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समग्र कहानियाँ

कमलेश्वर

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :696
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 661
आईएसबीएन :9788170283935

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कमलेश्वर की समग्र कहानियाँ काल क्रमानुसार प्रस्तुत है....

Samgra Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत संकलन में कमलेश्वर की समग्र कहानियाँ काल-क्रमानुसार दी गई है-साथ ही एक विस्तृत भूमिका जो उनकी कहानी-कला और कथायात्रा को समझने के लिए आवश्यक है।
 पिछली अनेक दशाब्दियों के हिन्दी कथाकारों में कमलेश्वर का अपना अलग स्थान है जो ‘कितने पाकिस्तान’ के कारण विशेष रूप से उनके कथा-साहित्य ने रचनात्मकता के साथ-साथ जीवन और इतिहास के उदार चिन्तन के नए द्वार भी खोल दिए हैं।

प्रख्यात कहानीकार और मीडियामैन कमलेश्वर ने विविध क्षेत्रों में जो भी मानक स्थापित किये हों, उनके कृतित्व का मुख्य क्षेत्र कहानियाँ ही है और आरंभ से लेकर आज तक उन्होंने एक विशिष्ट विचारधारा तथा भावना से यही नहीं, इसके उन्नयन के लिए उन्होंने अनेक साहित्यिक आन्दोलनों का भी संचालन किया है। इस दृष्टि से कहानियों के उनके समग्र लेखन का विशिष्ट ऐतिहासिक महत्व है, जिसका अध्ययन किया जाता रहेगा।

पिछली अनेक दशाब्दियों के हिन्दी कथाकारों में कमलेश्वर का अपना अलग स्थान है जो अब उनकी नई ‘कितने पाकिस्तान’ जैसी कृतियों के कारण विशेष रूप से चर्चा में है। उनके यथार्थवादी लेखन ने रचनात्मकता के साथ-साथ जीवन और इतिहास के उदार चिंतन के नए द्वार भी खोले दिए हैं। प्रस्तुत संकलन में कमलेश्वर की समग्र कहानियाँ काल-क्रमानुसार दी गई हैं—साथ ही एक विस्तृत भूमिका जो उनकी कहानी-कला और कथायात्रा को समझने के लिए आवश्यक है।

 

मेरी यह कथा-यात्रा

यह भूमिका लिखते हुए मुझे अपने दोस्त शायर शहरयार की कुछ लाइनें याद आती हैं-


स्याह रात नहीं लेती है नाम ढलने का
यही तो वक्त है सूरज तेरे निकलने का


यह लाइनें आज की यानी इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दिनों की हैं, लेकिन बड़े शायर या अदीब की कही हुई बात की जड़ें सदियों में फैली हुई होती हैं। इन जड़ों की दिमाग़ी परवरिश करना ज़रूरी होता है। अगर इन जड़ों को उखाड़ा जाए तो सभ्यता और संस्कृति के आँगन की सारी ईंटें उखड़ जाती हैं।

तब तो इतनी समझ नहीं थी, जब मैं मैनपुरी जैसे बेजान कस्बे में था। वहाँ कुछ बदलता ही नहीं था। जो था वो बरसों-बरस वैसा ही बना रहता था। तीज-त्यौहार की पूजा के वक्त माँ जो लोकधर्मी पौराणिक कहानियाँ सुनाती थीं, वे भी नहीं बदलती थीं। उनके  अन्त भी नहीं बदलते थे।। वे ज्यों के त्यों वैसे ही चले आ रहे थे।

यह तो मैं अब सोचता हूँ। तब तो मन बहुत घबराता था। भविष्य दिखाई नहीं देता था। तब भविष्य था ही नहीं। जो कुछ था वर्तमान ही था। एक रुका हुआ वर्तमान या कहूँ कि न बीतने वाले बीतते हुए दिन।  

माँ की तीज-त्यौहार वाली कहानियों के अलावा मेरी और कोई कहानियाँ मेरे इर्द-गिर्द नहीं थीं। कस्बे के आंगन में समाजी जिन्दगी की टेड़ी-मेड़ी, उलझी पर ज़िन्दा जड़े फैली हुई थीं। सन् 1947 में आज़ादी से पहले स्वतन्त्रता संग्राम की खबरे आती रहती थीं। क्रान्तिकारियों की कारगुज़ारियों का इतिहास हमारे मानस में दर्ज था। तब यह तो मालूम था कि सचमुच आज़ादी क्या होती है, पर सन् 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन से यह ज़रूर अहसास हुआ था कि आज़ादी’ कोई ऐसी माकूल और जबरदस्ती चीज़ है जो हमारे पास होनी चाहिए। और यह कि गुलामी ने ही हमारे वर्तमान को दिशाहीन बना रखा है। इसी कारण भविष्य लापता है।

