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हे चो का यात्रा-वृत्तांत

जगदीश चंद्रिकेश

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :76
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 6436
आईएसबीएन :81-237-4924-2

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नौवीं सदी में गुम हुए चीन के एक गुफा मठ में बंद हे चो का यात्रा-विवरण एक हजार साल बाद सन् 1908 में ही बाहर आ सका। जर्मन और अंग्रेजी के एक अनुवाद के बाद हिंदी में पहली बार प्रस्तुत है यह यात्रा-विवरण....

He Chow ka Yatra Vritant Aathwin Sadi Ka Bharat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

चीनी बौद्ध यात्री ह्वान सांग जब सन् 629 से लेकर 645 तक भारत में था, उस समय सम्राट हर्षवर्धन का साम्राज्य चरमोत्कर्ष पर था। सर्वत्र सुख-शांति थी, लेकिन उसके बाद पश्चिमी भारत में अरबों के तथा उत्तर-पश्चिम में शक व हूणों के आक्रमणों ने भारत के राजनीतिक व सामाजिक इतिहास को ही बदल डाला। ह्वान सांग के कुल अस्सी साल बाद कोरियायी बौद्ध भिक्षु हे चो जब सन् 724 में भारत आता है तो वह ह्वान सांग की बतायी तस्वीर से भारत की तस्वीर को बिलकुल भिन्न पाता है। उल्लेखनीय यह है कि विदेशी आक्रमणों से ग्रस्त, धुंधलाए, अस्पष्ट दौर—आठवीं शताब्दि के इतिहास का हमारे यहां नितांत अभाव है। हमें अपने बारे में इस दौर की जो भी जानकारी मिलती है, वह मुस्लिम इतिहास या आक्रांताओं के उल्लेखों से मिलती है, ऐसे में हे चो का यह भारत के पांचों क्षेत्रों की तीर्थ यात्रा का विवरण उसके आंखों देखे भारत का एक समसामयिक साक्ष्य तो है ही, एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज भी है, साथ ही मध्य एशिया का भी, जो अब तक प्रकाश में नहीं आ सका है।

नौवीं सदी में गुम हुए चीन के एक गुफा मठ में बंद हे चो का यह यात्रा-विवरण एक हजार साल बाद सन् 1908 में ही बाहर आ सका। जर्मन और अंग्रेजी के एक अनुवाद के बाद हिंदी में पहली बार प्रस्तुत है यह यात्रा-विवरण।

हिंदी अनुवादक की अपनी बात


हे चो का यह ‘भारत के पांचों क्षेत्रों की तीर्थ-यात्रा का विवरण’ भारत स्थित कोरिया दूतावास की द्विमासित पत्रिका कोरियन न्यूज में सन् 1984 में धारावाहिक रूप से चार अंकों में प्रकाशित हुआ था। फाहियान और ह्वान सांग के यात्रा-वृत्तांतों के मैं अंग्रेजी और हिंदी अनुवाद पढ़ ही नहीं चुका था, बल्कि अपने लेखन की आधार-सामग्री कनिंघम तथा अन्य पुरातत्वविदों की खोजों के विवरण से लेकर लेखन कार्य भी कर चुका था। हे चो के यात्रा-वृत्तांत की सामग्री चौंकाने वाली थी। ह्वान सांग और हे चो के विवरणों में एक व्यापक अंतर्विरोध और वैविध्य ने मुझे आकर्षित किया।

अंग्रेजी में प्रकाशित इस वृत्तांत का हिंदी अनुवाद करते समय मेरा भरसक प्रयास रहा है कि अनुवाद पठनीय हो और उसकी व्याख्या (पाद-टिप्पणियों) में भाषा विज्ञान, पुरातत्व और इतिहास की अध्ययनवृत्ति की अद्यतन उपलब्धियों का समावेश हो तथा अनुवाद मानक स्तर का हो। कोष्ठक में अलग प्रदर्शित पाद-टिप्पणियां मेरी हैं, जो मेरी जानकारी के अनुसार अद्यतन हैं बौद्ध स्मारकों : कुशीनगर और सारनाथ संबंधी कुछ टिप्पणियां मैंने उन स्मारकों को देखने के बाद की हैं।

