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कृष्ण की आत्मकथा - द्वारका की स्थापना

मनु शर्मा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :424
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6515
आईएसबीएन :81-7315-267-5

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‘कृष्ण की आत्मकथा’ का तीसरा भाग

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Krishna ki Atmakatha - Dwarika ki Sthapana - A hindi book by Manu Sharma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कृष्ण के अनगिनत आयाम हैं। दूसरे उपन्यासों में कृष्ण के किसी विशिष्ट आयाम को लिया गया है। किन्तु आठ खण्डों में विभक्त इस औपन्यासिक श्रृंखला ‘कृष्ण की आत्मकथा’ में कृष्ण को उनकी संपूर्णता और समग्रता में उकेरने का सफल प्रयास किया गया है। किसी भी भाषा में कृष्णचरित को लेकर इतने विशाल और प्रशस्त कैनवस का प्रयोग नहीं किया गया है।
यथार्थ कहा जाए तो ‘कृष्ण की आत्मकथा’ एक उपनिषदीय ग्रन्थ है। श्रृंखला के आठ खण्ड इस प्रकार है :

नारद की भविष्यवाणी
दुरभिसंधि
द्वारका की स्थापना
लाक्षागृह
खांडव दाह
राजसूय यज्ञ
संघर्ष
प्रलय

मैंने जीवन भर कभी तर्क में विश्वास नहीं किया ; क्योंकि तर्क अपने विरुद्ध स्वयं खड़ा हो जाता है। वह मानव बुद्धि का परम चतुर किंतु आदर्शहीन शिशु है। उसका जन्म भी उस समय हुआ था जब सत्य और झूठ की पहली लड़ाई हुई थी। तब से वह झूठ का ही प्रवक्ता रहा है। कभी-कभी वह सत्य के पक्ष में भी खड़ा हो जाता है। केवल इसलिए कि वह सत्य से प्रतिष्ठा पाता है और झूठ से जीवन रस।

वस्तुतः सत्य को उसकी आवश्यकता भी नहीं है ; सत्य तो स्वयं भासित है, स्वयं प्रमाण है। कभी-कभी वह बादलों के घेरे में आ जाता है, तब हम उसे छिपता हुआ देखते हैं। वास्तव में यह हमारा दृष्टि भ्रम है। बादलों के छँटते ही उसकी ज्योति अपने स्थान पर स्वतः चमकती दिखाई देने लगती है।

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