और शायद तब, लापता भविष्य की तलाश में कहानियों का मेरा यह सफर शुरू हुआ था। कहानियों के नाम से इन्हें मैंने बाद में पहचाना, पर कहानियाँ मेरे लिए डायरी का अंश ही रही हैं। शायद वह सब, जो मैं दूसरों को कह के नहीं बता पाता था, उसे मैं अपने लिए दर्ज करता था। यह बात इससे भी पुख्ता होती है कि मैं ‘कहानियाँ’ तब रेलवे के दफ़्तर की उन कापियों पर लिखा करता था जो मेरे बड़े भाई साहब कभी–कभार ले आते थे। खुले शीट्स पर कहानियाँ तब लिखी गयीं जब पत्र-पत्रिकाओं में वे छपने लगीं। कापी वाले उस दौर की (1946, 47, 48,) कुछ कहानियाँ आज भी मेरे पास नहीं है जो उन दिनों कानपुर से प्रकाशित होने वाले एक साप्ताहिक में छपीं थीं। कहानियाँ छपती या छपाई जाती हैं, यह मुझे काफी बाद में मालूम हुआ, मैं तो तब अपने वक्त और कस्बे के हालात को अपने लिए दर्ज करता था। वह ‘स्वांतः सुखाए’ नहीं बल्कि ‘स्वांतः दुखाय’ वाली स्थिति थी। जो कुछ दिखता था। वही लिख लिया करता था। एक तरह से यह खुद को लिखे गए खतों की तरह भी थीं, खुद को लिखी यह चिट्ठियाँ जब मैं पढ़ता था तो मन हुंकार देता था कि ठीक...तुमने गलत बात नहीं लिखी है......शायद इसी तरह अपने लेखन के प्रति मेरा विश्वास प्रगाढ़ और पुख्ता हुआ था।

 इस लम्बी 55 वर्षों का कथा यात्रा के बारे में जब भी मैं सोचता हूँ तो मुझे बचपन बहुत याद आता है। उन दिनों की स्मृतियाँ बहुत कचोटती हैं। ब्रांच  लाइन से सफर करता था तो डिब्बे की खिड़की से बाहर देखता रहता था। पास के पेड़ बहुत जल्दी गुज़र जाते थे पर दूर के पेड़ बहुत दूर तक साथ देते थे। कुछ ऐसा ही मेरी अन्दर की जिन्दगी में हुआ था। हालात बहुत खराब थे।

एक अमीर कहे जाने वाले घर में ग़रीब की तरह रहना, खाना-खाकर भी भूखा उठना, अकुलाहट भरे दुखों के बीच भी हँस सकना, बच्चा होते हुए भी वयस्कों की तरह निर्णय ले सकना-यह मेरी आदत नहीं, मजबूरी थी।

एक दिन बैठक में लगी दो तस्वीरों को दिखाते हुए मेरे बड़े भाई सिद्धार्थ ने कहा-‘‘यह तस्वीर बाबा की है और यह बाबूजी की। तुझे कुछ याद है बाबूजी की ?’’
मैंने चुपचाप सिर हिला दिया था। ‘‘नहीं।’’ तब मैं चौथे दर्जे में पढ़ता था। सिद्धार्थ ने बताया था बाबूजी का हार्टफेल हो गया था तू बहुत छोटा था..... बाबा को मैंने भी नहीं देखा।’’