अनुवाद को पठनीय बनाने के साथ-साथ, विश्वसनीय एवं स्तरीय बनाने के दायित्व का वहन करके श्री अनंतराम गौड़ ने मुझे जो कृतार्थ किया है, उसके लिए मैं आभारी हूं। श्री गौढ़ जाने-माने लेखक,पत्रकार हैं और भारत स्थित ब्रिटिश उच्चायोग के सूचना विभाग में हिंदी संपादक रहे हैं। यात्रा-वृत्तांत में आए चीन के स्थान व व्यक्ति नामों के सही उच्चारण सहित हिंदी में लिखने में मुझे श्री त्रिनेत्र जोशी का अमूल्य सहयोग मिला है, जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। श्री जोशी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से चीनी भाषा में स्नातक हैं और नौ वर्ष तक पेइचिंग में भाषा विशेषज्ञ के तौर पर कार्यरत रहे हैं।

मुझे इस बात का भी संतोष है कि हे चो के इस यात्रा-वृत्तांत के माध्यम से मैं अपने देश की आठवीं शताब्दी के हलचल भरे दौर के इतिहास की विलुप्त कड़ी को सामने ला सका हूं। उल्लेखनीय है कि हमारे इतिहास के पास कोई भी उल्लेख या साक्ष्य नहीं है जो आठवीं शताब्दी की राजनीतिक या सामाजिक स्थितियां बता सके; पश्चिमी भारत में अरबों और उत्तरी भारत में हूणों व शकों के आक्रमण की बात बता सके। यह बात भी हमें अरबों का इतिहास या फिर हे चो बताता है, जो 725 में पश्चिमी भारत में पहुंचा था कि सन् 712 में मुहम्मद बिन कासिम ने सिंध के राजा दाहिर पर आक्रमण किया। हे चो बताता है, कि यहां के आधे देश पर अरबों ने कब्जा कर रखा था, यहां तबाही मचा रखी थी। हां, वटपी का हमारे पास एक पुरालेख जरूर है, वह भी मात्र इतना ही बाताता है कि सन् 756 में अरबों के आक्रमण को विफल कर दिया गया।
अस्तु, आठवीं सदी के भारत और मध्य एशिया की जानकारी देने के लिए हम हे चो के आभारी हैं। आशा है कि हे चो की इस जानकारी के प्राच्य भारतीय इतिहास के अध्येता लाभान्वित होंगे।

जगदीश चंद्रिकेश

भूमिका*
1


भारत के अत्यंत लंबे इतिहास में शायद ही ऐसा कोई समय रहा हो जब उसका संबंध सुदूर विदेशों से न रहा हो। ये संबंध व्यापारिक भी थे और सांस्कृतिक भी। इस प्रकार के संबंधों में विचारों का आदान-प्रदान बहुत स्वाभाविक होता है। पुरातात्विक स्रोतों के आधार पर इन संबंधों का इतिहास तो कम से कम पांच हज़ार साल पुराना है परंतु साहित्यिक स्रोतों की श्रृंखला देखें तो भारत और उसके पश्चिमी देशों के संपर्कों को ऋग्वेद और ज़ेद अवस्ता में ढूंढा जा सकता है। ये दोनों ही रचनाएं 3500 साल से ज्यादा पुरानी नहीं हैं। लगभग 2500 वर्ष पूर्व यूनानी इतिहासकार हैरोडोटस ने भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र की तत्कालीन सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक स्थितियोंपर उपयोगी टिप्पणियों की। इसी श्रृंखला में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कदम मैगेस्थनीज़ का भारत आगमन था। यह यूनानी राजदूत मौर्य युग में लगभग 2300 वर्ष पूर्व भारत आया था और उसने इंडिका नामक ग्रंथ लिखा, जो तत्कालीन भारत का रोचक विवरण प्रस्तुत करता है। मैगेस्थनीज और उसकी रचना ने एक ऐसी परंपरा का सूत्रपात किया, जिसका अंत आज तक नहीं हुआ। यूनान के अलावा यूरोप के अन्य क्षेत्रों जैसे फ्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी, पुर्तगाल, हॉलैंड, इटली, रूस इत्यादि के उत्सुक आगंतुकों: पश्चिमी एशिया के अनेकानेक अरबी, ईरानी और तुर्की यात्रियों; पूर्वी एशिया में चीन, जापान, कोरिया; और तिब्बत से आए विभिन्न तीर्थ यात्रियों ने भारत संबंधी विशद संस्मरण और विवरण छोड़े हैं। ये सभी इतिहास लेखन के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इनकी अपनी सीमाएं भी हैं और इतिहासकारों ने संवेदनशील तरीकों से इनके अध्ययन की कार्यविधि विकसित की है। ज़ाहिर है कि विदेशियों के इन वृत्तांतों को अक्षरशः स्वीकार नहीं किया जा सकता। फिर भी वैकल्पिक स्रोतों के रूप में इनके महत्त्व को नकारा भी नहीं जा सकता। आठवीं सदी के कोरियाई बौद्ध भिक्षु हुई शाओ (हे चो) का यात्रा-वृत्तांत भी इसी श्रेणी की पर्याप्त सहायक रचना है।
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*इस भूमिका के खंड 2 से 4 के लेखन में उपयोगी जानकारी और सहयोग देने के लिए मैं अपनी कोरियाई शोध-छात्रा जे-उन शिन का विशेष रूप से आभारी हूं।

