रहती, जबकि मेज़ पर रखा सर्जन का ट्रांजिस्टर ‘बीप-बीप’ कर उठेगा।

प्रारम्भ  में, आत्मीयता के क्षणों में वह रेडियो की आवाज सुनकर बेहद जोर से चौंक उठती थी पर सर्जन ने समझा दिया कि अस्पताल में उसकी ज़रूरत है, उसे यह सूचित करने का आधुनिक तरीका है। कल रात रेडियो टॉवर ने नौ बार सर्जन को कॉन्टेक्ट किया था, हर बार जागकर वह सर्जन का फ़ोन पर वार्तालाप सुनती रही थी, वह फ़ोन रखकर झपक जाता था। वह दोनों जान रहे थे कि लड़की बचेगी नहीं। फिर भी डॉक्टर भरसक प्रयत्न कर रहे थे। सर्जन के सो जाने के बाद भी, वह पलंग के सिरहाने से टेक लगाए, मोमबत्ती के मद्धिम प्रकाश में उसके सोए चेहरे को देखती रही। सर्जन खूबसूरत किन्हीं मायनों में नहीं था- युवावस्था में जैसे वर की कामना श्यामला ने की थी वैसा तो बिलकुल भी नहीं, पर पुरूष की इस आयु में चरित्र की दृढ़ता उसमें थी, सफल होने का कांफिडेंस, और दिन-रात मौत और तकलीफ देखते रहने से आँखों में एक अकेली-अकेली-सी उदासी।

क्या मुझे उसी उदासी ने छुआ था ? श्यामला अपने से पूछना चाहती है, क्या मेरे अकेलेपन ने भरे-पूरे परिवारवाले, सम्पन्न, सफल सर्जन की आँखों में अपना ही प्रतिबिम्ब पाया था ? क्या उसी से हम जुड़े हैं। और जब साथ होते हैं तो अपने को झुठलाने की कोशिश करते हैं कि हम अकेले नहीं हैं ? पर तब क्यों सर्जन तरह-तरह से उसे प्रसन्न देखने के उपाय खोजता रहता है ? क्यों इस अकेली उजाड़, फटेहाल-सी कॉटेज़ में आकर ही उसे कुछ समय के लिए राहत-सी मिलती है ?

सर्जन ने कहा था-श्यामला, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। मैं घर-बार, बाल बच्चे सब तुम्हारे लिए छोड़ सकता हूँ।
श्यामला ने हथेली से उसका मुँह बन्द कर दिया। बहुत देर बाद कहा-क्या हम ऐसे ही नहीं रह सकते, प्रेमी, मित्र, बन्धु ! क्या वह सब छोड़ना ज़रूरी है ? मैं तो कुछ नहीं माँगती।
उसके बाद सर्जन ने कभी वह सब नहीं दोहराया, पर एक बार कहना ज़रूरी था, श्यामला ने ग्रहण नहीं किया, श्यमाला किसी से भी बँधना नहीं चाहती। उसकी शर्त केवल यही है कि वे दोनों एक-दूसरे पर प्रतिबन्ध नहीं लगाएँगे, कोई डिमांड नहीं करेंगे, दोनों में से कोई भी एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदार न होगा। वह पहाड़ी के ऊपर कई लाख रूपयों वाले घर में, स्विस पत्नी व तीन बच्चों के साथ रहता रहेगा और वह अपनी कॉटेज़, में, जब तक मन होगा, तब तक। जब भटकन की चाह बढ़ जाएगी, तब वह अपना सूटकेस उठाकर चल देगी।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book