घर में बहुत सी तस्वीरे थीं.... और घर में हर आदमी ऐसा था जिसने किसी एक को देखा था, शेष की तस्वीरे ही देखी थीं। जब मैं समझदार हुआ तो मुझे सिर्फ वे तस्वीरे ही देखने को मिलीं जो बैठक की दीवारों पर करीने से लटकी हुई थीं। वे तस्वीरें मुझे वंश का परिचय देती थीं- विस्मृतियों में डूबे हुए वंश का। हर बारिश में वे तस्वीरें सीलन से धुँधली पड़ती जा रही थीं- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की तरह। तब मुझे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का पता नहीं था और मेरे बड़े भाई सिद्धार्थ ने दीवार से बाबा की तस्वीर उतारकर उसके सहारे उनकी एक नयी तस्वीर बनानी शुरू की थी।
सिद्धार्थ से मेरा जीता-जागता रिश्ता था ....पर बाबा से एक बहुत ठंडा, आदरपूर्ण और दूर का सम्बन्ध। कई दिनों तक सिद्धार्थ वह तस्वीर बनाते रहे थे। उन्होंने हू-ब-हू वही बना ली थी और जड़वाकर फिर दीवार पर लटका दी थी।  
घर बीते हुए और आगे आने वाले के बीच ही जी रहा था। वर्तमान इन्हीं दो छोरों के सहारे लटका हुआ था। जो बीत गया था, वह बहुत गौरवपूर्ण, गरिमामय और महान था। जो आने वाला था, वह बहुत अच्छा, खुशनुमा और आरामदेह होगा, क्योंकि सिद्धार्थ बहुत होनहार थे।
तभी सिद्धार्थ की मृत्यु हो गयी।
और अमीर कहे जाने वाले घर में ग़रीब की तरह रहना, खाना-खाकर भूखा उठना, अकुलाहट भरे दुखों के बीच हँस सकना, बच्चा होते हुए भी वयस्कों की तरह निर्णय ले सकना मेरी मजबूरी बन गई थी। सिद्धार्थ की तस्वीर भर पास रह गयी। भविष्य से हमारा संबंध टूट गया। सिद्धार्थ से बड़े भाई भविष्य की तलाश में पहले ही उस छोटे-से कस्बे से निकल चुके थे और वर्तमान से जूझ रहे थे।


दूसरे विश्व युद्ध का ज़माना था। सामन्ती घर बुरी तरह ढह चुका था।
माँ सिद्धार्थ के कपड़े निकाल-निकालकर देखतीं और बुरी तरह रोतीं। घर की ऊँची और ठोस दीवारें एक भी सिसकी बाहर न जाने देतीं और दोपहर में माँ सिद्धार्थ के उन्हीं कपड़ों को काट-काटकर मेरे नाप का बनाया करतीं। भविष्य को जीतकर लाने वाले उस मृत योद्धा के कपड़ों की सीवन मैं खुद बैठकर उधेड़ा करता था ताकि माँ को दिक्कत न हो। होली दिवाली पर माँ अपनी पुरानी सहेजकर रखी सिल्क की साड़ी निकाल लातीं घंटों एकाएक कतरन का अंदाज़ लगातीं-‘‘अगर लम्बाई थोड़ी छोटी कर दूँ तो दो कुरते बन जाएंगे, एक तेरा, एक मुन्ना का। मुन्नी के फिराक का घेर भी निकल आयेगा.....।’’

और वर्तमान से जूझते हुए बड़े भाई जब साल भर बाद घर आते थे तो हमें पता चलता था कि बाज़ारों में बहुत-बहुत-सी चीज़ें बिकती हैं....कुछ वह हमारे  लिए लाते थे जिन्हें कल के लिए बक्से में रख दिया जाता था। और घर से नौकरी पर वापस जाकर वह बड़े भाई अपना दूध और अखबार बन्द कर दिया करते थे....आख़िर ख़र्चा कहां से आएगा  ?
वे बाज़ार जिनमें मेरी शौक की चीज़े बिकती थीं, मेरे लिए नहीं थे। बड़े भाई जब अपना पेट काटकर कुछ रुपये बचाते तो उन बाज़ारों की एक निहायत सँकरी खिड़की मेरे लिए खुलती थी, फिर साल भर के लिए बन्द हो जाती थी।