2


हुई शाओ का जन्म सिल्ला (या शिल्ला) युगीन कोरिया में संभवतः 704 ईं. में हुआ था। वे लगभग 16वर्ष की युवावस्था में थांग वंशीय चीन चले गए। चूँकि सिल्लाई कोरिया में उनके आरंभिक जीवन से संबधित दस्तावेज़ नहीं मिलते अतः थांगी चीन पहुंचने के अनेक कारणों की भी जानकारी नहीं मिलती। अधिक संभावना तो यही लगती है कि बौद्ध धर्म के अध्ययन की उत्सुकता ने ही उन्हें चीन जाने के लिए प्रेरित किया हो। सिल्ला युगीन कोरिया में विशेष रूप से ऐसी कुछ प्रवृत्ति सी बन रही थी कि बौद्ध भिक्षु अपनी शिक्षा और बौद्ध सूत्रों को प्राप्त करने के लिए अक्सर चीन चले जाते थे। उनमें से कुछ चीन में ही रह जाते थे, कुछ भारत की ओर निकल जाते थे और कुछ कोरिया वापस लौटकर बौद्ध संघ में ऊंचे पदों पर नियुक्त हो जाते थे।

हुई शाओ ने थांग वंशी चीन में ग्वांग-जाऊ (आधुनिक कैंटन) में वज्रबोधि (671-741ई.) और उनके शिष्य अमोघवज्र (705-774 ई.) के पास बैठकर तांत्रिक बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। वज्रबोधि का जन्म दक्षिण भारत में हुआ था और वे भारतीय बौद्ध भिक्षु के रूप में प्रसिद्ध थे। वे अपने शिष्य अमोघवज्र को साथ लेकर श्रीलंका और सुमात्रा होते हुए 719 ईं. में ग्वांग-जाउ पहुँचे। वहां वे बहुत थोड़े समय के लिए ही रुके थे और उसी दौरान उनकी मुलाकात हुई शाओ से हुई। उसके बाद वज्रबोधि ग्वांग-ज़ाउ से निकल कर थांग चीन की राजधानी छांगन (आधुनिक ज़ियान) पहुंचे जहां उन्होंने तांत्रिक बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। वज्रबोधि ने अपना अधिक समय धार्मिक अनुष्ठानों को संपन्न करने तथा बौद्ध ग्रंथों का संस्कृति से चीनी भाषा में अनुवाद करने में लगाया।
अपने गुरु वज्रबोधि के परामर्श पर हुई शाओ ने संभवतः 723 ई. में भारत की ओर प्रस्थान किया। हालांकि यह निश्चित नहीं है कि वह थल मार्ग से अथवा समुद्री मार्ग से भारत पहुंचा, फिर भी अधिक संभावना यही है कि उसने समुद्री मार्ग ही अपनाया हो। भारत पहुंचकर उसने लगभग चार वर्ष बिताए। इस दौरानवह जगह-जगह गया। उसके बाद गु-ज (कूचा, जो अन-सी प्रांत का महत्त्वपूर्ण केंद्र था) होता हुआ वह 727 ईं. में छांगन वापस लौट गया। हुई शाओ ने वांगओ—शिओन-छुक-गुक-ज़ियोन (अथवा एक अन्य उच्चारण में वांग-वु-तियान-ज्हू–गुओ-तियान) अर्थात् भारत के पांच क्षेत्रों की तीर्थ यात्रा के संस्मरण शीर्षक से अपना यात्रा-वृत्तांत लिखा।

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