मंडियों में बेशुमार अन्न, घी, गुड़, आलू और कपास थी, पर माँ की धोती की खूंट में एक-दो नोट और कुछ सिक्के थे .....और मैं अन्न लेने जाता था तो दुकानदार बड़ा तराजू पीछे सरकाकर छोटे वाले तराजू से मेरे लिए चीज़ें तौलता था।
दुनिया का यह व्यवहार मुझे अपमानित करता था, मेरी बहुत अच्छी मां और संघर्षरत भाई को अपमानित करता था। वे दोनों दुनियादार थे, मैं नहीं था।
सिद्धार्थ के कपड़े पहनकर मैं भविष्य के सपने देखा करता था। भविष्य के लिए लड़ी जाने वाली मेरी लड़ाई तब बहुत छोटी सीमाओं में महदूद थी। माँ के लिए चश्मा, अपने लिए ज़ीन का गेंद और नई किताबें, भाई के लिए नई चप्पल ....उस बार आए थे तो जूता बहुत घिस गया था।
मेरी माँ के वैष्णव संस्कार मुझे विद्रोही होने से रोकते रहे।
लड़ाई के ज़माने में पढ़ने के लिए भी हमें मिट्टी का तेल मयस्कर नहीं होता था। अब हम कुछ दोस्त शीशियाँ और कीप लेकर रात को म्युनिसिपैलिटी की लालटेनों से तेल चुराने के लिए निकलते थे।

मुझे आज तक अफसोस है कि मैं अपने पढ़ने के लिए कभी नई किताबें नहीं खरीद पाया। जब मेरे साथ लड़के अपने पिता या भाई के साथ किताबों की  दुकान पर आकर कोर्स की नयी-नयी किताबें खरीदते थे तो मेरी आँखों में आंसू आ जाते थे; मेरे साथ कोई नहीं होता था।

चोटें लगती थीं तो मैं दर्द से कराहता और रास्ते में बैठ-बैठ अकेला अस्पताल पहुँचा करता था। और मुझे देखकर वह ज़ालिम कंपाउडर बड़ी बेरहमी से घाव को दबा दिया करता था। मैं दर्द से बिलबिला कर सहारे के लिए कभी-कभी उसकी बाह पकड़ लेता तो वह मेरा हाथ बुरी तरह झटककर डाँटता था और मैं अपने आँसू दबाए-दबाए मरहम पट्टी करवा लेता था। वहां से निकलकर मैं इमली के पेड़ के नीचे बैठकर रो-रोककर अपना दिल हल्का कर लिया करता था।

गर्मी की छुट्टियों के बाद जब स्कूल खुलता था तो वहाँ जाने का कोई उत्साह मन में नहीं होता था। पुरानी किताबें वह भी पूरी नहीं। कापियाँ खरीदने को पैसे नहीं होते थे इसलिए भाई साहब के आने का इन्तजार करता था वह आएँगे तो सरकारी कागज़ के दस्ते-दो-दस्ते लाएँगे तब मेरी बेनाप की कापियाँ बनेगीं। माँ अपनी फटी धोतियों की किनारियाँ लपेट-लपेटकर रखती थीं और स्कूल खुलते ही मेरे लिए उन किनारियों का बस्ता सी देती थीं।

एक आने की रबर या पटरी के लिए माँ से पैसे माँगते हुए दहशत होती थी, क्योंकि माँ बेबसी में झुंझलाया करती थीं। तीन-तीन दिन मैं भूगोल की कक्षा में नहीं जा पाया करता था, रामबाबू जैन की दुकान से दुनिया का नक्शा ख़रीदने के लिए माँ से पैसे मांगने की मेरी हिम्मत नहीं होती थी।

और जब कोई मनचला सहपाठी बताता था कि पिछली दीवाली पर बाबूराम जैन पाँच सौ रुपये जुए में हार गया था तो मुझे बड़ी राहत मिलती थी।

कस्बे में जो अफ़सर आते थे वे बड़ी ठसक से रहते थे। उनके लड़के गुलदस्तों की तरह सजे हुए आते थे और सरकारी स्कूल के मास्टर उन्हें मॉनीटर बनाया करते थे। यह तब होता था जब मैं अपनी सारी उदासीनता के बावजूद दर्जे में ज्यादातर अव्वल आया करता था। यह स्थितियाँ मुझसे बर्दाशात नहीं होती थीं।

रिसेस में लड़के प्याऊ के पास लगे रामभरोसे के खोंचे पर पहुँच जाया करते थे और दबाकर चाट मिठाई खाया करते थे। आलू की सिकती हुई टिकियाँ देखकर मेरा मन बहुत ललचाता था पर मैं प्यासा होते हुए भी उधर रुख नहीं करता था। रिसेस बीतने पर जब टिकियाँ खत्म हो गई होती थीं, तो मैं पानी पीने जाता था और खोंचे में बची हुई उचटती-सी निगाह डालकर लौट आता था।
 
स्कूल में मेरे ईनाम दूसरों को दे दिए जाते थे और फीस के लिए मुझे बहुत बेइज़्ज़त किया जाता था।
जब तक सिद्धार्थ थे मेरी फीस आधी माफ़ हो जाती थी। पर उनके चले जाने के बाद फिर कभी मेरी अर्ज़ी मंजूर नहीं हुई।...आखिर सिद्धार्थ ने मेरे मन में एक संकल्प पैदा किया था और मेरे पाँचवे क्लास के सालाना इम्तिहान में अव्वल आकर वज़ीफा लेने की ठान ली थी, क्योंकि छमाही में मैं अव्वल आ जाता था, पर सालाना में तहसीलदार कोतवाल साहब या इन्सपेक्टर का लड़का ही अव्वल आया करता था। अव्वल आना मेरे लिए पढ़ाई की दृष्टि से उतने संतोष की बात नहीं थी जितनी कि आर्थिक विवशता के दृष्टिकोण से था। आख़िर मैं अव्वल आया, पर वजीफ़ें के रुपयों के लिए सिद्धार्थ मुझसे मरते-मरते तक खत लिखकर पूछते रहे कि मिले या नहीं.....पर उनके मरने तक मुझे मेरा वजीफ़ा नहीं मिल पाया था और जब मिला था तो ‘वारफ़ंड’ में आधे रुपये काट लिए गये थे।

इन छोटी-छोटी विवशताओं ने, जो उस वक्त मेरे छोटे से अस्तित्व के लिए बहुत बड़ी थीं, मुझे जर्जर कर दिया था। साइकिल वाले ने मेरी साइकिल छीन थी। क्योंकि मरम्मत का पैसा नहीं चुका पाया था।
ब्रांच लाइन की रेलगाड़ी ....छोटे-छोटे उदास स्टेशन  और बंजर पड़े खेत.....तारों पर बैठी हुई चिड़ियां.... सूने प्लेटफ़ार्म पर गाड़ी का इन्तजार करते हुए स्टेशन मास्टर।

मैं घर लौट रहा था। ब्रांच लाइन की गाड़ी कूल्हे हिलाती हुई भाग रही थी। खिड़की से मैं सूने प्लेटफ़ार्म को देखता हूँ, तो एक डिब्बे के बाहर ‘हँसिया-हथौड़ा’ का लाल झंडा लगा नजर आता है।  प्लेटफ़ार्म पर उतरकर मैं उत्सुकता से उस डिब्बे के यात्रियों को देखता हूँ। कानुपुर से लौटते हुए मेरे मन में कुछ उग्रता थी। मैं लड़ने के लिए उस डिब्बे में घुस जाता हूँ। भीतर पहुँचकर पता चलता है कि वह ‘झंडा’ क्रान्तिकारी समाजवादी पार्टी का है- भगतसिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद की पार्टी का !
उस डिब्बे में योगेश चटर्जी और यू. पी. पार्टी के सेकेटरी केशव मिश्र सफ़र कर रहे थे। मैं अनाप-शनाप सवाल पूछता हूँ। पता चलता है कि वे लोग किसी मीटिंग के सिलसिले में मेरे शहर ही जा रहे हैं। योगेश चटर्जी मुझसे मेरे घर का पता लेते हैं और तीसरे दिन ही साँकल खड़कती है।
मुझे लड़ाई का एक मोर्चा नज़र आता है, जिस पर मेरे साथ बहुत साथी तैनात हैं। और इलाहाबाद आकर मैं क्रान्तिकारी समाजवादी पार्टी का थोड़ा-बहुत काम करने लगता हूँ। साथ में पढ़ाई जारी है। तमाम किताबें और पर्चे हर रोज़ मिलते हैं, जिनमें हिन्दुस्तान का एक नया नक्शा है....हिन्दुस्तान के  बाहर विदेशों में चल रही अवाम की लड़ाई की खबरें हैं....उन अफ्रीकी और परतंत्र देशों की खबरें हैं, जहाँ जनता अपनी खोई हुई आज़ादी के लिए लड़ रही है।

इलाहाबाद के चौक में घंटाघर के पास है वह पार्टी का दफ़्तर, जिस पर वह झंड़ा फहरा रहा है। जहाँ दूर-दूर जगहों से साइकिलों पर लोग आते हैं और काग़ज़ों अखबारों के बंडल लेकर लौट जाते हैं...सबकी आँखों में सार्थकता की ज्योति है...दिलमें आग है।  


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